हँसी बेगम बेलिया
ज़िद में ही मौसम ने
हवाओं को छू लिया
हरे-हरे पातों में
हँसी बेगम बेलिया
सड़कों पर चिड़ियाएँ
पेड़ से नहीं उतरीं
खाली पाँवों चलती
धूप भी नहीं ठहरी
साथ रहती समय के
नहीं कुछ भी किया
चाँदनी में भींगी
पानी नाली नदियाँ
रिश्ता ही बनाती है
ये आती जो सदियाँ
अब सूखे खेतों ने
न जाने क्या कह दिया
थी पेड़ की जड़ों में
खिड़कियों के घरों की
पानी भरे कुँओं में
महक में मंजरों की
मिल गई वह हवा है
देखना जो क्या किया।
–डॉ शान्ति सुमन
नवगीत की प्रथम कवयित्री, वरिष्ठ साहित्यकार एवं पूर्व प्रोफेसर, हिन्दी विभाग
एम.डी.डी.एम.कॉलेज
मुजफ्फरपुर