रिश्तों की रेखा
“मेम साहिब,आप के जाने के बाद जाने कौन आयेगा इस बंगले में?” बिजया ने काँच के गिलासों को अख़बार में लपेटते हुए कहा था।
बिजया की बात सुन कर याद आया बस एक हफ़्ता ही तो रह गया है हमारा असम में। आलोक का तबादला दिल्ली हो गया था।
“बिजया मौसी, कोई अच्छा परिवार ही आएगा। तुम्हें काम भी मिल जाएगा।” मैंने उसे तसल्ली दी।
“नानी काम हो गया कि नहीं? मैं कुछ मदद करवा दूँ क्या?” लगभग तेरह बरस का किशोर कुंदन बिजया का नाती था। उसके साथ बंगले पर आता जाता रहता था। बिजया कहती नानी से बहुत प्रेम है न कुंदन को इसीलिए नानी के पास रहने आ गया है।
“क्यों रे कुंदन, आज नानी का हाथ बंटाने कैसे आ गया? रोज तो खेलने से फ़ुर्सत नहीं होती तुझे?” मेरे पूछते ही कुछ झेंप गया। सर झुका के पाँव के अंगूठे से जमीन कुरेदने लगा था। मैंने पूछा, “कुछ चाहिए क्या कुंदन?” मुझे लगा शायद कुछ माँगना है उसे अमन का क्रिकेट बैट या उसकी पुरानी साईकिल।
मैंने फिर कहा, “अच्छा कुंदन तुम स्कूल तो जाते होगे? तो फिर इतनी लंबी छुट्टी कैसे मिली?”
कुंदन ने जैसे मेरी बात सुनी ही नहीं। अपनी ही रौ में बोल पड़ा था “मेम साहब आप दिल्ली जा रहे हो न? बहुत बड़ा शहर है न?”
“हाँ, राजधानी है देश की दिल्ली। और हाँ तू क्यों मेमसाब कहता है मुझे कुंदन? मुझे आंटी कह सकता है, अमन जैसा ही है तू“ मैंने कहा। सच में मेरे बेटे की उम्र का वो लड़का मेरा नौकर थोड़े ही था।
“आंटी जी, मैं भी चलूँ आपके साथ? मेरा बहुत मन है दिल्ली देखने को।” कह कर चुप हो गया।
अगले दिन बिजया आई तो बोली, “मेमसाब कुछ बात करनी है।”
“बिजया क्या बात है? बस अब छुट्टी न माँगना।” मैं बोली थी।” नहीं मेमसाब, छुट्टी न लूँगी। मुझे तो कुंदन के बारे में बात करनी थी। जिद पकड़ कर बैठा है दिल्ली जाने की। जाने क्या भूत सवार हो रखा है सिर पर!” बिजया की चिंता और ऊहापोह साफ दिख रही थी। मुझे हँसी आ गई, ”बच्चा है वो बिजया, तुम थोड़ा समझा दो, मान जाएगा। नहीं तो उसकी माँ को कहो वो समझाये”
“इसकी माँ तो..” वो कुछ कहने ही वाली थी कि कुंदन फिर आ गया।
“आँटी जी, मेरे पास आठ सौ रुपये हैं। इतने में टिकट आ जायेगी न?” मुठ्ठी खोल कर रुपये उसने ऐसे दिखाए जैसे उसका दिल्ली जाना निश्चित हो चुका हो।
“अरे, कुंदन मैंने तो सोचा तुम मज़ाक कर रहे हो! क्या करोगे दिल्ली जा कर? अपने माँ बाप से पूछ लिया क्या? और मुझे भी तो अमन के पापा से पूछना पड़ेगा। ऐसे कैसे ले चलूँ तुम्हें?” मेरे कहते न कहते कुंदन की आँखों में आँसू भर आये। धीरे से बोला, “कौन से माँ बाप।” कह कर बाहर चला गया।
शाम को आलोक को मैंने कुंदन की बात बताई। उन्होंने तो सिरे से नकार दिया, “कैसी बातें करती हो? हम कैसे किसी पराए बच्चे की जिम्मेदारी उठा लें? वहाँ जा कर उसका मन न लगा तो?“ उनकी बात मुझे सही लगी थी।
अगले दिन मैं और आलोक चाय पी रहे थे। अचानक आलोक बोले, “तुम कल कुंदन के बारे में बात कर रहीं थीं न। मैं सोच रहा था दिल्ली ले ही चलते हैं उसे। तुम्हारे साथ घर के काम करवा दिया करेगा। दिल्ली में तो नौकर बहुत मुश्किल से मिलते है। ठीक ठाक पगार दे दिया करेंगे। “
मुझे भी बात जच गई। बिजया से मैंने ये बात कही तो वो भी झट राज़ी हो गई। कुंदन के माता पिता को वो ख़ुद ही समझा देगी ऐसा उसने कहा।
दिल्ली में चार कमरों का फ्लैट था हमारा। एक स्टडी रूम भी था जो हमने कुंदन को दे दिया। दिल्ली आ कर कुंदन की आँखों मे विस्मय और हैरत दिखाई देती। बड़े बड़े बाज़ार, सड़कों पर दौड़ती गाड़ियां, ऊंची इमारतें उसके लिए किसी जादू नगरी सी ही थी दिल्ली।
“कितना अच्छा है दिल्ली। कितनी रौनक है यहाँ। मैं नहीं जाऊँगा वापिस कभी असम।” वो कहता।
कुछ दिन बाद अमन का स्कूल शुरू हो गया। अमन को स्कूल जाते देख कर कुंदन के चेहरे पर उदासी और आँखों में हसरत झलक आई। उसके बाद कई बार उसे अमन की किताबों को उलटते पलटते देखा। किताबों में उसकी रुचि देख मैंने मन ही मन सोच लिया था कि आलोक से उसकी पढ़ाई की बात करूँगी।
धीरे धीरे उसकी और अमन की दिनचर्या अलग हो गई थी। अब अमन पढ़ाई में व्यस्त रहता और कुंदन चुपचाप घर का काम करता।
एक दिन वो बोला, ”मैं आपको असम में आँटी जी कहता था। पर यहाँ क्या अब मेमसाब कहना चाहिए?” उसका अबोध प्रश्न सुन कर मेरे कंठ में जैसे कुछ अटक गया। शायद वो समझ चुका था कि वो इस घर का नौकर है और कुछ नहीं। उधर आलोक तो पहले ही कह रहे थे,” तुमने इस लड़के को ज्यादा ही सर चढ़ा रखा है। आँटीजी, अंकलजी बुलाता है, लोग सोचेंगे हमारा रिश्तेदार है।” आलोक व्यवहारिक ढंग से सोच रहे थे और अपनी जगह सही थे।
कुंदन का प्रश्न सुन मेरे मुँह से इतना ही निकला, ”जो तेरा जी चाहे, कुंदन।”
“मेरा जी? वो तो मम्मी,पापा कहना चाहता है।” वो बुदबुदाया था। मेरा कलेजा कांप उठा। उसके मन में जो छटपटाहट चल रही थी मुझसे छिपी न थी। मुझे लगता जैसे वो मेरी ममता की छाँव मांग रहा हो।
दिल्ली आते हुए शायद उसने खुद के लिए नौकर की भूमिका के बारे में नहीं सोचा था।
इस बीच वो नानी से बात करना चाहता तो मैं फोन मिला देती थी। मुझे हैरानी होती कि अपने माँ बाप से बात करने की इच्छा उसने कभी ज़ाहिर नहीं की थी।
कुंदन को घर का काम सीखने में ज्यादा समय नहीं लगा। फिर सोचती हूँ क्या जीवन ने कोई विकल्प छोड़ा था उसे लिए? कुंदन बस चल रहा था उस राह पर जो भाग्य ने तय कर रखी थी उसके लिए। वो चक्कर घिन्नी की तरह इधर से उधर घूमता और सभी काम निपटा देता। जिस दिन मैंने पहली पगार उसके हाथ में रखी उसकी आँखें खुशी से चमक गई थीं। “मैं बाजार चला जाऊँ आज?” चहकते हुए वो बोला था।” चल मेरे साथ ही चल, मुझे भी काम है।” मैंने हँस कर कहा था। वो बाज़ार में यूँ चल रहा था जैसे कदमों में पहिये लग गए हों। हर चीज़ को बड़ी बड़ी आँखों से देखता जैसे बाजार के सारे रंग अपनी आँखों मे भर लेगा। नानी के लिये साड़ी खरीदी और अपने लिए एक टीशर्ट लेने के बाद बोला, “बाकी पैसे नानी को भेज दूँगा।” मैं पूछ बैठी थी,” अपनी माँ को नहीं भेजोगे पैसे कुंदन?” उसका चेहरा स्याह पड़ गया। दाँत भींच कर बोला, “नहीं, बिल्कुल नहीं।”
अब वो बाजार का काम भी करने लगा। बाज़ार जाते हुए साफ सुथरे कपड़े पहन कर,कंघी कर के जाता। एक जोड़ी जूते भी थे उसके पास, वही पहन कर जाता, चप्पल पहन कर कतई न जाता। मैं हँसती, दिल्ली की हवा लग गई है लड़के को।।
“आँटी जी, एक बात कहनी है“ शाम को रसोई में मेरा हाथ बंटाते हुए बोला।
“कह न कुंदन क्या बात है?” मैंने सब्जी छौंकते हुए कहा।
“क्या मैं भी स्कूल जा सकता हूँ? आठवीं तक पढ़ा हूँ। पास ही सरकारी स्कूल में दाखिला ले लूँगा। घर का पूरा काम भी करूँगा।”
“अरे, कुंदन तू पढ़ना चाहता है ! ये तो बहुत अच्छी बात है, मैं स्कूल में भर्ती करवा दूँगी। मैं पहले ही सोच रही थी।” मेरी बात सुन कर वो सूरजमुखी के फूल सा खिल गया। मैं सोचती थी, समझदार लड़का है कुंदन, कुछ पढ़ लिख जाए तो किसी लायक बन जायेगा। शाम को आलोक आयेंगे तो आज बात जरूर करूँगी।
पर शाम को आलोक घर आये तो बहुत गुस्से में थे। आते ही ऊँची आवाज़ में बोले, “अरे कुंदन इधर तो आ।” कुंदन भाग कर आया और सिर झुका कर खड़ा हो गया।
आलोक की आँखों से अँगारे बरस रहे थे, उनकी आवाज़ घर में गूंज गई थी “क्या बेहूदगी है ये कुंदन? ये तू बाजार में सबको क्या बोलता फिरता है? अपने को इस घर का बेटा बताता है? तेरी हिम्मत कैसे हुई हमें अपना माँ बाप बताने की? सुन रही हो न सुमन, न जाने इस के क्या इरादे हैं?” कहते कहते आलोक ने कुंदन का कॉलर पकड़ कर गाल पर जोर से थप्पड़ जड़ दिया।
मैं अवाक खड़ी थी!
“इसीलिए इतना तैयार हो कर जाता है बाज़ार ताकि कोई नौकर न समझे तुझे ! मेरे नाम से कुछ उधार तो नहीं उठा रहा बाजार से, बता?” आलोक के मुँह में जो आ रहा था बोल रहे थे।
“बस करो आलोक। इस तरह का काम कुंदन कभी नहीं कर सकता, मुझे पूरा विश्वास है।
कुंदन के चेहरे पर कई रंग आ जा रहे थे, होंठ टेढ़े से हो कर कंपकपाने लगे। आँखों से आँसू यूँ बहने लगे कि जैसे किसी नदी का बाँध टूट गया हो।
तब मैंने कहा था” आलोक, उसकी बात तो सुन लो। शायद किसी ने झूठ मूठ आपके कान भरे हों। क्यों रे कुंदन, ये क्या कह रहे हैं अंकल? रोना बन्द कर और साफ साफ बता क्या बात है?”
पर उसका जवाब मुझे चौंका गया” आँटी, अंकल ने ठीक सुना है। मैंने सबको यही बताया मैं आपका बेटा हूँ।”
“देखा? देखा तुमने सुमन, कैसे सीना तान कर बात कर रहा है?” आलोक दहाड़े थे।
“इसमें आँटी का कोई कुसूर नहीं है। ये सच है मुझे उनमें एक मां की झलक दिखती थी और आपसे मैं पाना चाहता था एक पिता का प्यार जो मुझे कभी मिला ही नहीं।” उसने कहना शुरू किया था।
मैंने कहा, “पर कुंदन तेरे अपने माँ बाप भी तो हैं। हमने कब कहा तुझे अपना बेटा बना कर ले जा रहे हैं? “
“हाँ आँटी, हैं न मेरे माँ बाप। सौतेला बाप है, सगी माँ है। अंकल जी मैं बहुत छोटा था जब मेरे बापू की मृत्यु हो गई थी। माँ ने बताया जहरीली शराब पी ली थी उसने। मैं बापू की आँखों का तारा था और वो मेरा आकाश। वो मुझसे ख़ूब लाड लड़ाता, बाज़ार ले जाता, खिलौने मिठाई सब दिलाता। नशे में माँ से झगड़ता पर मुझे कभी न मारता न डाँटता। उसके मरने पर मैं बहुत रोया क्योंकि मुझे ये पता था कि अब वो कभी नहीं आएगा। फिर कुछ समय बाद माँ ने दूसरी शादी कर ली।” उसकी आवाज़ में गहरा दर्द था।
माँ कहती ये तेरे नये पिता हैं। मैंने कहा,” बापू! तुम मेरे नए बापू हो?” तो उस आदमी ने मुझे हिकारत से देखा और बोला, “बापू? ये क्या गंवारों जैसी बातें करता है रे? तू मेरा बेटा नहीं, उस शराबी का है, मुझे न तो बापू न ही पापा कुछ नहीं सुनना तेरे मुँह से। मेरा किसी शराबी की औलाद से नहीं ताल्लुक नहीं।” दुःख का सागर कुंदन की आँखों में उमड़ आया था।
हमारे दिल में गुस्से की जगह सहानुभूति जग रही थी। कितना कम जानते थे हम उसके बारे में! सचमुच हमारी ऑंखें जो दृश्य देखती हैं वो दृष्टि के घेरे तक सीमित होता है, अदृश्य का विस्तार उसके कहीं ज्यादा होता है।
“आँटी, फिर मैंने उस आदमी को कभी बापू या पापा नहीं कहा। पर उसे ये भी पसन्द नहीं था कि मेरी माँ मुझे समय दे। माँ भी अब मुझसे ज्यादा उसे ही खुश करने में लगी रहती। मुझे लगता मैं अब माँ के लिये भी बोझ बन गया था। इसीलिए पिछले साल जब नानी हमसे मिलने आई तो मैं उनके साथ आ गया। मुझे उस घर में वापिस नहीं जाना था इसीलिए आपके साथ आने की जिद की।”
“आँटी जी मैं आपके घर में आता था न तो बहुत अच्छा लगता था। आप दोनों अमन से कितना प्यार करते थे। आपने ही तो मुझे अमन जैसा कहा था न? पता नहीं कब मुझे आपमें माँ दिखने लगी। ऊपर से तो मैं आपको आँटी बुलाता पर मन करता माँ कह कर बुलाऊँ और फिर अंकल जी आप को देख मैं सोचता काश मेरे जीवन में भी ऐसे पापा होते। आप मुझे नौकर समझते हैं पर मैं इस घर को अपना घर समझ कर काम करता हूँ। बाहर सब को जो बताया उससे मेरे मन को बहुत खुशी मिलती चाहे वो नकली ही सही। मेरा और कोई गलत इरादा नहीं था।”
मेरी आँखों में तरलता थी, आलोक के माथे की तनी भृकुटि ढीली पड़ गई थी। वो चुपचाप अपने कमरे में चले गये। मैंने बस कुंदन के सर पर हाथ फेर कर कह दिया “कोई बात नहीं कुंदन। अंकल की बातों का बुरा मत मानना।”
उस दिन के बाद उसने जैसे ज़िन्दगी के बहाव के संग बहना सीख लिया था। हमारी अनुमति से पड़ोस के सरकारी स्कूल में जाने लगा। घर के काम से निपट कर पढ़ने बैठ जाता। समय गुज़रता गया।
कुंदन दसवीं में आ गया था। अमन की पुरानी किताबें उसने पहले ही अपने पास सम्भाल रखीं थी। मैं पूरी कोशिश करती उसे पढ़ाई करने के लिये समय मिल सके। कुंदन कोशिश करता कि काम निपटा कर ही पढ़ने में लगे। अमन भी उसकी यथासंभव मदद करता। आलोक भी थोड़ा बदल रहे थे। अक्सर पूछ लेते, “ठीक से पढ़ाई कर रहा है न कुंदन? ऐसा करो तुम उसे दूध फल आदि भी दे दिया करो। पढ़ने वाले बच्चों को पौष्टिक आहार लेना चाहिए।” मैं हैरान हो कर मुस्कुरा देती।
“अरे कुंदन, गणित या विज्ञान में कोई समस्या तो नहीं है? है तो बता, मैं समझा दूँगा।” कुंदन चाय बना कर लाया तो आलोक बोले थे। “नहीं कोई समस्या नहीं है, आँटी समझा देती हैं।” कह कर फौरन चला गया था। मैं जब कभी उसे पढ़ाती, आलोक वहीं आस पास चहलकदमी करते रहते। उस दिन मैं कुंदन को न्यूटन के नियम समझा रही थी तो कितने ही उदाहरण दे कर उन्होंने अपनी तरफ से भी समझाया था।
“इस बार छिमाही में कितने नम्बर लाया है रे कुंदन?” कुछ दिन बाद आलोक ने पूछा तो कुंदन भाग कर रिपोर्ट कार्ड ले आया।
आलोक रिपोर्ट कार्ड पढ़ा कर बोले, “वाह कुंदन,बहुत अच्छे नम्बर मिले हैं तुम्हें तो। शाबाश बेटा।” कुंदन का चेहरा दमक उठा। पहली बार आलोक ने उसे बेटा कह कर पुकारा था। फिर आलोक ने जेब से सौ रुपये का नोट निकाल उसके हाथ में धर दिया, “ये लो तुम्हारा इनाम।” मैंने मन ही मन सोचा इसी तरह अमन को भी अच्छा रिजल्ट आने पर इनाम मिलता था अपने पापा से। आलोक के दिल में वो लड़का कुछ जगह बनाने लगा था।
कुंदन बाहरवी में आ गया। स्वभाव थोड़ा स्थिर और परिपक्व हो गया था। रोज़ देर रात तक पढ़ता। मैंने घर के काम से आजकल उसे लगभग मुक्त कर रखा था। ऐसा आलोक के कहने पर ही किया था मैंने। एक सुकूँ था हम दोनों के मन में कि उस की जिंदगी संवारने में हम योगदान दे रहे हैं।
“आँटी,” उस दिन स्कूल से आकर कुंदन आवाज़ दे रहा था।” क्या हुआ कुंदन?”
“आँटी आज अंकल मेरे स्कूल आये थे। क्या मेरी कोई शिकायत की है किसी ने? मैंने तो कुछ नहीं किया आँटी। अब तो मैं आपको मम्मी पापा भी नहीं बताता।” एक साँस में बोल गया था लड़का।
“तुम्हारे स्कूल आये थे? मुझे तो कुछ बता कर नहीं गये कुंदन।” तभी आलोक की आवाज़ आई, “हा रे कुंदन, गया था मैं तेरे स्कूल। अमन के स्कूल भी तो जाता था। तेरी भी रिपोर्ट लेने चला गया। अच्छा इधर आ कुछ बात करनी है।”
“कुंदन बेटा,अब तुम बड़े और समझदार हो गये हो। ये सच है कि तुम माता पिता के प्रेम से वंचित रहे हो और उस प्रेम को सदा हम दोनों में खोजते रहे हो। इसमें कुछ गलत नहीं है पर कुंदन केवल सम्बोधन मात्र से रिश्तों की धरती नहीं बनती। और जरूरी नहीं जीवन में हर रिश्ते का नाम हो ही। तुम्हारे प्रारब्ध में रिश्तों की रेखा शायद छोटी है पर इससे तुम्हारे अपने अस्तित्व को ख़तरा क्यों हो? रिश्तों के संबल के बिना क्या अपने व्यक्तित्व को, अस्तित्व को सुदृढ़ नहीं बनाया जा सकता? सूरज को देखो, अपना अंतस जला कर तपता है,जलता है,तब पूरे सौरमण्डल को ऊर्जा देता है,सूरज तभी सूरज बनता है।”
कुंदन सिर झुका कर बोला, “जब दूसरे बच्चों को अपने माँ बाप का दुलार पाते देखता हूँ तो अपने अनाथ होने की हीन भावना जगती है।”
“तो इस दुःख को अपनी शक्ति बनाओ कुंदन। मैंने तुम्हारे अंदर जिजीविषा देखी है। संकल्प लेने और उसको निभाने का जज़्बा देखा है। अपनी माँ से तुमने मुँह मोड़ा है, तुम अपने उस फैसले पर अडिग रहे हो न? तो ऐसे ही हर परिस्थिति में अडिग रहो, दृढ़ता से अपने चुने हुए पथ पर चलो। और कुंदन तुम क्या अकेले ऐसे इंसान हो जिसके माता पिता नहीं हैं? कितने ही अनाथ बच्चे सफल जीवन जी रहे हैं। तुम्हें तो फिर भी इस घर में अपनापन मिला है, मानते हो न ये बात? तुम हमें कुछ भी कह कर संबोधित करो, हम जो आज हैं तुम्हारे लिये कल भी वैसे ही रहेंगे। फिर ये व्यर्थ की लालसा क्यों? सफल होने के लिये केवल मेहनत चाहिए, उसका कोई विकल्प नहीं।”
कुंदन के चेहरे पर समझ के भाव थे। मैं गर्व से अपने पति की ओर देख रही थी। उसके बाद उस अनाम रिश्ते को नाम देने की उसकी भूख ख़त्म हो गई थी। अब उसके मन में कुछ बनने की भूख जग गई थी। दिन पर दिन वो अपनी इसी भूख को शांत करने में जुटा रहता। बारहवीं की पढ़ाई में उसने दिन रात एक कर दिया। अस्सी प्रतिशत अंक ले कर वो असम वापिस चला गया था। गुवाहाटी के कॉलेज में उसे दाखिला मिल गया था। उसके फोन लगातार आते रहते। ग्रेजुएशन पास कर ली थी उसने।
कल सुबह आलोक को उसका फोन आया। “अंकल मुझे बैंक में नौकरी मिल गई है। मैं जॉइन करने से पहले आपसे मिलने आ रहा हूँ।”
शाम को हमारे सामने एक सुदर्शन युवक खड़ा था जिसने हालातों की आंच में तप कर अपने नाम को सार्थक कर दिया था, कुंदन। मैं नर्म मूँगा सिल्क की साड़ी को छू रही थी। आलोक अपनी गर्म शॉल को सहला रहे थे। अमन और कुंदन जाने क्या क्या बातें कर के हँस रहे थे।
उमंग सरीन
दिल्ली, भारत