सूर्योपासना का महापर्व: लोकपर्व छठ

सूर्योपासना का महापर्व: लोकपर्व छठ

आस्था की भावभूमि भारत, जहाँ संस्कृतियों की महानदी आकर एकाकार हो जाती है, जहाँ जीवन त्योहारों, लोकपर्वों, परंपराओं की रंगोली से सदैव सुशोभित होता रहता है, ऐसे’ विविधता में एकता ‘ वाले देश की अपनी विशिष्टता है- विविध प्रांतों की अपनी-अपनी क्षेत्रीय संस्कृति, उस संस्कृति के अनुरूप मनाए जाने वाले व्रत- त्यौहार और लोक पर्व। इन विविध स्वरूपों में रचे- बसे लोकपर्वों में एक प्रमुख लोकपर्व ‘छठ पूजा’ भी है, जो मुख्यतः बिहार , पूर्वी उत्तर प्रदेश, झारखंड और पड़ोसी राष्ट्र नेपाल के तराई क्षेत्र में हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। आश्चर्य तो इस बात में भी नहीं कि प्रांतों की सीमा को लाँघते हुए जैसे-जैसे इन प्रदेशों के लोग भारत के अन्य प्रांतों में बसते गए, उनके साथ यह लोकपर्व भी वहाँ के सामाजिक- सांस्कृतिक जीवन का हिस्सा बन गया। प्रांतों की बात कौन कहे, गंगा की लहरों से इस पावन पर्व का फैलाव अमेरिका के पोटेमैक नदी की लहरों तक, मॉरीशस से लंदन, ऑस्ट्रेलिया की भूमि तक भी प्रसारित होता गया। एक विशिष्ट सांस्कृतिक क्षेत्र के लोक पर्व के विश्वव्यापी विस्तार का एक प्रमुख कारण इस लोक पर्व की अपनी सरल संरचनात्मक विशिष्टता तो है ही, साथ ही परंपराओं से संसतियों में इस लोक पर्व के प्रति प्रवाहित होती श्रद्धा और आस्था भी एक महत्वपूर्ण कारक है।

यह लोकपर्व प्रकृति की पूजा का उद्घोष करता है और इस कारण मूर्तिपूजा से इतर इसमें व्रती ऊर्जा के संधानक सूर्य की पूजा करते हैं। साथ में देवी षष्ठी, जिन्हें भगवान दिनकर की बहन के रूप में जाना जाता है, की भी पूजा की जाती है। देवी षष्ठी को माता पार्वती का भी एक रूप माना जाता है, जिनकी उत्पत्ति प्रकृति के छठे अंश से हुई थी। उन्हें बालकों की रक्षा करने वाले भगवान विष्णु द्वारा रची माया भी माना गया है।बालक के जन्म के छठे दिन भी षष्ठी मैया की पूजा की जाती है ताकि बच्चे के ग्रह -गोचर शांत हो जाएँ। दरअसल माँ षष्ठी देवी माँ कात्यायनी का ही रूप है और माँ कात्यायनी दुर्गा का छठा अवतार है।’छठ’ शब्द षष्ठी का ही अपभ्रंश है। संध्या अर्ध्य में जहाँ सूर्य की पत्नी प्रत्यूषा( सूर्य की अंतिम किरण), वहीं दूसरी ओर प्रातः काल के अर्ध्य में सूर्य की पत्नी उषा (सूर्य की पहली किरण)-दोनों का वंदन किया जाता है। सूर्य, उनकी बहन छठी मैया ,जल,उषा, प्रकृति को समर्पित यह पर्व पृथ्वी पर जीवन की देयताओं को बहाल करने के लिए धन्यवाद ज्ञापन है , वहीं इनसे कुछ शुभकामनाएँ प्राप्त करने का अनुरोध भी है।

चार दिवसीय यह त्योहार भाईदूज से तीसरे दिन से अर्थात कार्तिक शुक्ल की चतुर्थी से प्रारंभ होता है और सप्तमी तिथि को समाप्त हो जाता है। कार्तिक मास के अलावा चैत मास में (होली के ठीक 19वें दिन नहाए खाए) छठ पर्व का अनुष्ठान व्रती करते हैं। नहाए – खाए चतुर्थी तिथि को संपन्न होता है, जिसमें सुबह उठकर पूरे घर की साफ-सफाई के बाद व्रती स्नान कर, सूर्य देव को जल चढ़ा कर, अरवा चावल, चने की दाल, लौकी की सब्जी को प्रसाद के रूप में पकाकर तैयार करता है। कई जगह बचका या आलू- फूलगोभी की सब्जी आदि भी पकाई जाती है। लेकिन पूरा खाना सेंधा नमक मेंऔर बिना लहसुन -प्याज के पकता है,जिसे व्रती के खाने के बाद पूरे परिवार को प्रसाद के रूप में परोसा जाता है।आज से ही रसोई घर में पहले से प्रयुक्त हो रहे किसी भी सामान का प्रयोग छठ पूजा के लिए नहीं किया जाता। पंचमी तिथि को ‘खरना’के लिए व्रती पूरे दिन निर्जल रहकर शाम को मिट्टी के चूल्हे पर आम की लकड़ी की जलावन से गुड़ या गन्ने की रस में खीर और रोटी पकाता है। समय की बदलती आवश्यकताओं के अनुरूप अब गैस चूल्हे का भी प्रयोग प्रसाद तैयार करने के लिए किया जाने लगा है।संध्या समय माता षष्ठी का आह्वान कर चिनिया केले के साथ, केले के पात पर रोटी और खीर का भोग लगाया जाता है।घर में मौजूद सभी परिजन उस पूजा स्थल पर आकर अपना शीश नवाते हैं, छोटे वय वाले व्रती का चरण स्पर्श करते हैं और तत्पश्चात व्रती एकांत में भगवान को चढ़ाए गए उस नैवेध से कुछ अंश लेकर ग्रहण करते हैं और शेष बचे अंश को परिवारजनों के बीच प्रसाद के रूप में बाँट दिया जाता है।

षष्ठी तिथि ,संध्या अर्घ्य का दिन,जो सबसे कठिन दिन है पूरे पर्वकाल का, व्रती पूरे दिन निर्जल रहते हैं, सुबह से ही आटे और गुड़ से ठेकुआ नामक प्रसाद तैयार करने में सहयोगियों के साथ लगे रहते हैं।कितने परिवारों में तो अर्धरात्रि से ही इस प्रसाद को बनाने का कार्य प्रारंभ हो जाता है। ठेकुआ बनाने के बाद सारे फलों, सब्जियों, पूजा में प्रयुक्त होने वाले अन्य सामान यथा दौरा, सूप (बाँस से निर्मित)आदि को जल से धोकर सिंदूर और अरपन(हल्दी और चावल का मिश्रण) लगाया जाता है और दौरा तथा सूप में फल रखने का काम प्रारंभ हो जाता है ताकि नियत समय पर पूजा की सारी तैयारियाँ पूर्ण हो जाएँ। अर्ध्य व्रती तालाब, नदी , पोखर या अपने ही घर में नानाविध प्रकार से जल संचय कर देते हैं। हाथों में सूप, शरीर आधा जल में डूबा हुआ, ध्यान डूबते हुए सूर्य पर केंद्रित, मन प्रार्थना में निमग्न, साथ में परिजन-प्रार्थनारत और अर्ध्य देने के लिए व्रती तक सूप पहुँचाते हुए, सूर्य देव और षष्ठी मैया की प्रार्थना में लोकगीत गाती हुई महिलाएँ-अद्भुत और अनुपम दृश्य आँखों को ही नहीं मन को भी बाँध लेता है। कुछ लोग जमीन पर बार-बार लेट कर, जिसे कष्टी देना कहते हैं, ऐसा करते हुए अपने घर से छठी मैया के घाट तक जाते हैं। यही दृश्य, सप्तमी तिथि को भोर में, आज उदयमान सूरज को अर्घ्य देना है। सूर्य उगने के पहले ही व्रती और उनके परिजन घाट पर पूजा के साजो -सामान के साथ पहुँच जाते हैं। नदी किनारे का शीतल वातावरण, लोकगीतों की उठती स्वर लहरियाँ, टिमटिमाते दिए, कतार में सजे सूप- दौरे, जल निमग्न व्रतियों के जुड़े हाथ, परिजन भी पूर्व दिशा की ओर हाथ जोड़े सूर्य को मानो दृष्टिगत होने के लिएआमंत्रित करते हुए, संपूर्ण वातावरण आस्था और भक्ति से सराबोर-अति मनाहला्दक चित्र। अचानक से पूर्व दिशा से एक लालगोला निकलता है और परिजन व्रती तक सूपों को पहुँचाने का कार्य प्रारंभ कर देते हैं, व्रती की परिक्रमा प्रारंभ होती है, परिवार और इष्ट मित्र गाय के कच्चे दूध से सूप पर अर्ध्य देना प्रारंभ करते हैं। इसी के साथ पूजा की सारी विधियों की समाप्ति होती है, व्रती पीपल के पेड़ पर जाकर जिसे’ ब्रह्म बाबा’ कहते हैं, जल चढ़ाते हैं,तत्पश्चात अदरक – गुड़ या खरना की खीर या रोटी या सूप से कोई प्रसाद ग्रहण कर पारण करते हैं । इस तरह नहाए- खाए के दिन के बाद पारण को जाकर व्रती पहली बार नमक का सेवन करते हैं। इस व्रत से जुड़ा एक बड़ा ही मनोहर नियम ‘कोसी भरने’ का है, जिसमें मिट्टी के बने हाथी, मिट्टी के दोने को फल और ठेकुआ से सजाकर, पाँच या सात या ग्यारह ईखों को किसी तौलिए या लाल- पीले कपड़े में पाँच फल रखकर हाथी के ऊपर बाँध दिया जाता है। इसके चारों ओर दिए जलाकर लोक गीत गाए जाते हैं और प्रणाम किया जाता है। हाथी और मिट्टी के दोने की संख्या परिवार की परंपराओं के ऊपर निर्भर करती है। हर छठ व्रती इस विधि को करे ही, यह भी आवश्यक नहीं। इस विधि की निर्भरता परिवार की परंपराओं पर होती है। इस त्योहार से जुड़ा एक महत्वपूर्ण दिन वह भी है- जिस दिन खरना की रोटी के लिए और ठेकुआ बनाने के लिए गेहूँ को धोकर सुखाया जाता है,पूरा चौकन्ना होकर, कि कहीं कोई पशु या पक्षी सूखते हुए गेहूँ में मुँह डालकर उसे जूठा न कर दे। गेहूँ को पिसवाते समय भी पूरी स्वच्छता और नियमों का ध्यान रखा जाता है। इस व्रत के मूल सिद्धांत में ही शामिल है- स्वच्छता और पवित्रता।

छठ पर्व के कुछ नियमों में लघु पैमाने पर जिलों की स्थानीयता का भी प्रभाव पड़ता है और अलग-अलग स्थानों(जिलों) में नियमों में थोड़ा फेरबदल देखने को मिलता है। बिहार के नालंदा जिले में यह व्रत मात्र 3 दिनों का होता है। नहाए -खाए और खरना दोनों एक ही दिन आयोजित होते हैं। कुछ जिले, यथा-बेगूसराय,सारण, छपरा, मुंगेर, लखीसराय,गोपालगंज, सिवान, मुजफ्फरपुर आदि में हठी छठ का प्रावधान है, अर्थात् किसी भी हालात में व्रती किसी भी साल उपासना के क्रम को नहीं तोड़तेऔर अगर कभी किसी कारणवश यह क्रम टूट गया तो फिर हमेशा के लिए उनका व्रत छूट जाता है। दूसरी ओर बिहार के आरा, गया, पटना,जहानाबाद आदि जिले अपने सुविधानुसार व्रती को इस उपासना को करने की छूट देते हैं, प्रत्येक साल करना आवश्यक नहीं। गया, जहानाबाद,बेगूसराय, मुंगेर, नालंदा आदि जिलों में कोसी पूजन का प्रचलन ही नहीं;वहीं छपरा , मुजफ्फरपुर आदि जिलों में इसकी अत्यंत महत्ता है। इन छोटे-मोटे विभिन्नताओं को परे रखकर कहा जा सकता है कि इस व्रत की मूल आत्मा हर जगह समरूप है।

इस प्रकृति पर्व के संदर्भ में अनेक ऐतिहासिक कहानियाँ प्रचलित हैं।एक प्रचलित कथा राजा प्रियवंद से संबंधित है जिनकी कोई संतान नहीं थी और उन्होंने महर्षि कश्यप के द्वारा पुत्र प्राप्ति के लिए यज्ञ करवाया।यज्ञोपरांत आहुति के लिए बनाई गई खीर उनकी पत्नी मालिनी द्वारा खाए जाने के पश्चात पुत्र तो पैदा हुआ, लेकिन मृत।राजा इस तरह शोक निमग्न हुए कि वे अपने प्राण त्यागने लगे ।उसी समय भगवान ब्रह्मा की मानस पुत्री देवसेना प्रकट हुई और उन्होंने राजा से उनकी पूजा करने और लोगों को भी इस हेतु प्रेरित करने की बात कही। राजा ने पूजन किया और उन्हें पुत्र प्राप्त हुआ। देवी देवसेना ने अपना परिचय देते हुए राजा से कहा था कि वह सृष्टि के मूल प्रवृत्ति के छठे अंश में उत्पन्न हुई हैं। इसलिए षष्ठी कहलाती हैं। कहा जाता है कि यह पूजा कार्तिक शुक्ल मास की षष्ठी तिथि को ही हुई थी।

एक कथा राम- सीता जी से भी जुड़ी हुई है। पौराणिक कथाओं के मुताबिक, जब राम- सीता 14 वर्ष के वनवास के बाद लौटे तो उन्होंने ऋषि- मुनियों के आदेश पर रावण- वध का पाप धोने के लिए यज्ञ करने का फैसला लिया। मुद्गल ऋषि को पूजा के लिए आमंत्रित किया गया और उन्होंने कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की छठी तिथि को सूर्य देवता की उपासना करने का आदेश दिया। माता सीता मुद्गल ऋषि के आश्रम में 6 दिन रह कर सूर्य देव की पूजा की थीं।

एक मान्यता यह भी है कि देवमाता अदिति ने प्रथम देवासुर संग्राम में देवताओं की हुई पराजय के बाद तेजस्वी पुत्र प्राप्ति की कामना से देवारण्य के देव सूर्य मंदिर में छठी मैया की उपासना की थी। महाभारत काल के प्रमुख व्यक्तित्वों में कर्ण और माता द्रौपदी का भी नाम सूर्योपासना के लिए लिया जाता है।जहाँ कर्ण प्रतिदिन जल में खड़ा होकर इसी तरह सूर्य को अर्ध्य देता था, वहीं दूसरी ओर माता द्रौपदी ने अपनी संतानों और परिवार की मंगलकामना के लिए इस संपूर्ण व्रत का पालन किया था। वास्तव में वैदिक संस्कृति से ही सूर्य पूजन की परंपरा देखने को मिलती है। ऋग्वेद में तो सूर्य पूजन का स्पष्ट उल्लेख है।

छठ की चर्चा हो और देश के 12 प्रमुख सूर्य पीठों में से एक बड़गाँव, बिहार के नालंदा जिले में अवस्थित, छठ व्रतियों के श्रद्धा के आकर्षण केंद्र की चर्चा ना हो, भला यह कैसे संभव है ।इसकी महत्ता इसी से समझी जा सकती है कि नीतिश कुमार( तत्कालीन मुख्यमंत्री, बिहार )ने यहाँ के छठ मेला को राजकीय मेला का दर्जा प्रदान किया है। द्वापरकालीन इस पूजा- स्थल से कृष्ण एवं जामवंती के पुत्र राजा साम्ब के कुष्ठ रोग (शापग्रस्त होने के कारण) से मुक्ति की कथा जुड़ी हुई है। बड़़गाँव में 49 दिनों तक सूर्योपासना, आराधना और अर्घ्यदान के उपरांत उन्हें व्याधि से मुक्ति मिली ।इसलिए आज भी लोगों में यह विश्वास है कि बड़़गाँव में की गई सूर्योपासना एवं छठ मैया की आराधना लोगों को कुष्ठ एवं अन्य चर्म रोगों से मुक्ति दिलाता है।चीनी यात्री ह्वेनसांग की डायरी में भी इस सूर्यपीठ का वर्णन मिलता है। यहाँ पाल राजा नारायण पाल ने दसवीं सदी में भव्य सूर्य मंदिर का निर्माण करवाया था ,जो 1939 ईस्वी में भूकंप में ध्वस्त हो गया था। बाद में दूसरे स्थान पर मंदिर का निर्माण करवाया गया और पुराने मंदिर की प्रतिमाओं को उस मंदिर में स्थापित किया गया। यह भी कहा जाता है कि सूर्य के आदेशानुसार राजा सांब द्वारा अन्य 11 स्थानों पर भी अगले 11 वर्षों में सूर्यपीठ की स्थापना की गई। ये स्थान हैं- लोलार्क (वाराणसी, यूपी) चोलार्क, अलार्क (पालीगंज ,बिहार) अंगारक या अंगारी ( नालंदा, बिहार ), पून्यार्क (बाढ़, बिहार), देवार्क(बिहार, औरंगाबाद ), कोणार्क(उड़ीसा ), ललितार्क, यामार्क, खखोलार्क और उतार्क में।

किसान और ग्रामीण जीवन को प्रधानता देने वाली यह उपासना पद्धति जनसामान्य की अपनी उपासना पद्धति है, जिसमें आडंबर का कोई स्थान नहीं। व्रती स्वयं ही अपना पुरोहित होता है, आवश्यकता पड़ती है तो सिर्फ पारिवारिक और सामाजिक सहयोग की। यह व्रत बाँस से विभिन्न प्रकार की वस्तुएँ बनाने वाले उन लोगों को भी महत्ता प्रदान करता है जो सामाजिक दृष्टिकोण से निम्न कोटि के समझे जाते हैं। किसान के खेत एवं बाग- बगीचों में जो भी उपजा, वह सूर्य देवता और छठी मैया की उपासना का साधन बन गया। चाहे वह केला, अमरूद, अनार, नारियल, गागर नींबू, सिंघाड़ा फल ,गन्ना हो या पात सहित गाजर, मूली, हल्दी, अदरक,ओल आदि हो। पूजन के मुख्य अवयवों में अंकुरित चना या कुशी केराव को भी अति महत्वपूर्ण स्थान प्रदान किया गया है।सामान्य से सामान्य वस्तु या सामान्य से सामान्य व्यक्ति को भी विशिष्ट महत्व देना सिखाता है यह लोकपर्व। विशिष्ट सामाजिक संदेश इस पर्व का- न जाति-पाति का बंधन और न ही लिंग का। दलित हो या स्वर्ण, स्त्री हो या पुरुष, हिंदू हो या अन्य कोई, सभी इस उपासना को करने के लिए स्वतंत्र हैं और एक ही घाट पर सभी अपनी विभिन्नताओं के साथ सूर्य को अर्घ्य देने के लिए मौजूद रहते हैं। अन्य पर्वों की भाँति यह पर्व भी आर्थिक गतिविधियों को बढ़ाकर समाज के कमजोर- से- कमजोर वर्ग के लोगों को भी आय का साधन मुहैया करवाता है।व्रत के लिए प्रसाद निर्माण का कार्य हो या व्रती के अन्य कार्यों में सहयोग देना हो या छठ घाट की व्यवस्था और साफ- सफाई का कार्य हो ,सभी जगह पारिवारिक और सामाजिक संगठन की ताकत इस पर्व में देखते ही बनती है।

यह पर्व उदयगामी सूर्य के साथ – साथ अस्ताचलगामी सूर्य की उपासना करना भी सिखाता है, और ऐसा अध्यात्मिक संदेश देने वाला यह अपने -आप में अनोखा पर्व है। जीवन के उत्थान- पतन दोनों को समरूपता से स्वीकार करना, दोनों में ही समभाव से रहना, दोनों के ही प्रति तटस्थ रहकर अपनी ऊर्जा को सकारात्मकता प्रदान करना-यही तो है इस व्रत का अध्यात्मिक संदेश। यह व्रत हमें प्रकृतिगत संदेश भी प्रदान करता है। यूँ तो हिंदू धर्म ने ही प्रकृति की जिन- जिन चीजों में जीवनोपयोगी उपयोगिता देखी ,उसने आभार प्रकट करने हेतु उन सबों के प्रति अपना श्रद्धा भाव प्रस्तुत कर उन्हें नमन किया। फिर चाहे वह पशु या वनस्पति हो, पहाड़ या नदी हो , या फिर आकाशीय पिंड।सूर्य तो इस पृथ्वी पर जीवन का ही आधार है और इस जीवनाधार के प्रति ही कृतज्ञता अर्पित करता है – महाआस्था का यह महापर्व।

इस पर्व की उपासना पद्धति का चिकित्सकीय महत्व भी है। समय-समय पर शरीर और रसायन विज्ञान से जुड़े विद्वानों ने इस संदर्भ में अनेक तथ्यों की पुष्टि की है। यथा-लंबे उपवास के प्रथम दिवस पर लौकी, चावल और चना दाल का सेवन व्रती को उच्च मात्रा में प्रोटीन , कार्बोहाइड्रेट और कुछ महत्वपूर्ण विटामिन प्रदान कर देता है जो उसके 36 घंटे के निर्जल उपवास काल में – औटोफैगी प्रक्रिया में सहायता प्रदान करता है।साथ ही बीमार कोशिकाओं का उपचार और क्षतिग्रस्त कोशिकाओं का निर्माण इस 36 घंटे के निर्जल अवधि में सुविधा पूर्ण ढंग से होता रहता है, जो शरीर की रोग निरोधक क्षमता की संपूर्ण व्यवस्था को सुचारू बनाने में सहायक होता है। कार्तिक मास की षष्ठी और सप्तमी तिथि को क्रमशः सूर्यास्त और सूर्योदय के समय जल में खड़े होकर सूर्य किरणों का सेवन शरीर में जहाँ नई कोशिकाओं के निर्माण में सहायक होता है ,वही कैंसर एवं चर्म रोगों से लड़ने में भी सहायता प्रदान करता है। इसकी पुष्टि सोलर बायोइलेक्ट्रिसिटी के अंतर्गत किए गए अध्ययन करते हैं। हिंदू धर्म की वैज्ञानिकता देखिए, विज्ञान और उपासना का संगम, किस तरह स्वास्थ्य लाभ से जुड़ा हुआ है। हमारे पुराण भी सूर्य को आरोग्य का देवता मानते हैं।

पर्यावरण मैत्री स्थापित करने वाला यह त्यौहार सामान्य और गरीब जनता के लिए अपने नित्य दिन की मुश्किलों को भूलाकर सेवा – भाव और भक्ति -भाव से किए गए सामूहिक कर्म का विराट और भव्य प्रदर्शन है। बस आवश्यक प्रयास यह होना चाहिए कि पूजा के नाम पर हम नदियों ,तालाबों, या अन्य किसी भी जल प्रवाह को पूजा में प्रयुक्त सामानों के द्वारा प्रदूषित न करें। अपने संपूर्ण स्वरूप में यह लोक पर्व महापर्व है;शरीर ,मन और आत्मा की शुद्धि का पर्व है।

रीता रानी
जमशेदपुर ,झारखंड।

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