अनाथालय

अनाथालय

 

ये क्या है! मीटिंग में भी कोई – कोई आता है। लेटर में तो लिखा रहता है कि सबको अटेंड करना अनिवार्य है। लिखने – पढ़ने का कोई अर्थ नहीं है। बारह स्कूल से ग्यारह मुंडी। कम से कम पैंतीस – चालीस जन होंगे। हर बार यही होता है। अभी पाण्डेय जी कहेंगे – “अरे गुप्ता जी, आपकी तरह यहां कोई फौजी थोड़े है। सबको जरूरत रहता है। आपको भी कभी आवश्यकता पड़ेगी। आदेश भी तो परेशान करने वाला ही होता है ना। स्कूल बंद करने के बाद का मीटिंग रखते है…जब मीटिंग इतना जरूरी है तो एक दिन मीटिंग का ही रख दो।”

जो भी हो गुप्ता जी का मुंह बना ही रहता है। रोज गणित लगाते रहते हैं कि चौदह सी.एल. में साल भर कैसे निपटेगा। गर्मी – सर्दी की छुट्टी ऐसा फिक्स है कि लगता है इसी में शादी – गौना, मरनी – करनी पड़ेगा। संपत गुरु जी कहते हैं – “काहें चिंता करते हैं जी? का जरूरत है आपको? कितना दिन चाहिए? जाइए कौन रोका है…. ऐसे ही चला है और आगे भी चलेगा।”

संपत गुरु जी का आखिरी साल है। सारी नौकरी मजे में कट गई। बाल – बच्चे नौकरी – चाकरी में लग गए। अब काहे का फिकर। बहुत लकी हैं। तब जमाना कुछ और ही था। न तब इतने पूछने वाले थे, न इतना फालतू काम। मई महीना आदेश आया है कि अध्यापक लोग घर – घर परिवार और आय सर्वे करेंगे। वो भी स्कूल बंद होने के बाद। पता ही नहीं चलता कि ये शिक्षा विभाग है या राजस्व विभाग। बड़े चालाकी से आदेश में लिख दिया जाता है कि सर्वे स्कूल समय में नहीं किया जाएगा। ऐसा आदेश इसलिए है ताकि पठन – पाठन में टूटन न हो। बच्चों का नुकसान न हो। बहुत टेक्निकल शब्द है ये। इस दुपहरिया में गुरु जी लोग जब घर – घर घूमेगा तो डिस्टर्ब तो रहेगा ही। भुनभुनाते स्कूल आयेगा और बड़बड़ाते घर जाएगा।

इसका भी उपाय है संपत गुरु जी के पास। कहते हैं जिंदगी में परेशान नहीं होना चाहिए।काम चलता रहेगा। लेकिन गुप्ता जी कहते हैं – “कैसे?”

गुरु जी कहते हैं –”आपको नहीं करना है, तो मत करिए। आप घर जाइए। जब तक हम हैं चिंता करने की आवश्यकता नहीं।”

उनको शक होता है। कैसे संपत गुरु जी ऐसा कह रहे हैं। सच कहते हैं कि मजाक करते हैं। वे कहते हैं – “गुप्ता जी, घर जाइए…..।”

गुप्ता जी अवाक उन्हें ताकते हैं। गुस्से में कह रहे हैं का जी। गुरु जी फिर कहते हैं –”जाइए भाई…।”

“गुरु जी नाराज क्यों होते हैं?” वे पूछते हैं। जवाब में गुरु जी हँसते हैं। अनामिका मैडम मुस्काती हैं। शर्मा जी ठठाते हैं। गुरु जी कहते हैं –”नाराज नहीं है भाई….आपको घर में काम है ना, तो आप जाइए।”

गुरु जी फिर कहते हैं –”काम की बात नहीं है। ये फौज नहीं है। यहां खुश रहा कीजिए। कोई जान नहीं ले लेगा। अधिकारी पूछेगा तो हम हैं…।”

अनामिका मैडम रजिस्टर आगे बढ़ाती हैं। वे साइन करते हैं। प्रणाम कहते हैं और स्प्लेंडर स्टार्ट कर घर जाते हैं। मगर उनको अच्छा नहीं लगता। क्या सोच कर आए थे और क्या हो रहा है। बिना काम किए काम कैसे हो जाएगा। गुरु जी उनके हिस्से का काम करेंगे? अपराधबोध होता है उन्हें। लेकिन वे कैसी जगह फंस गए हैं। सोचे थे स्कूल में जान फूंक देंगे। बच्चों को निखार देंगे। कितना सारा झमेला है। एक तो ई अभिभावक लोग बड़े नालायक हैं। देखते ही नहीं बच्चा स्कूल जाता है कि नहीं। स्कूल से कोई काम मिला है या नहीं। कॉपी – किताब का क्या हाल है। आठ – आठ दिन तो नहाते नहीं ससुरे। कोई माई – बाप पूछत्तर नहीं। ऊपर से ये नानी – मौसी किसी बच्चे को पढ़ने नहीं देती। गरीबों की नानी – मौसी अक्सर बीमार ही रहती हैं। जब बुलाने जाओ तो जवाब मिलता है – नानी के घर गया है….. मामा – मौसा आए हैं….कल से पक्का स्कूल जायेगा। संपत गुरु जी के पास इसका भी जवाब है –”कहते हैं गुप्ता जी, मजदूर लोगों के बच्चे हैं। अपने से तुलना मत किया कीजिए।”

“बच्चे उनके हैं। उनका कुछ फर्ज होता है कि नहीं?”

“फर्ज का होता है जी…वो तो कर्तव्य निभाने में मर रहे हैं। बच्चे के स्कूल से पहले वे मजदूरी खोजने निकल जाते हैं।शाम को आते हैं तो बदन टूटता।एक पौवा लगा लेते हैं। रात भर थकावट निवारते हैं, ताकि अगले दिन फिर से हाड़ तोड़ मेहनत कर सकें। आपको लगता है कि उनको अच्छा लगता है कि उनके बच्चे लावारिस की तरह रहे। आपका पेट भरा है, तो आप बाल – बच्चों की खबर रखते हैं। उनका तो सारा वक्त खाना जुटाने में जाता है जी।”

गुरु जी से गुप्ता जी तर्क नहीं कर पाते। गांव – देहात, चौवा –चांगुर सबका अनुभव है उनको। अड़तीस साल गांव – गिरांव घूमे है। उनकी तरह अठारह की उमर से परदेस में नहीं काटे हैं। धीरे – धीरे वे भी सब चीजों से परिचित हो जाएंगे। मनई – मजूर की मजबूरियां समझने लगेंगे। पर उनको तो बहुत डर लगता है कि कैसे वे यहां की ड्यूटी निभा पाएंगे। फौज में तो स्पष्ट आदेश होता था। अपना पोस्ट होता था। अपनी ड्यूटी किए और ऑफ हो गया। यहां का तो भगवान मालिक है। बदनामी बहुत है। इतना तनख्वाह मिलता है पर विद्यार्थी नकारा ही निकलता है। कितना बड़ा तोहमत है ई शिक्षक लोगन पर। प्राइवेट वालों का बोल – बाला है। मोटी फीस लेते है, तब भी लोग लाइन लगाए हुए है। उनके पास तो इतना पढ़ा – लिखा अध्यापक नहीं है। फिर भी कैसे उपलब्धि बटोर रहे हैं। स्कूल मालिक चांदी काट रहे हैं। एक के बाद एक नया स्कूल खोल रहे है। संपत गुरुजी कहते हैं – “गुप्ता जी आप थोड़ा शर्मा जी के साथ बैठा कीजिए। उनके पास आपके हर सवाल का जवाब है।”

शर्मा जी टेंशन फ्री आदमी हैं। शांतचित्त रहते हैं। ज्यादा सोचते नहीं। शायद थोड़ा और पुराने होकर वो भी नॉर्मल हो जाएंगे। परिस्थितियों में ढल जाएंगे। शर्मा जी कहते है –”गुप्ता जी कभी सोचे हैं कि जो लोग सरकारी परीक्षाओं में फेल हो जाते हैं, वे कहां जाते हैं?”

“कहां जाते हैं?”

“वे इन्हीं तथाकथित कॉन्वेंट स्कूलों में पढ़ाते हैं। कितने तो टेट – सीटेट भी नहीं होते।”

“फिर कैसे इतने सफल हैं?”

“वे सफल हैं क्योंकि उन्हें अच्छे गार्डियन मिलते हैं। जितने विषय और कक्षाएं हैं उसके हिसाब से वे टीचर रखते हैं। उनका कोई क्लास खाली नहीं रहता… उनके यहां एक टीचर को दो क्लॉस लेकर नहीं बैठना होता है….वैसे तो मैं कहता हूँ कि आप सोचिए कम। अपनी ड्यूटी करिए और खुश रहिए।”

एकदम सही सलाह दिया शर्मा जी ने। लेकिन गुप्ता जी का दिमाग कभी शांत नहीं रहता। अब लोगों ने उनका नाम परेशान – आत्मा रख दिया है। अक्सर इधर ट्रेनिंग , उधर ड्यूटी लगा रहता है। एक तरफ वे कुछ नया पठन – पाठन की तैयारी करते, उधर ड्यूटी कहीं और लग जाती। स्कूल गांव के बाहर होता।सीधे धूप चीरती हुई खिड़की – दरवाजों से घुस जाती। बिजली का कोई पता ठिकाना नहीं। सीलिंग पर लगे – लगे पंखा ऊंघता रहता। लू आती तो साथ में गर्मा – गर्म धूल भी लाती। अध्यापक – छात्र धूल के पाउडर में नहाए रहते। बच्चों को कोई समस्या नहीं है। वे तो रोज उसी में रहते हैं। खुश भी रहते हैं। क्योंकि वे कभी इससे अच्छे जीवन स्तर से रूबरू ही नहीं हुए। उनको तो मिड डे मील का इंतजार रहता है। कब टाइम हो, कब वे गणित, हिंदी, अंग्रेजी से छुटकारा पाएं। इसके अलावा गुप्ता जी इससे भी चिड़चिड़ाए रहते कि जब कुछ लिखवाने या होमवर्क देना हो तो प्रायः अधिकतम बच्चों के पास कॉपी – पेंसिल नहीं रहता है। जब इसकी चर्चा उन्होंने संपत गुरु जी से की तो उन्होंने कहा –”हां, आपसे इसी शिकायत का हम इंतजार कर रहे थे। लेकिन आप आए बहुत लेट।”

गुप्ता जी प्रश्नवाचक चिह्न बनकर उन्हें देखते रह गए। गुरु जी ने कहा –”फौजी आदमी हैं, व्हिस्की तो पीते ही होंगे?”

व्हिस्की और उनकी इन बातों से क्या रिश्ता है? वह कुछ समझ नहीं पाए। बोले –”नहीं गुरु जी, दारू नहीं पीता।”

गुरु जी मुस्कराए बिना नहीं रह सके। बोले –”तब कैसे फौज में इतने दिन काट दिए? इसका मतलब है कभी हम आपके घर आएं तो निराश ही होना पड़ेगा….खैर कोई बात। सच कहूं तो इन बच्चों के पास न कॉपी – पेंसिल है न रहेगा। जिसके मां – बाप पाई – पाई के लिए मोहताज हों , उनके बैग में पेन – पेंसिल मत ढूंढ़ा कीजिए। दस – दस रुपए वाली दस – पांच कॉपी – पेंसिल रखा कीजिए। जिसके पास न रहे, उसे दे दिया कीजिए। बहुत सोचने की जरूरत नहीं है…हम भी करते हैं, मैडम भी करती हैं….सब करते हैं। समझिएगा की सौ – दो __ सौ का चाय – समोसा खा लिए।”

जैसे जैसे दिन बीत रहे थे गुप्ता जी नए माहौल को समझने लगे हैं। लेकिन क्या सब कुछ समझ सके? यह कहना मुश्किल है। फिर भी अब यह मान लिए थे कि पॉलिसी बनाने वालों और अधिकारियों के लिए ही ए सी कूलर होता है। उन्हें वहां बैठकर नीति निर्धारित करना होता है। वहीं क्यों, जो चपरासी – बाबू ऑफिस में बैठता है, वहां भी जनरेटर, बैटरी और इन्वर्टर लगा है। इसके बावजूद जब भी वे किसी काम से जाते हैं तो बाबू लोग भन्नाए मिलते हैं। कहते हैं –”गुरु जी, जो काम हो लिखकर दे दीजिए समय मिलते ही हो जाएगा।”

काम मगर होता नहीं । बार – बार जाना होता है। वहीं से वेतन – इंक्रीमेंट लगता है , वहीं से ड्यूटी लगती है, वहीं से स्कूलों का डेटा जाता है, वहीं से सारा काम होना है ।इसलिए वहां के बाबुओं से पंगा लेना ठीक नहीं है। शर्मा जी ने कहा –”गुप्ता जी, वहां जाने से काम नहीं होगा। कुछ चढ़ाने से होगा। सबके बाल बच्चे हैं।”

“शर्मा जी ऐसे तो अध्यापक का भी बाल – बच्चा है,” गुप्ता जी बोले।

“लेकिन अध्यापक के हाथ में लोगों का काम नहीं, वंचित बच्चों का काम है। उनसे का वसूलियेगा?”

गुप्ता जी सोचते हैं कि ये तो नमक से नमक खाना हो गया। एक ही विभाग का कर्मचारी दूसरे कर्मचारी का टेटुआ दबा रहा है। उन्हें अध्यापक नहीं बाबू ही होना था। जो अपने पास नहीं होता, उसका आकर्षण ज्यादा होता है। गर्मी के बाद बरसात शुरू हो गया है। स्कूल जाने का रास्ता पक्का है। पर लगभग सौ मीटर कच्चा जाना पड़ता है। उतना दूर पानी भरा रहता है। बच्चे तो छपाछप करते चले जाते हैं। पानी कम होता है तो कीचड़ हो जाता है । कीचड़ में पांव ठहरता नहीं। गुप्ता जी को अभी इसका अनुभव नहीं। वहीं हुआ जो नहीं होना था। पैर फिसला और गिर गए। नन्हे – नन्हे बच्चे उन्हें उठाने दौड़े। उठते – उठते पैंट – शर्ट मटियामेट हो गया। संपत गुरु जी ने कहा – “गुप्ता जी घर चले जाइए। ऐसे में कैसे बैठेंगे।”

गुप्ता जी अबाउट टर्न हुए और वापस चले गए। सोचने लगे – चलो खैरियत है कि हाथ पांव नहीं टूटे। दिन भर प्रधान और प्रशासन को कोसते रहे। उधर शिक्षा अधिकारी ने गुरु जी को फोन कर दिया और टेलीफोनिक हाजिरी लेने लगा। गुरु जी ने बताया कि महोदय गुप्ता जी फिसल गए थे इसलिए घर गए हैं। अधिकारी को मौका मिल गया। बोला –”बहाना मत बनाइए।”

“बहाना नहीं…सच है। हमने ही उन्हें भेजा है।”

“देखिए, इन्हीं सब कारणों से जांच करने का आदेश आया। ये सब नहीं चलेगा। गुप्ता जी को हम एब्सेंट कर रहे हैं।”

गुरु जी बड़े पशोपेश में पड़ गए। लेकिन खबर दबाए रहे। अगले दिन गुप्ता जी को बताए तो वे भड़क गए। बोले –”आप हमको तुरंत फोन किए होते तो ….वैसे भी हम तो रोज आने वाले अध्यापक हैं।”

“हमने कहा था। मगर क्या करें । अब नए मिजाज के अफ़सर आने लगे हैं। हमने तो यहां तक कहा था कि आकर बच्चों से पता कर लें। बच्चे सच बता देंगे….।”

“ये अधिकारी उनको क्यों नहीं पकड़ता जो स्कूल जाते ही नहीं हैं….कुछ अध्यापक तो उसी के आसपास मंडराते रहते हैं…।”

“देखिए, ये सब बात करने से कुछ होने – हवाने का नहीं। आप मिल लीजिए उनसे। बात कर लेंगे तो मेडिकल लीव में एडजस्ट हो जाएगा। जानते नहीं है – इनको भी जरूरत रहता है। सुना है लखनऊ में घर बनवा रहे है। हजार – पंद्रह सौ की बात है….।”

बरसात महीना के सूखे दिनों में तेज धूप लगने लगी है। शरीर पर घमौरियां उगने आई हैं।बच्चों को फोड़ा फुंसी निकलने लगे है। लाल – लाल फोड़े पक कर पीले पिरकी में तब्दील हो रहे हैं।बाप रे!शिवांगी बाल छिलवा कर आई है।इसका तो चेहरा और सर सब फोड़े से भरा है। गुप्ता जी पूछते है –”डाक्टर को दिखाई हो?”

“मम्मी, नीम का पत्ता उबाल कर लगाई हैं…।”

बच्चे सवाल का सीधा जवाब नहीं देते। तभी बीच में ही मेवालाल बोलता है –”गुरुजी, मुझे भी पिछले साल हुआ था…ठीक हो जाता है।”

कैसे ठीक हो जाता है भाई। ये चमत्कार इन्हीं लोगों के साथ क्यों होता है। बड़े – बड़े लोगों के साथ क्यों नहीं होता। गुप्ता जी कहते हैं –”नहीं, नहीं….अपनी मम्मी से कहना कि डाक्टर को दिखा दें।”

“हां, दिखाएंगे। मम्मी कह रही थी कि नीम से नहीं ठीक हुआ तो डॉक्टर को दिखाएंगी।”

कहने का मतलब तो यही निकलता है कि ये डॉक्टर तक कभी नहीं पहुंचेंगे। लेकिन गुप्ता जी को इसके अलावा दूसरी चिंता सता रही है। स्कूल बंद होने का समाचार आ गया है। अध्यापकों को समायोजित होना है। कौन कहां जाएगा पता नहीं। ऐसे में बच्चों के बारे में कौन सोचे। शर्मा जी और गुप्ता जी पता नहीं किस स्कूल में जाएंगे। संपत गुरु जी रिटायर्ड हो जाएंगे। बचेंगी केवल मैडम। पांचों क्लॉस मैडम देखेंगी। जब तक कोई नई भर्ती नहीं होती। भर्ती होगी भी क्यों, जब अध्यापक ही एक्स्ट्रा हो जाएंगे। वैसे आउट ऑफ स्कूल बच्चों का सर्वे करना है। घर घर घूमना है। वृक्षारोपण की ड्यूटी की लिस्ट आ गई है। गुप्ता जी को याद आता है कैसे संपत गुरु जी ने उन्हें परिवार सर्वे से बचाया था? क्या उनका हिस्सा भी खुद ही किए थे? संपत गुरु जी कहते हैं –”बेरोज़गारी बहुत है, गुप्ता जी। लोग परेशान हैं। नौजवान लड़के मटरगस्ती करके दिन गुजार रहे हैं। रसोइया के लड़के को दे दिया। उसने करके फीड भी कर दिया। होशियार है। बी ए पास भी। काम करना हो तो बहुत तरीके निकल जाते हैं। आप फ़िक्र न करें।”

बच्चों की ओर से बहुत टेंशन आता है।अंकित पंद्रह दिन बाद आया है। गुप्ता जी बहुत भड़के हुए है –”कहां गायब था?”

“बाबा का हर्निया का ऑपरेशन हुआ है।”

“तो उसमें तू क्या कर रहा था?”

“मै बकरियां चरा रहा था।”

“बकरियां चराएगा तो पढ़ेगा कब?”

“अब पढूंगा, गुरु जी”

“तो बकरियां कौन चराएगा?”

“बाबा।”

वह संक्षिप्त उत्तर देता है। गुप्ता जी सोचते हैं कि बाबा नहीं रहेंगे तो ये परमानेंट चरवाहा हो जाएगा। कुछ नहीं हो सकता इन लोगों का। सही है। इसीलिए संपत गुरु जी टेंशन न लेने को कहते हैं। ठंड की शुरुआत हो रही है। ओस पढ़ने लगी है। दिन छोटे हो रहे हैं। समायोजन स्थगित हो गया है। कोर्ट से स्टे हो आया है। धूप कमज़ोर हो रही है। स्वेटर निकलने शुरू हो गए हैं। सैंडल वाले गुरु लोग जूते पहनने लगे हैं। मगर बच्चे अभी भी नंगे पैर या स्लीपर में आ रहे हैं। किसी को पूछो कि जूते क्यों नहीं है….पैसे तो मिले थे न…।

वे बताते हैं –”टूट गए। सस्ते जूते थे। कब तक चलते।”

वही पहनकर तो ये अल्हड़ बच्चे कुछ दिन उधम मचाए थे। उसी से फुटबाल खेले, क्रिकेट खेले, दौड़े भागें। टूट गए वे। कईयों ने तो खरीदा ही नहीं था। इतने कम रुपयों से क्या होता है। घर की जरूरतों में लग गए। कई अभिभावक तो यही पूछने आ रहे हैं कि अब कितने दिन पैसे आयेंगे? नए सत्र तक सब्र नहीं है। बहुत दूर लगता है नया सत्र। वैसे वो भी आ ही गया है। सर्दी की छुट्टियों के बाद परीक्षा। परीक्षा के बाद रिजल्ट। रिजल्ट के बाद नया सत्र। लेकिन इसी सत्र में संपत गुरु जी रिटायर हो जाएंगे। बहुत नजदीक है सब। गुरु जी को जैसे अभी भी गुप्ता जी की चिंता है। कहते हैं –”चिंता नहीं करना, गुप्ता जी। सब दिन कट जाते हैं। कोई काम नहीं रुकता। दुनिया है, चलती रहती है। कभी रुकती नहीं।”

गुरु जी अब घर पर रहते हैं। स्कूल जाने की उनको जरूरत नहीं है। इधर अधिकारी दौड़ रहे हैं। ऊपर से आदेश है। कोताही बर्दाश्त नहीं की जाएगी। गुप्ता जी साहब के दफ्तर के चक्कर काट रहे हैं। कमियां बहुत है। उनके अनेकों कारण है। न कारण खत्म होंगे, न सुधार होगा। बस दौड़ना है। सब कुछ एडजस्ट करना है। बोलना कम है। सुनना ज्यादा। एक एक दिन बीत रहे हैं। ऐसे ही सब दिन बीत जाएंगे। मगर ये वंचित बच्चे दौड़ते हैं। लपक कर गुरु जी लोगों का झोला ले लेते हैं। उन्हें कुछ उठाने नहीं देते। आते – जाते पांव पर भहरा जाते हैं। सब कहते हैं – बच्चे निश्छल होते हैं। मगर ये निश्च्छल ही नहीं, अनाथ भी हैं। वो वाले अनाथ नहीं। सनाथ वाले अनाथ। इनके मां – बाप दोनों हैं, पर मजबूर हैं।

राम करन

बस्ती,उत्तर प्रदेश,भारत

 

 

0
0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments