लैंडलाइन प्रेम

लैंडलाइन प्रेम

 

यह प्रेम कहानी उस ज़माने की है जिस वक़्त मोबाइल फोन नहीं थे और लैंड लाइन के फोन के तारों के इर्द-गिर्द घूमती थी यह दुनिया। लैंड लाइन का फोन भी हर किसी के घर में नहीं होता था और लैंड लाइन का फोन रखना एक रुतबे की बात मानी जाती थी। पी.सी.ओ. भी बहुत बाद में आए। बस सिर्फ लैंड लाइन के फोन की घंटियाँ ही बजती थी। इन घंटियों के बजने का कोई वक़्त तय नहीं होता था लेकिन इन घंटियों के तार हमेशा लोगों के हृदय के तारों से जुड़े रहते, विशेषरूप से प्रेमी-प्रेमिकाओं के लिए दिल बहलाने का एकमात्र जीवन साधन था।

उस ज़माने का प्रेम भी लैंड लाइन की तरह पुराना अक्सर घर-घर की आवाज़ पर जुड़े रहना अंत तक । नेटवर्क की समस्या कभी नहीं थी। दोपहर में अक्सर इनकी घंटियाँ सड़क तक सुनाई पड़ती।

ऐसी ही एक दोपहर दिव्या की बैठक में रखे लैंड लाइन के फोन की घंटी बज उठी थी। अभी कॉलेज से लौटी दिव्या ने घर में क़दम रखा ही था कि फोन घनघना उठा था। दिव्या ने लापरवाही से रिसिवर उठा कर कहा-

– हैलो ?

– हैलो ! आप दिव्या बोल रही है?

जी हाँ ! आप कौन ?

जी मेरा नाम किरन है, डॉ. किरन ।

-आहा तो आप डॉ. है, लेकिन इस घर में अभी कोई बीमार नहीं है।

– नहीं, नहीं, मैं मेडिकल डॉ. नहीं बल्कि पी.एच.डी वाला डॉ हूँ।

– ओहो आई सी, पर आपको यह नम्बर कहाँ से मिला और मुझसे आप क्या चाहते हैं ?

– जी, मुझे आपसे चाहिए कुछ नहीं बल्कि मुझे आपको देना है।

– मुझे देना है, क्या ?

-निमंत्रण ?

-निमंत्रण, कैसा निमंत्रण ?

– जी, प्रेम का निमंत्रण ।

-अपनी बकवास बंद करे और आगे से मुझे फोन करने की कोशिश भी नहीं करे ।

यह कह कर दिव्या ने फोन पटक दिया था, लेकिन कुछ पलों के लिए उसके हृदय की धड़कने बढ़ गयी थी।

उधर डॉ. किरन उस मीठी आवाज़ के नशे में खो गए थे। डॉ. किरन एक पढ़े-लिखे, मेहनती इंसान थे। पी.एच.डी की उपाधि पाने के बाद उनकी अध्यापक की नौकरी भी लग गयी थी। जिंदगी के 24वें वसंत में उन्हें लगभग सब कुछ मिल चुका था सिवाय एक प्रेम करने वाली के। उनके एक दोस्त ने उन्हें कुछ लड़कियों के फोन नम्बर ला कर दे दिए थे। डॉ. किरन रोज़ किसी न किसी को फोन करते और आखिर उन्हें दिव्या से बात करने में सफलता मिल चुकी थी।

कुछ दिनों के अंतराल के बाद डॉ. किरन ने हिम्मत करके फिर दिव्या को फोन लगा दिया। इस बार भी फोन दिव्या ने ही उठाया। इधर-उधर की बहुत बातें होने लगी। अब दिव्या को भी दोपहर में आने वाले इस फोन की घंटी की प्रतीक्षा रहती। दो तीन महीने तक घंटियाँ बजती रही और प्रेम की गाड़ी धीरे-धीरे पटरी पर चलने लगी। आखिर यह तय हुआ कि एक दूसरे से मुलाकात करी जाए। दिन और वक्त तय हो गया।

आज पहली मुलाकात का वक़्त था। डॉ. किरन और दिव्या आज एक दूसरे से पहली बार मिलने वाले थे। दिव्या अपनी एक सखी को साथ लाई थी और डॉ. किरन भी अपने एक मित्र को। निश्चित स्थान पर दिव्या अपनी सखी के साथ कर रही थी प्रतीक्षा। तभी डॉ. किरन ने उन्हें देखा और उनके करीब आए ।

-आप, दिव्या जी है ?

-जी हाँ, मैं ही दिव्या हूँ ?

खिली हुई धूप सा चेहरा, गोरा रंग, गुलाबी गाल और कजरारी आँखें देखकर डॉ. किरन एक पल को स्थिर हो गये। उनकी कल्पना से भी कहीं अधिक सुंदर थी दिव्या। फैशन टैक्नोलॉजी में ग्रेजुएट की विद्यार्थी, एकदम चुस्त और तन्दुरुस्त । डॉ. किरन के मन में लड्डू फूट रहे थे, हालांकि डॉ. किरन का व्यक्तित्व दिव्या के आगे फीका पड़ रहा था। ग़रीब की जवानी ही बस उनका गहना था। और शायद दिव्या को उनकी मुस्कुराहट बहुत पसंद आ गयी थी। नज़दीक ही रेस्टोरेंट में बैठ जलपान हुआ और हुई देर बातें।

अब घंटियाँ कम हो गई और मुलाकातें बढ़ गयी। दिव्या एक श्रेष्ठ एवं धनी परिवार की बेटी थी, लेकिन डॉ. किरन निर्धन वर्ग के थे। जब दिव्या ने अपने पिता से अपने प्रेम का रहस्योद्घाटन किया तो उसके पिता इस बात से काफी नाराज़ थे और जब उन्हें यह पता लगा कि लड़का निर्धन वर्ग का है तो उन्होंने इस शादी के लिए साफ मना कर दिया। लेकिन दिव्या पर प्रेम का भूत चढ़ा था और वह किसी भी तरह डॉ. किरन से शादी करना चाहती थी। आखिर दिव्या के पिता ने मजबूर होकर उनके विवाह की अनुमति दे दी लेकिन मन से इस रिश्ते को कभी स्वीकार नहीं किया।

विवाह के बाद दिव्या जब अपने पिता के घर जाती तो उसके पिता उसका स्वागत नहीं करते और डॉ. किरन का अनादर करने से नहीं चूकते। धीरे-धीरे डॉ. किरन ने अपनी ससुराल में आना-जाना कम कर दिया और दिव्या ने भी वहाँ जाना बहुत कम कर दिया। समय के साथ दिव्या ने एक पुत्री को जन्म दिया।

दिव्या और किरन को उम्मीद थी कि शायद बच्चे होने के बाद उनके विवाह को स्वीकार कर लिया जाएगा। लेकिन दिव्या के पिता ने इस विवाह को कभी स्वीकार नहीं किया, फिर किरन ने दिव्या को आगे की शिक्षा जारी करायी। दिव्या धीरे-धीरे धीरे एम.एससी (फैशन डिजाइनिंग टेक्नोलॉजी) की डिग्री प्राप्त कर ली। फलतः दिव्या ने अपने मेहनत से यूपीएससी परीक्षा उत्तीर्ण की – अब उसका सपना साकार हो गया । उसे केन्द्र सारकार में नियुक्ति मिल गई। उसे अपनी पोस्टिंग पानीपत में मिली। पानीपत में पोस्टिंग मिलने के बाद, किरण और उनकी बेटी उसे पानीपत छोड़कर बड़े दुखी मन से लौटकर आये। एक साल के अंतराल में दिव्या फिर से गर्भवती हुई, इसी बीच में उनका ट्रांसफ़र बेंगलूर में हो गई और एक बेटे को जन्म दिया । फिर भी दिव्या के पिता ने अपने जीवन की अंतिम साँसों तक नहीं माने।

दिव्या अपने मृत पिता की तस्वीर पर फूल चढ़ा रही थी। अपने पिता की तस्वीर को देखते-देखते उसकी आँखों में आँसू आ गए थे। उसे इस बात का अफसोस था कि उसके पिता ने अंत तक उसके इस प्रेम विवाह को नहीं स्वीकारा । वास्तव में अमीरी-गरीबी की बैसाखी पर उनका प्रेम विवाह आज भी एक लंगडे घोड़े की तरह दौड़ रहा है।

 

डॉ. रवीन्द्रन टी.

बेंगलुरु, भारत

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