बेबसी
शहर से दूर केंद्रीय जेल के ठीक सामने एक बहुत बड़ा मैदान था। मैदान के चारों तरफ पेड़ होने के कारण सुबह और शाम टहलने वाले लोगों के झुंड से यह जगह गुलजार रहा करता था।
आज चुनाव का रिजल्ट आने वाला था। जिसके कारण रिटायर लोगों की टहलने वाली मंडली में जोरदार चर्चा और बहस शुरू हो गई थी। पीछे छूटे अर्जुन बाबू चाल तेज करते हुए मंडली के साथ हो लिए और वर्मा जी से प्रश्न किया “इस चुनाव में कौन बाजी मारने वाला है वर्मा जी?”इसमें कयास लगाने वाली कौन सी बात है? इंद्र कुमार बाबू की पार्टी थोड़ी -मोड़ी नहीं बहुत ही भारी मत से जीत हासिल करेगी। तभी पांडे जी ने कहा,नहीं वर्मा जी आपका यह अनुमान सही नहीं है ।इस बार तो कमल किशोर जी के पार्टी का पलड़ा भारी लग रहा है। सुखविंदर सिंह जी जो इस मंडली के सबसे गंभीर व्यक्ति के रूप में जाने जाते थे। उनकी भारी भरकम आवाज गूंजी-“आज शाम तक तो सारे रिजल्ट आ ही जाएंगे। ऐसे भी कोई जीते कोई हारे, हम सभी आम जनता की स्थिति में कोई खास बदलाव आने वाला नहीं है। टोपी बदलने से उसका रंग ढंग थोड़े ही न बदलता है, वही ढाक के तीन पात । पिछले 70 वर्षों से तो यही देखा जा रहा है। सरकार तो बदलती रही परंतु उसका मिजाज कहां बदला हैं ? हां, लेकिन कुछ बदलाव अवश्य हुआ है , वह है घोटाले में ईजाफा । पहले विदेशी लूटते थे अब स्वदेशी लूटते हैं। वो पागल जो रोज -रोज इस मंडली के पीछे-पीछे चुपचाप चलता रहता था, खूब जोर-जोर से ताली बजा के कहने लगा ‘वाह! आज सच बात सुनने को मिल रहा है। हांसदा जी इस विषय पर कुछ कहने ही वाले थे कि वर्मा जी जोर से चिल्ला उठे ‘अरे अर्जुन बाबू!आपलोग देखिए उस आम के पेड़ पर कोई फंदे से लटका हुआ है।सभी जल्दी-जल्दी आम के पेड़ के पास पहुंचे, तो देखा कि एक औरत फांसी के फंदे से झूल रही है। यह देख सभी स्तब्ध हो गए। पांडे जी जो अभी हाल ही में पुलिस सेवा से रिटायर्ड हुए थे, ने लाश को देखते ही कहा ‘रिगर मोर्टिस’, शरीर का अकड़ना शुरू हो गया है। लगता है मौत कई घंटे पहले हुई है।” उन्होंने तुरंत अपना मोबाइल निकाला और पास के थाने में इसकी जानकारी दी। थोड़ी ही देर में पुलिस वैन के साथ फोटोग्राफर भी पहुंच गए। फोटोग्राफर के द्वारा कई एंगल से फोटो खींचने के बाद शव को नीचे उतारा गया। ऐसी खबर तो हवा की तरह उड़ जाती है । देखते ही देखते सड़क पर काफी भीड़ इकट्ठी हो गई। वहां उपस्थित लोगों में से कोई भी इस महिला को नहीं पहचान पा रहा था । सबके मन में बस यही प्रश्न उठ रहा था कि इस महिला को किसी ने मार के लटकाया है या इसने आत्महत्या की है! जांच के दरम्यान महिला के आंचल में बंधा एक पुर्जा मिला।उस पुर्जे में उसने अपना बयान लिखा था।बयान क्या था?उसकी दर्द भरी कहानी थी-
मैं, मधुमाला अब बिल्कुल बेसहारा और बेबस हो गई हूं। मुझ जैसी औरत के लिए अब इस दुनिया में कोई जगह नहीं रही। मैंने बहुत कोशिश की जीने की किंतु हार गई। समाज से मिली घृणा, उपहास न कोई सहारा ना हीं सर पर कोई छत। सारे रास्ते बंद कर दी गई हैं । फिर कैसे जिऊं? बिना गलती के 5 साल जेल खटी। दो दिन पहले ही तो दोष मुक्त हो कर रिहा हुई थी। कितना खुश थी मैं कि अब जेल के इस ऊंची ऊंची चहारदीवारी से निकलकर खुले वातावरण में सांस ले पाऊंगी
। सास ससुर और मुन्ना के साथ रह पाऊंगी। मुन्ना को पढ़ा लिखा के, बड़ा अफसर बनाऊंगी और बिरजू की सारी इच्छाओं और जिम्मेदारियों को पूरा करूंगी, सास ससुर को घर के सारे बोझ से आराम दूंगी। प्रेम विवाह के कारण गुस्से में भले ही हमें घर से निकाल दिया था, लेकिन जब बिरजू जेल में बीमार पड़ा और उन्हें खबर लगी तब वे हर हफ्ते आकर
दवाई ,फल वगैरह दे जाते और प्रेम से बात करते। लगा कि उनकी नाराजगी अब खत्म हो गई है। इन्हीं ख्वाबों और कल्पना को बुनते हुए मैं अपने ससुराल के आंगन में पहुंची।
पर हाय रे किस्मत! यह मेरा भ्रम था।वहां तो हमारा स्वागत कुलक्ष्णी, डायन ,कुलटा जैसे उपमा के बौछार से किया गया। हाथ पकड़ के घसीटते हुए सास ने घर से बाहर कर दिया ।उनके एक-एक शब्द कलेजे को ऐसे भेदते रहें जैसे कोई जहर भरी गोली चला रहा हो।
“अभागी तू हमरा बेटा के अपना प्रेम जाल में ना फंसइते त हमार बिरजू झूठ मुकदमा में नानू फंसीतन आ नाहीं जेल जइतन। दिन भर दुकनवा में बईठ के बिरजू के दोस्तन के साथे जे ठहाका लगावत रहलू नू जो उनहीं लोगन के साथ रंगरेलियां मनाव।ई सभे कोई जानता कि जेल में कौवनो मेहरारू पवित्र ना रह पावेल। तु त मर्दन के फंसावे में माहिर हऊअ, जो कोठे पर रह। तू जेते हमरा बेटा के हमरा से छीन लेले रहले नू,ओही लेखा हमहूं तोहरा बेटा के छीन लेहनी।हम जइसे तड़पत रहनी नू अब तूहूं तड़प।आ भाग येहीजा से , जो कहीं डूब के मर जो।”
मैं तो सीधे आकाश से धरती पर गिर गई । आश्चर्य! ऐसा नाटक इतना परिवर्तन क्या यह वही सासू मां हैं ?जो जेल में बिरजू के बीमार पड़ने के दिन से लेकर बिरजू के मरने के दिन तक वहां आकर हमेशा हमें संतावना देती रहती और मुन्ना को अपने हृदय से लगाकर कहती “मधु जे हो गइल से हो गइल । अब तु चिंता ना करीह। मुन्ना अब जेल में ना रही ।अब ऊ अपना घरे जाई पढ़ी लिखी।तु आपन ख्याल रखीह।” मेरे मन को कितनी शांति मिली थी कि अब मुन्ना जेल के माहौल से अलग अपने दादा-दादी के साथ रहेगा ।कोर्ट से परमिशन लेकर मेरे मुन्ना को वे लोग अपने साथ ले गए।
अब समझ रही हूं कि कैसे उन लोगों ने धूर्तता से मेरे मुन्ना को मुझसे छीन लिया। मैं उन लोगों की चालाकी को समझ नहीं पाई। मुन्ना की एक झलक पाने के लिए मैं विनती करती रह गई ।मगर उन लोगों का कलेजा नहीं फटा। हल्ला गुल्ला सुनकर पास पड़ोस के लोग इकट्ठे हो गए थे,मगर किसी ने भी मेरे साथ सहानुभूति नहीं दिखाई। सभी खड़े थे , मजा ले तमाशा देख रहे थे।
घर और समाज से इतना जिल्लत मिलने के बाद भी हमने हिम्मत नहीं हारी। मैं जीना चाहती थी, अपने मुन्ना के लिए,उसे इंसान बनने के लिए आंसू पीकर बेज्जती का तमाचा सहते हुए मायके जाने का मन बनाया हालांकि बिरजू से शादी के कारण मायके वाले भी हमसे नाता -रिश्ता तोड़ लिए थे। पर हमें बिरजू का दिया हुआ वचन निभाना था। उन्होंने कहा था “मधु मुन्ना को नेक इंसान बनाना ताकि कोई उसे अपराधी का बच्चा न कह सके।”
इन्हीं बातों का ख्याल रख मैं किस्मत आजमाने अपने मायके पहुंची। सांझ का धुंधलापन मन में भी समाने लगा था क्या पता घर वालों का क्या व्यवहार होगा? जैसे-जैसे मैं घर के पास पहुंच रही थी मेरी धड़कन तेज होती जा रही थी। घर के दरवाजे पर जैसे ही मैं पहुंची बीते दिनों की याद बाईस्कोप के फोटो की तरह आंखों के सामने से गुजरने लगा। दरवाजे पर जामुन का पेड़ अभी तक वैसे ही खड़ा था। कैसे सुरेश बचपन में इसके बिल्कुल ऊपर चढ़ जाता था। मेरा कलेजा धड़कने लगता था। उसे नीचे उतरने के लिए मै प्यार से हाथ जोड़कर बिनती करती मगर वह कहां मानता था ? झोला भर के ही उतरता।आंखों से झर झर आंसू बहने लगे। भावनाओं को काबू करके डरते- डरते मैंने दरवाजा खटखटाया। दरवाजा शायद सुरेश की औरत ने हीं खोला। मैंने बड़ी कातर दृष्टि से उसे देखते हुए पूछा सुरेश है क्या? उसने कहा हां है क्या बात है?आप कौन हैं? मैं यह सोच ही रही थी कि अपना परिचय कैसे दूं तब तक सुरेश मीरा को आवाज लगाते हुए दरवाजे के पास आ गया। भाई को देखकर छन भर के लिए लगा कि वह हमसे लिपट जाएगा और हम दोनों भाई-बहन के आंसू से इतने दिनों से जमा मन का दाग धूल जाएगा। परंतु उसकी दृष्टि मुझ पर पड़ते ही गुस्से से तमतमाते हुए कहने लगा “अब क्या लेने आई हो यहां? तुम तो घर का इज्जत उसी दिन मिट्टी में मिला दी जिस दिन इस घर से भागी थी।पिताजी सदमा को बर्दाश्त नहीं कर सके और थोड़े ही दिनों के बाद दुनियां छोड़कर चले गए। उन्होंने कह रखा है कि मधु के लिए इस घर का दरवाजा हमेशा बंद रखना।इज्ज़त बचाने के लिए बड़े भैया भी दूसरे शहर में बस गए। मैं यहां बहुत मुश्किल से संभल पाया हूं।
मैंने सुरेश से विनती किया कि मुझे कुछ दिन का सहारा दे दो। मेरा सब कुछ लुट गया है, कहीं रहने का ठिकाना नहीं है। परन्तु सुरेश राजी नहीं हुआ। हमने तब हाथ जोड़कर विनती की, कि सिर्फ आज की रात बीताने के लिए जगह दे दो, इतनी रात में मैं कहां जाऊंगी ? लेकिन सुरेश का दिल नहीं पिघला। अपनी पत्नी को अंदर खींचकर दरवाजा बंद कर दिया।
यह वही घर था जिसका हर कोना हमारे चहल कदमी से खिल उठता था ।और आज उसी घर के एक कोने में एक रात बिताने की भी इजाजत नहीं मिली। रात में क्या करूं कहां जाऊं अब कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि रात में कहां जाऊं क्या करूं? निढ़ाल होकर वहीं बैठी रही ।आंसुओं से मेरा आंचल भीग गया था। थोड़ी सी भी आहट होती तो ध्यान किवाड़ की ओर चला जाता,
लगता कि शायद सुरेश होगा। हो सकता है भावावेश में उसने इतना कह दिया होगा। वह अभी हमें बुलाकर घर के अंदर ले जाएगा। बचपन में मां के मरने के बाद सुरेश को जो हमने प्यार और ममता दिया था वह जरूर उसे झकझोरेगा लेकिन यह सब हमारा भ्रम था। झूठी इज्जत और प्रतिष्ठा के लिए आदमी इतना निर्दयी और कठोर हो सकता है क्या? इन्हीं सब बातों को सोच रही थी कि किसी का हाथ कंधा पर महसूस हुआ मैं घबराई तभी मीरा चुप रहने का इशारा करके धीरे से खाने की थाली नीचे रखते हुए बोली दीदी, आप खाना खा लीजिए, बेटी दरवाजे पर भूखे कैसे रह सकती है? सुरेश ने नहीं यह खाना मैं लेकर आई हूं। 500 का एक नोट हाथ में पटड़ाकर पुन: बोली सुबह में आप बस से चले जाइयेगा इससे ज्यादा कुछ नहीं कर पाऊंगी। मेरी आवाज कंठ में ही आकर अटक गयी थी। लग रहा था मैं खूब जोर से रोऊं, लेकिन मीरा ने चुप रहने का इशारा करते हुए अंदर चली गई। सुरेश के ऐसे अपमान और व्यवहार से कलेजा मे रह -रह कर टीस उठ रहा था। किसी तरह मैंने पानी पी लिया। अब लगने लग कि कहीं नदी नाला में जाकर डूब जाऊं लेकिन बार-बार जेल के मैडम की बातें याद आने लगी “मनुष्य को आखिरी सांस तक हार नहीं माननी चाहिए लड़ना चाहिए राह में बधाएं आती हैं पर जीत सत्य की होती है।” इन्हीं बातों के सहारे सुबह-सुबह मैं वहां से चल दी आखरी आशा लिए उस मकान मालकिन के पास जहां जेल जाने के पहले हम रहा करते थे।।
हालांकि हमारे कारण उन्हें भी पुलिस वालों ने परेशान किया था। फिर भी मन में विश्वास था कि वह जरूर कुछ न कुछ मदद करेंगी क्योंकि एक बार वह बहुत ज़ोर से बीमार पड़ी थी, उस समय हमने उनकी गूह -मूत से लेकर घर का सारा काम अपनी बेटी की तरह किया था। तब उन्होंने यह कहा भी था।” मधु तुम्हारा यह कर्ज हम कैसे चुकाएंगे ? इतना तो सगी बेटी या बहू भी नहीं करती।”इसी बात का सहारा लेकर मैं किसी तरह उनके घर पहुंची। वह दरवाजे पर बैठकर ही चाय पी रही थीं। मैंने पैर छूना चाहा तो उन्होंने अपने पैर को खींच लिया। हमने पूछा काकी आप हमको नहीं पहचान रही ?’उन्होंने करारा चोट करते हुए कहा “हम क्या पूरा शहर पहचानता है तुम लोगों को। हम मोहल्ले में मुंह दिखाने लायक नहीं रहें। हमसे झूठ कह कर मकान लिया कि बिरजू पंखा रेडियो का मिस्त्री है। रिपेयरिंग का दुकान खोलेंगा।पर तुम लोग अपराध से जुड़े हुए थे यह तो पुलिस के द्वारा पता चला। ”
सच कह रही हूं चाची वो पिस्तौल मणिकांत का था, वह बनाने के लिए बिरजू को दिया था कि बना देना कल आकर ले जाऊंगा।
और वह चला गया और ठीक उसी समय पुलिस दुकान पर पहुंच गई और पिस्तौल के साथ बिरजू और हमें जेल ले गई। हम लोग कहते रह गये कि यह पिस्तौल हमारा नहीं है यह बिरजू के दोस्त मणिकांत का है उसने ही ठीक करने के लिए हमको दिया था ।परंतु किसी ने हमारी बात नहीं सुनी। मणिकांत कैसा धूर्त दोस्त था?उसने बिरजू के सीधेपन का फायदा उठाया। इसी सदमा को तो बिरजू बर्दाश्त नहीं कर सका और दुनिया से चला गया। काकी आप तो जानती हैं हमारे ससुराल और मायके वाले के विषय में, मैं वहां गई थी लेकिन सभी ने हमें घर से निकाल दिया। मुन्ना के दादा-दादी ने जेल से प्रपंच रचके मेरे मुन्ना को भी मुझसे छीन लिया।आपने तो मां के समान प्यार दिया है।कुछ दिनों का और सहारा दे दीजिए। हम मेहनत मजदूरी करके आपका सब बकाया चुका देंगे।परंतु काकी राजी नहीं हुई। उन्होंने कहा “अनजाने में तुम्हें भाड़ा में घर देकर गलती हो गई, अब फिर अपना सर थोड़े ही न ओखल में डालेंगे। पैसा तो पैसा इज्जत भी मिट्टी में मिल गयी।” काकी हम वाईज्जत बरी हुए हैं। काकी ने रोष भरे आवाज में कहा। “उससे क्या होता है पांच साल तो जेल में रहकर आई हो ना! औरत एक बार जेल चली गई तो उसकी प्रतिष्ठा और इज्जत रहती कहां है? उपेक्षा ,खींझ और गुस्सा से उन्होंने कहा भगवान के लिए तुम यहां से चली जाओ । अब और क्या इनाम दोगी हमारी नेकी का? ”
अब मेरा धीरज पूरा टूट गया था।अचानक ही मुझे बिरजू के उन दोस्तों की याद आयी, जो प्रायः आकर दुकान मे बैठते थें। सोची उनसे मदद मांगती हूं पर तुरंत ही मन शंकाओं से भर गया। डर लगा क्या पता बेसहारा औरत जानकर कहीं उनकी नियत न बिगड़ जाए। अब तक तो इज्जत बचा कर रखी है। लोग जो भी कह रहें हों पर मेरी अंतरात्मा ने तो हमें नहीं धिक्कारा है। कहीं वे लोग हमारी मजबूरी का फायदा न उठा ले ।तब तो मैं जीते जी मर जाऊंगी। समाज के तरफ से एक कलंक और हमारे ही माथे मढ़ दिया जाएगा। दोष तो सदा कमजोर पर ही न लगाया जाता है? नहीं
इस तरह की गलती नहीं करूंगी। अगर हम लोगों के प्रति सहानुभूति रहती तो जेल में एक दिन भी तो हमसे वे जरूर मिलने आये होतें। ।
समाज का इतना क्रूर व्यवहार एक औरत के साथ? बाहर के इस खुले वातावरण से तो अच्छा जेल ही था। जहां इतनी उपेक्षा और घृणा का कड़वा घूंट तो नहीं पीना पड़ता था। बंदिशें तो बहुत थी। पर पेट पर खाना तो मिल ही जाता था। आज दो दिन हो गए अन्न का एक दाना भी पेट में नहीं गया। पानी पी -पी कर कब तक जिंदा रह सकूंगी।लोगो के मन में इतनी अमानवीयता और घृणा।
कहां जाऊं ,रात कहां बिताऊं ? कुछ समझ नहीं आ रहा था। क्या पता कैसे विक्षिप्तता के आवेग में जेल गेट के पास आकर खड़ी हो गई सोची एक रात और जेल में ही बीता लेती हूंं। हमारा भ्रम टूटा ।जेल में तो सिर्फ अपराधी रहते हैं ,दोष मुक्त हुए आदमी को जगह नहीं मिलती। कानून तो हमे दोष मुक्त कर दिया लेकिन समाज के नजर में हम अभी तक अपराधी ही
हैं।सारे रास्ते बंद नजर आ रहे हैं। मैं बुज़दिल नहीं हूं। मैं जीना चाहती हूं ,अपने बेटे के लिये। लेकिन डर लगता है कि कहीं बड़ा होकर वह भी अपने दादा-दादी की भाषा बोलने लगा और हमें ही दोषी मानकर हमसे नफ़रत करने लगा तो ? कैसे सहन कर पाऊंगी मैं ? शायद मैं इस दुनिया के लायक नही हूं। अच्छा है, इस दुनिया से बहुत दूर चली जाऊं। अब मेरे पास कोई विकल्प नहीं बचा है। इसलिए मैं अपना जीवन समाप्त कर रही हूं। आप सभी हमें माफ कर देंगे। कुछ मिनट के बाद मैं इस संसार के सारे नियम कानून से बाहर हो जाऊंगी। कहा जाता है न! कि मरता हुआ आदमी कभी झूठ नहीं बोलता। मैं भी अपने आखिरी समय में भगवान की कसम खा कह रहीं हूं कि बिरजू और मैंने कोई अपराध नही किया था । लेकिन गरीब का कौन सुनता है। अंत में फैसला सही आया। तब तक सब कुछ लुट चुका था।अब मेरी किसी से कोई शिकायत नहीं है। बस एक यही विनती करती हूं कि हमारी बेगुनाही का पुण्य हमारे मुन्ना को मिले और मेरे मुन्ना के मन में मां-बाप के लिए कभी घृणा न पनपे।और हां एक और प्रार्थना कि किसी भी बेगुनाह को मेरी तरह सजा ना मिले।
मधुमाला
पत्नि –स्व. बिरजू गोप
ग्राम– पटहरा, थाना– पटहरा
दरोगा जी चिट्ठी को तह करके रख रहें थें,आसपास खड़े अर्जुन बाबू ,पांडे जी सुखविंदर जी ,हांसदा जी के साथ-साथ वहां खड़े कई लोग अपना अपना चश्मा उतारकर रुमाल से आंख पोछने लगे।और वहां खड़ा वह पागल ठठाका लगा कर हंसने लगा और ताली बजा बजाकर कहने लगा ठीक किया मधुमाला बहुत ठीक, यह समाज ईमानदार और गरीब
आदमी को जिंदा नहीं रहने देता। तुम आत्महत्या नहीं की हो बहन ।इस समाज ने तुम्हारी हत्या की है। तुम्हारा यह मौत समाज के मुंह पर तमाचा है। सैल्यूट मधुमाला सैल्यूट और वह पागल यह कहते- कहते पुक्काफाड़ कर रोने लगा।
ज्योत्सना अस्थाना
जमशेदपुर, भारत