सोपान

सोपान 

ऑफिस के एक बड़े से हॉल में गोविंद नारायण जी के सेवानिवृत्ति उपरांत विदाई समारोह का आयोजन किया गया था। वह आयुक्त के पद पर कार्यरत थे।साथ में उनकी धर्मपत्नी मालती जी भी आमंत्रित थी । गोविन्द जी अपने सेवाकाल में बेहद ईमानदार एवं कर्मठ ऑफिसर रहे थे । वे अपने से छोटे कर्मचारियों को भी उतना ही सम्मान देते थे जितना अपने से बड़ों को । यही कारण था कि आज छोटे-बड़े सभी कर्मचारी एवं अधिकारी हॉल में जुटे हुए थे और अपने-अपने हृदयोद्गार व्यक्त कर रहे थे । फूलों की माला और गुलदस्ते से उनका मेज भर गया था । अंत में जब गोविंद बाबू के बोलने की बारी आई तो वे भावुक हो उठे । आवाज भर्रा गई और आँखें भर आयीं। जीवन का आधा से ज्यादा वक्त उन्होंने इस नौकरी में गुजारी थी। अपने काम उन्होंने निष्ठापूर्वक किए। आज वे पराए होने जा रहे हैं। खैर जैसे-तैसे उन्होंने अपने भाषण पूरे किए और हॉल से बाहर आ गए। सभी लोग उन्हें बाहर तक छोड़ने आए। सब से मिलने के बाद वे अपनी पत्नी मालती के साथ गाड़ी में बैठ गए। गाड़ी भी फूलों से लद गई थी। घर तो वह रोज जाते थे, पर आज जाते वक्त उन्हें दुःख की अनुभूति हो रही थी। घर पहुँचकर गाड़ी से उतरे तो वहाँ एक सन्नाटा सा पसरा हुआ था। घर में प्रवेश करने पर अन्दर अंधेरा था। उनकी पत्नी मालती देवी ने आवाज लगायी- “बत्ती क्यों नहीं जल रही है? कहाँ गए तुम लोग? रमा ! बहू! इतना अंधेरा क्यों है?”

गोविंद जी बोले- “लगता है, बिजली चली गयी है।“

तभी अचानक सारी बत्तियाँ जल उठीं। रंगीन कागज व बैलून से सारा कमरा सजा हुआ था। बीच में एक बड़ा सा केक रखा था, जिसपर लिखा था- “हैप्पी रिटायरमेंट”।

गोविन्द जी एवं उनकी पत्नी यह देखकर आश्चर्यचकित रह गए। तभी एक कमरे से बेटी रमा व दामाद जी निकले, तो दूसरे कमरे से बेटे-बहू। सामने बरामदे से रिंकू व रानी आए और सभी ने तालियाँ बजाकर गोविंद बाबू का गर्मजोशी से स्वागत किया। धीरे धीरे सभी रिश्तेदार व मित्रगण भी आने लगे। सारे इंतजाम गोविन्द जी के बच्चों ने गुप-चुप तरीके से किये थे। दोनों पति-पत्नी यह सब देखकर भाव-विभोर हो रहे थे। खूब जमकर पार्टी हुई। मित्रगण एवं रिश्तेदार गोविंद बाबू को ‘ए न्यू लाइफ आफ्टर रिटायरमेंट’, ‘इन्जॉय योर लाइफ अगेन’ आदि-आदि जैसे सुन्दर संदेश दे रहे थे। उनके युवावस्था के मित्र भागेश्वर बाबू, जो दो वर्ष पूर्व ही रिटायर हो चुके थे, मिलने पर बोले- “रिटायरमेंट के बाद ही तो ज़िन्दगी शुरू होती है। आदमी को अपने लिए जीने का मौका मिलता है, वरना बचपन और जवानी तो पढ़ाई-लिखाई और करियर बनाने में चला जाता है। फिर उसके बाद परिवार की जिम्मेदारी…..। दुनिया,समाज, रिश्तेदार, फलां फलां, सबकी चिंता। आज से तुम अपने लिए एवं भाभी जी के लिए जियो। बच्चे तो अपनी-अपनी राह पकड़ ही लिए हैं।“

गोविन्द जी ने मुस्कुराते हुए कहा-“ हाँ, बिल्कुल सही कह रहे हो, भागेश्वर। तुम तो जानते ही हो मैं कैसे इस मुकाम तक पहुंचा हूँ। कितने संघर्ष करने पड़े।“

तभी रिंकू ने आकर कहा-“पापा, आइए, केक काटना है।“

गोविन्द जी बोले-“ये तुम लोग क्या कर रहे हो? केक काटना जरूरी है क्या?”

भागेश्वर बाबू ने कहा-“चले भी जाइए। केक काटने में क्या जाता है। बच्चों का मन रख लीजिए…..।“

गोविन्द जी ने केक काटा और सभी ने तालियाँ बजायी। अतिथियों के साथ सभी ने खाना खाया और बातचीत देर रात तक चलती रही। फिर सभी मेहमान एक-एक कर अपने अपने घर चले गए।

दूसरे दिन गोविन्द जी देर से जगे। उठकर उन्होंने घड़ी देखी। बाप रे! आठ बज गए! फिर उन्हें ध्यान आया कि आज तो ऑफिस जाना ही नहीं है। तभी पत्नी मालती ने चाय उनके सामने रख दी। चाय पीते हुए गोविन्द जी ने पूछा-“बच्चे जग गए हैं क्या ?”

मालती ने कहा-“सभी जाने की तैयारी कर रहे हैं। कल की पार्टी के लिए ही सब आए थे। रजत और बहू दोपहर की फ्लाइट से दिल्ली जा रहे हैं। मैंने ड्राइवर से कह दिया है कि उन्हें एयरपोर्ट छोड़ देगा। रमा और दामाद जी तो अपनी गाड़ी से ही आए हैं। अभी नाश्ता करके निकल जाएँगे। रिंकू और रानी भी अपने-अपने काम पर जाने की तैयारी कर रहे हैं।“

गोविन्द जी ने हँसते हुए कहा-“एक मैं ही बिना काम का हो गया।“

मालती ने उनकी तरफ गहरी नज़रों से देखते हुए कहा-“ऐसा क्यों कहते हैं जी ? जीवन में काम की कमी है क्या ? चलिए न! गाँव का खेत पूरा पड़ा हुआ है, चलकर बागीचा लगाएँ। पुश्तैनी घर पूरा ढह रहा है, उसकी मरम्मत करवाएं।“ गोविन्द जी के मन में अचानक खेत-खलिहान, गाँव-घर आदि सब कौंध गए। अपनी व्यस्त दिनचर्या एवं काम के बोझ तले सब भूले हुए थे। बाप-दादा के कमाए हुए को सँजोना भी तो एक बड़ी जिम्मेदारी है। मालती कह रही थी-“अभी रिंकू और रानी की भी तो शादी करनी है।“

गोविन्द जी के मुख से निकला-“हाँ, अभी तो बहुत से काम करने हैं। पहले थोड़ा सुस्ता तो लूँ।“

नाश्ता डायनिंग टेबल पर लग गया था। गोविंद जी ने बच्चों को आवाज लगायी। साथ बैठकर सभी नाश्ते करने लगे। रमा ने माँ से कहा-“माँ, तुम भी बैठो न !”

मालती बोली-“तुमलोग को जाना है। पहले तुमलोग खा लो। वैसे भी मुझे बाद में खाने की आदत है।“ बड़े बेटे रजत ने गोविन्द जी से पूछा-“पापा, अब तो आपके पास समय ही समय है। आगे क्या करने की सोच रहे हैं।“

रमा ने कहा-“अब काम का बहाना नहीं चलेगा, पापा। आप और माँ हमलोग के घर आइए। बाहर कहीं घूमने का भी प्लान करते हैं।“

गोविन्द जी ने कहा-“पहले अपने को सँभाल तो लूँ। अब तो जितने अर्दली, नौकर-चाकर, ड्राइवर मिले हैं, धीरे-धीरे सभी जाने लगेंगे। इनकी आदत लग गई थी। यह सरकारी बंगला भी छोड़ना होगा । गाँव का घर-जमीन भी देखना है। तुमलोग तो जानते ही हो, वहीं से मेरे संघर्ष के दिन शुरु हुए थे। तब से लगातार काम ही करते जा रहा हूँ। बहुत मेहनत से फर्श से अर्श तक पहुँचा था । मैं कभी नहीं चाहता था कि तुमलोग को भी तकलीफ झेलनी पड़े। तुमलोग को हर वो सुविधाएँ दी, जो मुझे नहीं मिली। अब गाँव का कर्ज चुकाना है न ! सोचता हूँ कि गाँव जाकर सब व्यवस्थित करूँ। मेरे बाद तो तुम्हीं लोग को सँभालना है।“ डायनिंग हॉल में एक चुप्पी छायी रही। रजत ने धीरे से कहा-“पापा, आप गाँव का सब जमीन बेच क्यों नहीं देते हैं? आप कितना सँभाल पाएंगे ? हम सभी तो अपने-अपने काम में व्यस्त रहते हैं।“

गोविन्द जी ने जवाब दिया-“नहीं बेटा, जीते जी तो मैं नहीं बेच पाऊँगा। बाप-दादा की जमीन है। मेरी जिन्दगी तो वहीं से शुरू हुई थी। कितनी यादें वहाँ से जुड़ी हुई हैं।”

रजत ने कहा-“ठीक है। आपकी जैसी मर्जी।“

सभी अपने-अपने गंतव्य की तरफ प्रस्थान कर गए। रह गए तो गोविन्द जी और मालती। जिन्दगी फिर से एक नए ढर्रे पर चलने लगी थी।

गोविन्द जी प्रतिदिन शाम में टहलने के लिए कॉलोनी के पार्क में जाते थे। आज शाम में भी वह पार्क में टहल रहे थे। टहलने के बाद वह थककर एक बेंच पर बैठ गए। कुछ और लोग भी टहल रहे थे। पार्क में एक तरफ़ झूले लगे थे, जिसपर बच्चे झूल रहे थे। शरद ऋतु थी इसलिए मौसम सुहावना था। चारों तरफ मनमोहक रंग-बिरंगे फूल खिले हुए थे। तरह-तरह के पक्षी घोंसले की तरफ लौट रहे थे। उनकी चहचहाहट से पूरा वातावरण गुंजायमान हो गया था। आह! आज कितना अच्छा लग रहा है। गोविंद बाबू को सुखद अनुभूति हुई। तभी उनकी नजर सामने की बेंच पर सोए हुए एक शख्स पर पड़ी। उसके सिर के पास एक बैग रखा हुआ था। नीचे एक पानी का बोतल था और वह गहरी नींद में सो रहा था। गोविन्द जी ने सोचा शायद रातभर नहीं सोया होगा या थका हुआ होगा। लगता है बाहर से आया है। खाना लाया होगा घर से या होटल में खा लिया होगा। दिल्ली जैसे शहर में तो कमाने के लिए ही आया होगा। इस तरह के कितने ही विचार उनके मन में चलने लगे। और चले भी क्यों नहीं। खुद गोविन्द जी भी तो वर्षों पहले इसी हालात से गुजरे थे। छोटे से गांव से निकलकर जब वे राजधानी पटना में आए थे तो, इस शहर में उनका अपना कोई नहीं था। आगे की पढ़ाई जारी रखने के लिए वह कोई छोटी मोटी नौकरी करना चाहते थे, जिससे कि वह अपना खर्च निकाल सके। पिताजी बस ड्राइवर थे। कुछ जमीन भी थी जिसपर खेती होती थी। परिवार बहुत बड़ा था, इसलिए खर्चों की भी दिक्कत थी। गांव में ही गोविन्द जी ने दसवीं पास की थी। पिताजी आगे पढ़ाना नहीं चाहते थे। वह काम पर लगाना चाहते थे। बहुत मुश्किल से उन्होंने पिता जी को मनाया था और मुजफ्फरपुर के एक कॉलेज में दाखिला ले लिया। उस समय मैट्रिक एवं ग्रैजुएट होना बड़ी उपलब्धि मानी जाती थी। पर गोविन्द जी को इससे भी संतोष नहीं था। उनका सपना तो कुछ और था। वे तो कानून की पढ़ाई पढ़ना चाहते थे। साथ ही प्रतियोगिता परीक्षा की तैयारी। शादी तो उनकी दसवीं में ही कर दी गई थी। मालती तो बेचारी उस समय बच्ची ही थीं। घर में माँ, चाची, दादी, बुआ तो थी ही, साथ ही बच्चों की एक पूरी फौज थी। मालती सबके साथ घुल मिल गयी थी और घर के कामों में लगी रहती। आगे की पढ़ाई के लिए जब वे पटना आए तो रजत और रमा का जन्म हो चुका था। चूंकि संयुक्त परिवार था इसलिए वह मालती को ज्यादा वक्त नहीं दे पाते थे और न ही बच्चों को। मालती ने भी गोविंद जी के साथ बहुत संघर्ष किए थे, पर उसने कभी इसके लिए शिकायत नहीं की। पिताजी और चाचा जी ही घर के सारे खर्च चलाते थे। गोविन्द अब अपने पिताजी से ज्यादा पैसे नहीं लेना चाहते थे, इसलिए उन्हें नौकरी की सख्त आवश्यकता थी। शुरू में तो वह इसी तरह इधर-उधर भटकते रहे। वह भी एक दिन इसी तरह बेंच पर सामान के साथ सोए हुए थे, जिस तरह वह शख्स बेंच पर अपना सामान लेकर सोया है। पता नहीं वह कौन है, जिसने आज उनकी भूली-बिसरी बातों की याद ताजा कर दी। वह अपने संघर्ष के दिनों में लौट आए थे। अंत में उनको इसी पटना ने आश्रय दिया था । उनको एक प्रेस में नाइट ड्यूटी मिल गई थी। आजकल तो शायद वह प्रेस भी बंद हो गया है। वहाँ रात में वह नौकरी करते थे और दिन में पढ़ाई। रहने के लिए एक कोठरी मिल गयी थी। खाना तो वह स्वयं बनाते थे। यदि समय नहीं मिलता तो ढाबे पर भी खा लेते।अंत में उन्हें लॉ की डिग्री भी मिल गई। पढ़ाई के साथ-साथ वे प्रतियोगिता परीक्षा की तैयारी भी करने लगे थे। पिताजी व मालती को वह हमेशा चिट्ठी भेजा करते थे। बीच-बीच में जाकर बच्चों की खैर-खबर ले लिया करते।

एक दिन उनकी मेहनत रंग लाई। राज्य स्तरीय प्रतियोगिता-परीक्षा पास कर एक छोटे से शहर में बीडीओ के पद पर आसीन हो गए थे।अब घर के हालात सुधरने लगे थे। मालती और बच्चों को भी उन्होंने अपने पास बुलवा लिये थे।वे अपने दोनों भाइयों को भी पढ़ाने लगें। पिताजी-माताजी का सर गर्व से ऊँचा रहने लगा। पर गोविन्द बाबू को संतोष कहाँ था। नौकरी करने के साथ-साथ वे यूपीएससी की परीक्षा देने लगे। और एक दिन इसमें भी उनका सेलेक्शन हो गया और वे बन गए एक आईएएस ऑफिसर। उसके बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। माता पिता जब तक रहे, गांव आते जाते रहे। धीरे-धीरे काम की अधिकता के कारण गांव आना जाना बहुत कम हो गया। मालती और बच्चे भी शहर के रंग-ढंग में ढलते चले गए। गरीबी क्या होती , हमारे बच्चे क्या जानें? मैंने तो उन्हें बहुत आराम की जिंदगी दी है। मैंने जो कष्ट सहा, वे क्यों सहते ।

गोविन्द जी का ध्यान टूटा तो देखा की सामने वाली बेंच पर लेटा वह शख्स कहीं चला गया था। उसके सामान भी नहीं थे। शायद वह चला गया होगा। वहाँ पर दो अन्य युवक आकर बैठ गए थे। तो क्या वह शख्स उन्हें सिर्फ अपने संघर्ष के दिनों की याद दिलाने के लिए वहाँ लेटा था? जीवन के सफलतम क्षणों में कभी उन्हें इन संघर्ष के दिनों की याद नहीं आई। यही तो वे सोपान थे, जिन पर चढ़कर वह ऊपर पहुंचे थे। धीरे धीरे अँधेरा घिरने लगा था। पक्षी अपने घोंसले में लौट चुके थे। गोविन्द जी अपनी जगह से उठे और धीरे धीरे अपने घर की तरफ़ चल पड़े।

 

 

सरिता कुमारी

पटना, भारत

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