मजबूरी का सौदा
गौरीपुरा गाँव के ठीक बीचों-बीच, बरगद के पेड़ के नीचे, गिरधारी की छोटी-सी दुकान थी। दुकान क्या थी, एक फटी-पुरानी चारपाई, जिस पर कुछ लकड़ी के खिलौने रखे रहते थे। गिरधारी के हाथ में जादू था। उसकी छेनी और हथौड़ी से बेजान लकड़ी में जान आ जाती थी। वह सुबह सूरज निकलने से पहले उठता और लकड़ी के एक टुकड़े को अपने हाथों में लेता, जैसे कोई मूर्तिकार अपने पत्थर को छू रहा हो। वह लकड़ी की रगों को पहचानता था, उसकी प्रकृति को समझता था। उसकी छेनी की हर चोट में एक कहानी होती थी, एक एहसास होता था। उसने कभी खिलौने नहीं बेचे, उसने हमेशा भावनाएं बेचीं। उसके घोड़े इतने जीवंत लगते थे मानो अभी हिनहिना उठेंगे, हाथी इतने गरिमापूर्ण कि मानो जंगल का राजा अभी सामने आ गया हो, और चिड़िया इतनी चंचल कि मानो अभी उड़ जाएगी। गाँव में ही नहीं, आस-पास के कई गाँवों में उसके खिलौनों की धूम थी। बड़े-बड़े ज़मींदार भी अपने बच्चों के लिए उसके खिलौने खरीदना अपना सौभाग्य मानते थे। पर यह धूम अब इतिहास की बात हो चुकी थी।
एक जमाना था जब लोग उसकी दुकान पर लाइन लगाए खड़े रहते थे। अब तो कोई इक्का-दुक्का बच्चा ही आता, जो अपने दादा या परदादा की कहानी सुनकर आता था। बच्चों के हाथ में अब मोबाइल थे,रंग-बिरंगी प्लास्टिक की दुनिया थी, जहाँ बटन दबाने से आवाजें निकलती थीं और स्क्रीन पर छवियाँ नाचती थीं। गिरधारी की आँखों में एक उदासी थी, जो उसके चेहरे की झुर्रियों में गहरी होती जा रही थी। उसकी उम्र सत्तर के पार थी, पर शरीर में अब भी काम करने की ललक थी। उसके हाथ थकते नहीं थे, पर दिल थकने लगा था। वह देखता कि कैसे उसकी कला, उसका जीवन, इस नई दुनिया में अपनी अहमियत खो रहा है।
उसका बेटा मोहन, तीस साल का नौजवान, इस सब से बहुत परेशान था। वह अपने बाप को दिन भर छेनी-हथौड़ी चलाकर दो-चार रुपए कमाते देखता तो उसका खून खौल उठता। “बाबूजी,” वह कहता, “अब यह काम छोड़ो। इसमें कुछ नहीं रखा। दुनिया कहाँ से कहाँ पहुँच गई और हम अभी भी लकड़ी की दुनिया में अटके हैं।” मोहन की आँखों में एक आग थी, जो गरीबी और अभाव से उपजी थी। वह अपने बाबूजी के काम को कला नहीं, बल्कि एक बेकार का बोझ मानता था।
गिरधारी अपनी पुरानी धोती को ठीक करते हुए कहता, “अरे पगले! यह सिर्फ लकड़ी नहीं है, यह हमारा खानदानी पेशा है, हमारी पहचान है। यह हमें हमारे पुरखों से मिला है।” वह अपनी छेनी को प्यार से सहलाता, जैसे कोई अपने बच्चे को पुचकार रहा हो।
“पहचान! किस काम की पहचान, जब पेट खाली हो?” मोहन का स्वर तीखा हो जाता। “मैं शहर जाकर काम करूँगा। फैक्ट्री में मजदूरी करूँगा। वहाँ एक दिन के सौ-दो सौ रुपए मिलते हैं। यहाँ तो महीने भर में भी इतना नहीं मिलता।” मोहन की बातें गिरधारी के दिल को गहरा घाव पहुँचाती थीं। उसे लगता था कि उसका बेटा उसकी कला का, उसके अस्तित्व का अपमान कर रहा है।
गिरधारी का दिल बैठ जाता। “शहर की हवा अच्छी नहीं होती, मोहन। वहाँ आदमी मशीन बन जाता है। यहाँ हम अपनी मर्जी के मालिक हैं।”
“मर्जी के मालिक! वह भीख मांगने से बेहतर नहीं है,” मोहन झुँझलाकर कहता। उसकी पत्नी लक्ष्मी, जो इन दोनों के बीच फँसी हुई थी, चुपचाप देखती रहती। उसकी आँखों में पति की निराशा और ससुर के प्रेम दोनों का दर्द था। वह जानती थी कि गिरधारी की कला में कितना प्यार और ईमानदारी भरी है, पर वह यह भी जानती थी कि मोहन की बातें भी गलत नहीं हैं। उनका घर गरीबी की दलदल में धँसता जा रहा था।
गाँव का सबसे धनी व्यक्ति, सेठ धनराम, गाँव का सबसे बड़ा सूदखोर भी था। उसकी नजर बरगद के पेड़ के नीचे वाली उस खाली पड़ी जमीन पर थी, जहाँ गिरधारी की दुकान थी। वह जानता था कि सड़क वहीं से होकर गुजरने वाली है और जल्द ही वहाँ एक बड़ा बाजार बन जाएगा। उसने कई बार गिरधारी से जमीन बेचने की बात की थी, पर गिरधारी हर बार मना कर देता। “सेठजी,” वह कहता, “यह जमीन मेरा मंदिर है। यहाँ मैंने अपनी पूरी ज़िंदगी गुजारी है। इसे मैं नहीं बेच सकता।”
एक दिन सेठ धनराम ने मोहन को अपनी दुकान पर बुलाया। उसने मोहन की हताशा को भांप लिया था। “तुम्हें अपने बाबूजी की चिंता नहीं है क्या, मोहन?” उसने मक्खन लगाते हुए पूछा। “वह इस उम्र में भी मजदूरी कर रहे हैं। इस जमीन का क्या करोगे? बेच दो। मैं तुम्हें मुँह माँगी कीमत दूँगा।”
मोहन ने कहा, “सेठजी, बाबूजी नहीं मानेंगे।”
“वह क्यों मानेंगे? बूढ़े लोग अपनी दुनिया में जीते हैं। तुम तो जवान हो, तुम्हें तो सोचना चाहिए। मैं तुम्हें एक फैक्ट्री में काम भी दिलवा दूँगा और कुछ पैसे भी उधार दूँगा, ताकि तुम अपना कोई छोटा-मोटा धंधा शुरू कर सको।”
सेठ की बातों में मोहन को एक नई उम्मीद की किरण नजर आई। वह इस गरीबी से तंग आ चुका था। उसने सोचा, “बाबूजी को नहीं बताऊंगा। जब मेरे पास खूब पैसे आ जाएँगे, तब उन्हें सब समझा दूँगा।” मोहन ने अपनी मजबूरी में आकर अपने बाप की विरासत को गिरवी रख दिया। उसने सेठ से कुछ पैसे उधार लिए और शहर चला गया। उसने अपनी पत्नी से कहा कि वह एक महीने में लौट आएगा। पर एक महीना बीत गया, फिर दूसरा, फिर तीसरा। मोहन का कोई पता नहीं चला। गिरधारी चिंतित रहने लगा। लक्ष्मी के आँसू सूख चुके थे। वह हर शाम अपनी चौखट पर बैठकर अपने पति की राह देखती थी।
शहर पहुँचकर मोहन को शुरू में तो सब कुछ सपने जैसा लगा। ऊँची-ऊँची इमारतें, चमचमाती सड़कें और भागती हुई गाड़ियाँ। उसे लगा कि अब उसकी किस्मत चमक जाएगी। सेठ की सिफारिश पर उसे एक बड़ी फैक्ट्री में काम मिल गया। शुरुआत में सब कुछ ठीक था, पर धीरे-धीरे उसे एहसास होने लगा कि शहर की दुनिया उतनी भी हसीन नहीं थी जितनी उसने सोची थी। उसे वहाँ एक मशीन का पुर्जा बनकर रहना था। सुबह से शाम तक एक ही काम, एक ही गति से करना था। उसकी कमाई का ज्यादातर हिस्सा रहने और खाने में ही चला जाता। सेठ धनराम ने जो पैसे उसे दिए थे, वे ब्याज के साथ बढ़ते जा रहे थे और उसके सिर पर एक भारी बोझ बन गए थे।
एक दिन मोहन ने फैक्ट्री के मालिक से अपनी मजदूरी बढ़ाने की बात की, तो मालिक ने उसे काम से निकाल दिया। मोहन हताश होकर सड़क पर आ गया। उसने कई और जगह काम ढूंढा, पर कहीं कुछ नहीं मिला। वह अब शहर की भीड़ में एक खोया हुआ चेहरा बनकर रह गया था। उसके पास जो कुछ भी था, वह धीरे-धीरे खत्म होता जा रहा था। वह गाँव में अपनी पत्नी और बाबूजी को किए वादे भूल चुका था। उसका एकमात्र उद्देश्य अब सिर्फ ज़िंदा रहना था।
गाँव में गिरधारी ने मोहन के वापस आने का इंतज़ार करना बंद नहीं किया था। हर सुबह वह बरगद के पेड़ के नीचे जाता और मोहन की राह देखता। उसकी आँखों में उदासी की जगह अब एक गहरा विश्वास था। उसे लगता था कि उसका बेटा एक दिन लौटकर जरूर आएगा। लक्ष्मी भी अपने पति की चिंता में घुलती जा रही थी। वह कभी गिरधारी को सांत्वना देती तो कभी अपने मन को समझाती कि शायद मोहन सच में कोई बड़ा काम कर रहा होगा।
एक दिन सेठ धनराम अपने कुछ गुंडों के साथ गिरधारी की दुकान पर आया। “गिरधारी, यह जमीन खाली कर दो।”
गिरधारी हैरान हो गया। “सेठजी, कैसी बात कर रहे हैं? यह जमीन तो हमारी है।”
“तुम्हारा बेटा मोहन मुझसे पैसे उधार ले गया था। उसने यह जमीन मेरे पास गिरवी रखी थी। लो, ये रहे कागज़ात।” सेठ ने कुछ कागज़ उसके सामने फेंके। कागज़ों पर मोहन के अंगूठे का निशान था।
गिरधारी के पैरों तले जमीन खिसक गई। उसकी आँखों में अंधेरा छा गया। उसके अपने बेटे ने उसे धोखा दिया था। उसकी पहचान, उसकी विरासत, उसका घर… सब कुछ एक झटके में खत्म हो गया था।
लक्ष्मी ने दौड़कर अपने ससुर को संभाला। गिरधारी ने किसी तरह अपने आप को संभाला और कहा, “ठीक है, सेठजी। हम चले जाएँगे। पर मुझे एक दिन का समय दीजिए।”
सेठ हँसता हुआ चला गया। उस रात गिरधारी ने अपनी छेनी और हथौड़ी उठाई। उसने अपनी आँखों से बहते आँसुओं के साथ एक आखिरी खिलौना बनाना शुरू किया। यह कोई आम खिलौना नहीं था। यह एक बूढ़े आदमी की कहानी थी, जिसने अपना सब कुछ खो दिया था। उसने एक बूढ़े आदमी की मूर्ति बनाई, जिसके हाथ में लकड़ी का एक अधूरा खिलौना था। उस बूढ़े की आँखों में वही दर्द था, जो गिरधारी की आँखों में था।
अगले दिन सुबह, गिरधारी अपनी छोटी-सी पोटली और उस अधूरे खिलौने को लेकर घर से निकल पड़ा। लक्ष्मी उसके पीछे थी। उसने अपनी सास-ससुर की तस्वीर को आखिरी बार देखा और आँखें नम कर ली। जब वे बरगद के पेड़ के पास से गुजरे, तो गिरधारी ने एक बार मुड़कर अपनी खाली पड़ी दुकान को देखा। उसकी आत्मा उसी जगह पर रह गई थी।
शहर की चकाचौंध में गिरधारी और लक्ष्मी खो गए। लक्ष्मी ने एक घरों में बर्तन मांजने का काम शुरू कर दिया। गिरधारी ने कई जगह अपने खिलौने बेचे, पर किसी को उसकी कला की कद्र नहीं थी। एक दिन थक-हारकर वह एक सड़क के किनारे बैठ गया। उसके हाथ में वही अधूरा खिलौना था। उस खिलौने को वह अपनी गोद में रखकर घंटों रोता रहता।
मोहन की हालत भी दिनों-दिन खराब होती जा रही थी। वह शहर में भीख मांगने लगा था। उसका शरीर कमजोर हो गया था और मन टूट चुका था। एक दिन उसने देखा कि एक बूढ़ा आदमी सड़क के किनारे बैठा है, जिसके हाथ में एक अधूरा खिलौना है। वह उस बूढ़े की तरफ ध्यान से देखने लगा। यह उसके बाबूजी थे। मोहन ने अपनी आँखों पर विश्वास नहीं किया। वह दौड़कर उनके पास गया और उन्हें गले लगा लिया। “बाबूजी, आप यहाँ?”
गिरधारी ने उसे कुछ नहीं कहा। उन्होंने बस अपने बेटे को देखा और उसकी हालत देखकर उनकी आँखों में आँसू आ गए। मोहन ने अपनी कहानी बताई, कैसे उसे शहर में धोखा मिला, कैसे वह सब कुछ खो बैठा। गिरधारी ने उसे कुछ नहीं कहा। उन्होंने मोहन के कंधे पर हाथ रखा और कहा, “चलो, घर चलते हैं।”
“घर? अब हमारा कोई घर नहीं रहा, बाबूजी।” मोहन ने सर झुका लिया।
गिरधारी ने कहा, “जब तक हमारे पास प्यार है, तब तक हमारे पास घर है।”
पर अब उनके पास घर क्या था? एक पुरानी, टूटी-फूटी झोपड़ी, जहाँ वे तीनों मिलकर किसी तरह अपना जीवन गुजार रहे थे। गिरधारी के हाथों में अब वैसी जान नहीं रही थी। मोहन ने मजदूरी का काम शुरू किया, पर उसे कोई काम नहीं मिल रहा था। वह कभी-कभी अपनी पत्नी को देखता, जो दिन-रात काम करके अपने बूढ़े ससुर और बेकार पति का पेट भर रही थी, और उसका दिल टूट जाता।
एक दिन गिरधारी की तबीयत बहुत खराब हो गई। मोहन उसे अस्पताल ले गया, पर डॉक्टर ने कहा कि बहुत देर हो चुकी थी। गिरधारी ने मोहन का हाथ थामा और कहा, “बेटा, कभी भी अपनी पहचान और विरासत का सौदा मत करना। पैसे आते-जाते रहेंगे, पर अपनी जड़ें खो देने पर कुछ नहीं बचता।”
कहते-कहते गिरधारी की साँसें रुक गईं। मोहन ने अपने बाप को अपनी आँखों के सामने दम तोड़ते देखा। वह जोर-जोर से रोने लगा। लक्ष्मी ने उसे संभाला। गिरधारी के अंतिम संस्कार के बाद, जब वे उनका सामान देख रहे थे, तो लक्ष्मी को उनके सामान में एक पुराना, लकड़ी का अधूरा खिलौना मिला। वह वही खिलौना था, जो गिरधारी ने अपनी आखिरी रात में बनाया था।
मोहन ने उस खिलौने को उठाया। उसकी आँखों में आँसू थे। उसे अपने बाप की आखिरी सीख याद आ गई। उसने फैसला किया कि वह अपने बाप की विरासत को खत्म नहीं होने देगा। उसने अपनी मजदूरी से कुछ पैसे जमा किए। उसने एक छोटी-सी दुकान खोली और अपने बाप के खिलौने बनाना शुरू कर दिया। इस बार उसने अपने बाप की तरह सिर्फ घोड़े और हाथी नहीं बनाए। उसने वही अधूरा खिलौना बनाया, जो उसके बाप ने बनाया था। एक बूढ़े आदमी की मूर्ति, जिसके हाथ में लकड़ी का एक अधूरा खिलौना था।
लोगों ने उस खिलौने को देखा और उसकी कहानी सुनी। उस खिलौने की आँखों में वही दर्द था, जो मोहन की आँखों में था। उसकी कहानी सुनकर लोगों की आँखों में आँसू आ गए। वह खिलौना इतना प्रसिद्ध हो गया कि लोग उसे खरीदने के लिए आने लगे।
मोहन ने अपनी दुकान का नाम “गिरधारी की विरासत” रखा। उसकी दुकान पर अब पहले की तरह भीड़ लगी रहती थी। उसने अपनी पहचान को फिर से ढूंढ लिया था। पर इस पहचान की कीमत उसे अपने बाप को खोकर चुकानी पड़ी थी। उसकी आँखों में आज भी अपने बाप की याद में आँसू आते हैं, पर अब वे आँसू दुख के नहीं, बल्कि अपनी जड़ें पहचान लेने के हैं।
आज गौरीपुरा गाँव में बरगद के पेड़ के नीचे गिरधारी की विरासत की कहानी एक अमर गाथा बन चुकी है। यह कहानी हमें सिखाती है कि हमारी पहचान, हमारी विरासत हमारे लिए किसी भी धन से अधिक महत्वपूर्ण है।
डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’
भारत