राजी
“पानी! पानी!”अपने ही शब्द लौट कर उस तक पहुँच जाते हैं।तेज बुखार से देह तप रही है,गला सूख गया,आँखें जल रही हैं।सिर दर्द से फटा जा रहा है।अपने ही हाथ से सिर दबाकर कर कुछ आराम पाने की नाकाम कोशिश की।
तीन दिनों से उसकी यही हालत है। डिस्पेंसरी भी तो नहीं जा सकती। हाँ जैसे-तैसे बना उसका वीज़ा भी एक्सपायर हो चुका है। कच्ची है वह कच्ची।
देश से दूर परदेश में राजेश्वरी! राजी, उसे यहाँ सभी इसी नाम से पुकारते। एक ही कमरे में साथ रहने वालियाँ अपने-अपने काम पर जा चुकीं थीं। यहाँ काम करना जरूरी है। काम नहीं तो गुजारा नहीं।
एक-एक कमरे में पाँच-पाँच लेडिज़।सभी अपने देश से दूर पैसा कमाने के लिए यहाँ आ गईं हैं। महँगा देश है पर फिर भी इंडिया में घर भेजने के लिए कुछ बचत हो ही जाती है।
साहब लोगों के घरों में चौका-बर्तन,डस्टिंग, कुकिंग सबके लिए तीन हजार दिरहम तक मिल जाते हैं।पेट काटकर हजार दिरहम में अपना गुजारा कर दो हज़ार दिरहम तक बचा लेती हैं ।कभी बेबी सिटिंग मतलब नैनी का काम मिल जाए तो वो बोनस हो जाता! दिन भर बसों में दौड़-भाग से बच जातीं।जून-जुलाई-अगस्त के तीन माह तो जानलेवा होते हैं। आकाश जमीन सभी आग उगलते हैं आग।
अपने देस को याद कर आँखें भर आईं। तपते हाथों से मोबाइल उठाया…स्क्रीन सेवर पर लगी बिटिया राधा की फोटो…कैसे खिलखिला कर हँस रही है!
आठ दिन पहले ही राधा का आठवां जन्मदिन था। कैसे मन को बाँधे बच्चों जैसी बैठी रही!उसका दिल रोता रहा, कचोटता रहा। क्या करती?कैसे जाती?बस साहब की बेटी पर ही अपनी ममता लुटा कर वह सुख पा जाती है।
अठारह बरस ही पूरे किए थे उसने अपने और उसका ब्याह श्रीकांत से हो गया। श्रीकांत जिसे सब ‘सिरी’ ही बुलाते हैं। सिरी पोलियो ग्रस्त होने के कारण टांग लचका कर चलता है,पूरे दिन दोस्तों के साथ पत्ते खेलना उसका रोज का काम है।
उसका बीता कल सामने आ खड़ा हुआ। वह अतीत से गुजरती हर पल को वर्तमान में महसूस करने लगी।
हाय री किस्मत!ग़रीबी जो न कराए सो कम है। सिरी के नाम का मंगलसूत्र पहनकर वह ससुराल आ गई। सास-ससुर,दो ननदें भरा-पूरा परिवार। गोबर से लिपा-पुता कच्चा घर,छोटा सा आँगन, आँगन में द्वार के पास ही तुलसी का चौरा।
सास और दोनों ननदों ने उसे अपने गले से लगाकर उसे आत्मीयता का अनुभव कराया तो उसके अंदर का डर जाता रहा।
हाथ थाम ननदें उसे कमरे तक ले गई।
बड़ी ने लड्डू की प्लेट हाथ में थमाते हुए कहा-
“यह खाकर आराम कर लो,थक गई होगी।”
“कुछ भी चाहिए तो हमें बुला लेना।”छोटी ने शरारती अंदाज में कहा और हँसते हुए कमरे का द्वार लगा दिया।
कमरा क्या था छोटी सी कोठरी थी।लोहे के पलंग पर फूलदार मोटी चादर बिछी थी,तकिए के सफेद कवर पर सूती धागे से ‘गुड नाइट’ कढ़ा हुआ था।कोने में एक के ऊपर एक रखे लोहे के ट्रंक…छत को छूने में वह थोड़ी ही कसर रह गई थी। नीले पुता दरवाजा और दीवारें। दीवार टंगे छोटे से आईने में झाँक खुद को देखा-’कल’ और ‘आज’ में कितना बदल गई है!सिंदूर से दमकती माँग, माथे पर बड़ी सी लाल बिंदी, आँखों में काजल।कौन कहेगा यह वही दौड़ती-भागती,अपने गाँव की गलियों को साइकिल से नापती राजेश्वरी है!खुद को ही देर तक निहारती रही,पढ़ती रही खुद को। कितना कुछ उमड़-घुमड़ रहा है उसके अंदर।
“ राजी! राजी!” सिरी कब कमरे में आया उसे पता ही नहीं चला। ‘राजी’ राजेश्वरी को यह नाम सिरी का ही दिया हुआ है।
“राजी!राजी!” नशे में बड़बड़ाता सिरी कुछ ही देर में पलंग पर औंधा पड़ गया। चुपचाप उसने उसके जूते उतारे।छोटा सा कमरा मोजे की बदबू से भभक उठा।
औऽऽअ!उबकाई रोक नाक पर साड़ी का पल्लू रखकर उसने खुद को संभाला। नाक दबाए हुए ही अपने लाल पर्स में से अपनी पक्की सहेली विमला से उपहार में मिला पाउडर का गुलाबी डब्बा निकाल कर मौजे पर छिड़क दिया। फिर फर्श पर चटाई बिछा कर लेट गई। सब कुछ समझते-सोचते कब नींद लगी पता ही न चला।
मुर्गे की बाँग से आँख खुल गई।नहाना-धोना पूजा-पाठ निपटा कर चौका संभाला तो सास निहाल हो गई।
“सदा सौभाग्यवती रहो!दूधों नहाओ पूतों फलो!”
आशीषों की झड़ी लगा दी।
दो बरस बाद गर्भवती हुई तो पर छठे महीने में अचानक उसकी ममता प्यासी रह गई। दूसरी बार तो तीसरे महीने में ही… सरकारी अस्पताल के डॉक्टर मैडम ने राजी और सिरी को समझाया कि पहले अपनी सेहत का ध्यान रखो और अभी बच्चे के बारे में कुछ नहीं सोचना।
बच्चे के लिए तड़पता दिल और दिमाग ने डॉक्टर मैडम की एक न सुनी।इस बार पूरे नौ महीने,नौ दिन बाद उसने एक प्यारी सी गोल-मटोल बिटिया को जन्म तो दिया पर वह खुद कोमा में चली गई।
छह महीने जिंदगी थमी रही। आखिरकार मौत से लड़कर, उसे पछाड़ कर राजेश्वरी ने आँखें खोली तो नन्ही सी बच्ची की चमकती-शरारती आँखें एकटक उसे देख रही थीं ।उसकी छाती में दूध उतर आया उसने अपने दोनों हाथ उसकी ओर बढ़ाए तो वह दादी से चिपक गई।
“राजी!राधा,हमारी राधा।” सिरी ने चहकते हुए कहा। खुशी से उसकी आँखें भर आईं।जिंदगी सुख-दुख की लुका-छुपी संग आगे बढ़ रही थी।
राधा दो बरस की भी न हुई कि कुछ आवाज़ें उसके कानों में पड़ने लगीं। अब राधा का भाई होना चाहिए…
सब कुछ अनसुना कर वह राधा के साथ ही लगी रहती । पर कब तक?डॉक्टर ने पहले ही चेतावनी दे दी थी कि “इस बार हम तुम्हें बचा न पाएँगे राजी।अपना ध्यान रखना।”पर सास को यह बात समझ में आए तब न।
सिरी रोज बाहर दोस्तों के पास चला जाता और शराब से गंधाता घर लौटता।
सास उसे और राधा को प्यार तो बहुत करती पर पोते को देख लेने के मोह उनसे न छूटता।
उस दिन दोपहरी में चौका-बर्तन निपटा कर राधा को सुलाने अपने कमरे में जा रही थी कि “राजेश्वरी!राजेश्वरी!”चचेरी बहन फूलवती की आवाज सुन वह बाहर को दौड़ी चली आई।
“आज अचानक कैसे?घर पर सब ठीक है न।”फूलवती को गले लगा,अपने अंदर की शंकाओं के गुबार को बाहर निकालते हुए उसने पूछा ।
“बस काम के वास्ते दुबई जा रही हूँ। तुझसे मिलने को आई।”
“क्या काम?”
“भांडे,झाड़ू फटका,खाना बनाना।”
“अच्छा! यह काम तो यहाँ पर भी कर सकती है न तू।”
वहाँ पैसा बहुत है।दो गुना,तीन गुना।”अपने दोनों हाथ फैलाते हुए उसने कहा।
“ताई ने तो वहाँ पैसे कमा कर यहाँ पक्का,बड़ा घर भी बना लिया है।”
“कैसे जाएगी?”
“सेठ लेकर जा रहा है सबको। तू भी चलेगी क्या?”
“बच्ची के साथ कैसे ?”
“राजी राधा को मैं रख लूँगा।” प्लास्टिक की टूटे हत्थे वाली कुर्सी पर बैठे हुए सिरी ने उत्साह से कहा।
“मैं भी देख लूँगी।”
सास ने भी उसके सुर में सुर मिला दिया।
अगले दिन फूलवती तो चली गई पर उसे एक नई मुसीबत दे गई।
वह सोचती-समझती उससे पहले ही छोटी ननद ने उसका सामान पैक कर दिया।उसने राधा को छाती से चिपका लिया। कैसे छोड़ कर जा पाएगी अपनी इस नन्ही सी जान को?रात भर आँसू बहाती रही। तकिया भीग गया पर उसके आँसुओं से किसी का मन न भीगा। सिरी उसे दुबई जाने के लिए मनाता रहा।
“चार पैसे आएँगे घर में तो राधा का फ्यूचर बन जाएगा।मैं तो कहाँ कुछ कर पाता हूँ पैर के कारण।”अपने झूलते पाँव की ओर इशारा करते हुए सिरी ने कहा।
उसके अंदर उमड़ते भावनाओं के उबाल पर सिरी ने बड़ी चतुराई से अपनी मजबूरी के छींटें डालकर ठंडा कर दिया।
राधा को सास ने उसकी गोद से छीन लिया।
वह फूट-फूट कर रोई पर किसी का दिल न पसीजा।
“मैं इसको छोड़कर नहीं जाऊँगी।”कुछ समय पहले तक रोती-गिड़गिड़ाती राजी विद्रोहिणी बन दहाड़ी।
पर सब की आँखों में पैसे की चमक दमक रही थी।
“ठीक है फिर रह राधा से दूर।”
भड़ाम से दरवाजा बंद हुआ और वह गहरे अंधेरे में घिर गई। राधा जोर-जोर से रो रही थी।शायद इस हो-हल्ले,लड़ाई झगड़े से घबराकर वह माँ के पास आने की जिद कर रही थी।
“राधा! राधा! अम्मा राधा।”
“राधा चाहिए तो जा तू भी अपनी बहन की तरह पैसे कमा कर ला। नहीं जाएगी तो भी राधा को तू देख तक न पाएगी। पड़ी सड़ती रह यहीं पर।”
वह दरवाजा पीटती रही पर बाहर से कोई आवाज़ न आई।
“ठीक है मैं जाऊँगी।”
कोठरी में बंद दुरूह ज़िंदगी।वह धीरे-धीरे कमजोर पड़ती जा रही थी।राधा के लिए मन छटपटाता,सास दूर से ही उसे दिखा चली जाती।राधा को भी शायद अब उसकी जरूरत नहीं रह गई थी।
“सिरी! सिरी!” थके हुए स्वर में उसने अपने पति को पुकारा।
“हाँ बोल।”दरवाजे पर के उस पार से वह बोला।
“दरवाजा खोल।मैं जाने के लिए तैयार हूँ।”
“साली! अब आई न लाइन पर…जानता था मैं। सिरी कुटिलता से हँसते हुए बोला।
बंद कोठरी का दरवाजा खुल गया। धूप की चमक से उसकी आँखें चुंधिया रही थी।
“राधा! राधा!”
“अम्मा बाहर लेकर गई उसको।घुमाने को।बोल क्या बोलती? मैं सेठ से बात करके आया।चार दिन में कागज तैयार और पाँचवें दिन तो तू दुबई पहुँच जाएगी। तेरी आई ने जो चेन दिया था न गिरवी रख के पैसा दिया सेठ को।”
वह चुपचाप दीवार के सहारे बैठ गई।गारे की ये कच्ची दीवारें ही तो हमेशा उसका सहारा बन जाती हैं।
इन पाँच दिनों में राजी ने राधा के साथ एक-एक पल को जिया और हर पल को अपने अंदर संजो लिया।
छठे दिन शनिवार को सिरी उसे सेठ के पास छोड़ आया। साफ नीयत सेठ ने उसे और उसकी जैसी कईयों को दुबई के जहाज में रवाना कर दिया।
रोते-रोते उसकी आँखें सूज गईं।जी में आया कि कैसे भी अपनी जान दे दे। किस्सा ही खत्म हो जाए।
लंबे थकाऊ सफर के बाद जहाज किनारे लग गया। भेड़-बकरियों की तरह उन्हें कंटेनर से बाहर निकाला गया।
हे ईश्वर! ये कहाँ आ गई वह?छाती में एक दर्द सा उठा उसने खुद को संभाला। भीड़ के पीछे-पीछे अपना बैग लिए बाहर को निकल आई।
उसकी बहन उसे अपने रूम में ले गई।
“पाँच सौ दिरहम भाड़ा लगेगा। कल से ही काम-काज संभाल।मैं तेरे वास्ते काम देखी है।बेबी को देखभाल करने का है।”
अगले ही दिन उसे साहब के बड़े से फ्लैट में साल भर की बच्ची की देखभाल का काम और हाथ में डेढ़ हजार दिरहम एडवांस मिल गया।
“राजी!राजी! क्या सोच रही है? तबीयत कैसी है अब?” शांता काम से लौट आई थी।
“बाप रे बाप! इसको तो तेज बुखार है।ठंडे पानी की पट्टी रखते हैं।”
“राधा! राधा!”
“देख जूली कैसे बड़बड़ा रही है बेचारी!”
शांताबाई के पीछे-पीछे जूली भी काम से लौट आई थी।अपने बेड पर अपनी थकान से दोहरी हुई कमर सीधी कर रही थी।जूली से राजी की कभी न पटी। उसे राजी की मराठी और हिंदी नहीं समझ आती और राजी को उसकी अंग्रेजी। फिर यह बात भी थी कि राजी के पूजा करते समय लगाई अगरबत्ती के धुएँ से उसका दम घुटता था। राजी पर गुस्सा करती कितना बड़बड़ाती है अंग्रेजी में।
पर आज उसे राजी की चिंता है।
“हाऊ इज़ राजी नाऊ?”
“राजीज़ फीवर वेरी हाई!”
टूटी-फूटी अंग्रेजी हिंदी और मराठी में यह न केवल आपस में बतियातीं बल्कि अपना काम-काज भी करती हैं। यहाँ भाषा-देश और पहनावे का कोई भेदभाव नहीं।
“राधा नहीं है यहाँ राजी।” शांतिबाई ने कुछ ऊँची आवाज़ में कहा।
“सेठ से देश वापसी के कागज बनाने के लिए पैसा भेजा था न तूने। तेरे आदमी ने इस बार भी उसे शराब में उड़ा दिया। तेरे पैसों से घर बन गया पक्का घर इंडिया में। तेरे दिरहम से बने ढेरों रुपए से…। तेरी ननद का फोन आया था मेरे को। तुझे कॉल किया था तू फोन नहीं उठाई तो मुझे कॉल की वो।”
“राधा! राधा!” बंद आँखों से आँसू लगातार बहे जा रहे थे पर होंठ सूख रहे थे।
“पानी! पानी!”
जूली ने चम्मच से उसे पानी पिलाने की कोशिश की।
दो बूंद पानी मुँह में पड़ा। उसके पपड़ियाए ओठ फिर खुले…राधा! राधा!
उसकी गर्दन ढीली हो एक ओर लटक गई। राजी जा चुकी थी इस देश से, इस धरती से,हमेशा-हमेशा के लिए।
डॉ.यशोधरा भटनागर
देवास, भारत