तपती रेत
“चाची, सामने से हट जाइए…”
गाँव वालों की भीड़ रूकमा चाची के आंगन में इकट्ठी थी।
“आज इस डायन को नहीं छोड़ेंगे,” भीड़ की आवाज थी।
“इसे मैला पिलाकर ही दम लेंगे।” दूसरी रौबदार आवाज आई।
“हाँ… हाँ, आज मार ही डालो इस पापिन को!” घृणा से भरी आवाजें गूंज उठीं।
“वहीं रुक जाओ… एक कदम भी आगे नहीं बढ़ाना!”
रूकमा चाची की दहाड़ थी। भीड़ कुछ सहमी, कुछ ठिठकी।
“काकी तक पहुंचने के लिए मेरी लाश से गुजरना पड़ेगा।”
“तो क्या आज इस आंगन में दो-दो लाशें गिरेंगी?” एक फूहड़ जोशीले युवक ने कहा।
गाँव प्रधान के बेटे नूनू मिश्र ने हाथ के इशारे से भीड़ को रुकने का आदेश दिया।
भीड़ के बढ़ते कदम थम गए।
“ए चाची, आप क्यों इस डायन का पक्ष ले रही हैं? आपको पता है न, गाँव में क्या हो रहा है? महीने भर में तीन बच्चे मर चुके हैं, और चौथा भी दिन गिन रहा है। बताइए, इसे कैसे छोड़ दें?”
“तुम कैसे कह सकते हो कि काकी ही बच्चों की मौत का कारण हैं?”
रूकमा चाची ने प्रश्न भरी निगाहों से नूनू मिश्र की ओर देखा।
“अरे! आपको पता नहीं है? जब बच्चे खेलते हैं तो ये उन्हें टुकुर-टुकुर घूरती रहती है, और बच्चा घर आते ही बीमार हो जाता है। बगल के गाँव के ज्योतिषी जी से उचेरवाया, तो उन्होंने इसी का नाम लिया। हमें तो पहले से ही शक था।”
नूनू मिश्र ने बात स्पष्ट की।
“तो यह सब ज्योतिषी महाराज की करतूत है?”
हिकारत से नूनू पंडित को घूरते हुए रूकमा चाची ने कहा।
“ज्योतिषी जी की बात कभी गलत नहीं होती!”
भीड़ चिल्लाई।
रूकमा चाची के पीछे सुंदरी काकी पत्ते की तरह काँप रही थीं। वह अपने माता-पिता की इकलौती संतान थीं और बाल-विधवा थीं। तपेदिक के मरीज, साठ वर्षीय आत्मानंद से मात्र दस वर्ष की उम्र में उनका विवाह कर दिया गया था। किसी तरह दो वर्ष ही बीते थे कि आत्मानंद चल बसे।
पति के मरते ही ससुराल वालों ने उन्हें ‘डायन’ कहकर घर से निकाल दिया। युवा होती बाल-विधवा ससुराल वालों के लिए बोझ बन गई थी। एक बार बड़े भैसुर ने उस नादान बालिका पर कुदृष्टि डाली। लड़की ने शोर मचा दिया, और उसी दिन उसे घर से निकाल दिया गया।
रोती-बिलखती काकी जंगली रास्तों में भटक रही थीं, तभी उधर से नवविवाहित रूकमा चाची अपने पति परमा चाचा (जिन्हें गाँववाले ‘परमा चचा’ कहते थे) के साथ मायके से लौट रही थीं। उन्होंने सुंदरी को पहचान लिया। झुटपुटे में उन्होंने आवाज़ लगाई – “सुंदरी काकी, आप ही हैं न?”
घूंघट का कोर उठाकर काकी ने उन्हें देखा और फूट-फूट कर रोते हुए सारी दास्तान सुना दी। परमा चाचा ने उन्हें ढांढस बंधाया और उनके माता-पिता को सौंप दिया।
माँ-बाप के पैरों तले से ज़मीन खिसक गई जब उन्हें पता चला कि उनकी तेरह वर्षीय परित्यक्ता बेटी तीन माह की गर्भवती है। ससुराल लौटने के सारे प्रयास असफल रहे। वहाँ बेटी को ‘चरित्रहीन’, ‘कुलटा’ जैसे शब्दों से अपमानित किया गया।
थक-हारकर सुंदरी मायके लौट आई। पिता यह सदमा सहन न कर सके और एक महीने में चल बसे। माँ ने किसी तरह बेटी को संभाला। वय:संधि पर खड़ी सुंदरी ने एक सुंदर सी गोल-मटोल बेटी को जन्म दिया। माँ ने नाम रखा – संध्या।
सुंदरी की माँ ने संध्या को खूब पढ़ाया-लिखाया। हाई स्कूल के बाद संध्या को रांची भेज दिया गया, जहाँ उसने वीमेंस कॉलेज में नामांकन लिया और छात्रावास में रहकर पढ़ाई करने लगी। मेधावी संध्या को छात्रवृत्ति भी मिली। शोध कार्य पूर्ण कर वह उसी कॉलेज में व्याख्याता नियुक्त हो गई।
इसी बीच उसके जीवन में बसंत आया। वह रांची की ही एक निजी कंपनी में कार्यरत था। संध्या की सहेली देविका का मुंहबोला भाई था। अकसर उनसे मिलते-जुलते, प्रेम पनप गया। धीरे-धीरे वह संबंध गहराता गया।
एक दिन संध्या ने बसंत को एक रेस्तरां में मिलने बुलाया।
“हैलो, सुन रहे हो न? ठीक पाँच बजे पहुंचना…”
“आज अचानक…? शनिवार को मिलना तय था।”
“तो क्या हम बीच में नहीं मिल सकते?”
“ठीक है, मैनेज करता हूँ।”
दोनों रेस्तरां पहुंचे। बसंत ने देखा कि संध्या कुछ बदली-बदली सी है।
“आज अचानक… कोई खास बात है क्या?”
“हाँ, हमें सप्ताहांत में गाँव चलना होगा।”
“क्यों? सब ठीक तो है?”
“माँ को सब बताना होगा… और हमें विवाह करना होगा।”
“ठीक है, कर लेंगे… लेकिन इतनी जल्दी?”
“क्योंकि… तुम्हारे प्यार की निशानी…”
बसंत चौंक गया।
“क्या कहा? पागल हो गई हो क्या? हमने तो सावधानी बरती थी। कैसे हो सकता है?”
“अब क्या करूँ? हमारे पास और कोई रास्ता नहीं है।”
“मैं इसके लिए तैयार नहीं हूँ। नई नौकरी है, चार बहनों की जिम्मेदारी है। तुम एबॉर्शन करवा लो। मेरे दोस्त की पत्नी डॉक्टर हैं, चलो उनसे मिलते हैं।”
डॉ. सरिता सहाय ने जाँच कर बताया, “चार माह का गर्भ है। अब कुछ नहीं हो सकता।”
बसंत के होश उड़ गए।
“कुछ तो करें भाभीजी!”
“अब संध्या की जान को खतरा है। जाओ देवर जी, अब शादी की शहनाई बजवाओ।”
बसंत ने अनमने भाव से संध्या को होस्टल छोड़ा।
अगले दिन संध्या ने फोन किया, लेकिन फोन बंद। फिर खबर मिली कि बसंत कंपनी छोड़ चुका है और शायद दुबई चला गया है।
तभी संध्या को माँ का पत्र मिला – “नानी की तबीयत बहुत खराब है। जल्दी आ जा… बार-बार तेरा नाम ले रही है।”
संध्या के पास कोई रास्ता नहीं बचा था। हताशा में उसने आत्महत्या कर ली।
हॉस्टल में हड़कंप मच गया। पुलिस आई, शव की पहचान हुई। गाँव में यह खबर पहुँची। नानी की आंखें बेटी के इंतज़ार में ही बंद हो गईं, और सुंदरी यह गहरा आघात सहन न कर सकी।
गाँव की औरतों ने फिर ताने कसने शुरू किए – “और भेजो बेटी को शहर… बना दिया कुलटा।”
सुंदरी विक्षिप्त हो चुकी थीं।
रूकमा चाची ही उनका एकमात्र सहारा थीं।
बेटों के लाख कहने पर भी रूकमा चाची शहर नहीं गईं। गाँव की लड़कियों को शिक्षा, सिलाई-कढ़ाई सिखाने वाली वही थीं। आयुर्वेद-जड़ीबूटियों की भी जानकार थीं।
आज उसी सुंदरी काकी को ‘डायन’ बताकर मारने की साजिश रची जा रही थी।
रूकमा चाची गरजीं –
“हिम्मत है तो मेरी लाश गिरा दो, और फिर सुंदरी को मैला पिला देना।”
नन्हीं पोती कोठरी से बाहर आकर दादी से लिपट गई।
अब एक नहीं, दो को मारो!”
रूकमा चाची ने पोती को गोद में उठा लिया।
लोग स्तब्ध रह गए।
“इतनी सभ्य स्त्री असभ्य डायन का पक्ष क्यों ले रही है?” औरतों में खुसर-पुसर शुरू हो गई।
चाची बोलीं –
“बुलाओ, जिनके बच्चों की मौत हुई है।”
लक्खू सिंह, मनोहरा और अधीर राय सामने आए।
रूकमा चाची ने पूछा –
“बताओ, बच्चों को क्या हुआ था?”
मालूम हुआ – सभी बच्चों को बुखार आया था, और उचित इलाज के अभाव में वे चल बसे।
“तो फिर इस अभागिन को ही दोषी क्यों ठहराया?”
रूकमा चाची ने कड़क स्वर में कहा।
“हरिया, अपने बच्चे का इलाज करवाओ। और नूनू मिश्र! तुम तो पढ़े-लिखे हो। क्या यही सिखाया गया है?”
भीड़ धीरे-धीरे छंटने लगी।
सुंदरी काकी रूकमा चाची से लिपटकर रो पड़ीं – जैसे वर्षों से सूखी रेत को संवेदना की स्नेहिल फुहार मिल गई हो।
सुमेधा पाठक
पटना, भारत