हिन्दी – राजभाषा या राष्ट्रभाषा

हिन्दी – राजभाषा या राष्ट्रभाषा

हिन्दी भारत की आत्मा है। यह हर भारतवासी के अस्तित्व व अस्मिता की पहचान है। भारत के स्वतंत्रता संग्राम में हिन्दी की प्रमुख भूमिका रही है। गांधी जी ने यह महसूस किया था कि हिन्दी के द्वारा ही लोगों को जोड़ा जा सकता है क्योंकि हिन्दी ज्यादातर लोगों के आम बोलचाल की भाषा है। इसलिए अनेक हिन्दीतर भाषी नेताओं ने हिन्दी की लोकप्रियता को आजादी प्राप्त करने का साधन बनाया। गांधी जी के अनुयायी काका कालेलकर, लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक, सरदार पटेल हिन्दी के प्रबल समर्थक थे।
दूसरी ओर, आर्य समाज के प्रवर्तक स्वामी दयानंद सरस्वती ने अपने मूल ग्रंथ – ‘ सत्यार्थ प्रकाश ‘ की रचना हिन्दी में की। गणेश शंकर विद्यार्थी ने अपने मुखपत्र – ‘ प्रताप ‘ में हिन्दी को आजादी की अलख जगाने का हथियार बनाया।
गांधी जी तो हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में प्रतिष्ठित होते देखना चाहते थे। उनके अनुसार एक स्वतंत्र राष्ट्र की भाषा के रूप में ‘ हिन्दी ‘ हर पैमाने पर खरी उतरती है, यह उनका अभिन्न मत था।
भाषा राष्ट्र के एकीकरण हेतु आवश्यक होती है इसलिए आजादी के बाद देश की भाषा के मुद्दे पर संविधान सभा में लंबी चर्चा हुई और अनेक हिन्दीतर भाषी प्रतिनिधियों ने सर्वसम्मति से 14 सितम्बर, 1949 को हिन्दी को सरकारी कामकाज की राजभाषा के रूप में अंगीकार किया और 15 वर्ष की समय – सीमा तय की गई।
यह भी निर्णय हुआ कि तब तक हिन्दी के साथ अंग्रेजी सह राजभाषा के रूप में कार्य का हिस्सा बनी रहेगी ।
यह भी निर्णय हुआ कि तब तक हिन्दी के साथ अंग्रेजी सह राजभाषा के रूप में कार्य का हिस्सा बनी रहेगी ।
एक तरह से, ऐसा करके हिन्दी को दोयम दर्जा देने का ही काम किया गया । इस निर्णय को अमलीजामा पहनाने के लिए राजभाषा अधिनियम, 1963 की धारा 3 के उपबंध (3) के तहत सरकारी कार्यालय में प्रयुक्त चौदह प्रकार के प्रलेखों को हिन्दी और अंग्रेजी में साथ – साथ जारी करना आवश्यक हो गया । यह स्थिति आज भी कायम है।
चूंकि कर्मचारियों में औपनिवेशिक काल की गुलामी मानसिकता का ही प्रभाव है कि हम अंग्रेजी के बगैर एक कदम भी आगे नहीं बढा सकते हैं । इसलिए आदतन सारा कामकाज अंग्रेजी में चलता रहा । फलस्वरूप हिन्दी अनुवाद की भाषा बनकर रह गई है।
जबकि हिन्दी हमारी भाषा है, यह सरल व वैज्ञानिक दृष्टि से कामकाज के लिए अधिक उपयुक्त है परंतु प्रयोग के अभाव में, इसका समुचित विकास नहीं हो पा रहा है। इस कमी को हिन्दी में मूल पत्राचार द्वारा ही पूरा किया जा सकता है।
यह दिगर बात है कि अब हिन्दी में कामकाज होने लगा है परंतु लोगों में स्वभाषा के प्रति प्रेम- निष्ठा व समर्पण का अभाव है इसलिए आजादी के 75 वर्ष बाद भी हम से अंग्रेजी का मोह नहीं छूट रहा है। यही मानसिकता ही राष्ट्रभाषा के मार्ग की सबसे बडी बाधा है।
जब तक हम हिन्दी की बहुल शब्द – संपदा, वैज्ञानिक शब्द – संग्रह व तकनीकी क्षमता का अधिकतम दोहन नहीं करते हैं तब तक इस लक्ष्य को हासिल करना संभव नहीं है।
यहां इस भ्रम को दूर करना जरूरी है कि हिन्दी देश की राजभाषा है या राष्ट्रभाषा ?और सत्य यह है कि हिन्दी देश की राजभाषा है , न कि राष्ट्रभाषा।
मराठी के प्रसिद्ध लेखक भालचंद्र नेमाडे , जो मूलतः अंग्रेजी के अध्यापक रहे हैं , ने कहा था कि ‘ प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा का माध्यम मातृभाषा ही होना चाहिए। हमें मातृभाषाओं का समर्थन और अंग्रेजी का विरोध भावना में बहकर नहीं करना है बल्कि शुद्ध वैज्ञानिक आधार पर करना है। वे कहते हैं कि जिसे सीखना है, वह अंग्रेजी सीखे लेकिन उस भाषा में शिक्षा क्यों दी जाए ? उसे हमें जूती की तरह इस्तेमाल करना चाहिए कि जब बाहर जाएं तो पहन लें ।’अतः जब तक हिन्दी को लोक शासन – प्रशासन व जनमानस में स्वीकार्यता नहीं मिलती है तब तक हिन्दी का राष्ट्रभाषा का सफर मंजिल तक नहीं पहुंच पाएगा।

गजानन पाण्डेय
हैदराबाद ,भारत

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