बंद किताबें और खुलती पहचान

बंद किताबें और खुलती पहचान

इंग्लैंड के सितंबर की गुलाबी सर्दियों की मीठी ठंडक के साथ एक खास सुबह की शुरुआत हुई। हल्की धुंध में ढकी सड़कें और पेड़ों से झरते सुनहरे, नारंगी और लाल रंग के पत्ते मानो प्रकृति का कोई जादुई कैनवास तैयार कर रहे थे। आसमान में उड़ते पक्षियों की चहचहाहट, पेड़ों पर लटकती ओस की बूंदों की चमक और ठंडी हवा में बहती ताजी ‘पाइन’ की सौंधी खुशबू माहौल को और भी मोहक बना रही थी।

लंदन के कोल्ड स्टोन स्कूल के चौक पर हलचल भरा दृश्य था। स्कूल के प्रांगण में कदम रखते ही ताजा बेक्ड ब्रेड और कॉफी की खुशबू लुभा रही थी जो कि पास के ही कैफे से आ रही थी। खिड़कियों से आती ठंडी हवा के झोंके और दूर चर्च की गूँजती घंटियाँ वातावरण को एक अलौकिक स्पर्श दे रही थीं।

आज स्कूल में गहमागहमी का कारण था—अंग्रेजी के अतिरिक्त दूसरी भाषा के चयन का दिन। बड़े असेंबली हॉल में विद्यार्थी और अभिभावक विभिन्न भाषाओं की प्रदर्शनी और सामग्री का अवलोकन कर रहे थे। रंग-बिरंगे पोस्टरों, विभिन्न भाषाओं में लिखी कविताओं और गीतों की गूंज, और हर टेबल पर रखी विदेशी मिठाइयों और नाश्ते के स्वाद ने प्रदर्शनी को जीवंत बना दिया था। हर कोई इस विचार में डूबा था कि कौन-सी भाषा उनके बच्चों के लिए सर्वश्रेष्ठ होगी और उनके भविष्य को नई ऊँचाइयों तक ले जाएगी।

स्कूल ने तीन प्रमुख भाषाओं—फ्रेंच, स्पैनिश और जर्मन—में से किसी एक को चुनने का विकल्प दिया था। यद्यपि पाठ्यक्रम में अन्य भाषाएँ भी शामिल थीं, लेकिन छात्रों और अभिभावकों की रुचि इन तीनों भाषाओं में ही सीमित थी। अंग्रेजी के प्रभुत्व के बाद इन भाषाओं को ‘ग्लोबल स्मार्ट चॉइस’ माना जाता था।

इसी बीच, हिंदी, जो कभी भारत के हर घर की आत्मा थी, कहीं गुम होती जा रही थी। पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव ने भारतीय मूल के परिवारों पर ऐसा प्रभाव डाला था कि फ्रेंच का ‘बोंजूर’ और स्पैनिश का ‘ओला’ अब अधिक प्रतिष्ठित लगने लगा था। ‘नमस्ते’ और हिंदी के प्रति उदासीनता का यह आलम था कि भारतीय प्रवासी समुदाय के 60-70% बच्चे हिंदी के बजाय यूरोपीय भाषाएँ सीखने में अधिक रुचि रखते थे।

इस शोर-शराबे के बीच एक शख्स इस स्थिति का गंभीरता से आकलन कर रहा था—कक्षा की शिक्षिका, श्रीमती शारदा त्रिवेदी। 45 वर्षीय शारदा लखनऊ की रहने वाली थीं और कोल्ड स्टोन स्कूल में अतिरिक्त विषय के रूप में हिंदी पढ़ाने के लिए नियुक्त हुई थीं। उनके लिए हिंदी पढ़ाना मात्र एक नौकरी नहीं, बल्कि अपने देश के प्रति आत्मीय सेवा थी।

उस दिन शारदा मैम ने बच्चों और अभिभावकों के बीच हिंदी के महत्व पर जोर दिया। उन्होंने समझाया, “हिंदी सिर्फ़ एक भाषा नहीं, यह हमारी पहचान है। इसे नकारना मतलब अपनी जड़ों से कट जाना।” लेकिन उनके तर्कों को अधिकतर अभिभावकों ने यह कहते हुए टाल दिया, ” मैडम हिंदी से क्या फ़ायदा? हमारा बच्चा तो ग्लोबल खिलाड़ी होना चाहिए।”

इस प्रतिक्रिया ने शारदा को विचलित नहीं किया। उन्होंने ठान लिया कि हिंदी के महत्व को जीवंत बनाना है। इसके लिए उन्होंने स्कूल के प्रिंसिपल से सितंबर में हिंदी दिवस मनाने हेतु स्कूल में हिंदी सप्ताह’ आयोजित करने की अनुमति माँगी। प्रिंसिपल ने कहा, “इस पर समय और संसाधन खर्च करने का क्या औचित्य है? इसमें रुचि कितनी है, आप जानती हैं।” शारदा ने आत्मविश्वास से जवाब दिया, “बस एक मौका दें, मैं साबित करूँगी।” अपने प्रयोजन में सफल होने के लिए उन्होंने लंदन के भारतीय दूतावास से संपर्क किया और माननीय जनरल ऑफ इंडिया को मुख्य मेहमान के रूप में अपने स्कूल के बच्चों तथा उनके अभिभावकों को प्रेरित करने के लिये आगमन के लिए मना लिया। मन से विश्वास और आशा के साथ हिंदी सप्ताह की शुरुआत बहुत ही सुनियोजित कार्यक्रम के रूपरेखा से हुई

शारदा ने हिंदी सप्ताह के लिए दिन-रात मेहनत की। उन्होंने कार्यक्रमों की योजना बनाई, जिसमें शामिल थे ,पंचतंत्र की कहानियों का मंचन और छोटे-छोटे किरदारों को जीवंत करने के लिए नाटकीय प्रस्तुति। हिंदी कविता प्रतियोगिता छात्रों को अपनी रचनात्मकता दिखाने का अवसर। माता-पिता और बच्चों के लिए सांस्कृतिक शाम जिसमें भारतीय परंपराओं और नृत्य की झलक और हिंदी पुस्तक प्रदर्शनी साहित्यिक धरोहर से परिचय कराने का माध्यम।यह कार्यक्रम अपने आप में आने वाले समय में बदलाव की नींव रख रहा था। समय के चक्र पर इस कसौटी से शारदा जी बच्चों के माध्यम से अपनी सफलता का परचम लहराना था।

हिंदी सप्ताह का पहला दिन आया, लेकिन ऑडिटोरियम लगभग खाली था। शारदा मैम ने पंचतंत्र की कहानी सुनाई, अपनी आवाज़ में उतार-चढ़ाव और पात्रों को जीवंत करके। उनकी प्रस्तुति ने बच्चों को मंत्रमुग्ध कर दिया। उनकी हँसी और तालियों की गूँज से हॉल का सन्नाटा टूट गया।

अगले दिन सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किया गया। शारदा ने अपनी विदेशी मित्र के डांस स्कूल की मदद से ‘रामायण का स्वयंवर’ नृत्य-नाटिका के रूप में प्रस्तुत किया। इसमें बच्चों को भी भाग लेने का मौका दिया गया। रामायण की प्रस्तुति ने दर्शकों का दिल जीत लिया। अभिभावकों और शिक्षकों ने इस पहल की भरपूर सराहना की।

हिंदी सप्ताह के समापन तक ऑडिटोरियम पूरा भरने लगा। छात्रों ने अपनी कविताएँ सुनाईं और कहानियाँ प्रदर्शित कीं। जब एक नन्हे बच्चे ने मंच पर कहा, “मैंने यह कविता अपनी दादी से हिंदी में बात करके लिखी है,” तो पूरे हॉल में तालियाँ गूँज उठीं।

इस बदलाव के बीच, स्कूल को उस समय और भी सम्मान मिला जब भारतीय उच्चायुक्त के एक विशेष प्रतिनिधि ने कोल्ड स्टोन स्कूल का दौरा किया। उन्होंने हिंदी सप्ताह में भाग लेने वाले छात्रों को प्रमाणपत्र और पदक प्रदान किए। यह आयोजन “अंतरराष्ट्रीय हिंदी दिवस” के संदर्भ में और भी सार्थक बन गया। अपने संबोधन में उच्चायुक्त ने कहा, “एक ऐसा राष्ट्र, जहाँ संस्कृति और भाषा फलती-फूलती है, वह सदैव अमर रहता है।” यह शब्द अभिभावकों के दिलों में गर्व और आनंद भर गए, और वे भारतीय होने पर गहरा अभिमान महसूस करने लगे।

उस सप्ताह ने न केवल हिंदी को कोल्ड स्टोन स्कूल में एक नई पहचान दी, बल्कि बच्चों और अभिभावकों को यह एहसास कराया कि अपनी मातृभाषा से जुड़ाव उनके अस्तित्व को समृद्ध करता है। इस सफलता के बाद, स्कूल ने हिंदी को वैकल्पिक भाषा से अनिवार्य सांस्कृतिक गतिविधि के रूप में शामिल किया। इससे बच्चों को न केवल अपनी मातृभाषा से जुड़ने का अवसर मिला, बल्कि यह उनके आत्मविश्वास को भी बढ़ाने लगा।

शारदा मैम ने यह महसूस किया कि भाषा के माध्यम से सांस्कृतिक जुड़ाव केवल बच्चों तक सीमित नहीं रह सकता। उन्होंने स्थानीय समुदाय के लिए ‘भारतीय विरासत दिवस’ आयोजित करने का सुझाव दिया, जहाँ हिंदी में कार्यशालाएँ, नाटक, और साहित्यिक परिचर्चाएँ आयोजित की जाएँ। अभिभावकों ने भी इस पहल में योगदान दिया और समुदाय के बुजुर्गों ने बच्चों को हिंदी की कहानियाँ सुनाकर इसमें एक व्यक्तिगत और भावनात्मक पहलू जोड़ा।

हिंदी सप्ताह की सफलता ने स्कूल को अंतरराष्ट्रीय पहचान दिलाई। अन्य स्कूलों ने इस मॉडल को अपनाने की इच्छा जताई। भारतीय उच्चायोग ने कोल्ड स्टोन स्कूल को ‘हिंदी मित्र’ का दर्जा देकर सम्मानित किया। इस पहल ने अन्य देशों में बसे भारतीयों को भी अपनी भाषा और संस्कृति को संजोने की प्रेरणा दी।

अब हिंदी की कक्षाएँ खाली नहीं रहती थीं। बच्चों ने हिंदी को गर्व से अपनाना शुरू कर दिया। हालांकि शारदीय ऋतु अपने शिखर को चूमती आ रही थी लेकिन नव प्रज्वलित ज्ञान की लो से दिलों में रौशनी की गरमाहट महसूस हो रही थी I इस सफलता ने यह साबित किया कि भाषा केवल संचार का माध्यम नहीं, बल्कि एक पुल है जो अतीत को वर्तमान से जोड़ता है और भविष्य को संवारता है।

आज ज्ञान की देवी शारदा जी ने अपने नाम को सार्थक करते न केवल बंद किताबों के पन्नों को खोला, बल्कि एक नई सकारात्मक कहानी की शुरुआत भी कर दी थी…..

वंदना खुराना

यूके

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