पथ पे विश्वास चला करता है
स्वतंत्र भारत के इतिहास में ये पहला ऐतिहासिक फैसला आया है, जिसने मानव जीवन की अब तक की समस्त मान्यताओं को पुनः परिभाषित कर दिया। एक ऐसा निर्णय जिसके कारण असंख्य ज़िंदगियों की अपनी पहचान स्थापित हो सकेगी। जी हाँ भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने अपना फैसला सुनाते हुए …..
तमाम ‘न्यूज चैनलों’ पर ये ख़बर चल रही थी लेकिन सुमित की नम आँखों में अब तक भोगी गई उस वेदना की तपिश, ज्वाला बन कर धधक रही थी। जिन अंगारों पर चल कर उसने ये असंभव मंज़िल हासिल की। जिसकी अब से पहले किसी ने कल्पना भी नहीं की थी। आज उसी संघर्ष की सफलता के साथ उन असंख्य काँटों की चुभन भी याद आ रही थी।
कोई तीस बरस पहले सुदूर गाँव के उस छोटे से खपरेल वाले घर में जब नन्ही किलकारी गूंजी तो मजदूर पिता ने खुशी मनाते हुए अपनी बस्ती और गाँव के आसपास रहने वाले रिश्तेदारों में गुड़ बंटवाया। ढोल मंजीरे की रुनझुन में गाँव की महिलाओं ने सोहर गाया। युवा महिलाओं ने हंसी ठिठोली करते हुए खूब नाच – गान किया। दादी ने तो हजार – हजार बलैयां लेते हुए, ढेरों आशीषें देते हुए माथा चूम लिया। पिता को तो मानों खज़ाना मिल गया था। उसे तो आखिर वंश चलाने वाला चिराग जो मिल गया था। माँ तो….. चार बेटियों को जन्म देने के बाद बेटा न देने के तानों को सहते हुए अधेड़ उम्र में फिर से प्रसव का जोखिम उठाने की असहनीय पीड़ा को भूल कर, नन्हे शिशु को दुलराते हुए अपना समस्त वात्सल्य उँडेल रही थी। सलोना बालक जिसकी बड़ी-बड़ी आँखें नन्हे-नन्हे, हाथ-पाँव और गोल चेहरा देख कर पूरा परिवार पुलकित था। गोदी में लेने और खिलाने के लिए बहनों में होड़ लगी रहती थी। सारे घर में खुशी और उल्लास का माहौल बन गया था। अब रोज – रोज की किचकिच, क्लेश और मारपीट खत्म हो गई थी। पूरा घर मानों शिशु के लालन – पालन में सिमट आया था। मालिश के बाद नहला-धुला कर आँखों में काजल और माथे पे डिठौना लगा कर माँ अपलक अपने लाल को निहारती रह जाती। दादी अक्सर नून राई से नज़र उतारती और पोते को लाड करते हुए गीत गुनगुनाती।
समय पंख लगा कर उड़ने लगा। देखते ही देखते साल दो साल और पांच साल बीत गए। अब स्कूल भेजने का समय आ गया तो गाँव के ही पंडित से कुंडली बनवा कर नाम निकलवाया गया। पंडित ने सुमित नाम बताते हुए कहा कि “ये बालक बहुत प्रतिभाशाली है। देश – विदेश में इसका नाम होगा और ये ऊँचे पद पे आसीन होगा।” पंडित की बात सुन कर पिता की छाती गर्व से चौड़ी हो गई तो माँ की आँखें खुशी से छलक पड़ी। दादी ने पंडित को ग्यारह रुपए देकर प्रणाम करते हुए कहा “महाराज मेरे लाल को खूब आशीष दीजिए।”
गाँव की पाठशाला में पहली कक्षा में प्रवेश दिला कर पिता ने सपने देखने शुरू कर दिए कि उसका बेटा एक दिन बहुत बड़ा अफसर बनेगा। सुमित पढ़ने में होशियार और कुशाग्र बुद्धि वाला बालक था जिसके कारण अध्यापक भी उसे स्नेह करते थे। पिता भी उसकी हर जरूरत पूरी करने की कोशिश करता। समय बीत रहा था सुमित अब चौथी कक्षा में आ गया था। जैसा कि सभी जानते हैं आठ नौ वर्ष के लड़कों का शारीरिक गठन पुरुषोचित दिखने लगता है लेकिन सुमित का शारीरिक विकास वैसा नहीं हो रहा था। साथ पढ़ने वाले बच्चे भी उसे कुछ अलग नज़रों से देखने लगे थे। घर के आसपास और गाँव के लोगों में भी उसके शारीरिक गठन को लेकर खुसर-फुसर होने लगी। सुमित के माता – पिता को भी अब चिंता सताने लगी कि उनका बेटा अन्य बच्चों के समान क्यूँ नहीं दिखता। अब तो स्कूल के बच्चे भी सुमित को चिढ़ाने लगे थे। मासूम सुमित इन सब बातों से अनभिज्ञ हो कर समझ नहीं पा रहा था कि बच्चे उसे इस तरह परेशान क्यों करते हैं।
एक दिन स्कूल से घर आ कर सुमित रोने लगा कि अब स्कूल और पड़ोस के बच्चे उसका उपहास करते हैं। उसकी हंसी उड़ाते हैं और साथ खेलते भी नहीं। उसके बाल मन पर गहरा असर होने लगा कि वो सामान्य क्यों नहीं है। अन्य बच्चों के जैसी उसकी शारीरिक बनावट क्यों नहीं है।
उसकी दैहिक और मानसिक अवस्था देख कर पिता और घर के लोग भी चिंतित हो गए।
एक दिन सुमित के मामा जो शहर में रहते थे अपनी पुत्री के विवाह का निमंत्रण देने गाँव आए। सुमित को देख कर अनायास उनके मुंह से निकल गया कि सुमित को शहर के किसी डॉक्टर को दिखाना चाहिए। मामा की सलाह मान कर सुमित अपनी माँ के साथ डॉक्टर को दिखाने शहर आ गया। अनेक जांचें और टेस्ट के बाद डॉक्टर ने जो कहा उसे सुनकर सुमित की माँ तो गश खा कर गिर पड़ी। रोते हुए गुहार लगाने लगी कि डॉक्टर साहब मेरे बेटे को किसी भी तरह इस संकट से बचा लो। तड़प कर भगवान से कहने लगी कि मेरे बच्चे के साथ इतना बड़ा अनर्थ मत करो। इन सब बातों से अनजान सुमित समझ नहीं पा रहा था कि ये सब क्या हो रहा है। डॉक्टर द्वारा कोई मार्ग न बताने पर हताश निराश सुमित की माँ उसे साथ लेकर वापस गाँव की ओर चल पड़ी।
रात गहरा रही थी। गाँव में घना अंधेरा छाया हुआ था। चारों तरफ सन्नाटा पसरा हुआ था लेकिन सुमित की माँ के मन में उथल- पुथल मची हुई थी। उसे समझ नहीं आ रहा था कि घर जा कर क्या कहेगी। इसी चिंता में घर पहुँची तो देखा, सब लोग उसी का इतंजार कर रहे थे।
पिता, दादी, बहनें एक साथ बोल पड़े “क्या कहा डॉक्टर ने? हमारे सुमित को कोई बीमारी तो नहीं है ना ? वो बड़ा होकर बाकी बच्चों की जैसे हो जाएगा ना ?” और कई सवालों की झड़ी लगा दी। रोते हुए सुमित की माँ ने जब बताया कि हमारा सुमित न लड़का है ना लड़की तो पूरे घर में कोहराम मच गया। दादी और बहनें रोने लगी लेकिन पिता पर तो मानों वज्रपात हो गया और वो क्रोध से चीख पड़ा। “हे भगवान ये तूने क्या अनर्थ कर डाला। अगर यही सच्चाई है तो ये नपुंसक मेरे घर का कलंक है। इसके कारण जात बिरादरी में किसी को मुंह नहीं दिखा सकूंगा। गाँव, मोहल्ले के लोग मुझ पर हंसेंगे और ये तालियां पीट – पीट कर घर – घर में नाचता फिरेगा।” अपना माथा पीटते हुए बोला “हे भगवान ये किस कर्म का फल मिला है मुझे। इसने तो मेरी सात पीढ़ियों के नाम पर कालिख पोत डाली। फिर गरज कर बोला अब ये कलंक इस घर में नहीं रहेगा।” सुन कर सब लोग सकते में आ गए। हिम्मत करके दादी ने कहा, “बेटा तू क्या बोल रहा है ? यहाँ नहीं रहेगा तो ये कहाँ रहेगा ?” “नहीं माँ, ये कहीं भी रहे लेकिन इस घर में, इस गाँव में तो क्या इस दुनिया में भी नहीं रहना चाहिए” और कल तक लाड करने वाला पिता भूखे शेर की तरह सुमित पर टूट पड़ा। पिता द्वारा बुरी तरह पीटे जाने पर सुमित सिहर उठा। अचानक हुए इस बर्ताव से काँपते हुए बोला “मुझे मत मारो बापू …. मुझे मत मारो…. बताओ तो सही मैंने क्या किया है। मेरा कसूर क्या है बापू। आप तो मेरा इतना लाड करते हो फिर क्यूँ पीट रहे हो मुझे।” लेकिन पिता तो वहशी हो गया था। वो तो सुमित को पीट- पीट कर सच में मार ही डालना चाहता था। सुमित की चीखें और करुण पुकार सुनकर पास- पडोस के लोग एकत्रित होने लगे। बड़ी मुश्किल से लोगों ने बीच बचाव करके सुमित को छुड़ाया लेकिन सुमित के पिता ने अपने घर का मामला बता कर सबको भगा दिया। उसी समय उसने फैसला सुना दिया कि अब किसी भी सूरत में सुमित उस घर और गाँव में नहीं रहेगा।
पूरे गाँव में खबर फैल गई थी। पूरा गाँव जाग गया था। सुमित के मास्टर जी को भी इस बात का पता चल गया था और वे भी सुमित के घर पहुँच गए। उनके लाख समझाने के बावजूद कि ये सब ईश्वर की मर्जी है इसमें इस मासूम की कोई गलती नहीं। ईश्वर ने इसको ऐसा ही बनाया तो हमें स्वीकार करना होगा। लेकिन सुमित का पिता अपने निर्णय पर अडिग था। उसने कहा अब एक पल भी इस कलंक की छाया मेरे घर में नहीं पड़नी चाहिए। सुमित की दशा देख कर मास्टर जी का दिल करुणा से भर उठा और वो बोले “अच्छा अभी तो इसे मैं अपने घर ले जाता हूँ। आगे सोचते हैं क्या हो सकता है।” भूखे प्यासे सुमित को उस काली रात में घर से निकाल दिया गया। माँ की छाती फट पड़ी, दादी बिलख उठी और बहनें तो जोर- जोर से रोने लगी। कातर नजरों से हाथ जोड़ कर सुमित पिता से विनती करने लगा ….. “बापू मुझे मत निकालो, मैं आप सबके बिना नहीं रह सकता। मुझे मत निकालो बापू” लेकिन निर्दयी पिता ने धक्का मार कर घर का दरवाजा बंद कर लिया।
नौ साल के सुमित के लिए ये इतना बड़ा आघात था कि वो हिचकियाँ ले – लेकर बस यही गुहार करता रहा कि मेरा कसूर क्या है बापू।
इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या होगा कि कल तक घर भर का लाडला बेटा आज उसी घर से निकाल दिया गया। पलक झपकते ही सारे रिश्ते खत्म हो गए । कोई भी तो नहीं था इस संसार में जिसके गले लग कर वो रो सकता था। उसे नहीं मालूम था कोई पिता इतना भी निर्दयी हो सकता है।
संवेदनशील मास्टर जी भरे मन से सुमित को उस रात अपने घर ले तो आए लेकिन उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि अब सुमित का भविष्य क्या होगा ? क्या ये भी आम किन्नरों की तरह …!. नहीं – नहीं ! सोच कर उनकी आत्मा सिहर उठी। सोचते- सोचते सारी रात बीत गई और मास्टर जी सवेरे सुमित को लेकर शहर जाने की तैयारी करने लगे। ये देख कर फिर से सुमित की रुलाई फूट पड़ी। किसी निरीह प्राणी की तरह बेबस और लाचार सुमित रोते हुए मास्टर जी से गुहार लगाने लगा कि उसे अपने घर जाना है। लेकिन मास्टर जी के पास सुमित के पिता का पहले ही संदेश आ चुका था कि जो चाहे करना लेकिन अब उस कलंक को मेरे घर मत लाना। मास्टर जी ने डबडबायी आँखों को पोंछ कर भर्राए गले से सुमित को कहा “नहीं मेरे बच्चे, अब इस संसार में तेरा कोई नहीं है रे…. तुझे अपनी लड़ाई खुद ही लड़नी है। अब न तेरा कोई पिता है, ना कोई माँ, सबने तुझे त्याग दिया। उनकी तरफ से तू मर चुका है।”
कोई भी बाल मन इस अप्रत्याशित आघात को सहन नहीं कर सकता फिर सुमित तो बहुत कमजोर बच्चा था।
मास्टर जी को शहर के निःशक्त, असहाय एवं अनाथ बच्चों के केंद्र की जानकारी थी तो वो सुमित को वहीं ले गए। केंद्र के अधीक्षक ने सारी बात सुनकर उच्च अधिकारियों से सलाह की और सुमित को वहाँ रहने की अनुमति मिल गई। सुमित को वहीं छोड़ कर मास्टर जी जब जाने लगे तो सुमित उनसे लिपट कर बिलख पड़ा…. “मुझे छोड़ कर मत जाइए मास्टर जी। आप तो मुझे छोड़ कर मत जाइए, मेरा कोई भी नहीं है मास्टर जी। मुझे अपने घर ले चलिए। मुझे अपने गाँव में ही रहना है।” अपने आँसुओं को पोंछते हुए मास्टर जी ने कहा “नहीं मेरे बच्चे, ये संभव नहीं है” और सुमित को रोता छोड़ कर मास्टर जी लौट गए।
ये नियति का कैसा खेल था कि एक पल में उस मासूम से घर परिवार और अपने लोग दूर हो गए। इस भरे संसार में वो निपट अकेला रह गया।
यहाँ से सुमित के जीवन की कठोर और संघर्षमय शुरुआत हुई।
बाल अपराधी, सड़क पर पड़े मिले लावारिस बच्चों के बीच सुमित का जीवन बेहद कष्टपूर्ण था। अब से पहले कभी भी सुमित घर से अकेला बाहर नहीं रहा। इसलिए हर समय घर के लोगों को याद करके रोता रहता। उसका रोना देख कर भी वहाँ रहने वाले बच्चे हौसला देने के बजाय उसका उपहास करने लगते। वहाँ रहने वाले लड़कों को भी उसके बारे में जल्दी ही पता लग गया था । इस कारण उद्दंडी लड़कों का समूह अक्सर उसे परेशान करने लगा। एक रात तो जो घटित हुआ उसकी कल्पना भी उसने नहीं की थी। उन्ही लड़कों ने उसके साथ घृणित कुकृत्य कर डाला। वो मासूम, दर्द से छटपटाता रहा लेकिन किसी ने भी दया नहीं दिखाई। सामूहिक दुष्कर्म से सुमित की देह ही नहीं आत्मा भी चीत्कार कर उठी लेकिन वहां उसकी मदद करने वाला कोई नहीं था। उद्दंडी लड़कों की धमकी के कारण वो डर के मारे किसी को बता भी नहीं पा रहा था। लेकिन जब आए दिन उसके साथ दुष्कर्म किया जाने लगा। तब रोते हुए उसने एक दिन प्रबंधक को बताया तो सहानुभूति के स्थान पर कुटिल मुस्कान के साथ उसने व्यंग्यात्मक लहजे में कहा “तू न तो कोई मर्द है ना औरत फिर क्यों शिकायत कर रहा है। ज्यादा परेशानी हो रही है तो किन्नरों के टोले में चला जा।”
घर से दुत्कारे जाने और अनाथालय में आए दिन की अमानवीयता व अपमान ने उसके मासूम मन को धीरे – धीरे कठोर बना दिया। अब वो अच्छी तरह से समझ चुका था कि उसके जैसे लोगों का समाज में क्या स्थान है। ऐसे लोगों का न कोई घर होता है, न माँ, न पिता इस दुनिया में बस वो अकेले ही होते हैं।
एक दिन साहस करके उसने प्रबंधक से विनती करी कि वो फिर से पढ़ना चाहता है। प्रबन्धक ने ये सोच कर अनुमति दे दी कि उसके जैसे लोग कितना पढ़ लेगें और पढ़ कर कर भी क्या लेंगे। सरकार द्वारा संचालित स्कूल में नाम लिखवाने की प्रक्रिया में भी उसे घोर अपमान का सामना करना पड़ा। जब उससे पूछा गया कि तू बालक है या बालिका और कोई जवाब न दिए जाने पर वहां उपस्थित सभी लोग हंसते हुए बोल पड़े, “अरे कानून में सिर्फ पुरुष और स्त्री के ही नागरिक अधिकार होते हैं। तुम जैसे किन्नरों के न कोई हक होते हैं ना अधिकार।”
कदम – कदम पर अपमान और प्रताड़ना के गरल से सुमित के मन में समाज के प्रति क्रोध और नैराश्य के भाव स्थापित हो चुके थे। साथ ही अपने अस्तित्व को सिद्ध करने का दृढ़ निश्चय भी जन्म ले चुका था। शिक्षा के प्रति उसकी लगन और उत्साह को देखते हुए सभी शिक्षक प्रभावित हुए। उसके परीक्षा परिणाम ने तो सबको और भी चौंका दिया। अथक परिश्रम और शिक्षा के प्रति लगन से वो निरंतर सफल होता चला गया। गुजारे लायक वेतन पर उसी सरकारी केंद्र में रहते हुए उसने पढ़ाई जारी रखी और स्नातक परीक्षा में ‘टॉप’ करने के बाद उसने वो कारनामा कर दिखाया जिसे असंख्य लड़के, लड़कियां दिन – रात मेहनत करके भी हासिल नहीं कर पाते।
देश की सर्वोच्च परीक्षा मानी जाने वाली ‘भारतीय प्रशासनिक सेवा’ में सफल हो कर उसने इतिहास में पहले किन्नर ‘आई ए एस’ होने का गौरव हासिल किया। पूरे देश में इसकी चर्चा होने लगी लेकिन उसका संघर्ष यहां पर ही समाप्त नहीं हुआ और उसने देश की सर्वोच्च अदालत का दरवाजा खटखटाया। उसने गुहार लगाई कि पुरुष एवं स्त्री के समान ‘थर्ड जेंडर’ को भी नागरिकता कानून के अंतर्गत वे सभी अधिकार मिलने चाहिए। सुमित की इस मांग पर समाजशास्त्रियों और बुद्धिजीवियों में बहस छिड़ गई कि ये कैसे संभव है। परन्तु लंबी कानूनी लड़ाई और अपने दृढ़ निश्चय के बल पर सुमित सुप्रीमकोर्ट को ये समझाने में सफल रहा कि कई देशों की तरह हमारे देश में भी ‘थर्ड जेंडर’ को स्त्री एवं पुरुष के समान, नागरिक अधिकार दिए जाने चाहिए।
आज उसी निर्णय का ऐतिहासिक दिन है। जब देश की सर्वोच्च अदालत ने अपना ऐतिहासिक फैसला देते हुए कहा कि अब स्त्री एवं पुरुष की भांति ‘थर्ड जेंडर’ समुदाय को भी तीसरे लिंग के रूप में संवैधानिक अधिकारों की मान्यता दी जाती है। अपने दृढ़ निश्चय और बुलंद हौसले के बल पर सुमित ने इतिहास रच दिया क्योंकि “पथ पे विश्वास चला करता है, चलते मानव के पाँव
नहीं।”
अरुण धर्मावत
जयपुर, भारत