जात न पूछो साधू की….
वातावरण की गंभीरता को अपने अंदर समेटते हुए मंत्र गूंज रहा था…
न जायते म्रियते वा कदाचित्
नायं भूत्वा भविता वा न भूयः।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो
न हन्यते हन्यमाने शरीरे॥
गंगा जब यह मंत्र पढ़कर नानाजी की तेरहवीं के कर्मकांड करवा रही थी, तब मुझे लगा कि अब नानाजी फोटो के बाहर आकर श्लोक का अर्थ हमें समझायेंगे “आत्मा कभी जन्म नहीं लेती, न ही मरती है। यह नित्य, शाश्वत और अविनाशी है।” नानाजी संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे और सभी प्रकार के पूजापाठ और कर्मकांड के ज्ञाता थे। दूर-दूर से लोग उनसे सलाह लेने आया करते थे। हमारा गाँव गंगा किनारे बसा था। पिताजी की मृत्यु के बाद मैं माँ के साथ नानाजी के यहाँ रहता था। जवान बेटी के विधवा होकर घर लौटने के दुःख को नानी सहन नहीं कर पाई थी और घर-द्वार और मुझसे आठ साल बड़े मामा को माँ के हाथों में सौंपकर भगवान् के पास चली गई थी। जामाता और नानी की असामयिक मौत से नानाजी संसार से विरक्त हो गए थे और अधिक से अधिक समय गंगा किनारे के हमारे पुरखों के संगमेश्वर महादेव के प्राचीन मंदिर में व्यतीत करने लगे थे।
मैं विद्यालय से आने के बाद नानाजी के पास मंदिर में जाकर बैठ जाता था। मैं सात साल का था, मुझे याद है उस शाम गंगा का प्रवाह तेज हो गया था, तेज हवाएं लहरों को आसमान से मिलाने की साजिशें कर रही थी। उधर आसमान काले-काले मेघों से भर गया था। घनघोर बरसात होने के पुरे आसार थे। ऐसे में मंदिर के पास के गंगा घाट पर इक्का-दुक्का लोग ही थे। तभी जोर से बिजली कड़की और एक नवजात शिशु के रोने की आवाज उस के साथ सुर मिलाकर गूंज उठी। मैं घाट की तरफ भागा तो देखा एक मल्लाह अपनी दोनों बाँहों में एक पोटली लेकर मंदिर की तरफ आ रहा था। उसने ही नानाजी को बताया कि एक लड़की यह पोटली घाट पर छोड़कर गंगा की लहरों में समा गई।
मल्लाह ने उस ठण्ड से कांपती, भूखी और बेबस बच्ची को नानाजी के चरणों में रख दिया। तब तक गाँव के लोग जमा हो गए थे। उस मैले से कपड़े को देखकर वह गाँव के बाहर रुके हुए खानाबदोश परिवार से होगी यह अन्दाज़ लगाना गांव वालों के लिए कठिन नहीं था। भीड़ से फुसफुसाकर किसी ने कहा, “ये तो अशुभ है, नरक का द्वार!”, एक स्त्री आवाज़ आई, “हाय देय्या यह ज़रूर किसी के पाप की निशानी होगी।” तब शोभा काकी बोल पड़ी, “राम राम, इसीलिए गंगा ने भी इसे किनारे पर ला पटका होगा।”
नानाजी ने बच्ची को करुणा भरी दृष्टी से देखा। उनके मन में इतने दिनों से धधक रही दुखों की ज्वाला पर मानों स्वयं महादेव ने गंगा की एक बून्द छिटका दी थी। उन्होंने बच्ची को बिना कुछ कहे उठा लिया। लोग टोकते ही रह गए “पंडित जी! इसे हाथ मत लगाइये, ये तो पाप का गोला है…अछूत है… अनाथ है!”
नानाजी ने गंभीर स्वर में कहा, ‘जो गंगा किनारे मिली है, वह अपवित्र कैसे हो सकती है? ये तो गंगा की बेटी है।” इसका नाम गंगा है। माँ ने गंगा को सगी बेटी की तरह पाला। गांववालों ने गंगा का हमारे घर में रहना तो स्वीकार कर लिया था, पर उन्हें गंगा के मंदिर में प्रवेश पर सख्त एतराज़ था। इस तरह पांच साल बीत गए, मामा जी मेडिकल की पढाई करने के लिए लखनऊ चले गए थे, मैं भी बारह वर्ष का हो गया था, पर मेरी रूचि संस्कृत में न होकर कामर्स और सीए बनने में थी। इस प्रकार हम दोनों ने ही नानाजी की पुरोहिताई की वंश परम्परा चलते रहने के स्वप्न को तोड़ दिया था।
उधर छोटी गंगा भी यह समझ गई थी कि उसे हमारे घर और दिल में जगह तो मिल गई थी, पर गाँव वाले उसे नहीं जाने देंगे, तो वह मंदिर के बाहर तक ही जाती मंदिर में रहते हुए उसे शास्त्र पढ़ने की आज़ादी नहीं थी—वह अछूत मानी जाती थी, और मंदिर के गर्भगृह में प्रवेश वर्जित था। उसे केवल सफाई करने की अनुमति थी। पर गंगा ने इस दायित्व को भी पूजा का एक रूप मानकर अपनाया। वह तुलसी चौरा, दीप स्तम्भ और मंदिर की चौखट तक को ऐसे धोती, जैसे भगवान वहीं विराजमान हों। गांव की औरतें उसे तिरस्कार से देखती थीं, पर वो उनकी आंखों में दर्द नहीं, केवल अज्ञानता देखती थी। कोई बच्चा उससे बात कर ले, तो घर में डांट पड़ती। ऐसे में गंगा अकेली रह गई, पर वो तन्हा नहीं थी। उसका दोस्त था गंगाजल, उसका साथी था शिवलिंग, और उसकी माँ थी यही धरती, जिसने उसे जन्म नहीं दिया, पर अपना लिया।
जब वह थोड़ी बड़ी हुई तो माँ के कामों में हाथ बटाने लगी। गंगा का बचपन एक ऐसी धुँधली सुबह की तरह था, जिसमें उजाले की उम्मीद तो थी, पर दिशा नहीं। उसे न माँ की गोद मिली, न पिता की उंगली थामने का सुख। जीवन की शुरुआत ही गंगा नदी के किनारे रोते हुए हुई थी, जब एक मल्लाह ने उसे मंदिर के पास घाट से उठाकर नानाजी के चरणों में रख दिया। लोग उसे “नरक का द्वार” और “पाप की संतान” कहते, पर गंगा की आँखों में न किसी के लिए नफरत थी, न कोई शिकायत। गांव वालों की उपेक्षा, अपमान और अछूत जैसा व्यवहार उसके जीवन का हिस्सा बन गया था। फिर भी गंगा हमेशा मुस्कुराती थी। वो छोटी-छोटी बातों में खुशियाँ ढूंढ लेती थी—जैसे मंदिर में घंटियों की आवाज़, गंगा नदी की लहरों से आती शांति, या नानाजी के वेदाभ्यास के बीच गूंजते मंत्र। मंदिर परिसर की झाड़ू लगाकर रोज गंगाजल से धुलाई करती। जब नानाजी मंत्र और श्लोकों का पाठ करते, तो गंगा दूर बैठकर उन्हें ध्यान से सुनती। गंगा बचपन से ही असाधारण जिज्ञासु थी। जब नानाजी मंत्रोच्चारण करते, वह दूर खड़ी हो सुनती रहती। वह समझ नहीं पाती थी, पर शब्दों की गूंज उसे किसी पुराने जन्म की तरह अपने भीतर उतरती लगती थी। धीरे-धीरे उसने नानाजी के श्लोक रटने शुरू किए। किसी ने उसे संस्कृत नहीं सिखाई, लेकिन उसके उच्चारण इतने शुद्ध थे कि सुनने वाले दंग रह जाते। गंगा विलक्षण प्रतिभाशाली थी, उसकी स्मरणशक्ति अद्भुत थी। उसे अधिकतर श्लोक और मन्त्र कंठस्थ हो गए थे। एक दिन नानाजी ने उसे “शिव पंचाक्षरी स्तोत्रम्” का शुद्ध उच्चारण और भाव से पाठ करते सुना तो दंग रह गए। उन्होंने उसी दिन से गंगा को संस्कृत, पुराण, शुद्ध उच्चारण और पूजा की विधियां पढ़ाना शुरू किया। इस तरह गंगा ने कभी भी मंदिर के गर्भगृह में प्रवेश नहीं किया पर नहीं जा सकती थी, लेकिन वह जान गई थी कि पूजा का मूल भाव आस्था और सेवा है।
गंगा अपने हाथों से मिट्टी का शिवलिंग बनाती और रोज उसे फूल चढ़ाती, उसे जल अर्पित करती। उसकी पूजा में कोई विधि नहीं थी, बस भक्ति थी। वह घंटों ध्यानमग्न रह सकती थी। यह सात-आठ साल की बच्ची उस उम्र में मंदिर के कोने में बैठकर ऐसी तल्लीनता से पूजा करती थी कि कई बार ब्राह्मण भी देख स्तब्ध रह जाते।
उसके अंदर कोई क्रांति नहीं थी, कोई विद्रोह नहीं। गंगा की सबसे बड़ी शक्ति थी उसकी सहनशीलता और उसके भीतर पल रहा एक स्वप्न—एक दिन उसे भी भगवान के करीब जाने का अधिकार मिलेगा, बिना जाति, लिंग या जन्म की बाधा के।और शायद यही उसकी सच्ची शुरुआत थी—गंगा, जो किसी ने छोड़ा था, अब खुद को पाने की यात्रा पर निकल पड़ी थी।
अब तक कुछ गांव वाले उसके प्रति सहृदय हो गए थे। नानाजी ने गंगा को राष्ट्रीय मुक्त विद्यालयी शिक्षा संस्थान से दसवीं की परीक्षा पास करवा दी थी। तब तक मामाजी भी ने एमबीबीएस करने के बाद न्यूरोलॉजी में एमडी करके चेन्नई के एक बड़े अस्पताल में नौकरी पकड़ ली थी। मैं स्नातक की उपाधि प्राप्त करके सीए की तैयारी करने के लिए दिल्ली चला गया था।
जब गंगा बीस वर्ष की हुई, तब नानाजी को दिल का दौरा पड़ा। उनकी हालत देखकर मामा जी ने उनसे चेन्नई चलने की जिद करना शुरू कर दिया। उसी दौरान गाँव के ही एक युवक शिवमोहन जो सेना में सिपाही था, ने उसके साथ विवाह करने के लिए रिश्ता भिजवाया। माँ ने इस विवाह के लिए हाँ कर दिया और गंगा का विवाह शिवमोहन के साथ हो गया और वह उसके साथ जोधपुर चली गई। तब मामा नानाजी और माँ को अपने साथ चेन्नई ले गए। शुरू में गंगा की चिट्ठियां आती, पर उसके बाद चिट्ठियां आना कम हो गई। मामाजी की भी शादी हो गई और मुझे दुबई में एक नौकरी मिल गई। उधर नानाजी काफी कमजोर हो गए थे, उनकी उम्र भी नब्बे वर्ष की हो गई थी। मुझे भी दुबई आकर १० वर्ष हो गए थे और एक साल पहले ही मेरा विवाह नीलिमा के साथ हो गया था। एक दिन मैं नीलिमा के मामा जी के घर गया तो वहां गंगा को देखकर चौंक गया। गंगा मुझे देखकर भैयाजी कहकर पहले तो आकर मुझसे लिपट गयी फिर सकुचा कर दूर खड़ी हो गई। गंगा की आँखों से अश्रु नहीं रुक रहे थे। उसके सुने माथे और गले को देखकर मैं दिल ही दिल में दहल गया। फिर उसने मुझे अपनी करुण कहानी बताना शुरू किया। उसके शिव मोहन के साथ दस साल काफी अच्छी तरह से गुजरे। शिवमोहन गंगा को बहुत प्यार करता था। गंगा को एक बेटा हुआ। शिवमोहन की एक रात जब देश की सीमा पर गस्त दे रहा था, उसने पांच आतंकवादियों की हमारे देश में घुसने की कोशिश को नाकाम कर दिया, उसने उन पांचों को मार दिया पर खुद भी बुरी तरह से घायल हो गया और कुछ दिनों बाद सेना के अस्पताल में स्वर्ग सिधार गया। तब तक गंगा की बूढ़ी सास भी गंगा के साथ जोधपुर में रहने आ गई थी। शिवमोहन की बड़ी इच्छा थी कि उसका बेटा भी सेना में जाए, इसलिए गंगा नौकरी के लिए प्रयत्न करने लगी। वह सिर्फ बारहवीं पास थी, इसलिए उसे कोई ढंग की नौकरी मिल नहीं पा रही थी। तभी उसे एक एजेंट मिला जिसने उसे कहा कि वह उसे दुबई में संस्कृत की शिक्षिका की नौकरी दिलवा देगा। गंगा ने अपने बेटे को सास के पास छोड़कर दुबई आने का फैसला कर लिया। उसने तो उस एजेंट को पांच लाख रुपये भी दिए थे। पर दुबई आने के बाद उसे पता लगा कि उसे किसी विद्यालय में शिक्षिका नहीं बल्कि एक घर में सेविका (मेड) का कार्य मिल रहा है। यह धोखा खाकर गंगा टूट गयी, पर उसके नीलिमा के मामाजी काफी अच्छे थे उन्होंने उसे नौकरानी नहीं अपने घर के सदस्य जैसे रखा। गंगा वैसे भी बहुत ही सहनशील थी, उसने परिस्थिति से समझौता कर लिया।
तब मैंने उसे कहा “गंगा मैं पुणे की एक संस्था जिसका नाम “श्रद्धा प्रबोधिनी संस्कार संस्था”, जो महिलाओं को पुरोहित बनने का प्रशिक्षण देती है उसे जानता हूं।” मेरी बात सुनकर गंगा चौंक गई और कहा “महिलाओं को? लेकिन पुरोहित का कार्य तो सदियों से पुरुषों, वो भी ब्राह्मण पुरुषों का क्षेत्र माना जाता है…”। मैंने गंगा का ढांढस बंधाते हुए कहा “बस यही तो तोड़ना है! यही तो बदलाव लाना है। तुमने जो संस्कृत सीखी है, वेदों का जो ज्ञान है तुम्हारे पास, वो व्यर्थ क्यों जाए? तुम्हें वहाँ जाना चाहिए।” गंगा तब भी हिचक रही थी और कहने लगी “पर समाज क्या कहेगा? एक ‘अनाथ अछूत लड़की पुरोहिताई करने जाएगी? मंदिरों में तो मुझे प्रवेश तक नहीं करने दिया गया था…”.
तब मैंने बड़ी ही दृढ़ता से कहा पहली बात तो नानाजी की शिक्षा से मैंने एक बात सीखी है कि आस्था की कोई जाति नहीं होती। और दुबई में हमें बिना किसी भेदभाव के हर उचित कार्य करने की स्वतंत्रता है, और हाँ अगले ही महीने मामा जी भी नानाजी, माँ, मामी जी और बच्चों के साथ दुबई एक अस्पताल में नौकरी करने आ रहे है। उनके लिए मैंने इसी कम्युनिटी में अगली पट्टी में एक विला किराये पर लिया है। अब तुम नानाजी और माँ से रोज मिल सकती हो।” यह सुनकर गंगा बहुत प्रसन्न हो गई और उसने कहा कि मैं पंडित जी और माँ की सेवा का यह अवसर अपने हाथ से नहीं जाने दूंगी। साथ ही मैं उस हर लड़की के लिए यह राह खोलूंगी, जिसे परंपराओं ने बंद किया था। मैं सीखूंगी, हर श्लोक को समझूंगी। जब सब लोग चेन्नई से दुबई आये तो गंगा माँ के गले लगकर खूब रोई और फिर नानाजी के चरणों में सर रखकर उसे अश्रुसिक्त कर दिया। उस दिन से गंगा ने दोनों घरों की जिम्मेदारी अपने सर पर ले ली। नानाजी की गंगा एक कुशल परिचारिका की तरह सेवा करने लगी थी। साथ ही पुणे की संस्था से पूजापाठ करने का ऑनलाइन प्रशिक्षण भी लेने लग गई थी। गंगा का मन हर्ष से भर गया, पर रास्ता आसान नहीं था। प्रवेश के लिए गंगा को संस्कृत, वेद, उपनिषद, और कर्मकांडों की बुनियादी परीक्षा देनी थी। उसने दिन-रात एक कर दिए। मंदिर में सीखी गई ध्वनि, मंत्रों की स्मृति और नानाजी की वर्षों की संगति अब उसके काम आ रही थी। वह पूरे समर्पण से अभ्यास करती—संस्कृत में शुद्ध उच्चारण, विधियों का क्रम, और शास्त्रार्थ का अभ्यास।
गंगा के जीवन की सबसे कठिन यात्रा केवल समाजिक तिरस्कार से लड़ना नहीं थी, बल्कि उस ज्ञान को प्राप्त करना था, जो परंपरागत रूप से केवल पुरुषों के लिए आरक्षित था—पुरोहिताई।
प्रशिक्षण संस्था में शुरुआती दिनों में उसे कुछ विरोध भी झेलना पड़ा। कुछ प्रशिक्षकों और छात्राओं को यह स्वीकारना कठिन था कि एक “अनाथ”, “अछूत” कही जाने वाली लड़की, उनके साथ समान मंच पर बैठे। लेकिन गंगा की ज्ञान की प्यास, विनम्र स्वभाव और तेजस्विता ने सभी का मन जीत लिया।
छह माह के कठिन प्रशिक्षण के बाद जब पुरोहिताई की परीक्षा हुई, तो गंगा ने न केवल उसे उत्तीर्ण किया, बल्कि पूरे बैच में प्रथम स्थान प्राप्त किया। वह ‘शास्त्री’ की उपाधि से सम्मानित हुई। जब उसे प्रमाणपत्र मिला, तो उसकी आँखों में आँसू थे—वो आँसू किसी दुःख के नहीं, स्वीकृति और सम्मान के थे।
अब गंगा केवल गंगा नहीं रही थी। वह बनी थी एक नारी पुरोहित—जो परंपरा को तोड़े बिना उसे नया रूप देने चली थी।
गंगा के लिए पुरोहिताई की परीक्षा पास करना एक उपलब्धि थी, लेकिन असली संघर्ष तब शुरू हुआ जब उसने अपने ज्ञान और योग्यता के आधार पर पूजा-पाठ का कार्य करना प्रारंभ किया। समाज, जो वर्षों से पुरोहित का अर्थ केवल ब्राह्मण पुरुष मानता आया था, उसके इस कदम को स्वीकार करने को तैयार नहीं था।जब गंगा ने दुबई में एक भारतीय परिवार के यहाँ बच्चे के नामकरण संस्कार में पूजा की तो वहाँ उपस्थित कुछ वरिष्ठों ने कहा, “औरत होकर मंत्र बोल रही है? ये तो परंपरा के खिलाफ है!” कई लोगों ने सवाल उठाया कि क्या स्त्रियाँ शुद्ध होती हैं? क्या वे यज्ञ करा सकती हैं? क्या वे वेद मंत्र पढ़ने योग्य हैं?
कुछ तो गंगा के अतीत को लेकर भी तंज कसते—”एक अनाथ, अछूत लड़की अब पुरोहित बन गई? समाज का क्या होगा?” सोशल मीडिया पर भी उस पर टिप्पणियाँ की गईं। आयोजकों ने आखिरी क्षणों में उसे हटा दिया। कई बार लोगों ने उसकी पूजा को “अवैध” तक कहा।
लेकिन गंगा ने कभी झुककर जवाब नहीं दिया। वह अपने कार्य की पवित्रता में विश्वास रखती रही। उसने बिना विरोध के, बिना क्रोध के, सिर्फ अपने कर्म और विद्या से जवाब दिया। धीरे-धीरे, उसके कार्य में निष्ठा और मंत्रों की शुद्धता ने लोगों की सोच बदल दी। अब वह सिर्फ एक महिला पुरोहित नहीं, बल्कि समाज में परिवर्तन की प्रतीक बन गई थी।
जब दो साल बाद मैंने अपना नया घर दुबई में खरीदा तो मैंने गृह प्रवेश की पूजा गंगा से ही करवाई थी। व्हीलचेयर पर बैठे नानाजी की आँखों से अश्रुधार बह निकली थी जब गंगा ने पूजा करते हुए पाठ किया था
ॐ भूर्भुवः स्वः…
इदं नममः…
गृह प्रवेश की पूजा में सम्मिलित मेरे एक मित्र की माँ ने गंगा से कहा तुम पहली महिला पुरोहित हो, जिसे मैंने पूजा करते देखा है । तुम्हारी मंत्रध्वनि में एक सच्चापन है। तब गंगा ने मुस्कराकर कहा था “शक्ति तो हर स्त्री में होती है… बस समाज ने उसे संस्कार से दूर रखा। अब मुझ जैसी स्त्रियां नानाजी की कृपा से उसे वापस ला रहे हैं।”उसकी यह बात सुनकर नानाजी ने कहा था “बेटी, तुम मेरी सबसे बड़ी पूजा हो। मैं तुम्हें मंदिर के अंदर भले न ला सका, पर तुम्हारे भीतर जो ज्योति है, वही शिव की आराधना है।”
गंगा ने धीरे-धीरे दुबई की भारतीय समुदाय में एक सम्मानित महिला पुरोहित का स्थान बना लिया। उसके आत्मबल, ज्ञान और सेवा की भावना ने समाज की सोच को बदल दिया।
इसके कुछ दिनों बाद नानाजी का स्वर्गवास हो गया और उन्होंने माँ से कहा था कि मेरी मृत्यु के पश्चात सभी कर्मकांड गंगा से ही करवाए जाए। मैं जानता हूँ कि आज नानाजी की आत्मा संतुष्ट होकर स्वर्ग लोक की और प्रस्थान कर रही होगी और जाते-जाते हम सबको और विशेष रूप से गंगा को अपने आशीष दे रहे होंगे। आज गंगा अब सिर्फ एक अनाथ नहीं, बल्कि परंपराओं को तोड़कर एक नई राह गढ़ने वाली स्त्री है – सच्ची अर्थों में गंगा की बेटी।
डॉ. नितीन उपाध्ये,
दुबई
बहुत ही अच्छी और सारगर्भित रचना है. ज्यादा शब्दो का झमेला नही है. पढ़ने मे thril याने गति का अहसास होता हैं. कथ्य को सरल भाषा मे लेखक नें बेहतर प्रयत्न किये हैं.
बदलाव को दर्शाती सुंदर रचना !
बहुत सुंदर रचना है । एक सकारात्मक सोच के साथ गंगा तट से दुबई का सफ़र भावनात्मक है । बधाई नितिन जी ।
अरुण तिवारी, दुबई
बहुत अच्छी कहानी है सारगर्भित है
बहुत ही अद्भुत, भावपूर्ण वर्णन, निसंदेह शब्द नहीं मिल पा रहे इस सृजन की व्याख्या करने को।
बहुत सुन्दर प्रस्तुति है शब्दो का चयन दिल को छूने वाला है।