उचित सहयोग
जब से संदीप को पैरालिटिक अटैक आया था और उसका कामकाज बंद सा ही हो गया था, तब से परिवार की आर्थिक स्थिति डवाँडोल रहने लगी थी। वैसे तो उसकी पत्नी काजल बहुत ही समझदार और संतुलित महिला थी, हिसाब किताब से घर चलाना उसे आता था, किसी से सहयोग लेना भी उसे पसंद नहीं था। लेकिन संयम और संतुलन भी तो एक सीमा तक ही संभव है।
अपनी बहन की स्थिति भला भाई की नजरों से कैसे बच सकती थी, सूरज हमेशा आर्थिक मदद के लिए आगे आता था जिसे संकोच के साथ काजल को स्वीकार करना ही पड़ता था। उसकी भाभी सुधा भी काजल के इस संकोच को समझती थी। सदैव यही सोचती रहती थी कि ऐसा किस प्रकार का सहयोग कर सकें वे लोग कि काजल के परिवार की आर्थिक दशा भी सुधार सके और उन्हें शर्मिंदगी भी महसूस न हो सके।
सुधा ने जब अपने मन की यह बात सूरज को बताई तब वह नाराज हो गया। उसे लगा शायद बहन को इस प्रकार से बारंबार आर्थिक सहयोग देना उसकी पत्नी को बुरा लग रहा है। सुधा अपने पति की इन भावनाओं से थोड़ी आहत अवश्य हुई किंतु परिस्थिति की नजाकत का अहसास करते हुए उसने अपनी बात समझाने का पुनः प्रयास किया –
“देखो सूरज मैं तुम्हें अपनी बहन की मदद करने के लिए मना नहीं कर रही हूँ। बस इतना कह रही हूँ कि इस तरह से कब तक तुम सहयोग करते रहोगे? उन्हें परिस्थितियों से लड़कर आगे बढ़ने के लिए दिशा दिखाना ही हमारा कर्तव्य है, यही हमारा वास्तविक सहयोग होगा।जब आत्मनिर्भर बनकर वे लोग अपने परिवार को सँभालेंगे तब शायद ज्यादा खुश रहेंगे। तुम्हें समझना होगा हमारा बार-बार इस तरह से पैसों के साथ या अन्य वस्तुओं के साथ उनकी मदद के लिए जाने से शायद संदीप जी के स्वाभिमान को भी ठेस पहुँचती होगी। काजल को भी थोड़ा संकोच करते मैंने देखा है। समय के थोड़े अंतराल के बाद शायद उसे अपने भैया से इस तरह बार-बार पैसे आदि लेकर अपना घर चलाना अधिक अनुचित न लगने लगे और ऐसे में आगे चलकर उनके साथ हमारे संबंधों में भी खटास आने की पूरी संभावना है। इसीलिए मैं कह रही हूँ कि उनकी आत्मनिर्भरता के लिए एक उचित राह प्रशस्त करना ही हमारा वास्तविक सहयोग होगा।”
सुधा की इन बातों को अनसुनी कर सूरज सोने चला गया। लेकिन नींद आँखों से कोसों दूर थी। बिस्तर पर पड़े-पड़े सुधा के शब्द उसके कानों में गूँज रहे थे। उनपर मंथन करते हुए धीरे-धीरे उसे सुधा की बातें उचित लगने लगीं।
अगली सुबह दोनों ने आपस में विचार विमर्श करते हुए इस बात पर गौर करना आरंभ किया कि काजल को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाने के लिए उसे किस दिशा में बढ़ने के लिए प्रेरित कर सकते हैं। तभी सूरज को अपनी बहन की नृत्य कला की याद हो आई।
उसने सुधा को बताया कि काजल बहुत ही कुशल नृत्यांगना हुआ करती थी।अपने स्कूल कॉलेज के दिनों में उसने नृत्य में जाने कितने ही इनाम जीते थे।
छोटी बहन होते हुए भी काजल का विवाह पहले ही हो गया था अतः सुधा को ऐसी कुछ बातें नहीं पता थीं। ये सारी बातें सुनते-सुनते ही सुधा के मन में कुछ विचार उत्पन्न हुए।
“क्यों न हम लोग काजल दीदी को फिर से डांस करने के लिए प्रेरित करें? अगर वह डांस क्लासेस आरंभ कर लेंगीं तो आर्थिक मदद तो हो ही जाएगी साथ ही नृत्य तो मानसिक तनाव दूर करने का अति उत्तम साधन भी है। घर बैठे काम भी हो जाएगा और संदीप जी की देखभाल भी हो जाएगी।”
“अरे नहीं,वह कहाँ तैयार होगी, और अभी तो उसे फुर्सत भी नहीं होगी, कहाँ से डांस सिखा पाएगी?”
“क्यों नहीं?एक बार पूछ कर तो हम लोग देख ही सकते हैं।”
” ठीक है, तुम पूछना चाहती हो तो पूछकर देख लो। मुझे तो अच्छा नहीं लगेगा पूछने में। कहीं वे लोग ऐसा ना समझें कि हमें उनकी सहायता करनी पड़ रही है इसलिए हम ऐसा प्रस्ताव लेकर जा रहे हैं। कभी-कभी खून के गहरे रिश्ते भी छोटी सी गलतफहमी और आशंका में बिगड़ने लगते हैं और मैं नहीं चाहता कि मेरी बहन के साथ हमारा रिश्ता बिगड़े,उसमें किसी प्रकार की गलतफहमी उत्पन्न हो सके।”
“नहीं-नहीं! आप निश्चिंत रहिए, ऐसा कुछ भी नहीं होगा। मैं एक बार जरूर बात करने का प्रयास करूँगी। ऐसा करती हूँ, मैं आज शाम को ही उन लोगों से मिलने चली जाती हूँ।अकेली ही जाऊँगी,आप मत जाना।आप बस ऑफिस से वापस आते वक्त मुझे लेते आना।”
यही विचार विमर्श करके दोनों पति-पत्नी अपने अपने कार्य में लग गए। दोपहर बाद तक घर के सारे काम निपटाकर सुधा काजल के घर के लिए निकल पड़ी।सामान्य हाल-चाल की बातें करते हुए बातों ही बातों में सुधा ने कहना आरंभ किया –
“अरे काजल दीदी! आप तो बहुत अच्छी डांसर रही हो, आज ही मुझे पता चला।”
डांस का नाम सुनते ही काजल की आँखों में चमक आ गई।
“हाँ भाभी! डांस तो मैं करती थी लेकिन कब का छोड़ दिया मैंने।अब तो सब भूल भी गई हूँ।”
“हाँ तो! छोड़ दिया तो क्या हुआ? फिर से आरंभ भी तो कर ही सकती हो।”
“अरे नहीं-नहीं, अब कहाँ आरंभ होगा और अभी तो आप देख ही रही हैं कि घर की स्थिति कैसी है!”
“वही तो मैं भी कहना चाह रही हूँ! पहले अपने शौक से किया अब आप घर की स्थिति को देखते हुए भी कर सकती हो। डांस क्लासेस शुरू करो, पूरा दिन घर में बैठे रहना पड़ता है तो आपका टाइम भी अच्छा पास हो जाएगा। साथ ही पैसों की आमदनी से आर्थिक आधार भी मजबूत हो सकेगा।”
काजल ने थोड़े अनमने भाव से ही “देखती हूँ, सोचती हूँ” कहा।
थोड़ी इधर-उधर की अन्य बातें भी हुईं इतने में सूरज भी आ गया। सुधा सूरज के साथ घर वापस आ गई थी लेकिन उसका ध्यान तो वही लगा हुआ था कि ‘काजल क्या सोच रही होगी, क्या निर्णय लेगी?’
काजल और सुधा की बातें संदीप ने भी सुनी थीं। काजल जब उसे दवाइयाँ दे रही थी तब उसने काजल को अपने पास बैठने का इशारा किया।
काजल बैठ गई-
” क्या हुआ, कोई परेशानी है क्या”
” नहीं-नहीं! परेशानी नहीं है मैं तो कुछ सोच रहा हूँ।”
“क्या?”
” देखो! जब हमारी शादी हुई थी तब भी मैंने तुमसे कहा था कि तुम डांस करना मत छोड़ो, तुम्हारा शौक भी है और तुम्हारा बहुत बड़ा टैलेंट भी है। लेकिन तुमने घर परिवार को सँभालने बातें कीं और सब छोड़ दिया। आज मैंने सुधा भाभी की बातें सुनीं, मुझे भी लगता है कि तुम्हें डांस करना चाहिए। मेरे कारण तुम्हारा घर से बाहर निकलना तो फिलहाल बंद ही है, लेकिन घर बैठे तो काम कर ही सकती हो। और मैं भी बिस्तर पर पड़े पड़े जितना भी सहयोग हो सकेगा अवश्य करूँगा।”
“अरे ऐसा क्यों कहते हैं, आप हमेशा बिस्तर पर पड़े थोड़ी ना रहेंगे!”
” हाँ-हाँ मैं भी वही कह रहा हूँ, अभी बिस्तर पर पड़ा हूँ फिर जैसे-जैसे दशा में सुधार होगी अपनी स्थिति के अनुसार मैं भी जो सहयोग कर सकूँगा अवश्य करूँगा। तुम कुछ आरंभ तो करो।”
काजल की स्थिति डवाँडोल थी। नृत्य के नाम पर मन झूम तो रहा था। लेकिन इतने वर्षों के पश्चात पुनः आरंभ करना, वह भी ऐसी दशा में जब संदीप की शारीरिक हालत ऐसी है और उसकी मनःस्थिति भी अच्छी नहीं है, उसे समझ में नहीं आ रहा था क्या करे? वैसे बच्चे तो बड़े हो गए थे अपना काम स्वयं ही कर लेते थे और उनका समय तो स्कूल में ही व्यतीत हो जाता था। संदीप की देखभाल के पश्चात भी काजल को दिन में तो थोड़ा बहुत समय मिल ही जाता था। काफी सोच विचार के पश्चात और संदीप के बहुत जोर देने के बाद उसने निर्णय ले ही लिया।
सबसे पहले अपनी भाभी को फोन करके उसने यह बात बताई। सुनते ही भैया-भाभी दोनों खुश हो गए। व्यवधान तो बहुत सारे थे लेकिन जब आगे बढ़ने का निश्चय लिया तब आरंभ तो करना ही था।
किसी भी मंजिल पर पहुँचने के लिए उस राह पर प्रथम कदम तो बढ़ाना ही पड़ता है। फिर काजल की यह मंजिल तो नई थी किंतु राहें तो जानी पहचानी ही नहीं अति मनभावन भी थीं। इस राह पर चलना जो कभी उसे अति प्रिय हुआ करता था, आज पुनः उनसे गुजरकर परखना चाहती थी।
अगले दिन ही सब मिलकर एक साथ बैठे, योजनाओं पर विचार विमर्श करते हुए कार्यान्वयन आरंभ हुआ। सूरज ने अपने एक मित्र के सहयोग से परचियाँ छपवाईं जिन्हें दैनिक अखबार के साथ आसपास के मुहल्लों में बँटवा दिया गया।
जैसा कि हमारे समाज का नियम ही है, किसी की नई पहल की सराहना करने वालों से अधिक उसकी खिल्ली उड़ाने वाले ही मिल जाते हैं। काजल का यह सफर भी इन बातें से अछूता नहीं रहा। जहाँ कुछ लोगों ने जीवन की इन विषम परिस्थितियों में भी उसके इस साहसिक कदम की सराहना की तो वहीं कितने ही रिश्तेदारों और आस-पड़ोस के लोगों ने यह कहकर उसका मजाक भी बनाया कि
“पति बिस्तर पर पड़ा है और इसे अपना नृत्य का शौक पूरा करने की पड़ी है।”
लेकिन काजल के बढ़े हुए कदम अब पीछे मुड़ने वाले नहीं थे। उसके इस नए सफर में उसके पति और बच्चों का पूर्ण सहयोग के साथ ही भैया-भाभी की भी समस्त शुभकामनाएँ प्राप्त थीं।
आरंभ में तो एक-दो छात्राएँ ही नृत्य की शिक्षा ग्रहण करने आईं, किंतु जैसे-जैसे बात फैलती गई, उसके पुराने मित्र और रिश्तेदार जो उसकी नृत्य कला की दक्षता से भली-भाँति परिचित थे, उन लोगों ने भी आपने आसपास के सभी लोगों को भी बताया और इस प्रकार छात्रों की संख्या बढ़ती ही चली गई।
समय गतिमान रहा और एक दो बच्चों से आरंभ होता हुआ उसका यह अभियान जोर पकड़ता हुआ अब सैकड़ो बच्चों तक पहुँच चुका था। संदीप भी आरंभ में तो बिस्तर पर पड़े-पड़े ही और बाद में स्वास्थ्य सुधार के साथ व्हीलचेयर पर चलते हुए उसके इस काम में पूर्ण सहयोग करते रहे। दोनों की आपसी समझ तथा सूरज और सुधा के दृढ़ संबल का ही परिणाम था कि चार वर्ष बीतते-बीतते ही काजल को अपने नृत्य शिक्षण के लिए एक नई जगह की तालाश की आवश्यकता पड़ने लगी और साल भर के भीतर ही उसे एक समुचित स्थान पर एक सुंदर भवन भी मिल गया जहाँ आज उसकी नृत्यशाला का उद्घाटन होने वाला था।
काजल स्वयं इस भव्य उद्घाटन समारोह के लिए अपने भैया-भाभी को आमंत्रित करने आई थी। सुधा से गले मिलकर तो भावुक ही हो गई थी।
“भाभी! आपने ही मुझे एक नया लक्ष्य दिया और इस नई मंजिल की तरफ बढ़ने के लिए प्रेरित भी किया। आपका तो जितना भी शुक्रिया अदा करूँ कम ही है।”
उसी उद्घाटन समारोह में जाते हुए बहन की सफलता से गौरवान्वित सूरज, काजल की जिंदगी के बीते पाँच वर्षों के उतार-चढ़ाव भरी यादों में खोया हुआ था कि उसे पता भी नहीं चला और गंतव्य आ गया। आँखों के सामने नृत्यशाला का वह सजीला भवन था जिसपर “काजलदीप नृत्य कला केंद्र” का बड़ा सा बोर्ड चमक रहा था।
सूरज की आँखें सजल हो गईं। ये तो उसकी माँ का ही सपना था जो अधूरा रह गया था और वो अकस्मात ही इस दुनिया से चल बसी थीं। काजल के नृत्य छोड़ने से सबसे ज्यादा वही दुखी थीं। लेकिन जब काजल स्वयं ही नहीं चाहती थी तब उसकी माँ भी चुप ही रह गईं और बेटी के उस निर्णय को बुझे मन से ही मौन स्वीकृति दे दी थी।
शायद उनका ही आशीर्वाद फलीभूत हो रहा था जो काजल की कुशल कला और मेहनत का इतना सफल परिणाम प्राप्त हुआ था।
सूरज को अपनी पत्नी सुधा पर भी गर्व हो रहा था जिसने छोटे-मोटे आर्थिक सहयोगों से ऊपर उठकर काजल के लिए ऐसा मार्ग प्रशस्त किया जिसने उसकी दबी हुई प्रतिभा को तो पुनः उजागर किया ही, साथ ही अनजाने में ही सही, स्वर्गवासी माँ के सपनों को भी पूरा कर दिया। काजल की उन विषम परिस्थितियों में उसके लिए यही सर्वथा उचित सहयोग था।
रूणा रश्मि ‘दीप्त’