उठो पार्थ, अब साधो बाण

उठो पार्थ, अब साधो बाण

 

निवी चाय को उफनते देख रही थी। कभी गैस की आँच को कम कर देती तो अगले ही पल एक और उफ़ान देने के लिए गैस की आँच को तेज़ कर देती। उसके चेहरे का तनाव बता रहा था कि किसी गहरे सोच में डूबी हुई है।

तभी बेटी की आवाज़ ने उसे चौंका दिया, “अरे माँ चाय का तो दम निकल गया, कितना खौलाओगी!”

वैभवी ने आगे बढ़ कर गैस बंद की और माँ के गले में अपनी बाँहें डाल कर बहुत प्यार से बोली “माँ -पुरानी सभी बातों को भूल क्यों नहीं जाती हो? देखो आपकी बेटी अब बड़ी अफसर बन गई है ।अब आपको कोई कष्ट नहीं झेलना पड़ेगा।“ पर ये क्या निवी ने पलट कर जिस प्रश्नवाचक दृष्टि से वैभवी को देखा तो वैभवी भी उन आँखों के समक्ष तेज आँधी से गिरने वाले वृक्ष के समान ही जड़ सहित अँदर तक हिल गई।

“ऐसे क्या देख रही हो माँ?”

“कुछ नहीं,बस सोच रही हूँ कि कहीं तू भी अपने पापा के पाँव तले की तो नहीं लेगी।पिता की तरह व्यवहार तो न करेगी।”

“ क्यों लगता है ऐसा? अच्छा अब जल्दी से नाश्ता तैयार करवा दीजिए, मुझे आफिस के लिए देर हो रही है।”

वैभवी ने विषय को बदलना चाहा।

निवी अधिकतर बेटी का नाश्ता स्वयं ही तैयार करती है। पर आज़ उसका मन तो कहीं और ही था। आज़ उस इंसान को क्यों अपने मन-मस्तिष्क से लाख कोशिशों के बावजूद भी नहीं हटा पा रही है।

“नाश्ता लग गया है वैभवी, आजा बेटा !” वैभवी अभी टेबल तक पँहुची भी नहीं थी कि नाश्ता टेबल पर लग भी गया था। वैभवी भी अब तक समझ चुकी थी कि आज़ माँ को अपने उस पति की याद आ रही है। जिसने कभी मुड़ कर नहीं देखा था कि उसकी पत्नी व बेटी जीवित भी हैं या नहीं।

नाश्ता खत्म करके वैभवी घर से अनमनी होकर आफिस के लिए निकली परंतु निवी अभी तक अतीत में खोई हुई थी।

अरसे पहले जब ब्याह करके निवी वैभवी के पिता किशोर के घर आयी थी तो पति को कभी एक आँख नहीं भाई थी।

निवी सुसंस्कृत विचारों वाली सभ्य पढ़ी-लिखी लड़की थी।

शहर में पढ़ाई करने के कारण शहरी तौर तरीकों से भी भलि-भाँति वाक़िफ भी थी। पिता की अच्छी खासी खेती-बाड़ी व ईंट का भट्टा था इसलिए बारात के स्वागत से लेकर लेन-देन करने में कोई कमी नहीं की थी उन्होंने।

वैभवी जब पैदा होने वाली थी तो घर के सभी के जोर देने पर पास के गाँव से निवी की बुआ की बेटी आशा को मदद के लिए बुला लिया गया था, आशा बहुत खूबसूरत होने के साथ-साथ ही घरेलू कार्यों में भी दक्ष थी । किशोर के हाव-भाव भी कुछ-कुछ निवी को अहसास करवा रहे थे कि किशोर भी आशा को पसंद करने लगे हैं ।

जब वैभवी हुई तो घर के अन्य सदस्य तो बहुत ख़ुश थे पर किशोर को देख कर लगता कि वह खुश नहीं हैं। घरवालों को भी आशा के प्रति किशोर के झुकाव की भनक लग गई थी, इसीलिए किशोर की माँ आशा को उसके घर वापस भेजना चाहतीं थीं । अपने प्रति अनदेखी से निवी मन ही मन आहत थी।

आखिर आशा को उसके घर पँहुचा दिया गया। पर उस दिन के बाद से किशोर को एक अजीब उदासी ने घेर लिया था। वह निवी से अजीबो-गरीब व्यवहार करने लगे थे।उनका रिश्ता अब एक ऐसे पड़ाव पर पहुँच चुका था जिसमें अब रिश्ते को बचाना निवी के लिए भी मुश्किल हो रहा था।

कुछ समय और व्यतीत हुआ पर किशोर दिनों दिन निवी के प्रति उदासीन होते गए।

निवी उस रात को किस प्रकार भूल सकती है?

उस रात खूब झगड़ा हुआ था दोनों के मध्य।

“क्या बात है?साफ़-साफ़ कहिए आप मुझे पत्नी का अधिकार देंगे या नहीं? मैं इस प्रकार उपेक्षित होकर नहीं रह सकती हूँ।”

किशोर ने उसको मायके में कुछ दिन रह कर आने की सलाह दे डाली। उस ने खुशी खुशी मायके कुछ दिन के लिए जाना स्वीकार किया। शाय़द किशोर को अपने किए पर पछतावा हो और सोचने पर मज़बूर हो जाए कि जो खूबियाँ निवी में हैं वो आशा में नहीं हैं।

निवी को मायके में कुछ दिन बीत गए, फिर महीने बीतने लगे, जब साल भर होने पर भी ससुराल से कोई बुलावा नहीं आया तो मायके वालों को भी चिंता सताने लगी। निवी का भाई व पिता उसकी ससुराल पँहुच गए। वहाँ

किशोर ने फ़रमान सुना दिया कि “मैं उसको नहीं बुलाऊँगा ,आप अपना दहेज़ भी ले जाइए और बेटी को भी अपने पास रखिये।“

निवि के पिता ने अपनी इज्जत का वास्ता भी दिया कि पर किशोर टस से मस नहीं हुए। दुखी पिता व भाई अपने गाँव को लौट गए। उनके उतरे चेहरे देख कर निवी समझ गई थी कि उसका घर संसार लुट चुका है। ‘बहुत बड़ा छल हुआ है मेरे साथ’ निवी दुखी मन से सोचने लगी।

अब क्या करुँगी मैं ?

कैसे रहूँगी?

एक भय और सताने लगा निवी को कि कहीं वैभवी को तो उससे नहीं छीन लिया जाएगा !यदि ऐसा हुआ तो वह जी नहीं पाएगी। माता-पिता व भाई ने उसे ढांढस बँधाया कि वैभवी को उससे कानून भी ननहीं छीन सकता है। पिता ने रो-रो कर निढाल हुई बेटी को सांत्वना दी, “निवी तू ज़रा भी चिंता ना करिओ मैं पंचायत बैठाऊँगा तब कुछ ना कुछ हल जरुर निकलेगा।’

आखिर वो दिन भी आ गया जब पंचायत बुलाई गई पर इस बार किशोर के परिवार वालों ने भी किशोर के दवाब में किशोर का ही साथ दिया और फैसला सुनाया गया कि किशोर बड़े होने तक बेटी का पूरा खर्च उठाएगा। और कुल जमीन का एक चौथाई भाग निवी के नाम करवाएगा। गाँव जाकर जब यह बात निवी को बताई तो निवी मन ही मन सोचने लगी कि क्या करेगी जमीन लेकर या बेटी का खर्च लेकर? अभी वह इतनी भी कमजोर नहीं पड़ी है जो अपना और अपनी बेटी की परवरिश न कर सके। आज़ निवी को स्वयं पर भरोसा था कि वह पढ़-लिख कर इस योग्य है जो अपना व बेटी का ख़र्च उठा सकती है।

विषाद में निवी को मायके में दो वर्ष कट गए ।इस बीच निवी ने बीए.एड. की परीक्षा भी पास कर ली। पिता तो उठते-बैठते उसकी हिम्मत बंधाया करते कि ‘अभी तेरे बाप भाई जीवित है।तुझे चिंता करने की जरुरत नहीं है।निवी ने किसी तरह पिता को राज़ी कर लिया कि वह नौकरी करेगी । उसके अडिग फैसले के समक्ष न पिता की मर्जी चली न भाई की। निवी के जीवन में एक नया अध्याय शुरु होने जा रहा था।

उधर किशोर ने आशा से विवाह रचा लिया था जिसमें आशा की मर्जी तो शामिल थी पर आशा के परिवार वालों की नहीं। परिवार वालों ने आशा से सदैव के लिए ही नाता तोड़ लिया था।

निवी को उसके पिता के अच्छे संबंधों के चलते डी.एम. आफिस में नौकरी मिल गई, जिसके चलते अपना व अपनी बेटी का सारा खर्च आराम से उठाने लगी। गाँव भी शहर के पास होने से आने-जाने की भी सुविधा थी अतः भाई मोटरसाइकिल से सुबह-शाम छोड़ जाता था। फिर कुछ दिन पश्चात एक गाँव का ही रिक्शा चालक ले जाने व लाने लगा। वैभवी भी रिक्शा से अन्य बच्चों के साथ स्कूल जाने लगी। पढ़ने में अत्यंत मेहनती थी। बड़े होकर सब समझने लगी थी। जब कभी अपने पापा के विषय में पूछताछ करती तो उसको समझा दिया जाता कि उसके पापा अब इस दुनिया में नहीं हैं। वैभवी ने भी इस झूठ को सच मान लिया था।

निवी को यदा-कदा दुःख सताता था कि कैसा बाप है किशोर जो कभी बेटी को भी देखने की इच्छा ज़ाहिर नहीं की ।

निवी को बहुत लगन के साथ काम करते देख कर अधिकारी प्रशंसा करते थे। निवी के विषय में सबको ज्ञात था कि कितने आत्मविश्वास से लबालब है और स्वाभिमान के साथ जीवन-यापन कर रही है।

धीरे-धीरे समय का पहिया घूमता बढ़ता चला गया और संघर्षशील माँ के जीवन से प्रेरित वैभवी की अथक मेहनत और दिल्ली की कोचिंग में एक दिन वो आया जब उसकी बेटी ने संघ लोक सेवा आयोग की सर्वोच्च लिखित व मौखिक परीक्षा पास कर ली। बधाइयों का ताँता लग गया सभी बड़े-बड़े नेता तथा आस-पास के लोग बधाई देने आए। मीडिया वाले तो आए दिन वहीं प्रश्न करते कि “क्या आपने कभी सोचा था कि आपकी बेटी इस कामयाबी को हासिल करेगी।”

निवी का एक ही जवाब होता. “’हाँ, वैभवी की दिन-रात की अथक मेहनत व लगन देखकर मुझे विश्वास था कि वैभवी एक न एक दिन इस कामयाबी को हासिल जरुर करेगी पर पहले ही वर्ष में कामयाबी मिल जाएगी, ऐसी उम्मीद नहीं थी।“

जल्दी ही वैभवी की सफलता का समाचार सेमल की रुई की तरह सारे जिले में फैल गया। निवी की ससुराल उसके मायके से अधिक दूर नहीं थी मुश्किल से एक घंटे का रास्ता था। सुना तो आखिर पिता का सुप्त स्नेह उमड़ पड़ा। ख़बर भिजवाई गई , कि पिता बेटी से मिल कर बधाई देना चाहता है। निवी ने बेटी की ओर प्रश्नवाचक निगाहों से देखा? मानों उसके मन की थाह लेना चाहती हो कि आखिर बेटी क्या चाहती है ?

वैभवी को तो बताया गया था कि उसके पिता नहीं है, पर ऐसी बातें कहाँ छुपती हैं? किसी न किसी के द्वारा ज्ञात हो ही जाती हैं। वैभवी जान-बूझ कर भी अनजान ही बनी रही। जबकि वह अपनी मामी के द्वारा सब जान चुकी थी कि उसके पापा जीवित हैं…जो भी उसके पापा ने उसकी माँ के साथ किया था वह सब भी।

अपने पिता का प्रस्ताव लेकर आए रिश्तेदार को वैभवी ने दो टूक जवाब पकड़ा दिया कि वह किसी पिता को नहीं जानती है। उसके पिता जीवित नहीं हैं। वह बस अपनी माँ को जानती है जिसने रात-दिन एक करके बेटी की उम्मीदों को पंख दिए हैं या उस नाना को जानती है जो उसकी ओर बड़ी आशान्वित नज़रों से देखा करते थे कि कब बड़ी होकर पढ़ लिख कर अपनी माँ के आँसुओं को खुशियों में बदल देगी।

कल की ही बात है जब वह अपनी ससुराल में वैभवी को साथ लेकर शिव-मंदिर व कुल देवता की चौखट पर माथा टेकने व प्रसाद चढ़ाने गई थी।

जब गाँव वालों को पता चला तो इस होनहार बेटी को मिलने व देखने गाँव के ही कुछ प्रमुख लोग मंदिर के प्रांगण में एकत्रित होने लगे। सबको यही उम्मीद थी कि शायद निवी बेटी को लेकर उसके परिवार से मिलवाने जरुर ले जाएगी।

आज निवी के चेहरे पर एक संतोष झलक रहा था। उसकी बेटी ने सारे गांँव के समक्ष उसका मान-सम्मान जो लौटाया था।

कुछ गांव वालों ने जब यह सवाल निवी से किया तो उसने साफ़-साफ़ शब्दों में दो टूक जवाब दिया कि उसका उस परिवार से कोई नाता नहीं है। वो तो अपनी मन्नत पूरी होने पर ईश्वर का धन्यवाद करने आई है आई.ए.एस.बेटी को लेकर।

नौकर ने आवाज लगाई मैडम दोपहर को खाने में क्या बनेगा? मैं आपसे कब से पूछ रहा हूँ?

लगता था आज़ तूफ़ान बहुत जोरों से आया था, आकर चला भी गया। तूफान के पश्चात की एक खामोशी छोड़ गया। अब हल्की- हल्की बारिश की बौछार से भीगा हुआ है चारों ओर का वातावरण या शायद निवी का अंतर्मन।

 

निरुपमा सिंह

बिजनौर, भारत

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