एक खामोश घर की आवाज़

एक खामोश घर की आवाज़

 

घर को खड़ा करने के लिए जितनी ज़रूरत ईंट-पत्थर की होती है, उतनी ही ज़रूरत होती है चुप्पियों की। चुप्पियाँ अक्सर वह आवाज़ होती हैं, जो किसी भी तूफ़ान से अधिक गूंजती हैं। सावित्री ऐसी ही एक चुप्पी थी , गहराई से भरी, स्थिर और सहनशील।

 

“चुप्पी एक ऐसी भाषा है जिसे हर कोई समझता है, लेकिन कुछ बोल पाता हैं,” सावित्री के जीवन का यही मूलमंत्र था। बचपन से ही वह ज्यादा नहीं बोलती थी। गाँव की पगडंडियों पर नंगे पाँव दौड़ती हुई वह लड़की अक्सर खुले बालों और धूल से सने चेहरे के साथ दिखाई देती। माँ झुंझलाकर कहती, “कभी तो लड़की जैसी रहो, सावित्री!” लेकिन वह कभी वैसी नहीं रही जैसी समाज एक लड़की से उम्मीद करता है।

 

वह चुपचाप सब देखती, सब सहती, पर कहती कुछ नहीं। स्कूल के मास्टरजी कहते थे, “इसकी आँखों में बहुत सवाल हैं, मगर जुबान जैसे ताले में बंद हो।” समय बीतता गया। बिना कोई राय पूछे, बिना कोई सपना समझे, उसकी शादी कर दी गई ।गाँव से शहर और मासूमियत से जिम्मेदारी तक का सफ़र सिर्फ एक दिन में तय हो गया।

रमेश से विवाह हुआ जो एक सरकारी बाबू, जिसकी आवाज ऊँची थी और सोच तंग। हर बात में वह ‘औकात’ ढूंढता और अक्सर चीखता, “औकात में रहो।” सावित्री जान गई थी कि इस घर में उसकी चुप्पी ही उसकी सबसे बड़ी ताक़त है।

“जीवन में सबसे बड़ा संघर्ष तब होता है जब हमें अपनी आवाज को दबाना पड़ता है,” सावित्री ने यही सीखा था। रमेश को छोटी-छोटी बातों में भी गुस्सा आ जाता। उसकी माँ, यानी सावित्री की सास, हर समय ताने देती,“गूंगी बहू मिली है क्या?” लेकिन सावित्री की चुप्पी जैसे उसकी ढाल बन चुकी थी।

धीरे-धीरे वह बोलना सिर्फ अपने बच्चों से सीख सकी ,बेटे आदित्य और बेटी रुचि से।

रुचि डॉक्टर बनना चाहती थी और आदित्य को क्रिकेटर बनने का सपना था। पर रमेश के लिए यह सब बेमतलब की बातें थीं। “बेटी है, डॉक्टर बनेगी? और वो लड़का, उसको पढ़ा दो, काफी है,” वह कहकर हँस देता। सावित्री कुछ नहीं कहती, बस सुनती और बच्चों को अपनी ममता में सहेजती।

एक दिन रुचि ने माँ से कहा, “माँ, पापा से कहो न मेरी कोचिंग की फीस भर दें। मैं टॉपर बनूंगी।” उस दिन सावित्री ने पहली बार रमेश से सवाल किया और जवाब में एक थप्पड़ मिला। उसका मुँह फिर उसी तरह बंद हो गया जैसे सालों पहले था।

“कभी-कभी चुप्पी ही सबसे बड़ा जवाब होती है,” सावित्री ने यही सोचा। उस रात, जब सब सो चुके थे, सावित्री ने रुचि को अपने सीने से लगाकर धीरे से कहा, “माफ कर देना बेटा, मैं तेरे लिए लड़ नहीं सकी।” वह शब्द नहीं थे, एक हार थी ,एक माँ की हार, जो अपनी बेटी के लिए आवाज नहीं बन सकी।

फिर एक दिन आदित्य को तेज बुखार हुआ। हालत इतनी बिगड़ी कि अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा। रमेश को छुट्टी नहीं मिली, सास को समय नहीं था। सावित्री ही थी जो बेटे के सिरहाने तीन रातें अस्पताल के फर्श पर बैठकर काट गई। दवाइयों का खर्च, डॉक्टरों की बेरुखी और अस्पताल की बदबू सब कुछ उसने चुपचाप झेला।

हर रात बेटे का माथा सहलाते हुए वह सिर्फ एक बात सोचती रही , काश वह पढ़ी-लिखी होती। कोई नौकरी होती, कोई पहचान होती, तो वह इन हालातों से लड़ पाती। रुचि ने हार नहीं मानी। उसने खुद स्कॉलरशिप हासिल की और शहर से बाहर पढ़ने चली गई।

उधर रमेश अब बूढ़ा होने लगा था। बीमारी, चिड़चिड़ापन और बेबसी, सब बढ़ने लगे।एक रात रमेश ने चुपचाप कहा “मैंने जिंदगी खराब कर दी। तुम्हें कुछ बनने नहीं दिया, खुद भी कुछ नहीं बना।”

सावित्री ने उसकी आंखों में देखा और शांत स्वर में कहा,”हम सबकी चुप्पियाँ हमें खा गईं।”

एक शाम आदित्य भागते हुए आया “मां! मेरी जॉब लग गई! बैंक में क्लर्क बना हूं।”सावित्री की आंखें भर आईं।उसने मोहल्ले में मिठाई बांटी।

रुचि डॉक्टर बन चुकी थी, और वीडियो कॉल पर बोली -“मां, अब आप सिर्फ आराम करना। अब आप मेरी बेटी जैसी रहिए।” सावित्री मुस्कराई बहुत वर्षो बाद।

लेकिन उसी रात वह देर तक दीवारों को निहारती रही , वही दीवारें, जिनके सामने उसने अपने आंसू बहाए थे, अपने सपनों को चुपचाप दफन किया था।अगली सुबह पता चला सावित्री अब नहीं रही।रुचि भागी आई।मां की शांत मुखाकृति को देखकर वह फूट-फूट कर रोई।फिर उसने अलमारी में रखी मां की डायरी उठाई।आखिरी पन्ने पर लिखा था – “मैंने बोलना कभी सीखा ही नहीं!लेकिन मैंने हर दर्द को जी लिया है।मेरी चुप्पियाँ तुम्हें आवाज देंगी जब तुम खुद को अकेला पाओगे।मैं इस खामोश घर की आखिरी आवाज थी।”

अब वो घर, जहाँ सावित्री की चुप्पियाँ गूंजती थीं, वहां उसकी तस्वीर दीवार पर मुस्कराती है।रुचि और आदित्य अक्सर कहते हैं -“मां आज होती तो खुश होती।”पर सच्चाई ये है मां आज भी वहीं है।

सावित्री अब भी ज़िंदा है , अपनी खामोशियों में, अपनी दीवारों में, उस घर की हर सांस …….

 

आकांक्षा पाण्डेय

बनारस, भारत

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