एक स्त्री की तीन आवाजें !

एक स्त्री की तीन आवाजें !

 

दोपहर की चाय जब तक उबलती, तब तक सीमा खिड़की के पास रखी कुर्सी पर बैठ जाती। सामने स्कूल से लौटते बच्चे, दूध वाला, दोपहर की सुस्ती में पसरे कुत्ते और बगल की अरोड़ा आंटी की आवाज़ें – सब रोज़ की तरह चल रहा होता, पर सीमा की आँखें कहीं और होतीं।

 

चालीस पार की उम्र में अब ज़िंदगी जैसे अपनी रफ्तार खुद तय करती थी। बच्चों के स्कूल-ट्यूशन, पति विनीत की नौकरी और सास की दवाइयों के बीच वह एक ऐसी धुरी बन गई थी, जिसे हिलना नहीं था, बस घूमते रहना था।

 

सीमा का जन्म जबलपुर के एक छोटे मोहल्ले में हुआ था, पिता क्लर्क थे, मां घरेलू। पढ़ाई में ठीक-ठाक, स्वभाव में गंभीर। विवाह के बाद वह इंदौर आ गई – एक अच्छे खाते-पीते मध्यमवर्गीय परिवार में, जहाँ स्टील की अलमारियों में सिलवटों से भरी साड़ियों की गंध और दालचीनी की छौंक से घर की पहचान बनती थी।

 

शुरुआत में सब कुछ नया और चमकदार लगा। विनीत सॉफ्टवेयर इंजीनियर थे– पढ़े- लिखे, कम बोलने वाले। शुरू-शुरू में उसने सीमा की कविताएं पढ़ीं, तारीफ की, और एक डायरी भेंट की। सीमा ने सोचा – यह जीवन कुछ खास हो सकता है।

 

पर वक्त के साथ सब कुछ रोज़मर्रा की धुन में खोता गया। दो बच्चे हुए – आरोही और विराट। घर की जिम्मेदारियाँ बढ़ीं। और सीमा ने अपनी डायरी बंद कर दी।

 

वहां एक अलमारी थी – पुराने वक़्त की – जिसकी चाभी केवल सीमा के पास थी।

 

इस अलमारी में उसके कुछ पुराने खत, सिलाई के धागे, एक लिफाफे में रखी डायरी, माँ की दी हुई पूजा की थाली, और कुछ अधूरी कहानियाँ थीं। जब सब सो जाते, वह उसे खोलती – जैसे अपना कोई सूखा हुआ जीवन फिर से नम करती हो।

 

“मम्मी, स्कूल का प्रोजेक्ट है – महिला सशक्तिकरण पर। कुछ मदद कर दो!” – आरोही एक दिन चिल्लाई।

 

सीमा मुस्कराई। “सशक्तिकरण का मतलब जानती हो?”

 

“हाँ… मतलब लड़कियाँ भी कुछ भी कर सकती हैं… कुछ भी।”

 

“अच्छा। तो क्या तुम सब्ज़ी लाना, गैस भरवाना, सास को BP की गोलियाँ समय पर देना, और बच्चों के प्रोजेक्ट बनाना सब कर सकती हो?”

 

“वो तो आप करती हो ना…” आरोही रुक गई।

 

“बस वही। यही महिला सशक्तिकरण है, बेटा – बिना नाम के, बिना ताली के, बस चलते जाना।”

 

सीमा की दुनिया बँधी हुई थी – विनीत की थकान, बच्चों की परीक्षाएं, बजट में सिमटा हर महीना – पर उसके भीतर कुछ लगातार जागता रहता। वह अब हर महीने एक कविता लिखने लगी थी। चोरी-छुपे नहीं, बल्कि खुद के लिए। उसकी कविताएं अब सोशल मीडिया पर पोस्ट होती थीं – नाम से नहीं, “खाली अलमारी” नाम से।

 

धीरे-धीरे “खाली अलमारी” के पाठक बढ़ने लगे। लोग उसके शब्दों में खुद को ढूँढने लगे। और एक दिन – जब महिला दिवस पर कॉलेज से बुलावा आया – उसकी हँसी सच में देर तक रुकी रही।

 

“आपका परिचय?”

 

“एक गृहिणी। और थोड़ा बहुत लिख लेती हूँ।”

 

“आपकी सबसे बड़ी उपलब्धि?”

 

“मैंने खुद को नहीं खोया – यही मेरी सबसे बड़ी उपलब्धि है।”

 

उस दिन जब वह मंच से उतरी – विनीत सामने खड़ा था। चुपचाप। पर उसकी आँखें कुछ कह रही थीं।

 

“तुम्हारी डायरी तो मैंने बरसों पहले पढ़ ली थी,” उसने मुस्कराते हुए कहा। “लेकिन अब जो लिखती हो… उसमें तुम्हारी असली आवाज़ है।”

 

सीमा की आंखों में पानी भर आया। इतनी चुप्पियों में उसने कभी नहीं सोचा था कि विनीत पढ़ता था। समझता था।

 

“तुम चाहो तो अपनी कविताओं की किताब छपवा लो,” विनीत ने कहा।

 

“तुम्हें लगता है कोई पढ़ेगा?”

 

“तुम खुद को पढ़ती हो ना? वही काफी है।”

 

अब वो अलमारी हर शाम खुलती थी।

 

उस दिन सीमा ने पुराने खतों को पढ़ा, फिर एक-एक कर उन्हें सम्भाल कर रख दिया। माँ की पूजा की थाली अब सुबह की आरती में शामिल हो गई थी। और उस डायरी की कविताएँ – “खाली अलमारी” नाम से अब किताब बन चुकी थीं।

 

उस मध्यमवर्गीय घर में एक औरत थी, जिसने कोई युद्ध नहीं लड़ा, कोई इंकलाब नहीं किया – बस अपने हिस्से की चुप्पियों को शब्द दे दिए।

 

और जब एक दिन उसने अपनी बेटी से कहा – “आरोही, तू जो चाहे बन, पर कभी अपनी आवाज़ मत खोना…” – तो उसे लगा, उसने माँ की तरह ही एक गूंगी परंपरा को तोड़ दिया।

 

सीमा का अलार्म रोज़ 5:45 पर बजता था, लेकिन वह उससे दो मिनट पहले ही जाग जाती थी — जैसे जीवन अब समय से नहीं, आदत से चलता हो।

 

गैस पर दूध चढ़ाया। तवा गरम किया। विराट को चिल्लाकर उठाया। आरोही की जुराबें ढूंढीं। और विनीत का लंच बॉक्स तैयार किया — हर एक क्रिया बिना किसी संवाद के, एक ‘स्मार्ट मशीन’ की तरह।

 

फिर एक क्षण आया — दूध का बर्तन छलकते-छलकते रुक गया। गैस धीमी की। और वह पल — एक खामोशी से भरा पल — बस उसका था।

 

उसने आँखें मूँदीं।

 

सोचा — अगर वह एक दिन कुछ ना करे तो क्या होगा? क्या यह घर रुकेगा?या बिखरेगा?

 

उसने रसोई की खिड़की से झाँका। एक चिड़िया, कपड़े की तार पर फुदक रही थी। कुछ देर में उड़ जाएगी।

 

सीमा नहीं उड़ सकती। उसे परों की जगह ज़िम्मेदारियाँ मिली थीं।

 

सप्ताह के सात दिन उसके भीतर अलग-अलग चेहरों में रहते थे।

 

सोमवार – थकान और नई शुरुआत का बोझ लिए आता।और अंत में

रविवार – सबसे ज्यादा धोखा देता। वह सोचती “आज आराम मिलेगा”, पर सबसे ज़्यादा काम उसी दिन होता।

 

इन सात दिनों में, वह रोज़ थोड़ा-थोड़ा अपने लिए लिखने लगी थी।

 

उसकी कविताएं अब दूसरी औरतों तक पहुँचने लगी थीं। वे कहतीं —

“तुम हमारी आवाज़ बन गई हो।”

 

सीमा को लगता, ये सारी आवाज़ें, जैसे उसी अलमारी में बंद थीं – बस अब उसने उन्हें खोलने की चाभी पा ली थी।

 

उस दिन

जब आरोही स्कूल से लौटी। उदास थी।

 

“क्या हुआ बेटा?”

 

“मम्मी, सब मुझसे कहते हैं कि तुम बहुत ‘ordinary’ हो। उनकी मम्मियाँ ऑफिस जाती हैं, … तुम बस घर में रहती हो।”

 

सीमा मुस्करा दी। उसके चेहरे पर कोई शिकन नहीं थी।

 

“तो? मैं घर में रहती हूँ,

 

“मतलब?”

 

“मतलब ये कि इस घर में जब सब सोते हैं, तब भी मैं जाग रही होती हूँ — सबके सपनों को पूरा करने के लिए। मैं दिखती नहीं, पर तुम्हारे जीवन में मैं हर रोज़ होती हूँ — दूध की तरह, जो खौलता है… लेकिन मिठास बनकर तुम्हारी चाय में घुल जाता है।”

 

आरोही चुप थी।

 

उसने अपनी मम्मी की आँखों में कुछ देखा — एक शांत नदी, जिसमें ताक़त लहरों से नहीं, गहराई से आती है।

 

उसी रात सीमा ने एक कविता लिखा:

 

“एक स्त्री जो घर में रहती है”

 

वह ऑफिस नहीं जाती

पर उसकी उंगलियों में ऑफिसों के फ़ाइल पिघलते हैं

वह कार नहीं चलाती

पर परिवार को हर रोज़ मंज़िल तक ले जाती है

वह सेल्फ़ी नहीं लेती

पर उसकी आँखों में सबका चेहरा रहता है

वह कहती नहीं कुछ

पर जब उसकी डायरी खुलती है

तो सैकड़ों औरतें बोल पड़ती हैं।

 

एक दिन विनीत ने कहा

“तुम्हारी किताब छापने का प्रस्ताव आया है। छपवा लो न, सीमा।”

 

“विनीत ,।तुम्हें लगता है कि मेरी कविताएँ दुनिया समझेगी?”

 

“शायद नहीं,” विनीत ने कहा। “पर जिनके लिए तुम लिखती हो, वो समझती हैं। और बस वही काफी है।”

 

सीमा के लिए यह सबसे बड़ा प्रेम-वाक्य था – बिना फूलों, बिना छूने, केवल समझने से जन्मा हुआ।

 

उस आलमारी में

अब एक नई चाभी भी जुड़ गई थी – विश्वास की।

और जब एक शाम सीमा ने पहली बार बड़े मंच से अपनी कविता पढ़ी —

तो वहाँ बैठी ढेर सारी औरतों की आँखें भीग गईं।

 

वे सब अपने घरों में ‘सीमा’ थीं।

 

वो अलमारी, जो कभी दहेज में आई थी — भारी, काले रंग की, अंदर से गुलाबी कपड़े से मढ़ी हुई — अब एक अलग जगह बन गई थी।

 

सीमा उसमें अपनी दुनिया रखती थी

पुराने खत, अधूरी कविताएँ, बच्चों के पहले दाँत, माँ की चुन्नी का कोना, और एक छोटी-सी पोटली…

जिसे उसने कभी नहीं खोला था।

 

उस दिन हल्की बारिश हो रही थी।

घर में सब सो चुके थे।

सीमा ने हौले से अलमारी खोली और वह पोटली निकाली।

 

पुराने रेशमी कपड़े में बंधी थी वो — माँ की महक अब भी थी उसमें।

 

खोलते ही एक चिट्ठी हाथ में आई।

 

माँ की चिट्ठी।

सीमा को याद आया, ये वो दिन था जब माँ उसे विदा कर रही थीं, और बहुत रोई थीं। चुपचाप यह चिट्ठी उसकी साड़ी में छुपा दी थी।

 

सीमा ने आज तक नहीं खोली थी — डर था कि कुछ टूट जाएगा।

 

चिट्ठी….

 

प्रिय सीमा,

 

जब तुम ये चिट्ठी पढ़ रही होगी, शायद तुम वही होगी — जो मैं अपनी उम्र में तेरे वक्त पर थी।

 

और तुम समझेगी वो चुप्पियाँ, जो मैंने पहनी थीं।

 

बेटी, हम औरतें अपने लिए बहुत कम जी पाती हैं।

जब माँ बनती हैं, तो खुद को एक किनारे रख देती हैं — और वो ‘किनारा’ इतना स्थायी हो जाता है कि फिर लौटना असंभव लगता है।

 

मैंने भी तुम्हें पालते हुए, खुद के सपनों को तह करके इस अलमारी में रख दिया था।

 

मुझे पढ़ना था, बनना था कुछ… लेकिन समय ने मुझे माँ बना दिया। और फिर, मैं ‘माँ’ ही रह गई।

 

अब जब तुम इस अलमारी को अपना कहोगी, तो मेरी एक विनती है

 

तुम इसे कभी पूरी तरह से मत भरना।

एक कोना हमेशा खाली रखना — अपने लिए।

जहाँ तुम वो लिख सको जो दिल कहे।

 

मुझे भरोसा है तुम मेरी बेटी नहीं, मेरी अधूरी कविता पूरी करोगी।

 

तुम्हारी माँ.

 

सीमा ने वह चिट्ठी पढ़कर अपनी आँखें बंद कर लीं।

माँ की आवाज़ जैसे कमरे में गूंज रही थी।

 

सीमा को लगा जैसे अब वह माँ को जवाब दे सकती है।

 

“माँ, मैं वो कविता पूरी कर रही हूँ।

हर रोज़, हर शब्द के साथ।”

 

सीमा की किताब छपी

 

“खाली अलमारी” – कविता-संग्रह के रूप में प्रकाशित हुई।

 

उसका विमोचन एक छोटे से सांस्कृतिक कार्यक्रम में हुआ —

स्कूल की अध्यापिकाएँ, कुछ युवा कवियत्रियाँ, और शहर की कुछ गृहिणियाँ उस शाम वहाँ थीं।

 

सीमा ने पहली कविता पढ़ी —

वही, जो उसने माँ की चिट्ठी के बाद लिखी थी:

 

“एक कोना मेरे लिए”

 

घर का हर कोना

किसी के नाम था

पिता की अलमारी,

भाई का स्टडी टेबल,

माँ की पूजा की जगह,

बच्चों की दीवारें…

मैंने एक कोना माँग लिया

अपनी डायरी के लिए।

बस इतना ही

और उसी कोने से

मैंने पूरे घर को फिर से देखना शुरू किया।

 

एक रात आरोही सीमा के पास आकर लेट गई।

 

“मम्मी, आप थकती नहीं?”

 

“बहुत थकती हूँ बेटा।”

 

“तो मुस्कुराती क्यों हो?”

बेटी के बाल सहलाते हुए कहा —

“क्योंकि मैं जानती हूँ, तुम मेरे साथ हो ।

 

आरोही ने कुछ नहीं कहा — बस माँ का हाथ पकड़ लिया।

 

अब उस अलमारी में दो डायरियाँ हैं।

 

एक सीमा की —

एक आरोही की।

 

और अलमारी का वो कोना,

जो कभी माँ ने खाली छोड़ा था —

अब वहाँ शब्दों की नई पीढ़ियाँ पनप रही हैं।

 

बरसात का महीना था।

बालकनी में गमलों में रखे तुलसी और गुड़हल के पत्ते भीगकर और गहरे हरे हो गए थे।

सीमा ने चाय का कप थामे खिड़की से बाहर झाँका।

आसमान से पानी नहीं — जैसे पुरानी यादें उतर रही थीं।

 

उसकी किताब “खाली अलमारी” को छपे हुए दो महीने हो चुके थे।

कई पत्रिकाओं में समीक्षाएँ छपीं। एक इंटरव्यू भी आया, जिसमें उसने बस इतना कहा:

 

“मैं सिर्फ एक औरत हूँ, जिसने अपनी चुप्पी को भाषा दे दी।”

 

लेकिन असली बदलाव तब शुरू हुआ —

जब मोहल्ले की कुछ औरतें दरवाज़े पर दस्तक देने लगीं।

 

“भाभी… वो… आपकी किताब पढ़ी। कुछ बातें खुद की सी लगीं।”

 

“हम भी कभी कुछ लिखते थे… कॉलेज में। अब सब छूट गया।”

 

“कभी हमारी कहानियाँ भी सुनिए ना…”

 

सीमा मुस्कराई।

 

“सुनूंगी क्यों नहीं… लिखवाऊंगी भी।”

और फिर इस तरह “शब्द-समूह” की शुरुआत हुई

उसने अपने छोटे से ड्राइंग रूम को बदला।

 

दीवार पर एक कोना —

जिस पर उसने माँ की चिट्ठी का एक वाक्य फ्रेम करवा कर लगाया:

 

“एक कोना हमेशा अपने लिए खाली रखना।”

 

अब हर रविवार दोपहर को पाँच-छह औरतें आतीं।

कुछ गृहिणियाँ, एक विधवा, एक तलाकशुदा युवती, एक कॉलेज में पढ़ाती मिसेज़ खान, और साठ पार की बिंदु आंटी — जो अब भी साड़ी का पल्लू सिर पर रखती थीं।

 

पहले दिन सब चुप रहीं।

 

दूसरे दिन कुछ कहानियाँ निकलीं।

 

तीसरे हफ्ते किसी ने एक कविता सुनाई —

जिसमें उसने लिखा था:

 

“मैं सबकी बहू हूँ, पर खुद की बेटी कभी नहीं बन पाई।”

 

सीमा ने उस दिन जाना

हर औरत एक कविता है,

बस उसे सुनने वाला चाहिए।

 

शब्दों से रिश्ते बनते हैं

 

धीरे-धीरे वह समूह फैलने लगा।

 

एक औरत अपने बेटे को ट्यूशन छोड़कर आती,

दूसरी सब्ज़ी लेकर लौटते हुए रुकती,

 

तीसरी अपनी सास से छुपकर आती

क्योंकि “कविता तो बेकार औरतें लिखती हैं” — ऐसा उनका घर मानता था।

 

पर जब उन्होंने अपनी पहली कहानी सीमा को दी —

वो सिर्फ कहानी नहीं, एक स्वीकृति थी — खुद की।

 

कॉलोनी में फुसफुसाहटें शुरू हो गई थीं ।

 

“अब तो क्लास चलने लगी है उसके घर में।”

 

“कविता के बहाने लड़कियाँ बिगड़ती हैं।”

 

“घर छोड़कर क्या मिलेगा उन्हें?”

 

सीमा चुप रही।

 

उसे माँ की बात याद आई

“ज्यादा बोलने वाली औरतें सबको खटकती हैं,

पर अंत में वही परिभाषा बदलती हैं।”

 

एक शाम विनीत ने पूछा,

“तुम अब हर रविवार व्यस्त हो जाती हो। कभी हमारे लिए भी समय निकालो…”

 

सीमा ने उसके चेहरे की थकान पढ़ी।

कुछ पल रुकी, फिर बोली —

 

“मैं अब भी तुम्हारे लिए रोटियाँ बेलती हूँ,

बच्चों के लिए लोरियाँ कहती हूँ,

लेकिन अब… मैं अपने लिए भी एक वाक्य गढ़ती हूँ।

बस यही संतुलन है, विनीत।”

 

विनीत मुस्कराया —

“तुम बदल रही हो, सीमा।”

 

“नहीं,” उसने कहा,

“मैं खुल रही हूँ।”

 

और फिर…

 

उस ‘शब्द-समूह’ की पहली पुस्तक छपी —

“हम भी कहती हैं” –

एक संग्रह, जिसमें कॉलोनी की दस औरतों की कहानियाँ, कविताएँ और पत्र शामिल थे।

 

पुस्तक के लोकार्पण में जब सीमा मंच पर बिंदु आंटी को बुला रही थी

तो बिंदु आंटी की आँखों में आँसू थे।

 

“मैंने कभी नहीं सोचा था कि साठ की उम्र में भी कोई मुझसे पूछेगा —

‘आप क्या कहना चाहती हैं?’”

 

वो रविवार की दोपहर थी।

 

ड्राइंग रूम में चाय की ख़ुशबू थी,

मेज़ पर बिंदी लगी कॉपियाँ, कुछ लिफ़ाफ़े, और बीच में “हम भी कहती हैं” पुस्तक की कुछ प्रतियाँ थीं।

पंखा धीमे-धीमे घूम रहा था, और औरतों की हँसी उसमें उलझ कर दीवारों से टकरा रही थी।

 

शब्द-समूह अब सिर्फ एक समूह नहीं रहा था —

वो अब एक आवाज़ थी,

जिसने चुप घरों के दरवाज़ों पर दस्तक देना शुरू कर दिया था।

 

बिंदु आंटी की कविता

 

उस दिन बिंदु आंटी ने पहली बार एक पूरी कविता सुनाई:

 

“मैंने कई साल पहले

बोलना छोड़ दिया था

क्योंकि किसी को

सुनने की फुर्सत नहीं थी।

अब जब मैंने फिर बोलना

शुरू किया है,

तो खुद को भी चौंकाया है।

मैं अब भी वही हूँ

पर मेरी चुप्पी अब मेरी नहीं रही।”

 

पूरे कमरे में सन्नाटा था।

 

और फिर तालियाँ — बहुत धीमी पर बहुत सच्ची।

 

सीमा ने धीरे से आंटी का हाथ पकड़कर कहा —

“आपने अपने हिस्से की पगडंडी बना ली, आंटी।”

 

औरतें जो अब डरती नहीं थीं

 

एक विधवा, जिसे समाज अब भी एक ‘हाशिये पर पड़ी चीज़’ मानता था

उसने अपनी प्रेम-कहानी सुनाई,

जिसमें प्रेम वासना नहीं, साहस था।

 

एक गृहिणी, जिसकी आवाज़ पहले केवल “हाँ मम्मी जी” तक सीमित थी —

उसने एक कहानी लिखी, जिसका नाम था: “एक दिन मैं गायब हो जाऊँगी”।

 

और एक बार जब शब्दों की नदियाँ खुल जाती हैं —

तो वे घर की दीवारें नहीं, रूढ़ियाँ बहा ले जाती हैं।

 

आरोही अब बारहवीं में थी।

 

एक दिन उसने कहा —

“मम्मी, इस बार बोर्ड प्रोजेक्ट में मैं आपके शब्द-समूह पर थीसिस बनाना चाहती हूँ।”

 

सीमा चौंकी —

“थीसिस? मेरे इन सादे शब्दों पर?”

 

“आपको नहीं लगता आप और आपकी दोस्तें एक सामाजिक अध्ययन की मिसाल हैं?”

 

सीमा कुछ देर चुप रही।

फिर मुस्करा दी —

“तुम देख रही हो, आरोही… और यही मेरी जीत है।”

 

आरोही को भाषण प्रतियोगिता में बोलना था —

 

विषय था: “आज की महिला और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता”

 

उसने माइक पर खड़े होकर कहा

 

“मुझे नहीं पता कि महिला सशक्तिकरण का पूरा व्याकरण क्या है,

पर मैं जानती हूँ कि जब मेरी माँ की आँखें कविता पढ़ते वक़्त चमकती हैं,

तो मेरे भीतर भी कुछ जल उठता है।

 

और वो जलना मुझे कमजोर नहीं, मजबूत बनाता है।

क्योंकि मैंने अपनी माँ को एक कविता बनते देखा है।”

 

स्कूल हॉल में कई शिक्षिकाएँ रो पड़ीं।

 

कुछ ने कहा — “ये सिर्फ एक बेटी की नहीं, हम सबकी कहानी है।”

 

और तब…

 

सीमा को राज्य महिला आयोग से एक पत्र आया —

“आप हमारे कार्यक्रम ‘मौन से संवाद तक’ की ब्रांड एम्बेसडर बनें।”

 

सीमा ने खत पढ़ते हुए अपनी माँ की चिट्ठी को देखा —

वो जो अब फ्रेम में दीवार पर टंगी थी।

 

उसमें माँ ने लिखा था —

“एक दिन तुम मेरी अधूरी कविता पूरी करोगी।”

 

सीमा ने फुसफुसाकर कहा —

“माँ, अब ये कविता अकेली नहीं रही।”

 

वसंत आ गया था।

 

गमलों में गेंदा मुस्कुरा रहा था,

घर की खिड़की पर आरोही ने पहली बार खुद से चुना हुआ पर्दा लगाया था —

पीला, फूलदार, थोड़ा बेढब… पर उसकी पसंद का।

 

सीमा ने उसे देखा —

और उसे पहली बार बेटी नहीं, एक स्त्री की तरह महसूस किया।

 

कॉलेज का आख़िरी साल था

 

आरोही अब ग्रेजुएशन के अंतिम वर्ष में थी।

उसने अपना प्रोजेक्ट थीसिस दिया था:

 

“तीन पीढ़ियाँ, एक चुप्पी की टूटती परंपरा”

(मूल्यांकन: स्त्री लेखन और आत्मकथात्मक स्वर)

 

उसने उसमें दादी की चिट्ठियों के अंश लिए,

माँ की कविताएँ,

और अपनी खुद की डायरी —

जिसमें उसने लिखा था:

 

“मैंने अपनी माँ को जीते देखा —

रोटियों के बीच, आँचल के नीचे, शब्दों की तह में।

 

और मैं अब जानती हूँ

माँ बनना सिर्फ संतान पैदा करना नहीं,

किसी की चुप्पी को जन्म देना भी है।”

 

सीमा रसोई में चाय बना रही थी।

आरोही पास आई और

माँ का हाथ थामा

“मैं तुम्हारे अधूरे हिस्सों से भी प्यार करती हूँ, माँ।”

 

सीमा की आँखें भर आईं।

 

उसने महसूस किया — बेटी अब सिर्फ सुनती नहीं, समझती भी है।

 

सीमा अपनी तीसरी किताब पर काम कर रही थी।

शीर्षक था — “एक स्त्री की तीन आवाज़ें”

 

इस बार वह कोई काल्पनिक रचना नहीं थी —

बल्कि एक स्त्री-वृत्तांत।

 

उसमें तीन स्त्रियाँ थीं

 

1. उसकी माँ — जिनकी चिट्ठियाँ अब भी नम थीं।

 

2. वह खुद — जो शब्दों की नाव में समय के थपेड़ों से लड़ रही थी।

 

3. और आरोही — जो अब अपने हिस्से की खिड़की खोल चुकी थी।

 

पुस्तक का समर्पण कुछ यूँ था:

 

“माँ को — जो चुप रहीं।

मुझे — जो कहना सीखा।

और मेरी बेटी को —

जो अब कभी चुप नहीं रहेगी।”

 

पुस्तक विमोचन था।

कमरे में तीन पीढ़ियों की औरतें थीं।

कुछ ने चश्मा पहनकर पढ़ा, कुछ ने रोते हुए सुना ।

 

और अंत में आरोही ने मंच पर आकर कहा:

 

“मेरी माँ ने मुझे शब्द दिए,

और मैंने उन्हें उत्तर दिया —

कि अब बेटियाँ माँ से आगे जाकर,

उनकी भूली हुई कहानियाँ याद रखती हैं।”

 

सीमा मुस्कराई।

उसने अपनी डायरी में आख़िरी पंक्ति लिखी:

 

“अब मैं चैन से सो सकती हूँ —

मेरी बेटी मुझे पूरा कर रही है।”

 

नंदा पाण्डेय

रांची, भारत

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