बड़े घर की बेटी

बड़े घर की बेटी

भारतीय समाज में भारतीय संस्कारों को सही स्वरूप में जन मानस के समक्ष लाने में मुंशी प्रेमचंद के अवदान को हम “मील का पत्थर” मानते हैं । उनका साहित्य उस आम समाज की कहानी कहता है जो रहता तो हर काल में है परन्तु उसे कलम बद्ध करना अपनी जिम्मेदारी समझी प्रेमचंद ने । हम भारतीयों को जन्म लेते ही प्रेमचंद की कहानियां घुट्टी की तरह पिलाई जाती हैं या यूँ कहें कि हर बच्चे में माता पिता संस्कार पोषित करने के लिए अनेक तरीके अपनाते हैं जैसे हमारे पौराणिक ग्रंथों का अंश बच्चों के कर्ण में अवश्य जायें यह कोशिश होती है तो उसी तरह प्रेमचंद के साहित्य से बच्चा अवश्य पोषित हो, परिचित हो यह भी कोशिश होती है । यह केवल साहित्यिक संस्कारों को जागृत करने के लिए ही नहीं की जाती बल्कि हमें समाज के वस्तुस्धिति को समझने की आवश्यकता है ,इस पर बल के लिए भी की जाती रही हैं।
प्रेमचंद की कहानियां समाज के हर उस तबके का दस्तावेज है जिसके जीवन के घटित घटनाक्रम को उतना महत्वपूर्ण नहीं समझा गया । वह किसान वर्ग हो या  श्रमिक वर्ग हो । हर उस कार्य को करने वाले पर उनकी नजर गई जिनका कार्य समाज विभिन्न जरूरतों के लिए अति आवश्यक है पर समाज की नजरों में उनका जिया जाने वाला जीवन उतना महत्वपूर्ण नहीं कि उसकी तहकीकात की जाये। लेकिन प्रेमचंद ने उन सभी लोगों की जीवन को छुआ जिनकी जिन्दगी की सच्चाईयों से , उनके संघर्ष गाथा से आम व्यक्ति दूर था।

स्त्री आधारित उनकी कहानियां हमारे समाज के पितृ सत्तात्मक समाज के बोझ से दबी और आहत स्त्री मनोविज्ञान की गाथा है। जो समाज अपने एक महत्वपूर्ण अवयव “ स्त्री” के हृदय के उदगार और उसके मनोविज्ञान की थाह लेना आवश्यक नहीं समझता “उस स्त्री समाज” के चटखते नब्ज पर उन्होंने हाथ रखा ।प्रेमचंद की कहानियों में एक सहजता है , एक आडंबरविहीन समाज के अवयव दिखते हैं जो  भारतीय समाज का सहज स्वाभाविक परिचय है।

मुझे प्रेमचंद की कहानियां अत्यंत पसंद हैं । मैं यहाँ बात करूंगी कहानी “बड़े घर की बेटी”  की । यह एक मनोवैज्ञानिक कहानी है जिसमें परिवार के कशमकश को तो दिखाया ही गया हैं पर परिवार का विघटन एक स्त्री  नहीं चाहती ,यह भी एक महत्वपूर्ण संदेश है। परन्तु हर स्त्री सबसे पहले एक मनुष्य है अतःउसमें मनुष्य के तमाम भाव जिसमें अपेक्षा, अपने मायके का सहज लगाव ,नाराजगी, ममत्व  सभी होगें। भारतीय समाज में ससुराल में स्त्री को देवी के गुण की अपेक्षा रखी जाती है जहाँ वह बस ससुराल के प्रति उत्तरदायी हो ,तो स्त्री के स्वाभाविक “मनुष्य रूप” पर मनोवैज्ञानिक  कुठाराघात होता है । ऐसा ही इस कहानी में दर्शाया गया है ।संस्कार में पोषित स्त्री कभी परिवार को टूटने नहीं देगी चाहे वह किसी वर्ग की हो। यहाँ आनंदी के ससुर और देवर उस पितृ सत्तात्मक समाज की आवाज हैं जहां किसी स्त्री के “स्व” की आवाज पसंद नहीं की जाती।  वह भी घर की बहु से यह अपेक्षा हरगिज नहीं की जाती कि वह अपनी नाराजगी जाहिर करे या प्रत्युत्तर में अपने मायके के कद से संबंधित कोई भी बातें करे। प्रेमचंदजी ने कहा भी है कि विवाह स्त्री के मानसिक विकास को अवरुद्ध करता है । सही है यह कथन क्योंकि भारतीय स्त्री विवाह संस्था में अत्यधिक समझौता की शिकार होती रही है । समझौता एक संस्कार के तरह उसकी घुट्टी में पिलाया भी जाता रहा है ।  पिता के गृह लाड़प्यार में पली बेटियां ससुराल में हर ऊंचनीच की जवाबदेह बना दी जाती हैं। यह कहानी कई तरीके से हमारे समाज को आंखें खोलने का संदेश देती है। आनंदी द्वारा देवर को घर छोड़ कर जाने से रोकना स्त्रियों का खुला संदेश है कि परिवार का विघटन स्त्री नहीं चाहती पर उसके आत्मसम्मान के विघटन की अपेक्षा भी परिवार और समाज न करे तो एक सार्थक जीवन का उदाहरण बेहतर तरीके से प्रस्तुत होगा।

रानी सुमिता
साहित्यकार
पटना,बिहार

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