हाजी मियां
उनका नाम हाजी मियां था, पर उन्होंने कभी हज नहीं किया था । गरीबी की मिट्टी में पले उनके परिवार की एक ही तीर्थयात्रा थी ,रोटी का इंतजाम। शायद इसी स्थिति को भांप कर , उनकी दादी ने उनका नाम ‘हाजी’ रख दिया था , ताकि नाम सुनकर ही घर में काबा की रौनक बनी रहे। रेलवे में गैंगमेन की नौकरी से रिटायर हुए हाजी मियां के लिए उनकी पेंशन ही अब उनका ‘हज’ था। वेतन आयोगों की कृपा से ठीक ठाक पैसा हर महीने की आखिरी तारीख को उनके खाते में आ जाता था।
फातिमा के जन्म के साथ ही , रेलवे अस्पताल में उनकी बेगम इस दुनिया से रुखसत हो गई थी। अब हाजी मियां दो वक्त के खाने के लिए अपनी बहुओं पर आश्रित थे। आठ लड़के और एक बेटी , हाजी मियां की दुनिया छोटी नहीं थी। पर जाने क्यों वे बहुत फंसा हुआ महसूस करते थे।
जब पेंशन लेने बैंक जाना पड़ता था, तो महीने की आखिरी तारीखें हाजी मियां के लिए अच्छे दिन होते। हर बेटा चाहता कि पेंशन निकालने तक बूढ़ा बाप उसके साथ रहे। उन दिनों उनकी थाली में कीमा-गोश्त और चाश्नी आ जाती। बहुएं भी तब विशेष स्नेह से थाली लगातीं। नवंबर में जीवन प्रमाण पत्र देने बैंक ले जाने को लेकर लड़कों में होड़ मच जाती। हाजी मियां चुपचाप मुस्कुराते हुए इस खेल का मजा लेते। वे जानते थे, यह सब प्यार नहीं दिखावा , उस अंगूठे के लिए था जो बैंक के रजिस्टर पर लगाने से हर महीने पेंशन सुनिश्चित हो जाती थी। उनकी बूढ़ी आँखों में एक गहरी चुप्पी छाई रहती, जिसे कोई पढ़ नहीं पाता।
फिर जमाना बदला। आनलाइन बैंकिंग आई। पेंशन अब मोबाइल के जादुई स्पर्श से ही ट्रांसफर हो जाती। हाजी मियां ने लड़कों की फितरत को पहचान लिया था। उन्होंने एक नया खेल शुरू किया।
हर महीने आखिरी सप्ताह में, हाजी मियां का मोबाइल ‘गुम’ हो जाता। बिस्तर के नीचे, तकिए के पास, अलमारी के कोने कहीं न कहीं वह सिमकार्ड निकालकर छिप जाता। तीस तारीख आते-आते हर बेटा बेताब हो उठता। एक-एक कर वे पिता के पास पहुँचते, नए स्मार्टफोन की पेशकश करते, योनो ऐप का पासवर्ड खुद सेट करने की जिद करते ,ताकि पेंशन का पैसा सीधे उनके मनमाफिक खाते में आ सके।
“”अब्बू, ये लीजिए नया फोन! आपका तो पुराना खराब हो गया लगता है।””
“”नहीं बेटा, शायद कहीं गिर गया है, मिल जाएगा। पर कल तो पेंशन आनी है! बिना फोन के कैसे ट्रांसफर होगी?””
हाजी मियां मासूमियत से सिर हिलाते। अंत में कोई न कोई बेटा जीत जाता, नया फोन थमा देता। और फिर… हाजी मियां का ‘खेल’ शुरू होता। कभी वह ‘गुम’ हुआ मोबाइल बेचकर करीम के होटल पर बढ़िया बिरयानी का मजा लेते। कभी पुराने दोस्तों के साथ बैठकर तीन पत्ती में किस्मत आजमाते, बचपन की तरह हँसते । उन कुछ पलों के लिए जब वे सिर्फ बिना हज किए , दादी के लाड़ले वाले हाजी मियां होते, पेंशन के बूढ़े स्रोत नहीं। कभी फोन को बस छिपा लेते। उनके पुराने लकड़ी के संदूक में अब चार स्मार्टफोन इकट्ठे हो चुके थे लड़कों के प्यार के प्रतीक। बाद में वे उन्हें छोटी बेटी की लड़की को या किसी नाती-पोते को दे देते, जिनकी आँखों में पैसे के बदले प्यार की चमक होती। छोटी बेटी फातिमा जो उसके शौहर के साथ दूसरे शहर में रहती थी , बिना किसी लालच हर हफ्ते फोन कर पिता का हाल चाल लिया करती थी ।
एक दिसंबर की ठिठुरती रात थी। पेंशन खाते में आ चुकी थी। हाजी मियां ने इस बार कोई नया फोन नहीं लिया था। करीम के साथ बैठकर उन्होंने जतन से योनो ऐप चलाना सीख लिया था। उन्होंने चुपके से अपना फोन निकाला, पासवर्ड डाला, और कुछ रुपए बचाकर बाकी रकम फातिमा के खाते में ट्रांसफर कर दी। उन्हें बातों में फातिमा से पता चला था कि उसकी इकलौती बेटी के अच्छे स्कूल में एडमिशन के लिए उसे पैसे चाहिए थे।
उन्होंने फोन बंद कर जेब में डाला । अपना रेलवे पास संभाला और सुबह सुबह ही हाजी मियां स्टेशन के लिए पैदल ही चल पड़े।
मुंबई दिल्ली मेल थोड़ा लेट आई थी , जो डब्बा सामने आया वे उसमें चढ़ गए, उन्हें पता था कि कहीं भी बैठो , पूरी ट्रेन दिल्ली ही पहुंचती है।
खिड़की से बाहर वे सूखे पेड़ को निहार रहे थे, जिस पर एक बूढ़ा कौआ बैठा था। उनके चेहरे पर न कोई क्रोध था, न हार। एक गहरी, थकी हुई शांति थी। कौआ उड़ गया , ट्रेन चल पड़ी।
ट्रेन बढ़ी जा रही थी , गैंगमैन अपने औजार संभाले , दूसरे ट्रैक पर काम करते दिखे तो हाजी मियां हंस पड़े । ट्रेन की ट्रैक बदलने की खटर पटर में उनके मन में चल रही बेटों के , पेंशन को लेकर होते संवादों के स्वर गुम हो गए। इंजन की लंबी सीटी गूँज रही थी, ट्रेन रफ्तार पकड़ चुकी थी।
हाजी मियां ने जेब टटोल कर पेंशन वाला मोबाइल संभाला । वे दिल्ली जा रहे थे, हज हाउस और मन ही मन इबादत कर रहे थे कि परवरदिगार उन्हें नाम के हाजी से सचमुच का हाजी बनने की उनकी इल्तिज़ा कबूल करें।
विवेक रंजन श्रीवास्तव
भोपाल, भारत