न्याय

न्याय

क्षितिज पर आषाढ़ के काले मेघ घुमड़ रहे थे. धरती और बादलों का मिलन बिंदु धुआँ धुआँ हो रहा था. बादल थे कि रह रह कर बरसने का उपक्रम कर रहे थे मानों अपना समूचा प्रेम आज ही धरा पर उड़ेल देना चाह रहे हों.

” तनिक देखो तो! कल कितनी तीव्र ग्रीष्म वेदना थी, किन्तु आज! कोहरे की धूमिल चादर देख कर ऐसा प्रतीत हो रहा मानों धरती पर कभी गर्मी पड़ी ही नहीं.” पिता जी मंत्रमुग्ध से बादलों को निहारते हुए माँ से कह रहे थे. ” यही तो है ईश्वर का न्याय” माँ भी मुस्कुरा कर पिता का वाक सहयोग करने चाय का कप थामे गैलेरी में आ बैठी थीं.

शब्द “न्याय” अनायास ही मूट कोर्ट से आ, थक कर अपना काला कोट सोफे पर पटकती गुड़िया के कानों में पड़ा तो उसे आज के अतिथि व्याख्यानमाला में पधारे भूतपूर्व न्यायमूर्ति श्री जे एल गौतम का सुनाया संस्मरण याद हो आया . उसे लगा जैसे उसके आसपास ही कहीं बरखा की बूंदों से घनीभूत होती भाप में वे सभी किरदार जीवित होने लगे जो आज के व्याख्यान में गौतम साहब ने उकेरे थे. कहीं किसी कोर्ट के उमस भरे गलियारे में भिनभिनाती मक्खियों का शोर और भुनभुनाते लोगों का कोलाहल। काले कोटों और स्पंदनविहीन ह्रदयों के बीच छाती पीटती एक वृद्धा का ह्रदय विदारक क्रंदन , ” तू तो न्याय नहीं कर पाया पर परमात्मा तुझे अवश्य सिखाएगा कि न्याय क्या होता है !” इस कठोर करुणा के रुदन से एक पल को सब कुछ स्तब्ध रह गया और चार सालों से न्याय की गुहार लगाती अधमरी बुढ़िया की आँखें सहसा पथरा गईं ” रामदीन लाश के पंचनामे का प्रबंध करो, मातादीन! सा’ब के ड्राइवर से बोलो कि कार पिछले दरवाज़े पर लगाए , साहब आज उधर से घर जायेगे। ” एक पल को कचहरी के सारे मस्तिष्क प्रकम्पित हो, चपरासी की उठती आवाज़ पर सामान्य हो गए. जाने ईश्वर का विधान कौनसी न्याय लीला रचने वाला था जो बुढ़िया की मृत देह के हठ जाने के बाद भी उस शाम कोर्ट में एक दहशत सी भाँय भाँय कर रही थी.

वह एक नृशंस हत्याकांड था. मेरठ के गोल बाज़ार में सड़क के किनारे रेहड़ी लगाती एक ६५ वर्षीय वृद्धा का जवान जहान बेटा किसी नामचीन नेतापुत्र की दबंगाई के वशीभूत हो की गयी हवाई फायर का शिकार हो गया था. वह तड़प तड़प कर मरा. इस घटना के सैकड़ों चश्मदीद गवाह थे किन्तु नेता जी के रुतबे और दबदबे के समक्ष कोई बोलने का साहस करने वाला वहाँ मौजूद नहीं था. रोज़ रेहड़ी लगाने वाली मासूम वृद्धा को एक भी चश्मदीद गवाह नहीं जुटा था. परिणामस्वरूप रोती, कलापती वृद्धा रोज़ रोज़ कचहरी की जनसुनवाई में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने लगी थी.

चार साल हुए रोते रोते अब तो उस बेचारी के आंसू भी सूख चुके थे. उसे न तो न्याय मिलना था और न ही मिला। हर व्यक्ति भली भाँति जानता था कि न्यायमूर्ति मानसराजन केवल और केवल लक्ष्मी के पुजारी हैं. बिना दक्षिणा ग्रहण किये वे किसी फ़ाइल के स्पर्शमात्र से भी परहेज रखते हैं. सच भी है , पैसा कितना भी हो कम ही पड जाता है। इधर वैसे भी अपने इकलौते नालायक पुत्र को दिल्ली के किसी नामचीन महाविद्यालय में दाखिला दिलाने हेतु मानसराजन को एक करोड रूपये की आवश्यकता थी सो इस तरह लक्ष्मी का अपमान भला चतुरों को शोभा देता है क्या ! यह नेता जी के दबदबे का प्रताप नहीं अपितु उनके दिए हष्टपुष्ट लिफ़ाफ़े के प्रसाद का ही परिणाम था कि न्याय का दिन आ गया. बुढ़िया के केस की फ़ाइल भी टेबल पर अवतरित हो गई. केस में न्याय हुआ; मानसराजन का न्याय गूंजा, ” नेतापुत्र निर्दोष है “. इधर नेतापुत्र बाइज़्ज़त बरी हुआ , उधर चार साल से न्याय न्याय की पुकार लगाती वृद्धा के प्राण पखेरू उड़ गए. कोर्ट के तंग चक्करदार गलियारों और ईंट पत्थर की निष्प्राण अट्टालिका में तब एक अजीब सी मनहूसियत छा गयी.

कहते हैं बुढ़िया के साथ अन्याय करने की पूरी एक करोड़ की कीमत वसूली थी न्यायमूर्ति जी ने. कोर्ट के अगले द्वार पर पडी बुढ़िया की मृत देह का , मानसराजन , अपने मानसपटल पर कोई पूर्वाग्रह नहीं चाहते थे सो उस दिन वे कोर्ट पिछले द्वार से गए थे। बिना इस बात का स्मरण किये कि भाग्य के अगले द्वार पर साक्षात यम अपनी न्याय वल्गा थामे उनकी प्रतीक्षा कर रहे है.

इधर एक करोड़ रुपयों का बण्डल ले मानसराजन सपरिवार अपनी बड़ी सी कार में, पुष्पक विमान में बैठे दशानन की भाँति ही विराजित हुए और चल पड़े बेटे के कलुषित भाग्य की कुत्सित रेखाएं धोने किन्तु उन्हें न्याय सिखाने की गुहार में बैठे बुढ़िया के अभिशाप ने अपने एक ही प्रहार में बेटे की समूची कुंडली धो डाली. मार्ग में भीषण घाट की विहंगम ऊंचाई से कार तीन पलटी खाती हुई सड़क से खाई में समां गई। इस पूरे घटना क्रम में मानसराजन और उनके पुत्र ने तड़पने का भी अवसर नहीं लिया किन्तु श्रीमती मानसराजन अनेक घावों के साथ सदा सर्वदा के लिए अपनी चेतना से हाथ धो बैठीं और उनकी पुत्री अपनी दोनों टांगों से।कार उनके नेत्रों के सामने धू धू करके जल रही थी किन्तु रुपयों बण्डल पर लेशमात्र भी आंच नहीं आई थी.

न्यायमूर्ति जी और उनके पुत्र के शव विधिवत पोस्टमॉर्टम के लिए जा चुके थे. रुपयों का बण्डल सरकारी हिरासत में चला गया था, और पुलिस ने श्रीमती मानसराजन तथा उनकी पुत्री को अस्पताल में भर्ती कर श्री मानसराजन के इकलौते छोटे भाई को दुर्घटना की सूचना दे दी थी. सूचना पा , उनका छोटा भाई मास्टर चाबी की मदद से घर में रखी नकदी और जेवर लेकर फरार हो गया था.

कहते हैं पिछले चार सालों से, बैसाखी से टक टक की ध्वनि करती मानसराजन की बेटी कोर्ट में अनुकम्पा नियुक्ति के लिए गुहार लगाती उसी जगह आकर बैठती है जहां उसके पिता के न्याय का शिकार बनी बुढ़िया ने दमतोड़ा था.

गुड़िया जो अब तक मज़ाक मज़ाक में एलएलबी कर रही थी, इस घटना के स्मरण मात्र से ही उसके पूरे शरीर में सिंहरन दौड़ आई. वह निढाल सी सोफे पर बैठ सोच रही थी , ” कितना बारीक शब्द है यह ” न्याय ” . चाय का प्याला कब का ठंडा पड़ चुका था भय से पीले पड़े बिल्कुल उसके चेहरे सा.

डॉ सेहबा जाफरी 

भोपाल, भारत

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