वो लड़का

वो लड़का

वो लड़का जिसे मैंने बेहद करीब से जाना था, उसके संघर्षों की साक्षी रही हूँ, आज न्याय-व्यवस्था के शीर्ष पद पर शपथ ले रहा था। उसकी आँखों में खुशी और गम की बूँदे झलक रही थी। शपथ-कार्यक्रम में जो भी शामिल थे – करीबी, परिवार, दोस्त सभी उस पल के साक्षी थे। अगर कोई नहीं था तो वे थे उसके माता-पिता जो वर्षां से इस घड़ी का इन्तजार कर रहे थे। उनके जेहन में वो पल ख्वाब बनकर रह गया। और जब हकीकत बनकर आया, ईश्वर ने सबकुछ दे दिया तब वो ईश्वर के पास चले गये थे।

अपने पिता का चौथा और सबसे छोटा बेटा था वो लड़का – जिसका नाम बड़े प्यार से उन्होंने कमल रखा था। कमल अपने नाम के अनुरूप सुंदर भी था। बचपन में बेहद शरारती, माँ का दुलारा, हमेशा आँचल पकड़कर चलनेवाला। कभी-कभी जिद्द ऐसा करता कि माँ भी तंग हो जाती। एक बार की बात है मिठाईवाला बगल से गुजर रहा था, उसने माँ से जिद्द किया माँ मिठाई खरीद दो। माँ ने देखा कि मिठाई खराब है उसने नहीं खरीदा। इसके बाद फिर क्या था घर के दीवार को नाखुनों से खुरेद-खुरेद कर खराब कर दिया। पिता की आर्थिक स्थिति बँटवारे के बाद बिगड़ती गई, साधन सीमित होते गये। चार-पाँच भाई-बहनों के पालन-पोषण ने आर्थिक स्थिति को और चरमरा दिया। ऐसे में पालन-पोषण एवं देख-रेख में ही ज्यादा ध्यान होता था। बच्चों की पढ़ाई पर उतना ध्यान नहीं था।

एक बार कमल अपने मामा के घर गया। वहाँ पर शिक्षक उसके ममेरे भाईयों को पढ़ा रहे थे। वहीं से उसके अन्दर पढ़ने की इच्छा जाग गयी। दो-चार महीने रहने के बाद बहुत कुछ सीख गया था वो। पर जब अपने घर आया फिर वही शरारत। एक दिन बड़े भाई ने गुस्से में दो-चार छड़ी लगा दी तभी से पढ़ाई पर ज्यादा ध्यान लगाने लगा। विद्यालय के शिक्षक भी ध्यान देने लगे। जैसे-जैसे बड़ा हो रहा था वैसे-वैसे ज्ञानबोध होते जा रहा था। कभी-कभी तो ऐसा होता कि बगल से बारात गुजर जाती पर वो पढ़ने में लगा रहता। लोग कहते- देखों उसको बारात देखने की ललक भी नहीं अपने काम में लगा है। धीरे-धीरे मध्यविद्यालय से उच्च विद्यालय तक बढ़ता चला गया। उसकी पढ़ने की ललक जारी रही। घर के लोग गृहस्थ कार्य में लगने कहते पर उसका मन नहीं करता। समय बीतता गया। अब वह मैट्रिक पास कर चुका था। अच्छे अंक आये थे अतः वह अपने राज्य के नामी कॉलेज में पढ़ना चाहता था। पर कुछ अंकों से पीछे रह गया। अंत में दूसरे कॉलेज में आर्ट्स की पढ़ाई करने लगा।

यहॉं तक पहुँचने में बहुत संघर्ष किया थो वो, बचपन में छोटी-छोटी ख्वाहिशों के लिए तरसा था वो, हॉस्टल में रहने के लिए अपना विषय भी बदला था वो, जाने क्या-क्या पापड़ बेला था वो तब जाकर हॉस्टल में रहने को मिला। आर्थिक तंगी रहते हुए भी जैसे-तैसे करके पिता पैसा भेजते ताकि बच्चा पढ़ जाए, घर की आर्थिक स्थिति सुधर जाए। कभी-कभी कमल को देखने आते तो कुछ खाने का सामान लाते। एक बार लौटते समय बीस रूपया दिया कि कुछ खा लेना बेटा। कमल ने कहा ठीक है पिताजी। पर जब वो चले गए उसने सामने किताब की दुकान से किताब खरीद लिया। ये थी उसके पढ़ने की ललक। इन्टर करने के बाद उसे लगा कि एक अच्छे विश्वविद्यालय में पढ़ना अच्छा होगा, पर साधन कहाँ से आयेगा। उसने अपनी इच्छा पिताजी के सामने रखी। परिवार के लोग इसका विरोध करने लगे कि इतना खर्चा उठाना घर की आर्थिक स्थिति के विरूद्ध है। कोई छोटी नौकरी ढूँढ लो। पर उसका ख्वाब तो आई.ए.एस. बनने का था। अंत में उसके पिताजी ने निर्णय लिया कि कुछ जमीन बेच दूँगा पर इसे पढ़ाऊँगा जरूर। और कमल चल चुका एक सपना लेकर महानगर की ओर। सिर्फ 400 रूपए घर से लेकर निकला था। हिन्दी माध्यम से पढ़ने के बावजूद उसने अंग्रेजी माध्यम को चुना था। उसने पी.जी. हॉस्टल में रहकर दिल्ली विश्वविद्यालय से ग्रेजुएशन और मास्टर्स किया साथ ही यू.पी.एस.सी. की तैयारी भी। तीन-चार बार यू.पी.एस.सी. की परीक्षा में बैठा पर फाइनल की परीक्षा में सफलता हासिल न कर सका। ऐसे में वो हताश तो हुआ ही उसके पिता जी भी कर्ज में डूब गए। घरवाले ताना मारने लगे कि ये अब कुछ नहीं कर सकता और सहयोग से साफ इनकार कर गए।

ऐसी स्थिति में कमल को पार्ट टाइम कुछ ट्यूशन पढ़ाकर जीवन-यापन करनी पड़ी। इधर घर में दो बहने सयानी थीं। एक की किसी तरह शादी हो गई थी। दूसरी की शादी दहेज के कमी के कारण अनचाहे वर से कर दी गई जो बिलकुल योग्य नहीं था। हर तरफ परेशानी ही परेशानी, पर कमल परिश्रम से कभी नहीं हारा। अंतिम बार यू.पी.एस.सी. के परिणाम नकारात्मक आने पर उसकी हिम्मत टूट गई। काफी अवसाद में चला गया। एक दिन जान-पहचान के डॉक्टर ने समझाया कि जिन बच्चों का सपना पूरा नहीं होता क्या वो जीना छोड़ देते हैं। ईश्वर की मर्जी कुछ और होगी, सकारात्मक सोंच रखों और आगे बढ़ो। एक साथी ने सुझाव दिया कि लॉ कर लो, कुछ नहीं तो वकालत करोगे। तब कमल उसकी बात मानकर लॉ में एडमिशन ले लिया। तब तक घर की हालत जर्जर हो चुकी थी। उनके पिता जी जमीन इजारे पर रख कर पैसा भेजते थे। जमीन भी बहुत ज्यादा नहीं थी बेच दिया जाए। पर किसी तरह कर्ज लेकर वो वकालत की पढ़ाई में मदद करते रहे। उस समय उनके बड़े भाई भी कुछ मदद करने लगे। ऐसे में कमल किसी तरह लॉ की डिग्री हासिल कर लिया। वह चाहता था कि अब वकालत कर स्थिति अच्छी करूँ तभी उसके जीवन में भूचाल आ गया। उसकी छोटी बहन की मौत दहेज संबंधी कारणों से हो गई। वह भीतर तक टूट गया। यह शादी उसकी मर्जी के खिलाफ हुई थी। उसने ठान लिया कि दहेज लोलुपों को सजा दिलाकर रहेगा। विपरीत परिस्थिति में अपने घर पहूंचा। अपने जिला में बार कॉंउसिल में रजिस्टेशन कराया और अपनी बहन का केस खुद लड़ने लगा। पिता को छोड़ कोई भी परिवार का सदस्य साथ देने नहीं आया। पर उसने दरिंदों को सजा दिलाकर ही माना। उसके जान पर भी खतरा मंडराता रहा क्योंकि अपोजिट पार्टी पैसावाला था।

यहीं से उसके जीवन में टर्निंग प्वाइंट आता है। उसकी चर्चा एक तेज वकील के रूप में होती है। नजदीक के लोग उसको शादी करने की सलाह देते हैं। पर वो सोचता है कि मैं कुछ कर नही पा रहा ऐसे में परिवार कैसे चलाउँगा। पर उसकी उम्र भी हो गई थी अतः उसके पिताजी भी चाहते थे उसकी शादी हो जाए क्योंकि बेटी के गम से वो टूट चुके थे। शादी संपन्न कर निश्चिंत होना चाहते थे। इस दौरान कमल की शादी की बात-चीत चलती है और विभा नाम की एक लड़की से शादी तय हो जाती है। विभा कद-काठी से सामान्य पर पढ़ी-लिखी थी। पी.जी. करने के बाद नेट की तैयारी कर रही थी। दोनों परिवारों के वैचारिक सहमति से शादी संपन्न हो जाती है। अब कमल की जिम्मेदारी और बढ़ गई। पहले तो रूममेट के साथ कम खर्चे में किसी तरह काम चला लेता था पर अब कैसे होगा सब। यही सब सोचते हुए कुछ दिन गाँव में रहा और फिर पत्नी के साथ महानगर चल दिया। दोस्तों तथा शादी में मिले पैसे से एक रूम सेट का कमरा उसने किराया पर लिया और नयी जिंदगी की शुरूआत की। वह रोज किसी-न-किसी सीनीयर के यहॉं साक्षात्कार देता कि अच्छा काम मिले तो दोनों सहजतापूर्वक रह सके। पर सफलता हाथ नहीं लगती। घर से लाया हुआ राशन धीरे-धीरे खत्म होने के कगार पर था। उसने अपनी पत्नी विभा को भी बी.एड. की किताबें लेकर दिया कि वो तैयारी करे। वक्त गुजरता गया, किसी के यहाँ काम नहीं मिला।

अंत में उसने अपने दोस्त से उधार पैसे लेकर पम्पलेट बनवाया ताकि बच्चों को ट्यूशन दिया जाए। दोनों पति-पत्नी अपने विषय को पढ़ायेंगे तो काम चल जायेगा। दोनों चार बजे बस स्टैंड जाकर अखबार में अपना पम्पलेट चिपकाते। छः बजे तक घर आकर इंतजार करते कि कोई कॉल आये पर निराशा हाथ लगती। स्थिति ऐसी थी कि कभी गैस होता तो राशन नहीं और राशन होता तो गैस नहीं। शादी के बाद पहली बार विभा को ऐसी स्थिति देखनी पड़ी जिसकी वो अभ्यस्त न थी। उसे शिवपूजन सहाय की कहानी ‘कहानी की प्लॉट’ की वो पंक्ति याद आ जाती- ‘‘अमीरी की कब्र पर पनपी हुई गरीबी बड़ी जहरीली होती है।’’

इसी बीच एक सीनियर का कॉल आया कि मेरे अंडर वकालत करें। 2200 रूपए पर महीने मिलेंगे। कमल तैयार हो गया, कोई विकल्प भी नहीं था। वह तन-मन से अपना कार्य करने लगा। पर तीन-चार महीने के अन्दर ही दोनों में अनबन हो गई और फिर वही स्थिति। इधर विभा भी प्रेगनेन्ट हो गई थी। अतः वह घरेलू कार्य ठीक से नही कर पा रही थी। अब जिम्मेवारी और बढ़ गई। जो कुछ कोर्ट से मिलता उतने में गुजारा नहीं हो पाता। उसने सोचा क्यों न पत्नी को मायके भेज दिया जाये उसकी देखभाल अच्छी होगी और उसे अधिक कार्य करने का मौका भी मिला जायेगा। अतः उसने पत्नी विभा को मायके पहुँचा दिया। वह जरूर मायके में थी पर उसके भीतर चिन्ता खाये रहती पता नहीं पति को काम मिला या नहीं कैसे रह रहा होगा ?

कुछ दिन बाद उसे कमल ने बताया कि एक सीनियर के अंडर काम मिल गया है अब वह न्यायिक सेवा की तैयारी भी करेगा और अपना खर्च भी वहन कर लेगा तब उसे राहत महसूस हुई। पर शादी के बाद पिता पर बोझ बनना उसे सही नहीं लग रहा था। धीरे-धीरे वक्त निकलता गया, नौ महीने के बाद विभा को एक बेटा पैदा हुआ। जन्म के वक्त भी कमल आर्थिक कठिनाइयों के कारण बेटे के पास नहीं पहुँच सका। सारा खर्च, देखभाल माता-पिता ने वहन किया। अब जन्म के बाद बच्चा भी नौ महीने का हो चला था। अगल-बगल के लोग हँसी-मजाक में कह देते – कब तक मायके की रोटी तोड़ेगी। विभा अन्दर से लोगों का इरादा भाँप जाती। अंत में मजबूर होकर उसने कमल से कहा कि दिल्ली वापस ले चलो। हम दोनों मिलकर वहीं कुछ काम कर लेंगे। कमल के माता-पिता को हमेशा चिंता रहती कि कितना कष्ट झेलकर बच्चे को पढ़ाये फिर भी नौकरी नहीं लगी। सास-ससुर भी चिंतित रहते। बाकी लोगों को कोई मतलब नहीं था। कभी-कभी बच्चा बीमार पढ़ता तो उसके ससुर जो मदद करते, पर वो पर्याप्त नहीं होता। पत्नी और बच्चे की वजह से खर्च और बढ़ गया था।

अंत में कमल ने निश्चय कि अब चाहे जो हो मैं अपना प्रैक्टिस करूँगा। और उसी से आगे बढूँगा। केस की तलाश में जिला कोर्ट से सुप्रीम कोर्ट तक लगा रहता। अंत में एक दो केस मिला जिससे गुजारा होने लगा। और साथ ही साथ जुडिसयरी की तैयारी भी। बच्चे की वजह से व्यावधान पड़ता तो लाइब्रेरी में जाकर पढ़ता। लाइट चली जाती तो महानगर में भी किरासन तेल मंगवाकर लैंप और लालटेन से पढ़ता। यही जुनून उसे हमेशा आगे की ओर प्रोत्साहित करता। इतनी कठिनाइयों में भी पत्नी को बी.एड़. की तैयारी के लिए पढ़ाता ताकि दोनों में से एक कोई सेटल हो जाएँ तो जिन्दगी आसान हो जायेगी। उसकी पत्नी भी तमाम कष्टों के बावजूद पढ़ाई करती। ऐसे में वह बी.एड. का इंट्रेन्स पास कर गई। पर एडमिशन के लिए पैसे नहीं थे। पिताजी एवं रिश्तेदारों से मॉंग कर उसने पत्नी का एडमिशन करवाया। दोनों की जिन्दगी भाग-दौड़ की हो गई थी। कमल कोर्ट जाता, पत्नी कॉलेज और बच्चा स्कूल, सब कुछ मैनेज करना बड़ा मुश्किल होता। कभी बहन, कभी सास और कभी भांजी को लाकर बच्चे की देखभाल होती। ऊपर से भाईयों का ताना- पिताजी के पढ़ाने से नौकरी न हुई तो क्या अब बीबी टीचर बनकर ख़र्चा चलायेगी। पर बिना इसके परवाह के दोनों अपने-अपने काम में लगे रहते। बच्चा भी अपने स्कूल में ठीक-ठाक कर रहा था। जैसे-तैसे विभा बी.एड. का कोर्स पूरा कर ली। अब रिजल्ट की बारी थी। इधर कमल भी न्यायिक सेवा की परीक्षा दे रहा था, कई जगह पी टी का परीक्षा पास कर चुका था। तब तक विभा के जिला में शिक्षक की भर्ती का नोटिफिकेशन आ गया था। इधर रिजल्ट भी निकल गया था। उसने आवेदन कर दिया।

इसके एक साल पहले ही पिताजी की मृत्यु हो गयी थी। इस साल माता जी भी गुजर गईं कमल बिल्कुल अकेला हो गया।ऊपर से मुसीबतों का झंझावात उसे झकझोर देता। बड़ा कठिन दौर था वो। ईश्वर माने स्वयं परीक्षा ले रहा हो। पर कहते हैं न कुछ करने के लिए तपना पड़ता है तभी सोने की तरह व्यक्ति निखरता है। कमल और विभा भी समय की भट्ठी में तप रहे थे। इसी बीच विभा का चयन उच्च विद्यालय में शिक्षक के रूप में हो गया। दोनों खुश थे पर समस्या थी कि न बच्चे को छोड़ सकते थे न साथ गॉंव में ले जा सकते थे। पॉंच वर्ष के बच्चे को छोड़ना इतना आसान न था। अंत में मां ने कुछ साथ दिया कुछ कमल की बहन ने तब जाकर विभा विद्यालय में योगदान दे सकी और पढ़ाने लगी। सिर्फ 7000 रूपए मिलते थे उसको। उसी में अपना खर्च निकालकर कमल को वह सहयोग करती। इससे कमल का हौसला बढ़ा और निश्चिन्त होकर वह तैयारी करने लगा। अब कई जगह मजिस्ट्रेट के पी.टी. में आ चुका था। किसी-किसी का मेन्स भी दे चुका था। इसी बीच उसके अपने राज्य से ए.डी.जे. का विज्ञापन निकला। उसकी पत्नी ने देखा और आवेदन करने के लिए कहा। उसकी इच्छा नहीं थी क्योंकि सीट कम था पर विभा के कहने पर आवेदन कर दिया। अगले महीने उसकी परीक्षा थी। तैयारी पहले से थी ही, उसने परीक्षा दी। एक महीने बाद उसका रिजल्ट आया। वह तीसरे स्थान पर था। दो-तीन महीने बाद उसका साक्षात्कार हुआ। साक्षात्कार में वह चौथे स्थान पर आया। कमल और विभा के लिए यह पल अद्भूत था। उसके जीवन में जो निराशा और दुःख के बादल थे वह छँट गये थे।

अब कमल एक न्यायाधीश के रूप में कार्य कर रहा था। उसकी आकांक्षा अभी भी आकाश छूने की थी। कुछ ही दिनों में प्रमोशन होते-होते वह जिला जज बन गया। पर अपना कर्म वह सौ प्रतिशत करता। उसकी ईमानदारी और कार्य करने की शैली ने पहचान दी। और आज जब वह उच्च-न्यायालय के न्यायमूर्ति के पद पर शपथ ले रहा था तो पूरे जीवन का दृश्य उसके सामने उभर आया। ये पल उसके लिए अविस्मरणीय था। वह उसी पल में खोया था तभी बॉड़ी गार्ड ने सलाम किया – ‘जय हिन्द सर! सर्किट हाउस चलना है।’ उसकी तंद्रा टूटी। उसने कहा – हॉं, और आगे बढ़कर गाड़ी में बैठ गया।

डॉ विनीता कुमारी

पटना, भारत

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