हाउसबोट

हाउसबोट

 

उस हाउसबोट में शबाना की हैसियत एक अदना सी नौकरानी की थी। कभी चाय, कभी कॉफ़ी, कभी कहवा, कभी जलपान तो कभी खाना पहुँचाने के बहाने वह सुनील के कमरे में आने-जाने लगी थी। सुनील का भोलापन उसके हृदय में बस गया था। परिचय प्रगाढ़ होता गया और एक माह कैसे गुज़र गया, उसे कुछ पता ही नहीं चला। प्रेम का रिश्ता अंकुरित होकर कब वट वृक्ष बन गया, दोनों को पता ही नहीं चला।

शबाना से आज भी उसे कोई शिकायत नहीं। साथ नहीं रह सकती थी तो नहीं रहती कोई ज़ोर-ज़ुल्म थोड़े ही था लेकिन तलाक लेने की क्या ज़रूरत आ पड़ी? सारे के सारे दरवाज़े क्यों बंद कर दिए, एक-आध खिड़की तो खुली रहने देती? मेरी किस बात से उसमें इतनी कड़वाहट भर गई कि वह यह निर्णय ले बैठी?

अधूरे ख़्याल और अनबूझे सवाल सुनील को अंदर ही अंदर खाए जा रहे थे। वह चाहता था कि एक बार शबाना के पास पहुँच जाए और पूछे कि उसने ऐसा क्यों किया? क्या उसे कोई और मिल गया है?जिसके कारण वह उससे पीछा छुड़ाना चाहती है, लेकिन उसकी हिम्मत न हो पाई। वह किस अधिकार से पूछता? क्या किया है उसने शबाना के लिए? इतना अधिकार किसने दिया उसको? ये सारे सवाल रोज़ उसके ज़हन में उठते थे। आज भी उसे अंदर ही अंदर अपने आप पर बहुत गुस्सा आया और फिर चारपाई पर निढ़ाल सा गिर गया। गला कुछ सूखा-सूखा सा लगने लगा तो पानी के लिए पास में रखे स्टूल पर टटोलने लगा। गिलास तो था पर ख़ाली था, बिल्कुल उसकी ज़िंदगी की तरह! सांँस तो है पर जीने की चाह नहीं।

 

हिम्मत करके उसने आज एक कागज़ और कलम उठाया और निर्णय किया कि आज वह अपने सारे सवाल इस ख़ाली कागज पर लिख देगा। शबाना ज़वाब दे या न दे उसकी मर्ज़ी। ये सवाल धीरे-धीरे अंदर ही अंदर उसे ख़त्म कर रहे थे बिल्कुल धीमे ज़हर की तरह। इस तरह घुट-घुट कर मरने से अच्छा था एक बार में ही शबाना का सामना करके मर जाना।

 

आख़िर उसने अपने मन के सारे जज़्बात उन कागज़ों पर उड़ेल दिए। हाथ काँप रहे थे। लगा जैसे शरीर में जान ही नहीं है और अगर बची है तो सिर्फ़ इन सवालों का ज़वाब सुनने के लिए। वह इंतज़ार करेगा अंतिम साँस तक। उसने अपने भतीजे नमन को आवाज़ दी और कहा कि पोस्ट ऑफ़िस जाकर एक लिफ़ाफ़ा और डाक टिकट ले आए। लिफ़ाफ़ा चिपका कर उस पर उसने हाउसबोट का पता लिखा। लिखते समय वह मन में दुआ कर रहा था कि शबाना अभी भी इसी पते पर काम करती हो। नहीं तो उस हाउसबोट के मालिक को उसके घर का पता तो मालूम होगा, वह उसका पत्र उस तक पहुँचा देगा। वह चाहता था कि पत्र शबाना को मिल जाए और उसका ज़वाब आ जाए ताकि उसकी बेचैन रूह को सुकून मिल सके।

उसने वह लिफ़ाफा लिया और ख़ुद ही उसे पोस्ट करने के लिए निकल पड़ा। वह किसी पर भरोसा नहीं करता था, न जाने कोई पत्र डाकखाने में डालकर आए या न आए। किसी तरह हिम्मत करके उसने पोस्ट बॉक्स में चिट्ठी डाल दी लेकिन उसका पूरा शरीर सूखे पत्ते की तरह काँप रहा था। वह कुछ देर के लिए वहीं बैठ गया और उन दिनों के बारे में सोचने लगा जब उनका प्रेम परवान चढ़ रहा था। रुपहली यादें किसी फ़िल्म की तरह उसकी आँखों से गुज़रने लगीं।

 

पहले भी उसने बहुत सारी चिट्ठियाँ शबाना को लिखी थीं। प्यार भरी, इकरार भरी, तकरार भरी, इंकार भरी, इसरार भरी। उस समय की बेचैनी ऐसी न थी। उस बेचैनी में भी करार था, मिलने का इंतज़ार था परंतु आज यह बेचैनी जान लेने वाली थी। उसे सिर्फ़ जवाब का इंतज़ार था शबाना का नहीं। ऐसा क्या हुआ कि उनके बीच इस कदर फ़ासले आ गए थे‌। बस एक यही तरीका था और वह कोशिश करना चाहता था एक बार; आखिरी बार।

 

ख़ुदा ने दुआ कबूल कर ली थी। शबाना आज भी उसी पते पर रहती थी और हफ़्ते भर बाद उसे वह पत्र मिल गया। सुनील की लिखाई उसने पहचान ली थी। उसका दिल शताब्दी की गति से धड़क रहा था, बहुत ज़ोर-ज़ोर से। लगता था बाहर ही आ जाएगा। उस ख़त को हाथ में लिए कितनी देर अपने कमरे में खड़ी रही, बिना किसी ख़्याल के। एक बार को तो उसे लगा जैसे कि ख़त नहीं, सुनील है। उसे समझ नहीं आ रहा था इस पत्र को पढ़ें या नहीं; पर रिश्ता प्यार का था। उसने लिफ़ाफे से ख़त बाहर निकाला और ख़ुदा को याद करके पत्र पढ़ने लगी। हर सवाल को पढ़ते हुए उसके चेहरे के भाव बदल रहे थे, कभी उदासी के, कभी गुस्से के तो कभी मायूसी के।

ज़हन पर यादों के बादल मँडराने लगे और फिर से वह पहुंँच गई उन्हीं बीते दिनों के कारवाँ में। उसे अपने और सुनील के प्यार पर बहुत भरोसा था तभी तो बिना कुछ सोचे उसका हाथ थामे श्रीनगर से चली आई थी। उसने सुनील के लिए अपना घर, मज़हब, परंपराएँ, तौर-तरीका सब कुछ छोड़ दिया था; सब कुछ। सुनील ने पहले ही फ़ोन से अपने माता-पिता और भाई-भाभी को बता दिया था कि वह शबाना को अपने साथ ला रहा है। माता- पिता ने थोड़ा विरोध तो किया था लेकिन क्या कर सकते थे, लाडला बेटा जो था। भाई-भाभी को भी मानना ही पड़ा। कोई और रास्ता नहीं था क्योंकि जिस घर में सब रहते थे, वह सुनील का ही था। उसने व्यवसाय में बहुत तरक्की की थी और बहुत पैसे कमाए थे। उसने अपने घर-परिवार का रुतबा इतना बढ़ा दिया था कि कोई उसकी बात को टाल नहीं सकता था।

दस साल में ही सुनील ने इतना बड़ा व्यवसाय खड़ा कर दिया था कि लोग ताज़्जुब करते थे। शायद जैसे किसी की नज़र लगी हो सुनील को एक अनजान सी बीमारी ने पकड़ लिया। डॉक्टर भी हैरान थे कि न जाने क्या बीमारी है, समझ ही नहीं आती थी। धीरे-धीरे सुनील का स्वास्थ्य गिरता चला गया। किसी काम में उसका मन नहीं लगता था। डॉक्टर ने कहा कि हवा-पानी बदल दिया जाए तो वह जल्दी स्वस्थ हो जाएगा। यही सोचकर वह श्रीनगर आ गया था और वहीं पर शबाना से उसकी मुलाकात हुई।

 

शबाना की मासूमियत उसके मन पर एक छाप छोड़ गई। ‌जब उसने उसे पहली बार देखा था तो वह देखता ही रह गया। वह हाउसबोट पर नौकरी करती थी। उनके बीच बहुत बड़ा फ़ासला था; जाति-धर्म और मालिक-नौकर का। धीरे-धीरे उसे शबाना से प्यार हो गया और उसने अपने प्यार के इज़हार करने के लिए उसे कई ख़त लिखे। एक दिन वह शबाना के घर पहुँच गया और शबाना के पिता से उसका हाथ माँग लिया। जिसकी उम्मीद थी वही हुआ, पिता ने न कर दिया। वह मायूस होकर खाली हाथ लौट आया। उसकी तबीयत फिर बिगड़ने लगी और उसने शहर वापस जाने का निश्चय कर लिया। शबाना को पता चल चुका था कि सुनील श्रीनगर छोड़कर जा रहा है। ‌कमज़ोर सी दिखने वाली शबाना में न जाने कहाँ से इतनी ताकत आ गई थी कि सब कुछ छोड़कर सुनील के साथ चली आई। उन्होंने कोर्ट मैरिज़ कर ली। सुनील को जैसे दूसरा जीवन मिल गया हो लेकिन उसकी तबीयत में कोई सुधार नहीं आ रहा था। अचानक एक दिन चक्कर खाकर गिर गया। सभी घरवाले घबरा गए तुरंत उसको अस्पताल लेकर गए। न जाने कितने टेस्ट हुए, कितने डॉक्टर उसे देखने आए, शबाना को याद नहीं।

नतीज़ा बहुत भयानक था, सुनील को कैंसर की बीमारी ने अपने क्रूर पंजों में जकड़ लिया था। उसके पास बहुत कम समय बचा था। शबाना की तो जैसे दुनिया ही लुट गई। वह रो भी न सकी थी। बड़ी मुश्किल से उसने अपने आपको सँभाला और अपने आँसू पौंछकर मुस्कुराते हुए सुनील के पास पहुँच गई जैसे कुछ हुआ ही न हो। किसी ने भी सुनील को यह पता लगने नहीं दिया कि उसे क्या बीमारी है? डॉक्टर ने सुनील को बताया कि उसे कई महीने तक अस्पताल में ही रहना पड़ेगा पर वह स्वस्थ हो जाएगा। ‌

उस दिन से शबाना की ज़िंदगी बदल गई। घर के सभी लोग न जाने उसे किन-किन बातों पर ताने देने लगे। सभी ने उसे मनहूस घोषित कर दिया था। सभी ख़फ़ा थे क्योंकि उन्हें लगता था कि शबाना ने सुनील को उनसे छीन लिया है। भाई-भाभी को डर था कि सुनील की सारी ज़मीन-जायदाद अब शबाना की हो जाएगी और ये ख़्याल आते ही अपनी सारी झुँझलाहट उस पर उतारते। उसने सुनील को कुछ भी नहीं बताया क्योंकि वह नहीं चाहती थी कि वह परेशान हो जाए और उनकी सेहत फिर ख़राब हो जाए। वह सुनील को अपनों से अलग भी नहीं करना चाहती थी।

धीरे-धीरे उसे सबके तानों की आदत सी हो गई थी। वह मुस्कुराकर सुन लेती थी, लेकिन एक दिन कुछ ऐसा हुआ जो वह बर्दाश्त नहीं कर पाई।

उस दिन वह सुबह से बहुत खुश थी। बात ही कुछ ऐसी थी, वह माँ बनने वाली थी और यह बात वह सबको बताना चाहती थी। जल्दी-जल्दी बैठक में गई और भाभी के कान में यह बात बता कर लौट आई। अस्पताल जाने के लिए तैयार होकर बाहर निकली तो देखा सुनील के बड़े भाई सामने खड़े थे और उसे खा जाने वाली नज़रों से देख रहे थे। वह थोड़ी असहज सी हो गई थी। उसने उन्हें नमस्ते की और बाहर जाने लगी। उन्होंने उसका हाथ पकड़ लिया और बोले, “”मैं सब जानता हूँ कि तुम उस हाउसबोट पर एक नौकरानी थी। तुमने सुनील को उसकी दौलत के लिए फँसाया है। तुम सोचती हो कि तुम इस घर में चैन से रह लोगी। यह मैं कभी नहीं होने दूँगा। न जाने किसके पाप को सुनील के माथे मढ़ रही हो। तुम्हें क्या लगता है कि हम तुम्हें इस घर की मालकिन बना देंगे। देखना, एक दिन सुनील की आँखों पर पड़ा हुआ पर्दा हट जाएगा और वह तुम्हें इस घर से निकाल फेंकेगा।

शबाना ने गुस्से से अपना हाथ छुड़ाया और सीधे घर से बाहर निकल गई। रास्ते में उसने मन ही मन निर्णय कर लिया था कि अब वह इस घर में नहीं रहेगी। वह ख़ुद गाली खा सकती है, लेकिन कोई सुनील के ख़ून को गाली दे तो वह बर्दाश्त नहीं करेगी। उसने अस्पताल में सुनील को बताया कि उसके पिता की तबीयत ठीक नहीं है, उसे श्रीनगर जाना होगा। वह एक-दो हफ़्ते में वापस आ जाएगी। सुनील ने मुस्कुरा कर उसे जाने की अनुमति दे दी। लेकिन शबाना जो एक बार गई तो फिर वापस न लौटी। न कोई शिकवा न शिकायत न ख़त न फ़ोन! सुनील समझ ही न सका कि क्या हुआ? घर के लोगों ने सुनील को बताया कि उसके अस्पताल जाते ही शबाना का व्यवहार बहुत बदल गया था और वह सब से लड़ाई करती थी। उसने एक दिन यह भी कहा कि अब इस बीमार पति की सेवा मुझसे नहीं होगी। जब शबाना बहुत दिन तक नहीं लौटी तो धीरे- धीरे सुनील को भी यही सच लगने लगा था।

शबाना की आँखों में आँसू थे। उसने उस पत्र को बिस्तर के नीचे छुपा दिया। उसने किसी को नहीं बताया कि सुनील का पत्र आया है। इधर पत्र का कोई जवाब न मिलने पर सुनील की बेचैनी इस हद तक बढ़ी, उसने श्रीनगर जाने का फैसला किया। वह सीधा उसी हाउसबोट पर गया जहाँ वह पहली बार शबाना से मिला था। सचमुच वह फिर उसे उसी जगह मिली। वह पहले जैसी नहीं रही थी बहुत बदल गई थी। चेहरे की मासूमियत कठोरता में बदल चुकी थी। उसकी तबीयत भी थोड़ी ढीली सी लग रही थी। सुनील ने ध्यान से देखा; शबाना गर्भवती थी। वह मन ही मन सोचने लगा तो क्या शबाना ने दूसरा विवाह कर लिया है। इतनी जल्दी वह उसे भूल गई और न जाने कितने प्रश्न उसके दिमाग में कुलबुलाने लगे थे और उसने शबाना को न जाने क्या-क्या कह डाला? उसे थकान से चक्कर भी आने लगे थे। वह एक सोफ़े पर निढाल सा गिर पड़ा। शबाना ज़ोर से चीखी और उसने हाउसबोट के मालिक को बुलाया। दोनों उसे लेकर अस्पताल पहुँचे। उसे कई घंटे बाद होश आया तो उसने शबाना की ओर देखते हुए धीरे से कहा, “”मुझसे क्या गलती हुई थी जो तुम ने मुझे छोड़ दिया।””

शबाना के सब्र का बाँध टूट गया था। वह ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी। हाउसबोट के मालिक ने सुनील को शुरू से आख़िर तक सारी बातें बता दीं। उसने यह खुशखबरी भी दी कि वह तुम्हारे बच्चे की माँ बनने वाली है। यह सुनकर सुनील को जैसे नया जन्म मिल गया था। उसे अपने प्यार पर यकीन था। उसे पता था कि शबाना उसे कभी भूल नहीं सकती। उसके साथ कभी बेवफ़ाई नहीं कर सकती और आज उसके प्यार की जीत हुई थी। अब ईश्वर उसे उठा भी ले तो उसे कोई दुख नहीं होगा। उसने निर्णय कर लिया था कि जीवन के जितने भी दिन बचे हैं, वह इसी हाउसबोट पर अपनी शबाना के साथ बिताएगा। उस दिन फिर से उन दोनों के जीवन में प्यार का एक नया अध्याय शुरू हुआ‌।

 

डॉ. कविता सिंह ‘प्रभा’

एनसीआर, भारत

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