ठाकुर का कुआंँ–प्रेमचंद

ठाकुर का कुआंँ–प्रेमचंद

मुझे प्रेमचंद की लिखी यह कहानी ‘ठाकुर का कुआँ’ अत्यंत पसंद है।इस कहानी में अछूत संदर्भ को ही संस्पर्श करती है तथा ऊँच-नीच के भेदभाव को बड़ी ही बारीकी के साथ प्रस्तुत किया गया है। हम सब जानते हैं कि प्रेमचंद आधुनिक युग के एक महत्वपूर्ण लेखक हैं जिन्होंने दलित समस्याओं पर सर्वाधिक गहराई से विचार किया है। समाज में ऊँच-नीच, छूआछूत की भावना की जड़ें इतनी गहराई से जमी हुई है कि दलित वर्ग सवर्ण वर्ग के सम्मुख आने में भी डरता है,,,खड़े होने की बात तो बहुत दूर की है। इस कहानी में दलित जीवन में व्याप्त अभाव, पीड़ा, उत्पीड़न और दर्द की अभिव्यक्ति हुई है और अछूतों के मानव अधिकारों की पूर्ति बिना दयनीय स्थिति में जीने की त्रासदी को चित्रित करती है। पानी जैसी मानव जीवन की मूलभूत जरुरत, जो एक प्राकृतिक सम्पदा है लेकिन सवर्णों ने सत्ता और सम्पत्ति के जोर पर इसे अपने वर्चस्व में कर लिया है। इस वर्चस्व का विरोध करने अथवा इस व्यवस्था को तोड़ने की ताकत दलितों में नहीं है क्यूँकि यदि वे ऐसा करते हैं तो ग्राम पंचायतों द्वारा उन्हें अपमानित, उत्पीड़ित किया जा सकता है या उन्हें मार दिया जा सकता है। उक्त कहानी दलितों की इसी गम्भीर समस्या को उजागर करती है।
जब आप कहानी पढ़ेंगे तो पायेंगे कि पानी के अभाव में जोखू की हालत खराब हो रही है और वह गन्दा पानी पीने को लाचार है। पर उसकी पत्नी गंगी पानी लेने ठाकुर के कुआँ (सवर्ण) पर हिम्मत कर छुपती-छुपाती जाती है और पानी लेने के लिये जो भी उपक्रम करती है उससे विदित होता है कि पानी जैसी जरुरी और प्राकृतिक चीज पर भी दलितों का अधिकार इसलिये नहीं है क्योंकि यह कुआँ सवर्णों का है और उनके छूने से कुआँ तथा पानी अपवित्र हो जायेगा। वे बेबस और लाचार हैं। अस्पृश्यता और गरीबी का चोली दामन का साथ है तथा सवर्ण और अमीरी का साथ है। समाज पर आर्थिक, सामाजिक, राजनितिक वर्चस्व इन्हीं लोगों का है।
दलित गंगी शब्दों में विरोध तो जताती है– “हम क्यूँ नीच हैं? और ये लोग क्यूँ ऊँचे हैं?” पर व्यवहार में विरोध जताने की हिम्मत नहीं है। कहानी में सवर्णों पर कटाक्ष भी किया गया है– “ये लोग गले में तागा डाल लेते हैं, यहाँ तो जितने हैं,एक से एक छंटे हैं। चोरी ये करें, जाल फरेब ये करें, झूठे मुकदमे ये करें।” साथ ही कहानी में स्त्रियों की दयनीय स्थिति का भी पता चलता है जब कुआंँ पर पानी भरने आई दो स्त्री आपस में बात करती है। उसमें से एक बोलती है–“खाना खाने चले तो हुक्म हुआ कि ताजा पानी भर कर लाओ,,,,,,जैसे हम उनकी लौन्डियां हैं।” दूसरी हँसी ठिठोली
में कहती है –“लौन्डियां नहीं तो क्या हो तुम? रोती कपड़ा नहीं पाती,,,,,,,,,?” दलित नारी जितनी भी संकल्पबद्ध और विद्रोही क्यूं ना हो जाये किन्तु परम्परागत हिन्दू रिवाजों के विरुद्ध नहीं जा सकती है। उच्च वर्ग के सम्मुख दलित वर्ग की हिम्मत आखिर टूट ही जाती है। इस कहानी में अपने समय की जातिगत विडम्बना साफ दिखाई देती है स्त्रियों की स्थिति तब भी वैसी थी और आज भी वैसी ही है। फिर भी इस कहानी में ठाकुर और गंगी ये दो चरित्र के माधयम से कहानीकार ने तत्कालीन सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक स्थिति की वास्तविकता को उजागर किया है। एक वर्ग को सत्ता, सम्पत्ति और श्रेष्ठतम बहाल कर के कथित निम्न वर्ग को अभाव, अपमान झेलते और अवहेलना को सहते रहने का पर्याय बनाये रखना कहाँ का न्याय है?
जाति और वर्ण व्यवस्था पर प्रश्नचिह्न लगाती यह कहानी जितनी तत्कालीन समय में प्रसांगिक थी आज के समय में भी उतनी ही प्रसांगिक है। जाति के आधार पर बहिष्करण और भेदभाव अभी भी हमारे समाज में विद्यमान है और निचली जातियों के आत्मसम्मान और अभिमान अक्सर देश के अनेक क्षेत्रों में हिंसक प्रतिशोध की घटनाएँ घटती रहती है। उच्च जाति दिनोंदिन राजनितिक दबदबा के माध्यम से सक्षम होता जा रहा है।
प्रेमचंद की कहानियों के रचना शिल्प की बुनियादी विशेषता यह है कि कहीं से भी किसी भी कोण से आयासजन्य नहीं है। नितांत सहज और साधारण है। यह सहजता और साधारणतता ही उसकी सबसे बड़ी विशेषता है। उन्होंने अपनी कहानियों में घटनाओं की बजाय स्थितियों और संदर्भों को ज्यादा महत्व दिया है। इसलिये पाठक ‘आगे क्या होगा’ की जिज्ञासा के बजाय चित्रित स्थितियों और प्रसंगों के बीच से उभरते हुए प्रेमचंद के संवेदनात्मक उद्देश्य के साथ हो जाता है और उसके विकास में रुचि लेने लगता है। पाठक पात्रों की स्थिति और मनोदशा के वृत में इस तरह आगे बढ़ता है मनो वह कहानीकार का हमसफर बन जाता है। ये सारे प्रसंग कल्पना नहीं होते बल्कि जीवन के यथार्थ और सच्चाई से जुड़े होते हैं। अत: पाठकों के दिल दिमाग में उसकी विश्वासनीयता अपने आप अंकित होती जाती है। कहानी को बारीकी से जब हम देखते हैं तो पाते हैं कि कहानी में कहानीकार अनावश्यक हस्तक्षेप नहीं करता है। यही कहानीकार की सफलता है। उनका शिल्प विधान हम पाठकों को आकर्षित करता है। इसीलिये मुझे यह कहानी बहुत पसंद है। पात्रों की संवेदना से हम जुड़ जाते हैं। तब लगता है कि समाज की ये सब कुरीतियाँ कितनी बुरी और अमानवीय है कि पानी जैसी चीज के लिये भी उन्हें बेबस और लाचार होना पड़ता है। जबकि पानी प्राकृतिक संसाधन है और उसपर सब का समान अधिकार होना चाहिये।

अनिता निधि
जमशेदपुर,झारखंड

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