छठ सिखाता है – डूबना अन्त नहीं है

छठ सिखाता है – डूबना अन्त नहीं है

छठ पूजा को महापर्व के नाम से अलंकृत किया जाता है। इसकी उपासना से आत्मिक उत्कर्ष के साथ परिवार के सुख सौभाग्य में वृद्धि होती है।कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष के षष्ठी को मनाया जाने वाला महनीय पर्व है।सूर्योपासना के यह अनुपम लोकपर्व मुख्य रूप से बिहार में अत्यन्त श्रद्धापूर्वक मनाने का चलन है।इसी राज्य से प्रचलित यह त्योहार भारत के प्रायः हरेक राज्य में हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है।कार्तिक मास में मनाया जानेवाला यह पर्व चार दिनों तक उल्लास पूर्वक मनाया जाता है।जिस तरह माता पार्वती ने कठोर तप करके शिव को प्राप्त किया था , उसी तरह चार दिनों तक व्रतधारी कठिन तपस्या के द्वारा अपने परिवार की सुख समृद्धि की कामना करते है।यह पर्व एकता का पाठ पढ़ाता है।

शक्ति व उर्जा के साक्षात् प्रतीक सूर्य की आराधना का यह पर्व वर्ष में दो बार मनाया जाता है।चैत्र में मनाया जाने वाला ” चैती छठ” एवं कार्तिक में मनया जानेवाला ”शारदीय छठ ” कहलाता है।इस पर्व को सभी आयु के लोग मनाते हैं।नर-नारी इसे एक सदृश मनाते हैं।यह लोक आस्था का पर्व है।इस पर्व की विशेषता यह है कि उगते सूरज ही नहीं , डूबते हुए सूरज को भी उतनी ही श्रद्धा के साथ पूजा जाता है।सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है ,चढ़ते और उतरते सूर्य के प्रति समान भाव अर्थात जीवन की समानुपातिक समग्रता।एकनिष्ठ जीवन की विराटता के आवाहन।सूरज तो सूरज है चाहे कुछ अन्तराल के लिए डूब ही क्यों न जाये।डूबने के बाद उगने की शाश्वत सत्यता को देखकर यह ज्ञान देने का प्रयत्न करता है कि “डूबना अन्त नहीं है”। डूबना और उगना निरंतर चलने वाली अंतहीन प्रक्रिया है।इससे सामाजिक सन्देश मिलता है कि डूबते हुए का निरादर नहीं करना चाहिए , उसे भी उतनी ही सम्मान मिलनी चाहिए जितनी उगते हुए को।जल में खड़े रहकर सूर्य को अर्घ्य देने से जल की पवित्रता अंतर्मन में उतरती है । गुढ रहस्य यह भी हो सकता है कि किसी की दयनीय स्थिति को देख उसको कमतर नहीं सझना चाहिए ,यदि आज कमजोर है तो कल वह शक्तिशाली भी हो सकता है । ‘छठी मैया’ का यह सन्देश हो मानव के लिये।

छठ पूजा के सम्बन्ध में विविध कहानियाँ प्रचलित है।एक लोक कथा इस प्रकार है। एक संयुक्त परिवार में एक दिन सास अपनी बहू को गन्ने के खेत पर रखवाली के लिए भेजते हुए आज्ञा देती हुए कहती है कि ‘आज छठ पूजा है और इस अवसर पर लोग गन्ना(ईख) मांगने आएंगे, लेकिन तुम किसी को मत देना।’ पर बहू कुछ अलग और उदार स्वभाव की थी और जो भी उससे ईख मांगने आता था,सभी को ईख दे दिया करती थी ।उसकी उदारता को देख कर ‘ छठी मैया ‘ अति प्रसन्न हो उसे आभूषण से लाद कर पुरष्कृत किया।जब सास ने यह सब देखा तो बहू पर लांछन लगाने लगी। बहू ने सत्यता बयान करते हुए कहा कि यह सब ‘छठ मैया’ की कृपा से उसे प्राप्त हुआ है।सास भी खेत पर गई और सोचा कि मैया उसे भी अलंकार देगी। वहाँ जो भी ईख मांगने आता उसे वह डंडे से मारकर भगा देती।जिससे ‘छठी मैया’ क्रोधित हो उसे चर्मरोग से ग्रसित कर दिया।भोली बधू की आराधना करने पर ‘मैया’ ने उसकी सास को रोग मुक्त कर दिया।तात्पर्य यह कि निश्छल मन से उदारता पूर्वक किया जाने वाला इस पर्व की शुभ प्रतिक्रियाओं से सारा समाज धन्य हो जाता है।

ऐतिहासिक कथा के अनुसार जब पाण्डव जुए में अपना राज-पाट हार गए तब द्रौपदी ने यह पवित्र व्रत रखा जिससे उनकी मनोकामना पूर्ण हुई और पुनः पांडवों को अपना राज-पाट मिल गया।मार्कण्डेय पुराण के अनुसार ‘प्रकृति देवी छह भागों में विभाजित हैं।छठा अंश सर्वश्रेष्ठ मातृदेवी ब्रह्मा की मानस पुत्री हैं , छठ में इन्हीं की पूजा की जाती है।यह महा-पर्व अमीरी-गरीबी के भेद को मिटाकर हमें समानता का पाठ पढ़ाता है।इस त्योहार की विशेषता है कि जनता स्वयं सामूहिक रूप से व्रतधारियों के गुजरने वाले मार्गों का प्रबंधन, तालाब या नदी के तट पर अर्घ्यदान की उचित व्यवस्था करती है।

आज इस पर्व को मनाने वाले लोग हिंदुस्तान के हर राज्य में बसते हैं।कोई ऐसा राज्य नहीं है जहाँ इस पर्व को नहीं मनाया जाता है। भारत ही नहीं विदेश में भी अनेक स्थलों पर बसे भारतीय इस पर्व को श्रद्धा और आस्था से मनाते हैं।धीरे धीरे यह पर्व प्रवासी भारतियों के संग संग सम्पूर्ण संसार में प्रसिद्ध हो गया।यह त्योहार परिवार में सुख ,समृद्धि और मनवांछित फल प्रदान करने वाला माना जाता है।प्रचलित मान्यता है कि ‘ छठी माता ‘ भास्कर की बहन हैं ,इसलिये सूर्य को अर्घ्य देते हैं।समाज के हर वर्ग को एक जुट रहने के सन्देश देता हुआ एक विशिष्ट तथा महनीय पर्व है।

रजनी दुर्गेश
हरिद्वार

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