राष्ट्र निर्माण में चित्रगुप्त-समाज का योगदान

राष्ट्र निर्माण में चित्रगुप्त-समाज का योगदान

भगवान श्री चित्रगुप्त जी महाराज कायस्थों के पूर्व पुरुष एवं कुल देवता हैं।(स्कंदपुराण) वह स्वर्ग में धर्मराज के दरबार के महालेखा अधिकारी हैं और प्राणियों के धर्माधर्म कार्यों का लेखा-जोखा रखते हैं। वे मेधा के अधिष्ठाता देवता हैं। उन्हें धर्मराजपुरी का न्यायाधीश कहा जाता है। वह धर्म को जानने वाले, कार्य में प्रवीण गणना में निपुण, लेखन कला में कुशल तथा सिद्धहस्त हैं और वेदज्ञ तथा शास्त्रज्ञ हैं। श्री चित्रगुप्त जी महाराज का प्रादुर्भाव दावात और कलम के साथ दर्शाया गया है, इसलिए स्पष्ट है कि श्री चित्रगुप्त जी महाराज की उत्पत्ति कथा लेखन कला की स्थापना शायद एक साथी हुई होगी। श्री चित्रगुप्त जी महाराज एक पूर्ण पुरुष हैं। वह पहले व्यक्ति हैं, जिन्होंने वर्ण व्यवस्था का विरोध किया।उन्होंने वर्णों में बैठे हुए मनुष्यों को एकता प्रदान कर जीवनदान दिया और सबके सामने संसार के पूर्ण स्वरूप को रखकर भेदभाव को मिटाया। उनकी उत्पत्ति ब्रह्मा भगवान की काया से हुई है, इसीलिए उनसे उत्पन्न उनके वंशज कायस्थ के नाम से जाने जाते हैं।ब्रह्मा रूपी काया किसी एक अंग का प्रतिनिधि न होकर संपूर्ण विश्व की आत्मा है और श्री चित्रगुप्त जी महाराज एकता के द्योतक हैं। सबसे पहले उन्होंने विभिन्न प्रवृत्तियों का समन्वय किया और उसे एकता के रूप में पिरोया… तत्पश्चात उन्होंने उस समय के समाज में व्याप्त अन्याय- व्यवस्था तथा अज्ञानता को दूर कर न्याय व आस्था सुदृढ़ की। श्री चित्रगुप्त जी महाराज की उत्पत्ति का वर्णन “यम संहिता”, “पद्मपुराण”, “ब्रह्मपुराण”, “मार्कंडेय पुराण”, “स्कंदपुराण”, “शिवपुराण”, “भविष्य पुराण”, “अग्नि पुराण”,”वराह पुराण”, “अगस्त्य मुनि संवाद” आदि धर्म- ग्रंथों में बताया गया है।उनके वंशज कायस्थ का अर्थ है, काया स्थित परम तत्व आत्मा का ज्ञानी। वस्तुतः, काया एवं आत्मा के संबंध-ज्ञान का ज्ञाता ही कायस्थ है।कायस्थ वह व्यक्ति-समुदाय है, जिसका आधार नैतिकता है और वह न्याय एवं प्रशासन का मूल अंग है। यह एक विशाल समाज है, जिसकी सीमा भले ही बारह वंशानुक्रमों में गिनी जाती हो, परंतु, यह बुद्धिजीवी, विचारवान,कर्तव्यपरायण परंपरा एवं एकता के सूत्र में राष्ट्रीय धारा के प्रति समर्पित समाज है।राष्ट्र की एकता एवं अखंडता की रक्षा में अपना सर्वस्व उत्सर्ग कर भारत को एक बलशाली,गौरवशाली, शक्तिशाली राष्ट्र का रूप देना ही इस समाज का प्रमुख उद्देश्य है।इस समाज के पूज्य, श्री चित्रगुप्त जी महाराज का प्रादुर्भाव दावात और कलम के साथ दर्शाया गया है।

इससे यह प्रतीत होता है कि हमारी भारतीय संस्कृति में वेद,जो पहले श्रुत रूप में थे,चित्रगुप्त महाराज द्वारा लेखन-कला के प्रचलन के बाद ही लिखित शास्त्र रूप में आए होंगे,जो हमारी संस्कृति की नींव डालने की दिशा में एक बहुत बड़ी उपलब्धि मानी जानी चाहिए। राष्ट्र निर्माण के हर क्षेत्र में चाहे वह धार्मिक हो, साहित्यिक और वैज्ञानिक हो, प्रशासनिक और राजनीतिक हो, शैक्षणिक या पत्रकारिता हो, चिकित्सा,खेलकूद या कला हो– हर तरफ इस वर्ग का अत्यधिक योगदान रहा है। स्वामी विवेकानंद नरेंद्रनाथ दत्त) का नाम इस संबंध में अग्रणी है, जिनके आदर्श राष्ट्र निर्माण और राष्ट्र विकास के प्रेरणा स्तंभ हैं। डाक्टर राजेंद्र प्रसाद भारत के प्रथम राष्ट्रपति ही नहीं थे, भारतीय संविधान निर्माण के भी महत्वपूर्ण कड़ी रहे थे।नेताजी सुभाष चंद्र बोस की ओजपूर्ण उक्ति,”तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूँगा”, जहाँ स्वतंत्रता संग्राम में लोगों के अंदर आजादी की तरंग पैदा करती है, वहीं लाल बहादुर शास्त्री जी का स्वाभिमानी नारा- “जय जवान,जय किसान” राष्ट्र को सुरक्षा और कृषि के मामले में आत्मनिर्भर बनने की प्रेरणा देता है। लोकनायक जयप्रकाश नारायण का आंदोलन एक तरफ लोगों का लोकतंत्र पर विश्वास पक्का करता है,वहीं दूसरी तरफ जगदीश चंद्र बसु( विज्ञान),मुंशी प्रेमचंद, महादेवी वर्मा( साहित्य )रघुपति सहाय फिराक(साहित्य)आदि इस समाज के अनेक नाम हैं,जो हर क्षेत्र में राष्ट्र के प्रति अपना योगदान हमेशा से देते रहे हैं और आगे भी देते रहेंगे।राष्ट्र-निर्माण या राष्ट्र-विकास से संबंधित ऐसा कोई क्षेत्र नहीं,जो इस समाज के महत्वपूर्ण योगदान से अछूता हो।स्वामी विवेकानंद ने इस समाज के योगदान के विषय में बताया था,”एक समय था, जब आधे से अधिक भारत पर कायस्थों का शासन था। कश्मीर में दुर्लभ वर्धन कायस्थ वंश,काबुल और पंजाब में जयपाल कायस्थ वंश, गुजरात में बल्लभी कायस्थ राजवंश, दक्षिण में चालुक्य राजवंश, उत्तर भारत में देवपाल गौड़ कायस्थ राजवंश तथा मध्य भारत में सातवाहन और परिहार कायस्थ राजवंश सत्ता में रहे हैं।हम सब उन्हीं राजवंशों की संतानें हैं।हम केवल बाबू बनने के लिए नहीं, अपितु, हिंदुस्तान पर प्रेम, ज्ञान और शौर्य से परिपूर्ण हिंदू संस्कृति की स्थापना के लिए पैदा हुए हैं।”( स्वामी विवेकानंद)
कायस्थों के गौरवशाली अतीत के पन्ने पलटने के पश्चात यह निष्कर्ष निकलता है कि राष्ट्र निर्माण में कायस्थ किसी जाति का प्रतीक नहीं है, वरन्,एक संस्कृति है.. रहन-सहन, आचार-विचार का एक तरीका है, बुद्धिजीवी महापरिवार है, वर्णों से परे राष्ट्र विकास के लिए सतत प्रयासरत एक विधा है,जिसका योगदान राष्ट्र निर्माण में सदा ही सराहनीय रहा है।


अर्चना अनुप्रिया
दिल्ली

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