अप्प दीपो भव

अप्प दीपो भव

 

 

“दीदी मोबाइल में खुशबू कार्ड भेजी है जरूर आइएगा।”

चाय का कप मुझे थमा कर और अपनी चाय लेकर मचिया पर बैठते हुए अनीता ने पहले बात यही कही।

मैंने झट मोबाइल खोला और व्हाट्सएप पर ‘खुशबू बुटीक’ पढ़ते ही समझ गई कि खुशबू ने एक बुटीक खोला है।

“चलो अच्छा हुआ अपने हाथ में हुनर है तो एक-एक पैसे के लिए मोहताज क्यों होना । उसके हाथ में जादू है, जो महिला या लड़की उसके हाथ का सिला कपड़ा एक बार पहन लेगी वह दूसरे से कपड़े कभी नहीं सिलवाएगी।”

मैंने राहत की सांस लेते हुए यह बात कही।

अठारह वर्षों से मेरे घर में घरेलू सहायिका के रूप में काम करती अनीता मेरी जिंदगी का अभिन्न हिस्सा बन चुकी है। भले ही उसके मांजे बर्तन को मुझे एक बार चेक करना पड़ता हो, भले ही महीने में एक बार फर्श के कोनों और उससे सटी दीवारों पर रेड हार्पिक डालकर फर्श चमकाने की कवायद करनी पड़ती हो, परंतु उसकी पाककला और मेरे घर में आए मेहमानों की मेहमान नवाजी करने के उसके अंदाज ने एक तरह से मुझे उस पर इतना आश्रित बना दिया है कि मैं उसे हटाकर दूसरी कामवाली को रखने के विचार भर से घबरा जाती हूंँ।

मेरे घर के लिए अनीता के पांव बहुत ही शुभ थे। उसके काम शुरू करने के कुछ वर्षों के अंदर मेरे बेटे का आईआईटी में दाखिला मिल जाना,बेटी की शादी फिर बेटे की शादी और उन सब उत्सव की जिम्मेदारी संभालना भीड़भाड़ में मेरे खाने पीने का ख्याल रखना , कुल मिलाकर बहुत से ऐसे कारण थे जिन्होंने अनीता को मेरी कामवाली से ज्यादा घर के सदस्य का दर्जा दे दिया था।सुबह की चाय के समय मैं भी बहुत सी बातें उससे कर लेती थी और वह भी अपने सुख दुख ,अपनी समस्याओं के विषय में मुझे बताती थी।

और इन्हीं समस्याओं में से एक प्रमुख समस्या जो निकली थी वह थी उसकी बड़ी बेटी खुशबू के जीवन के उतार चढ़ाव।

“दीदी इ मोटका फर वाला तोलिया है ना उ केतना में मिलता है?”

वह पांच दिनों की छुट्टी के बाद काम पर आई थी। चाय लेकर बैठते ही उसने यह सवाल किया।

“… रुपए में”

मैंने लापरवाही से जवाब दिया।

“और इ डराई फुरुट बाला थरिया केतना में हो जाएगा।”

अब मैं अचकचाई, और मेरे मुंह से प्रश्न निकल गया,

“क्या करना है ड्राई फ्रूट के थाली और तौलिया का?”

“दीदी खुसबुआ का बियाह तय हो गया।’

“ब्याह तय हो गया, कब ? तुमने तो बताया नहीं रोज ढेर सारी बातें करती हो।”

“दीदी नईहर जाने के लिए आपसे छुट्टी लिए थे ना, वहीं छोटकी भ‌उज‌ईया बात चल दी।उसी के न‌ईहर का लड़का है।सुधा दूध के फैक्टरी में काम करता है । खेत- बाड़ी ,घर- दुआर सब तरह से भरल पुरल है।”

“लेकिन तुम्हारी बेटी तो अभी सोलह वर्ष से ज्यादा की नहीं होगी।अभी तो दसवीं में पढ़ती है।”

“अभी सोलह कहां पुरल है दीदी।”

‘तो पता नहीं है तुमको अठारह से पहले शादी करना मना है।जेल भी हो सकती है।”

उसके साथ इस छोटी सी बातचीत के बाद मैं कई दिनों तक अनीता की काउंसलिंग करती रही पर वह मानी नहीं।

“लेकिन लड़का और उसका परिवार वाला तो वैसा नहीं दिख रहा जैसा तुम बता रही थी।”

छेंका का फोटो देखकर, जिसमें देने के लिए अनीता ने तौलिया और ड्राई फ्रूट आदि की बातें की थी, मुझे कुछ कमी सी महसूस हो रही थी। लेकिन अनीता के ऊपर तो अपनी बेटी की शादी की धुन सवार थी । उसे मेरी बात क्योंकर सुनाई पड़ती, और हो गई शादी।

एक दिन मैं और मेरी पड़ोसन अनीता का घर देखने गए थे वहीं पर खुशबू को देखा था। छोटे कद की गेंहुआ रंगत, तर्जनी उंगली पर अंगूठी ,कान में दो या तीन छेद और सभी में टॉप्स या इयररिंग। जब हम लोगों के सामने पड़ी तो थोड़ा सा झुक कर नमस्ते किया। उसकी वही छवि मेरे मन मस्तिष्क में ऐसे फ्रीज कर गई कि आज तक भुलाए नहीं भूलती है। घर घूमते घूमते मेरी नजर पैर वाली सिलाई मशीन पर पड़ी थी।

“कपड़े कौन सिलता है”

अचानक ही मेरे मुंह से निकला।

“हम आंटी, सिलाई सीख रहे हैं ना, तो लोन पर मम्मी यह मशीन दिलवा दी।”

जवाब खुशबू ने दिया।

“अच्छा तब मैं अपने कपड़े तुमसे ही सिलवाऊंगी।”

पहले कुछ कपड़े मरम्मत के लिए भिजवाए और बाद में धीरे-धीरे अपनी ब्लाउज ,साड़ी फॉल वगैरह के लिए मैं उसकी सेवाएं लेने लगी। बहुत अच्छी फिटिंग्स आती थी उसके हाथों से। अब दूसरी बुटीक वाली को खोजना होगा । उसकी शादी से मेरा यह व्यक्तिगत घाटा हुआ था ।

“कोई बात नहीं बेटी है जहां रहे सुखी रहे”

कहते हुए मैंने उसके लिए गिफ्ट भिजवा दिया था।

लेकिन सुखी रहना इतना आसान नहीं है यह बात खुशबू को समझ आ गई जब उसने देखा कि उसका पति दिन तो दिन ,रात को भी अपनी बड़ी भौजाई के संगत में बिताता। भ‌ईया अपने परिवार को घर पर छोड़ खुद गुजरात के सूरत शहर में रहते। शादी गर्मियों में हुई थी तो गर्मियों की रात में देवर और भाभी देर रात तक छत पर बतियाते और इधर खुशबू खाना तैयार कर उनके नीचे आने की बाट जोहती रहती । दोनों नीचे आते खाना खाते और खुशबू पर बिना नजर डाले पति सीधा अपना बिस्तर लेकर बाहर का रुख करता। घर के सूने आंगन में वह आसमान तकती और कानों में सासू मां के खर्राटों की आवाज गूंजती। अधिकतर वह सारी रात जागते हुए ही गुजार देती। लेकिन खुशबू थी अनीता की ही बेटी तेज तर्रार। धीरे-धीरे उसने विरोध के स्वर उठाने लगे। भाभी भी कम न थी देवर से शारीरिक और भावनात्मक जो भी सुख मिले पर सबसे ज्यादा उसकी कमाई के अधिकार को छोड़ना नहीं चाहती थी। दिन-पर-दिन खुशबू का विरोध तेज होता गया ।

इधर बहुत दिनों से खुशबू की कोई खबर अनीता को नहीं मिल रही थी। घबरा कर अनीता सीधे उसके ससुराल जा पहुंची।

“क्या हुआ ब‌उआ फोन तक नहीं उठा रही हो?”

“माँ रिचार्ज खत्म हो गया है “

और वह फफक फफक कर रो पड़ी।

“मांँ तीन दिन से इन लोगों ने मुझे खाने को कुछ नहीं दिया”

“अभी तू चल मेरे साथ”

अपनी बेटी को लेकर वह घर आ गई । उधर ससुराल वालों को उसकी कमी खलने लगी। एक मुफ्त की नौकरानी जो चली गई थी। पति आया बहुत मान मनौव्वल कर ले गया । पहली बार मायके में ही सुहागरात मनी थी और खुशबू को कुछ आस बंधी थी ।वह आ गई ससुराल। पति का व्यवहार फिर वही। हां खाना रोज मिल जाता था।

“मांँ दो महीने से महीना नहीं आया और उबकाई आ रहा है ।”

यह बात उसने फोन पर मांँ को बताई और उसी के बाद पूरे घर में यह बात फैल भी गई। जेठानी के अत्याचार शुरू हो गये। यहां तक कि एक दिन पति और जेठानी ने उसकी पिटाई कर उसे घर से बाहर निकाल दिया। उधर अनीता को फोन कर बता दिया कि खुशबू घर छोड़कर भाग गई। खबर सुनने पर अनीता पुलिस थाना जो भी कर सकती थी अपने तौर पर उसने किया।

छोटी जगहों के छोटे तबको में अभी भी लोग एक दूसरे से जुड़े होते हैं । एक दूसरे की जिंदगियों में जरूरत से ज्यादा दखलअंदाजी करना इन लोगों का सबसे प्रिय शगल होता है। इसी दखलअंदाजी के नतीजे में न जाने कहांँ से यह हल्ला उड़ गया कि खुशबू अपने मायके के घर के पीछे रहने वाले किसी दूसरे जाति के कैलाश नाम के युवक के साथ भाग गई है । किसी ने कहा कि उसने उन दोनों को एक साथ बस पकड़ते देखा है। इस बात की पुष्टि दो बातों से हुई। एक तो सब जानते थे कि शादी से पहले भी खुशबू कैलाश से मिलती-जुलती थी और दूसरी कि जिस दिन से वह गायब हुई थी उसी दिन से कैलाश भी अपने घर से गायब हो गया था।

बेटी की खोज खबर नहीं मिलने पर स्वाभाविक रूप से अनीता भी विह्वल रहने लगी । जब भी मेरे पास बैठती और कहती

“पता नहीं मेरी खुसबुआ कहां गई!”

तो मैं बोलती तो कुछ नहीं लेकिन मुझे लगता कि जरूर उस लड़के ने खुशबू को बेच दिया है कहीं। चाहे घरेलू कामकाज के लिए चाहे शरीर व्यापार के लिए। फिर साल दर साल बीतते गए। अनीता की आंखों में आंसू का स्थाई बसेरा हो गया था।उसके चेहरे पर एक मुस्कान देखने के लिए मेरी आंखें तरस गई थी।

लेकिन एक दिन समय ने बहुत सारी मुस्कानें मिलाकर चेहरे पर एक संतोष पूर्ण हंँसी का रूप देती हुई अनीता को मेरे सामने प्रस्तुत किया।

“दीदी खुसबुआ लौट आई है।”

“कब …कहां थी..?”

स्वाभाविक रूप से बहुत सारे सवाल एक साथ मेरे मुंह से निकले।

उस रात जब खुशबू को घर से बाहर निकाला गया तो उसे समझ में नहीं आ रहा था कि अब वह क्या करे। तभी उसके मोबाइल पर कैलाश का नंबर चमका। शादी से पहले जब मांँ काम के लिए बाहर निकलती थी तब कैलाश उससे मिलने आता और अपनी बाइक पर बैठा कर ले जाता।

“चल ना कैलाश हम तुम शादी कर ले।”

एक दिन चिड़ियाघर के बेंच पर बैठे खुशबू ने अपनी तरफ से ही शादी का प्रस्ताव रख दिया।

“मेरे पापा नहीं मानेंगे।”

कैलाश ने जवाब दिया

“क्यों? हम गरीब हैं इसलिए, या दूसरे जात के हैं इसलिए।”

खुशबू ने तिलमिलाकर पूछा।

“दोनों बात है…”

कैलाश ने अपने हाथों से खुशबू की हथेलियां को आजाद करते हुए कहा।

“तुम पढ़े लिखे होते तो हम दोनों भाग कर शादी कर लेते।’

खुशबू ने ताना सा दिया।

“अरे जिसके पास चार ठो बस ट्रक ,इतना सा माल मवेशी हो उसको पढ़ाई का क्या जरूरत? इ सब को संभालना ही बड़ा काम है मेरे लिए। वैसे भी मेरे पापा के नजर में पढ़ाई लिखाई का कोई भैलू नहीं है।’

“इससे अच्छा तो मेरी मांँ है। चार घर में काम करके भी हम सब भाई बहन को पढ़ा रही है।”

‘ठीक है तुम ही पढ़ लिखकर नौकरी कर लो फिर हम तुम शादी कर लेंगे।”

पर खुशबू की पढ़ाई आधी पर ही छोड़कर उसकी शादी हो गई। इधर खुशबू के दिल से कैलाश कभी दूर हुआ ही नहीं। पति को उससे मतलब ही नहीं था । तब जब भी फुर्सत मिलती उसको तो वह या तो अपनी मांँ से बात करती या कैलाश से। सो फोन उठाते ही फोन के रिसेंट कॉल लॉग में उसे कैलाश का नाम दिखा और उसकी उंगलियां दब गई। कैलाश के फोन उठाते ही वह रो पड़ी,

‘कैलाश अब हम इंहा नहीं रह सकते हैं और न माँ के पास जा सकते हैं”

“तो..?”

“तो.. क्या, मेरे गला में मां का दिया सिकड़ी, झुमका है अंगूठी , तीन थान सोने का गहना है तुम भी अपने घर से जेतना हो सके रुपया निकल लो । तुमको पता है कहां रहता है रुपया ।”

और फिर दोनों पहुंच गए अनजान शहर में। थोड़ा सा पैसा ,मिलनसार स्वभाव हाथ में हुनर और ढेर सारा शारीरिक श्रम। खुशबू को एक लेडीज टेलर के यहां और कैलाश को एक जगह ड्राइवरी का काम मिल गया।

एक माह के बाद आत्मीय क्षणों में खुशबू ने कैलाश से कहा ,

“का कहते हो बच्चा गिरवा दें?”

“नहीं ,कोई जरूरत नहीं।”

“लेकिन यह तो तुम्हारा बच्चा नहीं है।’

“तुम्हारा है ना ,तो जो भी तुम्हारा वह हमारा और फिर सुनते हैं कि पहला बच्चा गिराने से फिर बच्चा होने में दिक्कत आता है।”

और फिर अपने समय पर बच्चा आ गया। मकान मालकिन और अड़ोस-पड़ोस की महिलाओं ने साथ दिया। समय बीता, बच्चा तीन साल का हो गया।

“अब हम दोनों का भी एक बच्चा हो जाना चाहिए।”

एक रात कैलाश ने खुशबू के खुशबू में गोते लगाते हुए कहा।

“रात सपना में हम ढ़ेर सारा हरा सब्जी और आम देखें हैं और दरवाजे पर कुम्हार खोता भी लगाया है।”

जब खुशबू ने यह बात मकान मालकिन चाची को बताई तो उन्होंने कहा,

“कैलाश- बह जल्दी तोहर गोद फिर से भरेगा।”

चाचा की बात सच निकली।

“चल अब घर लौट चलते हैं।”

बहुत सोच समझकर कैलाश ने यह प्रस्ताव रखा। “लेकिन तुम्हारे पिता मान जाएंगे”

“ नहीं मानेंगे तो फिर हम वापस लौट आएंगे”

और चाची का हिसाब कर एक दिन पिकअप पर सामान लदवा कर वे लौट आए। पोते का मुंह देखकर पिता को मानना ही पड़ा। बात जंगल की आग की तरह फैल गई। और अनीता को भी पता चली।

कुछ दिनों के बाद खुशबू को एक बेटी हुई। खुशबू ने तबतक अपने कामकाज और हुनर से ससुराल वालों का दिल भी जीत लिया।

पति अक्सर गाड़ी लेकर दूसरे शहर में जाया करता था, उस दिन भी गया हुआ था। रात में दोनों के बीच प्यार भरी बातें हुई। अभी दोनों बच्चों को सुलाकर खुशबू की आंख लगी ही थी कि उसके ससुर की आवाज पूरे घर में गूंजने लगी,

“अरे कैलसवा का एक्सीडेंट हो गया है… फोन आया।”

आनन फानन में ससुर और जेठ वहां पहुंचे और कैलाश के शरीर के साथ लौटे।

बेचारी खुशबू के भाग्य में सुख लिखा ही नहीं था। सास, ननद, जेठानी के तानों के बीच ससुर अवश्य दीवार बनकर खड़े रहते। घर का काम यथावत खुशबू ने संभाल लिया था और आसपास के लोगों के कपड़े भी सीने लगी हाथ में कुछ पैसे भी आने लगे।

“अभी उम्र क्या हुई है इसका बियाह करा दो।’

कभी-कभी कोई बिन मांगे यह सलाह भी दे देता।

“ बियाह …? नहीं ,लेकिन हमको जीना तो पड़ेगा इ बच्चा सब के लिए।’

यह बात खुशबू कई बार अपने आप से कहती।

“पापा जी सड़क पर का घर है हमारा ,एक दुकान जैसा खोल दीजिए हम उसी में बैठकर अगल-बगल के औरत और लड़की सब के लिए कपड़ा सियेंगे।”

“मने कि बुटीक खोलोगी ।”

ससुर ने तुरंत बात पकड़ ली।

तेईस वर्ष की खुशबू आज स्वावलंबी हो गई थी अपने जीवन की प्रकाश खुद बन गई थी।

“अनीता तुम्हारा बेटा पच्चीस वर्ष का हो गया है अब तक उसकी शादी नहीं की तुमने।”

“नहीं दीदी पहले अपना घर बना ले और उसको भी कोई ढंग का नौकरी मिल जाए।”

देर से ही सही अनीता को यह बात समझ में आ

गई थी कि जिंदगी में आत्मनिर्भरता शादी से भी ज्यादा जरूरी है।

 

ऋचा वर्मा 

पटना, भारत

 

 

 

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