हिम्मत की ईंट

हिम्मत की ईंट

इस वर्ष बारिश भी कितनी हो रही है । बूँदों के सारे खजाने लुटाने का इरादा लगता है मेघों का ,परन्तु बदले तेवर का क्या अर्थ। सौम्य के अलावा प्रचण्ड रूप का भी दिग्दर्शन हो रहा है -अविरल शक्तिप्रदर्शन , मानो जनजीवन के भयादोहन करने का विषम आनंद लूटना चाह रहे हों ।प्रेरणा को तो याद ही नहीं कि कभी बारिश के लिए भी उसे छुट्टियाँ मिली हों , हाँ चक्रवाती तूफान कभी आए – गए तो वह अलग बात है । इस बार तो रेड जोन का भी अकस्मात् प्राप्त अवकाशीय आनंद अब तक तीन दिन प्राप्त हो चुका है।

विद्यालय के बगल का पोखर एकदम लबालब भर आया है ।पोखर को जल से उथल-पुथल होता देख प्रेरणा को आज राजा की अचानक याद हो आई। नन्हा कद , परंतु चेहरे पर परिपक्वता –और उतनी ही फुर्ती चाल में भी। कक्षा तीन का ही विद्यार्थी था शायद उस समय वह ,परंतु विद्यालय से जुड़ी छोटी-मोटी जिम्मेदारियाँ वह ऐसे उठाता था मानो बच्चों के कार्टून कैरेक्टर्स का नन्हा भीम हो । छुट्टी की घंटी बजती और विसर्जन सभा के बाद कमरों में ताला लगाने के लिए उसके चपल पाँव अस्थिर और छोटे-छोटे हाथ तत्पर हो उठते ।किसी भी काम के लिए उसके नाम की पुकार हो और वह हाजिर।

उस दिन तो हद ही हो गई थी ।अभी विद्यालय का समय शुरू नहीं हुआ था और प्रेरणा की गाड़ी जैसे ही विद्यालय के पिछले मैदान में लगी,बायोमेट्रिक बनाने की हड़बड़ाहट को भूल उसका मन बस उस पोखर की ओर नजरों को बाँधकर बैठ गया । विद्यालय का यह नन्हा सिपाही गाँव के चार लोगों के साथ मछली पकड़ने का जाल फैलाने में लगा हुआ था । हँसी आ गई उसे —कहाँ उन सबों की उम्र और कहाँ दो – अढ़ाई फुट का उनका यह साथी । बड़े कौशल के साथ वह काम को अंजाम दे रहा था– सच , ये ग्रामीण बालगण किताबों की भाषा पढ़ने में भले ही धीमे हो जाएँ परंतु जीवन – कौशल की भाषा को कितनी तीव्रता से पढ़ लेते हैं। ये पढ़ते ही नहीं ,अपने कदमों को उस भाषा के साथ औंधें – तिरछे दौड़ा भी देते हैं । जल्दी ही प्रेरणा को भी तो अपनी गरम रोटी का सोंधापन याद आ गया और वह दौड़ पड़ी अपने बायोमेट्रिक डिवाइस की ओर — नौ से ऊपर एक सेकेण्ड का काँटा भी कैसे जाने दिया जा सकता था ।

प्रार्थना सभा शुरू हुई और जनाब उतनी ही तेजी से अपनी पंक्ति में शामिल भी हो चुके थें —प्रेरणा ने राजा को देख अपने होठों पर फैलती हुई मुस्कान को चुपके से दबा लिया ।इस विद्यालय में स्थानान्तरण के बाद प्रेरणा को महादेवी के घीसा के कई रूपों में दर्शन हुए हैं —प्रार्थना के बोल हवा में गूंज रहे थे और प्रेरणा का ध्यान पता नहीं क्यों ‘घीसा’ की ओर चला गया था। कहीं बारिश का यह करिश्मा तो नहीं कि नहाये – धोये , बालों से पानी चूते महादेवी का घीसा मानो नदी तट से उठ अभी यहीं खड़ा हो गया था अपने जीवंत रूप में।

अभी-अभी बरखा थमी थी और विद्यालय का खुला प्रांगण–ठंडी बरसाती बयार से लहालोट हो उठा था। सूरज आज छुट्टी के मिजाज में अपने मौन एकांतवास में था शायद और सामने सुदूर तक फैली दलमा की
श्रृंखलाएँ गहरे हरे रंग के मनभावन स्याही से सुप्रभात लिख रही थीं। प्रार्थना सभा में कक्षा तीन की पंक्ति के बगल ही कक्षा चार की पंक्ति थी, जिसमें उसकी अग्रजा रमा भी हाथ जोड़े खड़ी थी—प्यारी सी सूरत, भाई की तरह आकर्षित करने वाला व्यक्तित्व परंतु राजा के मितभाषी स्वभाव के विपरित बोलने में बड़ी चटर-पटर । प्रेरणा को हमेशा लगता पढ़ाई के मैदान में भी रमा अपने भाई से ज्यादा सरपट गति से दौड़ लगाया करती होगी।

इन दोनों की मां से भी परिचय था प्रेरणा का। चहारदीवारी विहिन विद्यालय परिसर से बिल्कुल नजदीक ही इनका आवास था —औसत ग्रामीणों की तरह मिट्टी का। शिक्षक – अभिभावक बैठक में या यूँ भी कोई कार्य पड़ने पर वह विद्यालय परिसर में दिखाई दे जाती थीं । न तो भव्य शहरी विद्यालयों की तरह यहाँ ऊँचा – ऊँचा कोई परकोटा है और न ही उस परकोटे की गेट पर वर्दीधारी कोई संतरी तो प्रवेश भी निर्विध्न ही है विद्यालय में सबका , सदैव। मनुष्यों के साथ -साथ कुत्ते, बकरी , बंदर , गाय, बैल , साँप , बिच्छू– सबका आतिथ्य प्रभार लेता हुआ अतिविनित व सभ्य प्रांगण है यह।

ऐसे उदारमना प्रांगण में तो भला , हवा के अंधड़वेग से जिसके उड़ जाने का भय हो , वैसी एकदम क्षीण दुबली पतली सी काया की स्वामिनी हंसा का आगमन कैसे प्रश्न चिन्ह से युक्त होता। हमेशा ही अतिसाधारण सी सूती साड़ी में लिपटे हंसा के कृशकाय शरीर को देखकर प्रेरणा को लगता ,पता नहीं अन्नपूर्णा ने इसके क्षुधा की कभी पूर्ण तृप्ति भी की है या नहीं ।

ये विचार भी कितने दुराग्रही होते हैं—बिना पूछे – ताछे,बिना किसी औपचारिक शिष्टता के ,सारी सीमाएँ लाँधकर हमारे मन के आँगन में चक्कर काटते रहते हैं ,अब भला कौन सी कोतवाली में इनके अशिष्टता व अतिक्रमण की रपट लिखवाई जाए–प्रेरणा हमेशा सोचती और मन-ही- मन मुस्कुरा उठती।प्रेरणा,उसके मन की स्वच्छंद विचारगति और उसका विद्यालय–तीनों के तीनों अपनी-अपनी रफ्तार से चल रहे थें। विद्यालय तक आने के पूर्व घर के अंदर की भागम – भाग और विद्यालय पहुँचकर एक कक्षा से दूसरी कक्षा और कभी कक्षा से कार्यालय तक के उसके कदमताल —यह सब आपस में गुत्थम -गुत्था हो उसके प्रतिदिन की दिनचर्या को आकार देते थे।

रोज की तरह प्रेरणा विद्यालय की गतिविधियों में संलग्न थी,तभी उसे पता चला, राजू और रमा का स्थानान्तरण प्रमाण पत्र लेने हंसा जी आई थीं ।उसे आश्चर्य भी हुआ और दुःख भी ;आश्चर्य इस बात का कि बच्चें तो विद्यालय के इतना निकट रहते हैं फिर उन्हें विद्यालय छोड़ने की आवश्यकता क्या थी और दुःख इस बात का कि भले ही प्राथमिक कक्षाओं में उसकी कक्षाएँ नहीं रहती थीं परंतु बच्चों से लगाव तो था ही ।

अगले ही दिन गाँव प्रधान का अपने किसी निजी कार्य से विद्यालय आना हुआ तो पता चला कि हंसा अपना घर , यह गाँव छोड़कर अपने बच्चों को लेकर पास के शहर कोकिलपुर चली गई है। धीरे-धीरे और भी बातें खुलने लगीं—अपने विवाह के प्रारंभिक वर्षों से ही हंसा का संयोग कभी भी सुखद दांपत्य जीवन से हो न पाया था। उसका शराबी पति उसके मन पर तो अनुराग की रेखाएँ खींच न पाया परंतु उसके दुर्बल शरीर पर अपनी पाशविकता के बदरंग चित्र सदैव अंकित किया करता । हंसा के जेठ – जेठानी भी उसी घर में रहते थे ,परंतु उन्होंने भी कभी प्रताड़नाओं के आगे ढाल बनने की कोशिश नहीं की –शायद वे हंसा को यहाँ बसने ही देना नहीं चाहते थे ताकि यहाँ की भू -संपत्ति पर उनका और उनके बच्चों का अपना एकाधिकार हो।

गांव का समाज है, जो शहरों की तरह अंधा – बहरा नहीं होता और न ही निजता का हवाला देकर संवेदनहीनता की मोटी खाल को कूर्म की भाँति अपने पीठ पर ओढ़ बैठ जाता है। आसपास के ग्रामीण कई वर्षों तक पिटाई होने पर हंसा की चीख वाली विदारक आवाज को सुनकर दौड़ लगा देते,उसको उसके पति के राक्षसी पकड़ से मुक्त करने की कोशिश करते। बच्चों के द्वारा माँ को बचाने की कोशिश किए जाने पर उनकी भी बड़ी निर्ममता के साथ मार -कुटाई हो जाती।ऐसे भी इतने छोटे बच्चों के शरीर में उतनी ताकत थी भी नहीं कि उस रावण के समक्ष ये खड़े रह पातें।
जब हंसा का पति नशे की हालत में नहीं होता , तो गांव के बड़े – बुजुर्ग उसे समझाते भी , सर झुकाए बगुला भगत की तरह मौन धारण किये पता नहीं क्या गुणता रहता उस समय वह –और फिर जब शराब का नशा चढ़ जाता तो वही सब दुहराया जाता— ढाक के वही तीन पात ।

धीरे-धीरे ग्रामीण भी इस घरेलू हिंसा
के प्रति उदासीन होने लगे परंतु अपने अत्याचारों के प्रति उस राक्षस के मन में उदासीनता दूर – दूर तक नहीं पनप रही थी।

इस अप्रिय गाथा को जानने के बाद प्रेरणा को आत्मिक तोष ही हुआ कि अच्छा हुआ ,वह यहाँ से चली गई। प्रेरणा के मन का स्त्रैण्य भाव उस स्त्री के प्रति करुणा से भर उठा था—कोई किसी का घात – आघात कितने दिन बर्दाश्त करे और वह भी बेवजह और करे भी तो क्यों। शरीर के साथ – साथ ,रोज -रोज आत्मसम्मान भी किस तरह घुट-घुटकर साँसे लेता होगा।

आते – जाते हंसा के घर पर प्रेरणा की नजर पड़ ही जाती और इसलिए उसका चित्त कई, कई बार हंसा की ओर मुड़ जाता। प्रेरणा की उद्विग्नता हमेशा इन प्रश्नों पर ठिठक जाती कि शहर से सुदूर अवस्थित एक बीहड़ आदिवासी गाँव की यह निर्बल – अनपढ़ स्त्री दो बच्चों के साथ अपना भरण – पोषण कैसे कर रही होगी? शहरी आबो – हवा से जिसका दूर -दूर तक कोई परिचय न था , वह हंसा, अपना ही नहीं अपने दो बच्चों के भी पेट भरने और रहने की व्यवस्था वहाँ कैसे कर पायेगी ? सबकुछ उसके लिए कितना कठिन हो रहा होगा ?

अचानक एक दिन विद्यालय के बरामदे में पीठ की ओर से प्रेरणा को पुकारता एक संबोधन शब्द गूँजा ,” मैमजी”, मुड़ कर देखा तो सामने नन्हीं रमा खड़ी थी–बदन पर एक गुलाबी सूती फ्रॉक डाले।उसकी मुस्कुराहट में उसके फ्रॉक की गुलाबी आभा सिमटी हुई थी ।’ अरे, रमा ,तुम यहां?’–आश्चर्य मिश्रित भाव से प्रेरणा ने पूछा।उनके पास सवालों की लंबी झड़ी थी–‘अरे कहां रहने लगे हो तुम सब ?किसके साथ रहते हो?कौन देखभाल करता है तुम तीनों की?वहां किसी स्कूल में नाम लिखवाया है क्या?कौन-कौन आए हो ?मां कहां है?’—इतने सवालों का जवाब देना उस छोटी सी लड़की के लिए संभव नहीं था,वह बस प्रेरणा को इतना ही बोली -‘गांव में पूजा है न मैम जी, तो हम, मां और भाई आए हैं।’फिर उचककर बोली-‘मैम जी हम लोगों के पास एक फोन भी है,नंबर दे आपको?’और फिर प्रेरणा को रमा ने अपना फोन नंबर दे दिया।

प्रेरणा की बहुत इच्छा थी कि हंसा से सीधे-सीधे बात हो पाती ताकि उनका कुशलक्षेम वह जान सके,परंतु वह संभव न हो पाया। घर पहुंचने के बाद प्रेरणा को आम दिनों की भाँति उस दिन सबसे पहले अपने प्रिय चाय सस्पेन की याद ही कहाँ आई।उसने तो सर्वप्रथम अपना मोबाइल निकाला और कागज की पर्ची पर लिखे नंबर को डायल कर दिया। उसकी बेचैनी में उत्सुकता थी या पीड़ परायी को समझने का भाव या दोनों ही—उसे खुद ही स्पष्ट रूप से समझ में नहीं आ रहा था। उधर फोन की घंटी बजती रही परंतु किसी ने फोन नहीं उठाया। परंतु दूसरे दिन प्रेरणा को परिचित आवाज सुनाई पड़ी—‘मैम जी , नंबर देखकर हम समझ गया था कि आपका ही नंबर होगा ।’

प्रेरणा तो व्यग्र थी ही–बातचीत का सिलसिला शुरू हो गया। हंसा ने बताया कि शहर में आकर उसने पहले तो एक होटल में बरतन धोने का काम करना शुरु किया था,परंतु होटल मालिक का व्यवहार उसको ठीक नहीं लगता था। ऊपर से अजनबी मर्दों के बीच जाकर जूठे बर्तन उठाने, टेबल साफ करने में जैसे उसके पांव जकड़ जाते थे ।”रोड किनारे का छोटा सा होटल में ही काम मिला था मैम जी, पर वहाँ मन नहीं लगा, अजीब ढंग का लोग भी आता था। मेरा बच्चा लोग को भी समय पर खाना नहीं देता था ।”—वह बोलती रही थी।

“अभी एक घर में काम मिला है, मैम जी।हमको तो गांव का काम का आदत है,आप लोग का घर का काम उतना अच्छा से करना आता नहीं,दिक्कत तो होता है पर कर रहा है। करना ही पड़ेगा, बच्चा लोग को नहीं तो कैसे खिलाना होगा?”–शहर के घरेलू कार्य एक साधारण आदिवासी महिला के लिए पेचीदा भी हो सकते हैं, उस दिन उसकी बातें सुनकर प्रेरणा को समझ में आया।उसे बहुत अचरज भी होता था कि गांव की एक साधारण सी स्त्री,जिसने कभी शहर का मुख नहीं देखा,आज अन्याय का प्रतिकार करने के लिए इतनी हिम्मत तो जुटा पाई है कि तीन पेट के भरण – पोषण हेतु हाथ- पैर मार रही है।

‘ मैम जी,एक और घर में काम मिल गया है। अब हम पहले से और अच्छा से काम करना भी सीख गया है। इस घर में रात को रुटी भी बनाना है। ये गैस से बहुत डर लगता था हमको , पर डरने से पेट तो चलेगा नहीं ।अच्छा ही हुआ, हम तीनों के लिए भी रात का रूटी वहीं से मिल जाता है।दिक्कत ज्यादा रहने का है, वो टीना शेड का छत चूता है न बरसात में, ज्यादा बरसात होने से तो तीनों एक- दो रात बैठ -बैठ के ही रह गया।” न संघर्ष का अंत था और न उससे लड़ने के हंसा के जीजिविषा की ।प्रेरणा सोचती रही -हंसा, अगर इतनी हिम्मत थी तो पहले ही क्यों नहीं निकल पड़ी थी तुम या हो सकता है अब विपत्तियों से आँख मिलाने पर समय ने हंसा को गढ़ना शुरू कर दिया है।

इसके बाद कई दिनों तक उसका फोन नहीं आया प्रेरणा के पास। प्रेरणा ने एक दो बार कोशिश भी की लेकिन ‘नॉट रीचेबल ‘– शाश्वत सत्य की तरह चिपक गया। सर्दियों की छुट्टियां शुरू हो गईं और इसलिए पन्द्रह दिनों से विद्यालय से भी कोई नाता नहीं रहा।

विद्यालय खुलने के ठीक एक दिन पूर्व
अखबार पर नजर डालते ही प्रेरणा चौंक पड़ी। खबर उसके विद्यालय वाले गांव की थी जहां किसी व्यक्ति की हत्या हुई थी उसी के विद्यालय के प्रांगण में। दूसरे दिन ही स्कूल खुलना था। भयभीत हृदय से सभी शिक्षक विद्यालय पहुंचे थे, खून के धब्बे भी शिक्षकों की गाड़ी पार्क करने की जगह पर दिख रहे थे । पता चला कि मृत और कोई नहीं बल्कि हंसा का पति ही था । पुलिस की गाड़ियां गांव के चहल-पहल को बढ़ा रही थीं। इधर प्रेरणा को लग रहा था कि कहीं हंसा और उसके बच्चे न आए हों। विद्यालय के दूसरे बच्चों से पता चला कि उसका अंदेशा सही था ।

उसने बड़ी मुश्किल से हंसा से मुलाकात का रास्ता निकाला। सर को ढके हुए हंसा अपने घर के पीछे के मैदान में आ खड़ी हुई –‘तुम्हारे फोन का क्या हुआ हंसा ? कई दिनों से बात ही नहीं हो पाई तुमसे। तुम्हारे पति को किसने मारा ? ‘–‘इतना पीता था मैम जी, पी- पी के ही आपस में लड़ाई- झगड़ा किया है, कौन मारा पता नहीं , पुलिस अभी दो-तीन लोगों को पकड़ा है, हम अभी स्कूल से छुट्टी लेकर आया है मैम जी।हमको भी समय से जाना होगा।’

प्रेरणा चौंक पड़ी,’स्कूल से?’–‘हां ,मैम जी, हमको बहुत खराब लगता था कि मेरा बच्चा दोनों पूरा-पूरा दिन सेड में बैठा रहता है। हम तो काम करने निकल जाता था, इनको देखने वाला कोई नहीं। यहां था तो कम से कम आपका स्कूल तो आता था। वहीं पर मैम जी एक स्कूल में जाकर बगान का काम और साफ- सफाई का काम पकड़ लिया है। खेती-बाड़ी तो हम करता ही था मैम जी, इसलिए जानता है पेड़-पौधा को संभालना और इतना दिन में तो आप लोगों का घर कैसे साफ होता है वह तरीका सब सीख लिया है तो बस स्कूल को भी खूब चमका कर साफ कर देता है। और सबसे अच्छा बात है मैम जी कि दोनों बच्चा को वहां पढ़ाई हो जाता है।हम तो पढ़ा नहीं मैम जी तो इतना दिक्कत हुआ,राजू -रमा को कैसे बिना पढ़ाए रखता, दिक्कत में डाल देता उनको तो,भगवान ने मेरा सुन लिया मैम जी मेरा तो जिंदगी सफल हो गया ।’इतना बोलते- बोलते हंसा की आँखों में आँसू तैरने लगे। आंसू इस मकाम तक पहुंचने के बाद प्राप्त शांति के मोती थे या यहां तक पहुंच कर पीछे मुड़कर देखने पर उबड़ – खाबड़ रास्तों के नुकीले पत्थरों की चुभन उसके आँखों में उतर आयें — प्रेरणा पूर्णरूपेण यह समझने में असमर्थ रही ।

आँचल में आँखों की नमी बटोर वह आगे बोले जा रही थी –“स्कूल का बाहर हम रोज जाकर दो महीना से बैठता था , पर वो चौकीदार सब अंदर जाने ही नहीं देता था ।एक दिन तो पता नहीं हमको क्या हुआ ,हम सोचा कल स्कूल का अंदर जाएगा ही। दो दिन का छुट्टी लिया घर का काम से हम और स्कूल खुलने का पहले से लेकर छुट्टी तक गेट पर बैठा रहा।अंत में पता नहीं दूसरे दिन छुट्टी के बाद चौकीदार को क्या हुआ, बोला– जाओ ,अंदर खड़ा हो । हम अंदर जाकर खड़ा रहा, सारा बच्चा लोग चला गया, टीचर लोग भी जाने लगा धीरे-धीरे। अब तो हमको डर भी लगने लगा। हम चौकीदार से बोला हमको यहां पर क्यों खड़ा करवा कर रखा है, चौकीदार बड़ा जोर से डांट कर बोला, तुम अभी चुपचाप यहीं पर खड़ा रहो। सबके जाने के बाद वह सामने एक कमरा में गया, पाँच मिनट बाद लौटा और एक बड़ा सा ऑफिस में लेकर गया। मैम जी वहां का ऑफिस कितना सुंदर है,हम तो वही देखता रह गया। सामने एक मैम जी बड़ा सा कुर्सी पर बैठी थी , उनसे चौकीदार कुछ धीरे-धीरे बोला, हमको भी थोड़ा हिम्मत आया। हम बोला – मैम जी, हमको कोई भी काम दे दो पर स्कूल के अंदर दे दो ।हम लेट्रिन भी साफ करेगा, पेड़ -पौधा भी देखेगा , आपका छोटा-छोटा बच्चा का भी सब काम करेगा। बस हमको स्कूल में काम करने दो। पता नहीं मैम जी, वे मैम जी को क्या हुआ,वह हमको कल आने बोली। हम दूसरे दिन कल बहुत जल्दी उठकर सबके घर का काम खत्म कर दिया और फिर से स्कूल का गेट पर पहुंच गया। आज तो चौकीदार रोका नहीं ,सबसे पहला खुशी वहीं पर मिल गया ।विसवास ही नहीं हो पा रहा था कि हमको इतना इज्जत से अंदर जाने को मिला है। चौकीदार फिर हमको लेकर के वो बड़ा मैडम के पास गया । बड़ा मैडम के पास कोई एक बड़ा सर भी बैठा था –सब हमसे थोड़ा सा बात किया और और कल से आने को बोला। मेरा तो पूरा बदन झर – झर कांप रहा थाऔर मन में झांगर देवता को हम याद कर करके बस परणाम ही कर रहा था। मैम जी उस दिन से ही मेरा जिंदगी बदल गया–मेरा ही नहीं मेरा दोनों बच्चा का भी। झांगर देवता हम पर बहुत दया किया,बहुत दया किया मैम जी।”

नि:शब्द हुई प्रेरणा जड़वत सी धाराप्रवाह चल रही इस विजय गाथा को सुनती जा रही थी , हंसा के मुख पर आने – जाने वाले भावों को देखती जा रही थी। सोचती रही – ईश्वर भी उसी पर दया करता है जो अपने रास्ते पर आगे बढ़ने के लिए हिम्मत की ईंट बिछाते हैं ।प्रेरणा ने हंसा की दोनों हथेलियां को अपनी हथेलियों में समेट लिया परंतु कुछ बोल नहीं पाई।मौन संवाद, भावों की मौन उर्मि बन तरंग शिखर -तरंग गर्त्त में बदलता रहा।

रीता रानी
जमशेदपुर झारखंड

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