कैक्टस

कैक्टस

दस दिन के दुधमुँहे मुन्ना को गोदी में लिए, देहरी पर खड़ी संचिता, कुछ अधिक खीझ और कम भय के साथ सामने बैठक में दीवान पर लेटे सचिन को देख रही थी। उसकी सास मनियादेवी अभी-अभी पैर पटकती इसी देहरी से बाहर निकली हैं। उनके स्वर का ताप संचिता के समूचे तन से लिपटा उसे झुलसा रहा है।

“बिल्लू ,अब हम तुमाए घर क़दम रखें तो तुम हमारा मरे का मौं देखो। चलो भैरों।” अपना थैला ड्राइवर को पकड़ाते हुए बोलीं। स्वर सदा की भांति दर्पयुक्त।

सचिन ‘मम्मी सुनो तो! सुनो तो!’ कहता पीछे दौड़ा था पर वह नहीं रुकीं। भैरों सिंह असमंजस में खड़ा रहा फिर मनियादेवी की आज्ञा के समक्ष नतमस्तक होता दौड़ गया। सामान डिक्की में रखा और सचिन की ओर देख मानो पूछा ‘छोड़ आऊँ न?’
सचिन ने कुछ न कहा भीतर चला आया और ‘हाय मम्मी! हमारी मम्मी!’ कहते सीने पर हाथ रख दीवान पर पड़ गया। कार आगे बढ़ गई । इस पूरी घटना में मानो एक सदी निकल गई और संचिता जस की तस वहीं देहरी पर खड़ी रही। सब कुछ इतना अप्रत्याशित था कि वह संज्ञाशून्य हो गई। कुछ कहते-करते न बना। माँ के लिए अनुराग की इस पराकाष्ठा पर उसे खीझ अवश्य हो रही थी। इस नन्हीं जान को नौ माह पेट में रखे मानो हर दिन में नौ बार संचिता मृत्यु के मुँह में जाते-जाते बचती। कितनी ही बार ईश्वर से स्वयं के लिए मृत्यु माँगी और शिशु का सोच ग्लानि से भर गई। उसे देख सचिन का कभी मन नहीं पसीजा। कभी सिर पर हाथ तक नहीं फेरा। घर ही कब रुका? रोज़ कॉलेज और कॉलेज के बाद कंस्ट्रक्शन साइट। आज पूर्णतः तंदुरुस्त माँ अपना अहम ओढ़े घर से गई और यह जनाब चादर ओढ़ लगे हाय-हाय करने। इस बार सचिन दर्द से दोहरा होता चिल्लाया, “हाय मम्मी!” तो संचिता के भी हाथ पैर काँप गए।
” क्या सच में दर्द है?”
प्रश्न से स्पष्ट था कि वह अभी तक इसे महज एक ड्रामा मान रही थी किंतु ड्रामे की बढ़ती अवधि और विलाप ने उसे सच में चिंतित कर दिया था। सचिन कुछ न बोला। संचिता भागकर भीतर गई। बच्चे को पलंग पर लिटा, फ़ोन तलाशने लगी। बच्चा शायद मॉं की तन की गर्मी पा सो गया था। बिस्तर के ठंडे स्पर्श से जाग रोने लगा। उसने हुमक कर वापस गोद में ले लिया। इस वक्त का रोना अपशगुन लग रहा था। मुन्ना को पुचकारते कैंपस के डॉक्टर को फ़ोन मिलाया। वह 58 वर्ष के भले इंसान ठहरे, दौड़े आए। संचिता ने देखा उनका स्कूटर भी उनका हमउम्र है। ओहो यह उसका दिमाग भी न! कहाँ- कहाँ भटक जाता है! क्या यह वक्त है इन बातों को नोट करने का? वह डॉक्टर साहब की अगुवानी करती उन्हें भीतर लेकर आई। सचिन चिल्लाया, “नहीं! नहीं! इसकी कोई जरूरत नहीं।” संचिता की नसें तन गईं। तबसे तो हाथ सीने से एक क्षण न हटा है। ज़रूरत है। बिल्कुल ज़रूरत है। डॉक्टर साहब ने जैल लगाकर लीड लगा दीं। मशीन ने कुछ अस्पष्ट आवाज़े की, जिनका शकुन-अपशकुन पढ़ने की चेष्ठा वह डॉक्टर साहब के चेहरे पर करती रही और फिर सर्र-सर्र की आवाज़ के साथ एक छोटा सा काग़ज़ मशीन ने बाहर धकेल दिया।
“नॉर्मल है।’ डॉक्टर साहब मुस्कराते हुए बोले। बैग से दवाई की स्ट्रिप निकाली। ‘कैंची’ कहते, प्रश्नवाचक दृष्टि से उसकी ओर देखा। “जी, जी, अभी लाई।” वह मुन्ने को लिए भीतर जाने के लिए मुड़ी। दराज़ खोली। कैंची नदारद। समय पर कोई चीज़ मिल भी कैसे सकती है। सचिन ने सुबह शेव की। मूँछे ट्रिम करने के लिए ली होगी। मज़ाल है जो जगह पर वापस रख दे। उसने सभी संभावित ज़गह तलाश लीं। नज़रें झुकाए नेलकटर लिए लौट आई। “इससे कुछ मदद….” झिझकते स्वर में कहते हुए लौटी। डॉक्टर साब एक छोटी-सी कैंची से दो गोली काट कर देते हुए बोले,”एसिडिटी हो गई होगी। यह ले लीजिएगा। ठीक हो जाएँगे। चिंता की कोई बात नहीं है। खाना हल्का दीजिएगा।” फिर उसके हाथ में नेलकटर को लक्षित करते बोले,”मैं इसलिए सब ज़रूरत का सामान साथ ले कर चलता हूँ।”

“जी!” व्यर्थ दौड़ाने की क्या आवश्यकता थी मन में कोसा पर दो फ्रंट पर कौन लड़ें? वापस सचिन पर फोकस किया। अचानक संचिता को भान हुआ कि डॉक्टर साहब के आने के बाद सचिन ने एक बार भी ‘हाय मम्मी’ का विलाप नहीं किया है।अब पलड़ा पुनः अभिनय की ओर झुक गया और मन ही मन संचिता ने सोचा कि यह इंसान उसके प्रेम के योग्य हरगिज़ नहीं है। जाने क्यों इसके साथ देख लोग उसे भागोंवाली कहते हैं। सामने खड़े इस बुज़ुर्ग के प्रति जरूर कृतज्ञता महसूस हुई जो न केवल आज बल्कि पिछले नौ महीनों में कितनी ही बार उसे ड्रिप लगाने के लिए यूँ ही दौड़े आए हैं। वह भी कपड़ों के स्टैंड पर बोतल लटकाने के लिए रस्सी भी साथ लेकर। डॉक्टर साहब ‘चाय’? उसने सकुचाते हुए पूछा। डॉक्टर साहब ने एक खोजती नज़र चारों ओर डाल, किसी अन्य की उपस्थिति को तलाशा और निराश होकर कहा, “नहीं-नहीं पीकर ही निकला था।” और उठ खड़े हुए। वह उन्हें बाहर तक छोड़ने आई।
” तुम से शुक्रिया भी न कहा गया उनका।” संचिता ने लौटकर कड़े स्वर में कहा। स्वर कोमल रखना चाहती थी पर ऊँचा हो गया था। सचिन वैसा ही निश्चल, आँखें मूँदे लेटा रहा, “तुमको मम्मी के जाने का दुख है और यह नहीं सोचते कि यह कैसा बड़प्पन है, कैसी समझदारी है? एक कामवाली के पीछे सद्यप्रसूता बहू और बच्चे को छोड़कर चली गईं।” सचिन जानता था अब ईसीजी नॉरमल आने से संचिता को बोलने से ब्रह्मा भी नहीं रोक सकते । हे भगवान! इस से तो कुछ निकल ही आता! मम्मी के किए की सज़ा उसे दिन भर बातें सुना कर दी जाएगी। दिन भर ही नहीं आजीवन।
” चुप क्यों हो तुम? बोलो! तुम्हारे सामने कृष्णा से बात हुई थी या नहीं सुबह सात बजे की बात हुई थी और आती कितने बजे थी मैडम आठ बजे। पहले ही बता दिया था नौ बजे मुझे ऑफिस जाना होता है। चलो आठ बजे भी मैंने निभाया। बर्तन सफ़ाई हो जाते थे। कपड़े बाहर रखकर जाने लगी कि पीछे धोती रहेगी फिर मैडम ने नौ बजे आना शुरू कर दिया। कुछ कहो तो कहती है, ” ऐन कही थी सात बजे की जिज्जी पर अब नहीं निकल पाते तो का फाँसी दोगी।”
संचिता भी ड्रामा करने में कम नहीं। उफ्फ! क्या ज़रूरी है कि कृष्णा की बात बताते उसके खींच-खींच कर हर शब्द बोलने की नकल भी की जाए। सचिन ने सोचा।
“उसे क्यों फाँसी दूँगी? खुद ही किसी दिन गले में फंदा डाल झूल रही होंऊगी। हर दिन एक पाँव अंदर, एक बाहर रखे, हाथ में ताला पकड़े, जल्दी-जल्दी उल्टी-सीधी सफ़ाई करवाती थी फिर बर्तन भी बाहर रखकर जाने लगी। तुमने तो एक ऊँची स्लैप डलवाने में भी कितने नख़रे दिखाए। चाहे बाहर खुले में रखे बर्तनों को कुत्ता ही क्यों न मुँह मार जाए! छिपकलियों की तो बात ही क्या करनी! वह तो यहाँ फ़र्श पर, अलमारियों में कपड़ों के ऊपर यूँ घूमती हैं जैसे कंपनी बाग में सैर करने आई हों। कितनी बार तुमसे कहा कि मम्मी को बोलो कुछ महीने ही सही हमारे साथ यहाँ रहने पर कम से कम कृष्णा की समस्या ख़त्म हो जाएगी। देरी से भी आए कोई दिक़्क़त नहीं तब। उनसे कुछ कहते श्रवण कुमार की जबान चिपकती है। ऊपर से हरिश्चंद्र की आत्मा भी पार्टनरशिप में है। पूरे कॉलेज के प्रोफेसर चाहे घर बैठे पालक साफ़ करते रहें लेकिन यह महाशय ज़रूर सुबह 8:30 बजे ही चपरासी से भी पहले डिपार्टमेंट पहुँच जाएँगे।” संचिता के गोद में लेटा मुन्ना अवश्य सोच रहा होगा कि काश वह डॉक्टर साहब को वापस बुला पाता। संचिता की बढ़ती हार्टरेट वही तो सबसे करीब से सुन रहा था। कितना होगा ब्लडप्रेशर 180/ 130?
“किसी ने जरा सहयोग किया या केयर की मेरी? पूरे पूरे दिन कुछ खाने को नहीं होता था पास। खाना भी छोड़ो। जी मिचलाए तो कोई पानी देने वाला तक नहीं। उल्टी करो फिर खुद ही साफ़ करो। खुद ही रोओ और खुद ही चुप हो जाओ। मेरी माँ गर्मी की छुट्टियों में न आई होती तो मैं और मुन्ना दोनों ही…” अपशगुन के भय से आगे के शब्द हवा में तैरते रहे और सचिन वैसा ही लेटा रहा जबकि वह यहाँ से दूर भाग जाना चाहता था।
“इस कृष्णा के कारण नौकरी छोड़नी पड़ी मुझे जबकि अगले साल परमानेंट होने के पूरे चांस थे। कभी ग्यारह, कभी बारह बजे आती थी मैडम । शान से कहती थी कि आपको ही जल्दी है बाकी सब तो देर से ही कराती हैं काम। बाकी सब ऑफिस जाती है क्या ?… और तुमसे अपनी मम्मी से बात नहीं की गई। मेरी नौकरी छुड़वाना ज्यादा सुलभ लगा। अब मैडम दो बजे आने लगी। दो बजे झाड़ू लगेगी घर में? यही तो कहा था मैंने कि कृष्णा ग्यारह बजे तक तो आओ। सफ़ाई कर जाओ चाहे बाकी का काम पीछे कर देना। बोली, “जिज्जी, बहूत टोकती हो।ऐसे हम काम न कर पाए।” मैं टोकती हूँ? मैंने कभी झाँक कर भी न देखा कि क्या करती है। इतनी इतनी बातें सुनूँ। मैं क्या बातें सुनने के लिए ही हूँ। तुम्हारी मम्मी की भी सुनूँ। तुम्हारी भी और यहाँ की कामवाली की भी।
मैंने कहा, इस महीने हम घर पर हैं तो करा भी ले रहे हैं। अगले महीने से नौकरी जाएँगे तो दो बजे कैसे कराएँगे? वह हाथ की झाड़ू फेंक कर खड़ी हो गई। बोली, ” अगले महीने क्या अभी हिसाब कर दो।” मैंने कर दिया हिसाब। मुन्ना के होने पर कितना लुटाया उस पर उसका कोई हिसाब है क्या? न मुन्ना के कपड़े धोए, न मेरा कुछ किया। तब भी भर-भर झोले सामान ले गई और तुम्हारी मम्मी बहू के आगे खुद को मसीहा साबित करने को स्वेटर भी दिया शॉल भी और तो और कान के झुमके भी दे दिए मेरे मना करने के बावजूद।” वह साँस लेने के लिए ज़रा ठहरी।

” उनको लगता है कृष्णा के रहने से तुम्हें आराम रहेगा।” पहली बार सचिन ने मुँह खोला। जल्द अहसास हुआ कि गलत कह बैठा।

“अच्छा, एक बात बोलो। मान लिया मैं ही मूर्ख हूँ। मेरी ही गलती थी कि मैंने एक कर्मठ कामवाली को हटा दिया। तब भी उनका क्या फ़र्ज़ था? दूसरी कामवाली तलाशना, उसकी व्यवस्था होने तक यहाँ रहकर मुन्ने को संभालना या बुरी बातें बोलते मोहल्ले भर में तमाशा बनाकर चले जाना। बच्चे के साथ मैं अकेले कैसे सब सम्भालूँगी सोचा क्या उन्होंने?”
” इसलिए तो मम्मी कह रही थीं कि कृष्णा को रखे रहो।”

“तो पैर पकड़ कर रोकूँ क्या उसके? मैंने तो नहीं कहा कि काम छोड़ दो खुद ही तो बोली। तुम्हारी पावन जन्मभूमि के कामचोर नौकरों को निभाने की काबलियत और धैर्य नहीं है मुझमें। एक ड्राइवर है जो केवल चौड़ी सड़क पर गाड़ी चला सकता है वह भी अँधेरे में नहीं। उस पर शहर की अधिकतर गलियाँ संकरी हैं। कुछ कहो तो हर कोई काम छोड़ने को तैयार। इसलिए ब्याह कर लाए थे क्या मुझे?”

“यह सब छोड़ो।अब क्या होगा।यह सोचो।”

“होगा क्या तुम कॉलेज से छुट्टी लोगे। तुम बच्चा संभालना। मैं बर्तन माँजूगी।” अंत तक आते शब्द भीग गए। संचिता की आँखों की तरह। जाने वे विज्ञापन और फिल्में कौन बनाता है जिनमें गर्भवती महिला के चेहरे पर पावन चमक होती है, ख़ुशी होती है और आसपास नाज़-नख़रे उठाता परिवार होता है।
सचिन पैरों में चप्पल डाल बाहर निकल गया। संचिता उसी दीवान पर मुन्ना को सटाए सुबकती रही। जानती थी मुल्ला की दौड़ मस्जिद तक। देवी के मंदिर में ही गया होगा। उसने भी अपने फ़रिश्तों को याद किया और ननद पूजा को फ़ोन मिलाया जो तर्क सचिन को दिए थे वही आँसुओं के साथ इस बार पूजा को भराए स्वर में सुनाए गए। भरा मन था, बहा तो बहता चला गया। पूजा ने क्या समझा क्या नहीं पर हमेशा की तरह आश्वासन देते कहा, “तुम रोओ नहीं! तुम्हें हमारी कसम। तुम्हारी दीदी अभी ज़िंदा है। सचिन कुछ कहे तो हम तुम्हें और मुन्ना को अपने घर लिवा लाएँ। हाँ नहीं तो।” सचिन से अलग रहने की बात सुन सदा संचिता का मुँह सूखने लगता है। कहीं और ही रहना हो तो माँ ही बुला बुला कर थक गई। फिर अपने घर में तो पूजा दीदी कैसे रह रही हैं। उससे छुपा है क्या? कहाँ रखेंगी उसे? उनका सबसे बड़ा दर्द एक पॉश कॉलोनी में घर न ले पाने का है। “दीदी कोई पूरे दिन की कामवाली मिले तो देखना।” वह आँसू पोंछते काम की बात पर आई। दो दिन बाद एक काम वाली पूजा ने भेजी थी जो कैंपस के गेट से उसके घर तक का ढाई किलोमीटर का रास्ता चल, अधमरी हालत में पहुँची।

“भाभी, काम तो हम ऐन कर ले लेकिन चलना बहूत पड़ रहा। हम कौन चल पाहें इतना। गोड़े पीराने लगते।”
“सुच्ची!” भीतर से सचिन ने पुकारा।
संचिता ने सुनकर अनसुना किया। इस बार कुछ तेज स्वर में पुकारा, “सुच्ची!”

“क्या है? सबके सामने सुच्ची सुच्ची!”
” कह दो फ़ोन कर देगी तो भैरों ले आएगा गेट से रोज़।”
“उसको तो हटाने की कह रहे हो न!”
“वो हटने से मना कर रहा है।” सचिन नज़र चुराता बोला।
“मतलब?”
“अब कहाँ जाएगा अपने लिए पहली नौकरी छोड़कर आया था।”
” छोड़कर नहीं आया था। छूट जाने से खाली बैठा था घर पर। तब आया था। ख़ैर आएगा भी तो कितने बजे आएगा? वो खुद 8 बजे की नौकरी पर 12 बजे से पहले नहीं आता।”
“तुम ऑफिस जो नहीं जा रहीं। क्या करे आकर?”
“पूछ लो उससे। कल से आ रहा 8 बजे या नहीं।”
” वो नहीं आएगा तो मैं गेट से ले आऊँगा।”
” चुप करो! बड़े अच्छे लगोगे उसको स्कूटर पर बिठा कर लाते हुए। किसी दिन वह तुम पर ही आरोप लगा देगी। पंकज भैया का केस याद है न!”
“अच्छा हज़ार दो हज़ार ज्यादा दे देना।” कहता हुआ सचिन कॉलेज निकल गया।
संचिता वापस बाहर आई जिस नजर से यह नई कामवाली घर की हर चीज को देख रही थी उसे यह नजर पसंद न थी।
“छोटी बहू तो वही रहती है मम्मी के साथ। तुम काहे नहीं रहती?”
क्योंकि मैं झगड़ालू हूँ, ईर्ष्यालु हूँ,, कामचोर हूँ। यही सुनना चाहती हो न! संचिता की घूरती आँखों ने कहना चाहा। प्रकट में संभलते हुए बोली, “हमें दूर पड़ता है न वहाँ से। हम दोनों का काम यहीं है। तुम्हारे भैया का कॉलेज और मेरा ऑफिस दोनों यहीं हैं और घर भी यहाँ खुला खुला और बड़ा है।”
” हाँ घर तो ऐन बड़ा है। भाभी क्या पूरे घर की रोज़ सफ़ाई करनी होगी?’
संचिता ने आग्नेय नेत्रों से घूरा, “जब तुम चलकर आ ही नहीं पाओगी तो क्या कहूँ? गाड़ी ऑटो कुछ मिलते नहीं यहाँ।”
“फिर भी पैसे कितने दोगी?”

“दीदी ने कितने कहे हैं आपको?”

“तुम्हें ही बताया होगा। हमें तो बोली हमारी भाभी बहूत भली है। मन नहीं दुखाएगी तुम्हारा।”

संचिता ने गहरी साँस ली। भला होना अलग बात है और गेस्ट फैकल्टी की सैलरी में महीने भर रस्सी पर चलना अलग।
“हमें तो दीदी ने पाँच हज़ार बोले हैं।” संचिता कम करके कहना चाहती थी पर सचिन की बात याद कर हज़ार बढ़ाकर ही बोल गई।

“पाँच तो बहूत कम है। दो ऑटो बदल कर आना पड़ता है। दस से कम में तो कुछ न पड़ेगा भाभी। इतनी दूर आएँगे। भाड़ा लगेगा। चार घर हो जाएँगे इतने में।”

बात वह गलत नहीं कह रही थी लेकिन संचिता की नई गृहस्थी थी अभी। सचिन की तनख्वाह इतनी न थी कि दस हज़ार का खर्च कर सके। अब उसकी नौकरी भी तो नहीं रही। परिवार से थोड़ा भी सहयोग मिलता तो… उसका मन भारी होने लगा। सोचती हुई बोली,
“चलो दीदी से बात करके बताएँगे तुम्हें।”
हालाँकि समझ रही थी कि इस से नहीं निभने वाली। दस भी दे देगी तो इससे इतनी दूर आते न बनेगा। कुछ ही दिन में घर बैठ जाएगी।
फ़ोन करके मायूस स्वर में सचिन से बोली, ” इतनी दूर की तो बहूत महँगी पड़ेगी। महीने का पूरा बजट बिगड़ जाएगा। आसपास की ही मेड रखनी होगी। सामने गाँव से जो भी कर्मचारी आते हैं उन्हें बोलो।”

सचिन ने सदा की भाँति कहा,”अरे रख लो। जब कोई और मिले तो बदल लेना।”

संचिता को किसी को रखकर हटाना अच्छा नहीं लगता और दूसरा, वहाँ शहर में इतना काम उपलब्ध होने पर वह इस जंगल में बने कैंपस में काम करने आएगी इस पर भी उसे संदेह था। चार दिन काम करने नहीं आएगी और कैंपस में काम वालियों को बात करने का एक और अवसर मिल जाएगा कि इनके नख़रे कोई काम वाली उठा ही नहीं सकती। सचिन को यह सब कौन समझाए उसने हाँ-हूँ करके फ़ोन रख दिया। दूसरा फ़ोन भैरोंं को मिलाया और उसे भी कैंपस से लगे गाँव से कोई मेड तलाशने के लिए कहा। चार दिन बड़े भारी बीते। अधिकतर समय होटल से खाना मँगाया। घर में एक दिन छोड़कर एक दिन पोछा लगाया। कपड़े यथासंभव मशीन में धो ले तब भी बच्चे के कपड़ों की तो समस्या बनी हुई थी। बच्चा भी इतना शैतान कि गोदी से उतरते ही रो-रो कर आसमान सिर पर उठा लेता। ज्यों सचिन भी कोई अजनबी हो अगर संचिता सामने होती तो सचिन की गोदी में चला जाता लेकिन उसके नज़र से हटते ही रोने लगता। वह कहती बात करो उससे। प्यार करो उसे चुप हो जाएगा उधर सचिन एक शब्द बोलता और बच्चा रोने की तीव्रता बढ़ा देता।

“रहो घर में, प्यार करो उसे; तब न पहचानेगा तुमको।”

“सुनो इसका मुँह लाल हो गया। कुछ हो रहा है इसको।”

“कुछ नहीं हो रहा। रो लेने दो। मैं इसके कपड़ों से गंदगी हटाकर फिर मशीन में ही डाल देती हूँ। बस पाँच मिनिट संभाल लो।”

बच्चे को रोता देख सचिन की हालत अधिक नाज़ुक हो जाती, “मैं कपड़े धो लेता हूँ। तुम इसे चुप करा दो।”
सचिन से तो एक रुमाल भी नहीं धुल सकता पर वह हाथ पोंछ कर खड़ी हो जाती। मुन्ना उसके कंधे से लगा देर तक सुबकता ज्यों शिकायत करता हो कि मुझे किसी अजनबी के हाथ क्यों दे दिया था। जैसे-तैसे मुन्ना सोता तब कपड़े धोती। बार-बार मन में यह विचार ज़रूर आता कि काश अपने शहर में रही होती तो छुट्टी वाले दिन तो माँ का सहयोग मिल जाता। यहाँ तो कहने के लिए पूरा परिवार है मदद के लिए कोई नहीं। माँ भी तो नौकरी से एक छुट्टी नहीं लेती। उन्होंने स्वयं बहूत संघर्ष से अपनी पहचान बनाई है। उनकी माँ पढ़ी-लिखी न थी। बच्चे उनके पास पल गए। मेरे पास तो कोई सहारा नहीं है। वह निराश हो सोचती। पाँचवे दिन सुबह घंटी बजने पर दूधवाले की जगह एक बूढ़ी कामवाली को देख संचिता को कुछ आस बँधी थी। वह पास के ही गाँव से थी और जच्चा-बच्चा की देखभाल करने में माहिर होने का दावा भी कर रही थी। संचिता ने कहा, “वह तो ठीक है अम्मा लेकिन हमें तो घर के काम के लिए चाहिए सफ़ाई ,बर्तन, कपड़ा सब करना होगा।”
” हाँ दिन भर बने रहेंगे तो सब करते रहेंगे।”
“आप कर पाओगी क्या इतना काम?” आश्चर्य से पूछा।
“हाँ क्यों नहीं सब कर लेहैं। हम तो बिलात घर पकड़े थे फिर बहू की तबीयत बिगड़ गई सो अस्पताल में रही पन्द्रह दिना। तब सब काम छूट गए हमारे।”
उसकी उम्र देखते हुए संचिता को संदेह था पर स्वभाव की सही लग रही थी और एक बड़े का साथ मिल रहा था जिसके लिए वह पिछले दिनों तरसती रही है।
फिर भी बोली, “इतना काम करते बनेगा आपसे। छोड़ेंगी तो नहीं फिर।”
” धीरे-धीरे कर लेंगे। कुछ ही दिन की बात है फिर तो बहू आ जाएगी। मायके गई हुई है। तो उसे लिवा लेंगे साथ। मिलकर निपटा देंगे तुम्हारा सब काम जिज्जी। तुम चिंता मत करो।”
आहा इन चार शब्दों को सुनने के लिए उसके कान तरस गए थे। कोई न कहता था कि मैं हूँ तुम चिंता न करो। अम्मा ने अपने मुँह से ही चार हज़ार रुपए माँगे थे। वार त्यौहार अम्मा को खुले हाथ से देने की गुंजाइश बनी रहेगी। खुश रहेगी। संचिता ने मन में सोचा। संचिता का मन तो था आज का काम निपटा जाए अम्मा लेकिन अधीरता दिखाना उचित न लगा बोली,” कब से आओगी?”
अम्मा अगले दिन आने का वादा करके चली गई। अम्मा के आने से संचिता को काफी आराम हो गया था। वह समय से आ जाती। घर के बाकी काम ही नहीं संचिता के हाथ पैर भी दबा देती। वह तो मुन्ना की मालिश करने को भी राज़ी थी लेकिन अम्मा के खुरदुरे हाथों के स्पर्श से ही मुन्ना रोने लगता। इस कारण संचिता उसकी मालिश स्वयं ही करती किंतु इतना सुख अवश्य हुआ कि अम्मा लगातार मुन्ना से बात करती रहती जिस कारण मुन्ना उसे पहचानने लगा था। वह मालिश करके नहला कर, दूध पिला कर, मुन्ना को अम्मा की गोदी में दे देती और अम्मा उसे गोदी में हिला-हिला कर सुला देती। संचिता को लगा कि महीनों बाद वह तसल्ली से नहा पाई है। अम्मा कहती खड़ी-खड़ी पानी न पिया करो। बैठकर खाया-पिया करो, नहीं तो बच्चे को फंदा लग जाता है। अम्मा की बात में कोई तर्क न था। यही बात उसकी सास ने कही होती तो शायद उसे बुरी भी लगती लेकिन इस समय अम्मा का यूँ बच्चे की चिंता करना उसे भाता था। संचिता बच्चे से खेलती बातें करती और चूमती जाती। अम्मा कहती तुम मुँह लगाती हो तभी तो तुम्हारी ख़ुशबू पहचानता है किसी और के हाथ में नहीं जाता। वह हँस पड़ती। मन में सोचती यह कैसे संभव है कि मुन्ना जैसे सुंदर बच्चे को प्यार न किया जाए। कुछ समय मिलता दिखा तो सचिन ने कहा बेहतर होगा कि अब तुम अपनी सिविल सर्विसेज की तैयारी फिर से कर लो। संचिता का मन न था वह जानती थी यह तैयारी बच्चे के संग खेलते नहीं हो सकती और तैयारी का तनाव अलग हो जाएगा फिर भी वह कभी किताब लेकर बैठती तो अहसास होता कि केवल अम्मा ही उसकी असिस्टेंट नहीं है वह भी अम्मा की असिस्टेंट बन चुकी है। अम्मा कपड़े धोने बैठती और आवाज़ देती, “अरे जिज्जी जरा साबुन तो पकड़ा देना।” खाना बनाती तो छोटे कद की अम्मा ऊँचाई पर रखा सामान न उठा पाती। फिर आवाज़ देती, “जिज्जी!” संचिता सामान भी पकड़ाती और उसे नीचे ही रखने की व्यवस्था भी बना देती पर अगले दिन किसी नई चीज़ की ज़रूरत पड़ जाती।

उस दिन मुन्ना रात भर जगा रहा था। न पालने में सोता न गोदी में घुमाने से। रात को सचिन से कहा, “उठो, मुन्ना लगातार रो रहा है। कोई दिक़्क़त होगी। डॉक्टर के पास लेकर चलो।”

“दूध पिला दो। चुप हो जाएगा।” वह करवट बदलता बोला।

हर मर्ज़ का एक यही हल सचिन को सूझता है बस। वह पुनः मुन्ना को सुलाने का प्रयास करने लगी। सब प्रयत्न विफल हुए तो सचिन को पुकारा।

“सुनो, यह नहीं चुप होता। तुम्हारे पास लेटा है। जैसे तुमसे सुलाया जाए सुला लेना। मैं थक गई। दूसरे कमरे में सोने जा रही।” कहते मुन्ने को उसके बराबर लिटा दिया। जाने इस चेतावनी से, जाने अचानक गीले हुए बिस्तर से सचिन अचकचा कर उठ बैठा। मुन्ना और तेज रोने लगा और सामने संचिता हाथ बाँधे खड़ी थी।
“क्यों रो रहा है?” सचिन ने लम्बी उबासी भरते कहा।

“तुम्हीं पूछ लो मुन्ना से। मुझे जवाब नहीं देता।” संचिता ने खीझते हुए कहा।

“क्या करना है?”

“तुम जानो। मैं तो मूर्ख ठहरी। तुम्हारी मम्मी ने…”

“अच्छा-अच्छा! इतनी रात गए मम्मी को रहने दो अब।” सचिन ने लम्बी कहानी को वहीं रोक लेना चाहा, “लंगोट तो बदलो इसका।” आगे बोला।

“सामने अलमारी में बाएँ तरफ गद्दी लगी हैं। दाएँ तरफ लंगोट रखी हैं। नीचे वाले खाने में डायपर रखे हैं।” संचिता दूसरे किनारे पर लेटती हुई बोली।

सचिन ने पुनः उबासी लेते उसके थके चेहरे और आँखों के नीचे बन आए काले घेरों को देखा। उठकर मुन्ना की लंगोट बदलने लगा।

“देख लेना कहीं भीतर बनियान भी भीगी हो।” आँखे बंद किए ही संचिता ने कहा।

वह ठहर गया। हाथ से छू कर देखा। बोला,” हाँ गीली है।”

“तब सारे कपडे बदल देना।” वह रज़ाई मुँह तक ओढ़ती हुई बोली।

“अरे यार।” वह झेंप कर हँस पड़ा, “अच्छा तुम कपडे बदल दो फिर मैं घूमा लूँगा इसे।”
वह चुप रही।
“देखो ठंड खा जाएगा। इतनी देर में।”
वह बेचारगी से उठी। मुन्ना के कपड़े बदल सचिन की गोद में दिया। ज़मीन पर सचिन द्वारा फेंके गए गीले कपड़ों को उठा कोने में रखे ड्रम में डाला।

“तुम कमरे में यह ड्रम रखती हो बदबू रहती है कमरे में।” वह मुन्ना को हिफाज़त से पकड़े हुए बोला।

“न, तुम्हारी तरह पूरे कमरे में हर दिशा में फेंक दिया करूँ पूरे दिन। तब महकेगा फूलों सा कमरा।” वह बाथरूम में हाथ धोती, तेज़ स्वर में बोली।
“लो सो गया है।” संचिता के बाहर आने पर विजयी भाव से सचिन ने कहा।

एक बार को उसका चेहरा पराजित योद्धा-सा म्लान हुआ फिर बाल बाँधती बोली- “अच्छी बात है। अबसे तुम ही सुला लिया करो।” वह बत्ती बुझाकर लेट गई। कमरे में पसरे अंधकार से भयभीत मुन्ना सप्तम स्वर में रोने लगा।
“हल्की रोशनी रखो।” सचिन बुदबुदाया।
“हल्की गाढ़ी सफेद पीली पिछले चार घँटे में मैं हर रोशनी ट्राय कर चुकी। अब तुम अपने टोटके आज़मा कर देख लो।”

वह मुन्ना को गोदी में लेकर बाहर के कमरे में चला आया। करीब आधे घंटे में सारे टोटके फेल होने पर संचिता को जगाया था, “चलो डॉक्टर साहब को दिखा ही आएँ।”

“नहीं चुप हुआ।” संचिता चिंतित होती, पहली ही पुकार में उठ खड़ी हुई। कार के कैंपस से बाहर निकलने से पहले ही मुन्ना आराम से संचिता की गोद में सो गया। सोते में वह तरह-तरह के मुँह बनाता। कभी हँसता, कभी मुस्कराता, कभी सहम जाता, कभी किसी बड़े दार्शनिक- सा चिंतन करता।

“अम्मा कहती है बच्चों को पूर्वजन्म की स्मृतियाँ होती हैं।” संचिता लाड से मुन्ना को निहारते बोली।

“अब चलना है क्या हॉस्पिटल? आराम से सो रहा है।”

“तुमने नोट किया। यह कार में बैठते ही मज़े से सो जाता है।”
“हम्म!”

“घुम्मकड़ है अपने पापा जैसा। घर में मन नहीं लगता इसका।” वह शरारत से बोली।
वह मुस्कराकर , लाड से बेटे को निहारने लगा।
“इत्तु सा है पर है पूरा एटम बम। पूरा घर हिलाकर रख दिया है।”
“और तुम तो उसे गोदी भी ऐसे ही लेते हो जैसे तुम्हारे हाथ में बम टिक टिक टिक कर रहअअआ हो।” वह लम्बी उबासी लेते हँसी।

सचिन कैंपस में ही कार घुमाता रहा। मुन्ना इत्मिनान की नींद सोता रहा और जल्द ही संचिता भी ऊँघने लगी। कैम्पस के अन्य लोगों के विषय में ज्ञात नहीं कि सचिन की कार के पीछे दौड़ते , कैम्प्स के सभी कुत्तों के शोर में उनकी नींद का क्या हश्र हुआ। पर अब यह रोज़ रात का नियम बन गया था। रात भर की जागी संचिता, सचिन के ऑफिस जाने पर पुनः सो जाती। अम्मा की तेज़ चीख सुन उठकर गई तो देखा। अम्मा के हाथ से ख़ून बह रहा है।

“क्या हुआ अम्मा? कैसे कट गया?” वह बिना जवाब सुने फर्स्ट एड बॉक्स उठाने दौड़ी।

“सब्ज़ी काटते हाथ कट गया दराती से।” अम्मा दर्द में करहाती बोली।

अम्मा चाकू से सब्ज़ी नहीं काट पाती थी। संचिता को ही काटनी पड़ती। अम्मा कहती कि उसे दराती से काटने की आदत है। संचिता ने संकटमोचन पूजा दीदी को फ़ोन किया और उन्होने उसी दिन दराती भिजवा दी थी। दराती से सब्ज़ी का तो पता नहीं पर पहले ही दिन अम्मा ने हाथ जरूर काट लिया था। इस बेचारी को क्या दोष मेरी ही किस्मत में ईश्वर सुख लिखना भूल गया। पट्टी करते संचिता ने मन ही मन सोचा।
“तुम बैठो मुन्ना के पास। मैं देख रही रसोई।”

कटी हुई सब्ज़ी डस्टबीन में डाली। स्लेप और रसोई धोकर साफ़ की। उठने बैठने में टाँके अभी दुखते थे। नॉर्मल हो जाता मुन्ना तो कम से कम शरीर ही काम करने लायक बचा रहता। गहरी साँस लेते सोचा।

सब कहते हैं ज़बरदस्ती ऑपरेशन करती हैं यह डॉक्टर। वह चिल्लाने लगी थी बच्चा ख़तरे में है। हार्ट रेट बढ़ रही है। जल्दी बोलो। जल्दी बोलो। सचिन को बुलाने के लिए कहा। वह कहीं नहीं मिला। डॉक्टर दबाव बना रही थी। “जो आपको उचित लगे।” संचिता ने कहा।
मुन्ना तय तिथि से एक महीने पहले ही आने को मचल उठा था। न कोई पास था, न कोई तैयारी। लेबर पेन के बीच ऑपेरशन के काग़ज़ भी उसी ने साइन किये। सचिन कहीं न दिखा। कमरे में शिफ़्ट होने के बाद जब वह नींद से जागी तब वह गोदी में मुन्ना को लेकर ही दिखा फिर।
“देखो कैसे टुकुर टुकुर देख रखा है मुझे।” वह चहकता हुआ बोला।
“तुम कहाँ थे?”
“मम्मी को लेने गया था न।” वह मुन्ना के साथ खेलता हुआ बोला।
संचिता कह न पायी कि उस समय कहाँ होना अधिक ज़रूरी था? मम्मी तो किसी और के साथ भी आ सकती थीं और अपने ही शहर में अकेले भी। पर चुप रह गई।
मन में यह कसक बनी रही कि सम्भवतः नॉर्मल डिलीवरी हो सकती थी।

खाना बनाकर बाहर निकली और डॉक्टर साहब को टिटनेस के इंजेक्शन के लिए फ़ोन किया। “अम्मा लौटते में इंजेक्शन लगवाते हुए जाना।” डिस्पेंसरी का पता समझाते अम्मा से कहा। यह भी समझाया कि अम्मा छुट्टी न लेना। आ जरूर जाना। काम मैं कर लूँगी तुम मुन्ना को संभाल लेना बस। तब भी दिल में धुकधुक लगी रही जब तक अगली सुबह अम्मा का मुँह न देख लिया।

कुछ दिन बाद अम्मा बर्तनों का टोकरा लिए रपट गई थी। ख़ून तो साफ़ किया ही। काँच भी बटोरा। कहीं और नौकरी न भी मिले तो अम्मा उसे डॉक्टर साहब के कम्पाउंडर की जॉब के लिए जल्द दक्ष कर देगी।
“अम्मा तुम कह रही थी बहू को साथ लाया करोगी?” उसने नरमी से कई बार पूछा था। जिसके जवाब में अम्मा अब तक जाने कितनी सच्ची-झूठी कहानियाँ सुना चुकी थी। बहू के कितने ही रिश्तेदार स्वर्ग सिधार गए, उसके मायके वाले बदमाश साबित हो गए, उसे हर प्रकार की बीमारी ने घेर लिया। फिर जबसे बहू पर माता आने लगी, संचिता ने डरकर उसके विषय में पूछना ही छोड़ दिया।

अम्मा के आने के समय तो भैरों न आया होता, जाते पर ज़रूर भैरों से उन्हें कैंपस के दरवाज़े तक छुड़वा देती। भैरोंं को भले ही ऑफिस लाने ले जाने के लिए रखा था पर इस वक्त ऑफिस न जाने पर भी उससे बड़ा सहारा था। यूँ भी इस जंगल में कुछ भी सुलभ न था। छोटी- छोटी चीजें लेने चार किलोमीटर दूर जाना पड़ता। वह कपड़े धोएगा नहीं पर सूखने डाल देगा। बर्तन रैक में जमा देगा। पौधों में पानी दे देगा और सबसे बड़ी बात मुन्ना को उसका साथ खूब भाने लगा है। ठेठ बुंदेली भाषा में वह मुन्ना से जाने क्या-क्या कहता है और मुन्ना हुलक कर किलकारी भरता है। अम्मा को भी भैरों प्रिय है। उसे सामने देखते ही अम्मा के गोड़े पिराने लगते हैं और अपने कई काम अम्मा उससे करा लेती हैं। संचिता को क्या? कोई भी करे। बस मुन्ना रोये न और घर साफ़ रहे। इन दो बातों से ही उसके मन की सब शांति है।

शांति नाज़ुक तबियत होती है यह राज संचिता पर खुलता जा रहा था। आप इधर ख़ुश हुए उधर शांति को नज़र लगी। चार दिन बिना किसी ख़बर अम्मा नहीं आई।
“तुमने कुछ कहा था क्या?” सचिन ने चाय पीते हुए पूछा।

“हाँ, जो सींग कृष्णा को मारे थे। वही अम्मा को भी मार दिए।” संचिता मुन्ने को दूध की बोतल देती बोली।

“बोतल की जगह कटोरी-चम्मच से ही पिला लो। हर डॉक्टर मना करता है बोतल के लिए।”

“और हर डॉक्टर के बच्चे बोतल से दूध पीते हैं। यह सच भी तुम जानते हो।” संचिता का इशारा सचिन की बड़ी बहन की ओर था। उसे चुप पा, संचिता ने आगे कहा, “खाना बाहर से मँगा लेना।”

“खिचड़ी बना लो बस। बाहर के खाने से तुम्हें ही दिक़्क़त होती है।”

“मेरी दिक़्क़त की चिंता तुमको कब से होने लगी?” वह मुन्ना को उसके कंधे से लगाते बोली, “सीधे रखना और हल्के हाथ से पीठ थपकना।”

मुन्ना की मासूम त्वचा से सचिन को कंपकपी होती थी। भय लगता कि कहीं हल्के पकड़े और छूट जाए। सख़्ती से पकड़े और चोट देदे उसे। ऊपर से यह बर्प कराना तो बड़ा मुश्किल काम था। उसे लगता संचिता इन दिनों उसे जानकर सज़ा दे रही है पर वह कुछ भी कहेगा और क्रोध की सुई मम्मी की ओर घूम जाएगी। चुप ही भला।
वह बारी-बारी घड़ी और संचिता को देखने लगा। बैठकर झाडू लगाती संचिता के चेहरे पर दर्द की लहरें खींच आतीं। वह खड़ी हो जाती और फिर किसी कुर्सी मेज़ के नीचे से धूल बुहारने फिर झुक जाती।

“रहने दो न साफ़ तो है घर। हो सकता है कल आ जाए अम्मा।”

“चार दिन तो हो गए। कुछ खबर भी नहीं।”

“मैं भैरों को भेजता हूँ।”

भैरोंं को अम्मा के गाँव खबर लेने भेजा गया। पता चला संचिता ने नहीं गाय ने सींग मार दिए हैं अम्मा को।
“ओहो ज्यादा लगी क्या? फ्रैक्चर…?”
“नहीं ,पैर मोच गया है। गुम चोट हैं। एक दो दिन में बहू को भेजने के लिए कह रही है।”
तसल्ली हुई। जाने अम्मा की कम चोट की जान या अम्मा की जगह बहू के आने की सुन। बीच में दो दिन ज़रूर पहाड़ जैसे खड़े थे। सचिन की तो एक दिन की छुट्टी हज़ारों छात्रों का भविष्य बिगाड़ देगी। उसे भैरोंं के सहारे ही यह पहाड़ पार करना था हालाँकि मुँह मे भरे गुटखे की चपचप की लगातार आवाज उसके सिर में दर्द भी कर देती। वह कहती, “जा भैरों पहले बाहर जाकर कुल्ला करके आ।”

पाँच दिन बाद अम्मा की बहू आने लगी थी। अम्मा का कद भले ही कम था पर धूप में तपा, खेतों में काम किया, पुष्ट तन था। इस उर्मिला की अँगूठी तो सच में कंगना हुई जाती है। इतने दिनों में अम्मा को समझ लिया था क्या कर सकती हैं क्या नहीं। उर्मिला को देखकर तो यूँ लगा कि एक नहीं दो बच्चों की देखभाल अब उसके जिम्मे है। वह बेहद धीमे काम करती लेकिन यह शुक्र था कि जाने की जल्दी नहीं करती थी। फुल्के बेहद पतले और नर्म बनाती। कुछ दिन में मुन्ना भी उससे हिल गया था लेकिन बस इतना कि उसे देखकर डरे नहीं। उसकी गोदी अभी नहीं जाता था। यूँ उर्मिला किसी को भी डराने की क्षमता रखती कब थी! यकीन न होता कि इसी निर्बल काया पर सर्वशक्तिमान माता आती रही है।

अम्मा की तरह न उर्मिला को घाम सताती न उसके गोड़े पीराते। उसकी एकमात्र चिंता उसका टूटा हुआ दाँत था। उसे छुपाने के लिए वह बहुत कम मुँह खोल, धीमा बोलती, हँसने की जगह भी मुस्करा कर रह जाती। ज्यों उसने कहा न होता कि दीदी पैसे जोड़कर यह दाँत लगवाना है तो संचिता का कभी ध्यान न गया होता इस ओर।

वह अपलक उसके चेहरे पर खिले आस के फूल को देखती रह गई थी। एक कामवाली की अपने सौंदर्य के प्रति सजगता, आतुरता आश्चर्य का विषय नहीं क्या? नौकरी लगने पर इसका दाँत लगवा दूँगी। संचिता ने नज़रें झुकाए मटर छीलती उर्मिला को ध्यान से देखते हुए सोचा। सांवला ताम्बई स्निग्ध रंग। तवचा निर्मल थी। आँखे अधिक बड़ी नहीं पर पारदर्शी थीं। कुल मिलाकर तीखे नैन नक्श की यह स्वामिनी किसी भले घर में होती तो अपने स्वामी की प्रिया बनी रहती।

“तुम्हारा पति क्या करता है?” वह पूछ बैठी थी।

“दीदी, बम्बई गए हैं। फिल्मों में काम करना चाहते।”
आज आश्चर्यो का कोई अंत न था।
“अच्छे दिखते न दीदी ये।सब हीरो कहते हैं इन्हें।”
“हम्म… ” संचिता ने उकता कर कहा। अच्छे-अच्छे हीरो के सपने ही नहीं जीवन भी मायानगरी निगल जाती है। अव्वल तो काम मिलना नहीं और जो कुछ बन गया तो उर्मिला के पास उसे लौटना नहीं।
“दीदी, कितने दिन में मिल जाता होगा काम?”
“मौके पर है। क्या कह सकते। उम्र भी निकल सकती और एक रात में ही किस्मत भी बदल सकती।”
अनिश्चिताओं से भरी राह दुर्गम थी। संचिता तो एक सीधी राह पर चलने में विश्वास रखती थी। भले ही मार्ग लम्बा हो, संकरा हो, लुभावने दृश्य न हों पर भटकाता नहीं है।

मुन्ना के करवट बदलने से दिक़्क़तें बढ़ रही थीं अब उसे अकेले एक पल भी छोड़ने पर गिरने का भय रहता। ज़मीन पर लिटाने में साँप-बिच्छू का संशय। भैरोंं की पुकार मचती। मुन्ना भी अधिक से अधिक भैरों के साथ खेलना चाहता। भैरों अधिक से अधिक घर के बाहर रहना चाहता। अब वह शहरी हो चला था। काम छूते अहम आहत होता था। मुन्ना का आँखों से ओझल होना संचिता को शंका से भर देता। यहाँ इस वीराने में बिच्छु, साँप, विषखोपड़ा( मॉनिटर लिज़र्ड) की आबादी चाइना की कुल आबादी से भी अधिक प्रतीत होती। आज सुबह की घटना से तो अभी तक झुरझरी हो रही थी। मुन्ना के होने के बाद से रज़ाई रोज़ धूप में डाल देती थी। सूरज के ताप में इंसान के मन के अतिरिक्त सब शुद्ध करने की शक्ति जो ठहरी।
धूप ढलने पर भैरोंं से कितनी बार कहा रज़ाई भीतर रखने, पर वह कब सुनता है इन दिनों। रज़ाई दस किलो से कम क्या होगी। बनवाई भी कभी उसी ने थी दिल्ली की सर्दी झेलने के लिए। मुन्ना कितने भी हाथ-पैर मारता पर इस से बाहर न आ पाता था। अपनी नाकामयाबी पर रोने भले लगे। सचिन जब शाम को घर लौटा तब उससे शिकायत की भैरोंं की।

“भैरोंं , भाभी की बात सुनते क्यों नहीं हो?” सचिन ने मुलायम शिकायत की। इससे कठोर स्वर में तो वह मुन्ना से कहती है ,”शैतान रात में सोता क्यों नहीं है?”

ख़ैर, रात भर उस रज़ाई में सोने के बाद सुबह जब उसकी तह करने लगी तो एक लम्बी पूँछ लटकती देख चीख पड़ी। उसकी चीख और उपस्थित से भयभीत एक गिरगिट रज़ाई के खोल से बाहर निकल इधर-उधर दौड़ने लगा। इससे बेहतर तो हम ‘खतरों के खिलाड़ी’ में भाग ले लें। कुछ पैसे तो मिलेंगे। कहने को सचिन के पुरखे जमींदार रहे। भाई प्रोपेर्टी डीलर है पर रहने को बारिशों से नहाए और दीमक के खाए इस सरकारी दड़बे के अतिरिक्त कोई ठौर नहीं। कितनी बार सचिन को कहा कि कैंपस के बाहर किराए पर ही ले लो। तब से वह प्रतिदिन अख़बार पढ़ते खबरें सुनाने लगा कि कैसे घर पर अकेली महिला को मारकर, बाँधकर लुटेरे सब ले गए।

मुन्ना घुटनो चलने लगा है। यह घर असुरक्षित है। जगह जगह दीवार से मिट्टी झड़ती है। पलँग पर खड़ा हो कर वह झरती पपड़ी खाता रहता है। दो बार सीमेंट प्लास्टर कराने के बावजूद भी दीवारें पानी की दो बूँद के स्पर्श से ही बह चलती हैं। झरनों का शहर देखा है क्या आपने? संचिता करीबों मित्रों से पूछती। न-न! राँची जाने की कोई जरूरत नहीं। हमारे घर चले आइए। एक चम्मच पानी का छींटा छत पर दे देने से नियाग्रा फॉल कमरे में उतर आता है।

सचिन उस छुईमुई सी संचिता को याद करता जिसे पहली नज़र में दिल दे बैठा था। लव स्टोरी में यह सीता और गीता का ट्विस्ट जाने कहाँ से आ गया।
“बदलती क्यों जा रही हो?” मन की बात जुबाँ पर आ गई थी।
मुन्ने की गद्दियाँ तह करती संचिता के हाथ रुक गए। एकटक सचिन को देखने लगी। कहना चाहा, सूखी बंजर भूमि में पत्तियों का काँटों में परिवर्तित होना कोई आश्चर्य है क्या? भीतर की नमी बचाए रखने का अनुकूलन मात्र ठहरा। सचिन को पुनः अख़बार में खोया देख हौले से बोली, “पहले लगता था बिन कहे मेरा मन समझोगे अब जान गई कि कहने से भी तुम पर असर नहीं होता।” कपड़े अलमारी में रख,संचिता कमरे से बाहर चली गई। जाने क्यों लगा कि सुबकती थी।
कुछ कहने से तिल का ताड़ बनेगा। सचिन ने सोचा। उर्मिला आए तो नाश्ता बने। कॉलेज को देर हो रही थी।
जाकर देखा। मुन्ना को दूध-सूजी खिला रही थी। मुन्ना फुर्र-फुर्र कर सब बाहर निकाल, हँसता था। वह रुआंसी बैठी थी।
“कितना कमज़ोर होता जा रहा है। खाता कुछ नहीं।”
“तुमने जबसे ऊपर का दूध दिया झटक गया यह।”
“तो भूखा रखूँ इसे? संचिता ने अपनी बड़ी आँखों को और बड़ा कर उसके चेहरे पर टिका दिया, ” मेरी बहुत सेवा की थी न तुम लोगों ने जो साल भर दूध उतरेगा। कमर ऐसी दुखती है कि खड़े होते नहीं बनता उस पर पूरे दिन मुन्ना गोद में।”

“कटाई का काम ख़त्म हो तो भैरों को बुलाओ। इतने लोग हैं मम्मी के पास पर हर बार भैरों को ही गाँव भेज देंगी। तुमने ही कहा होगा कि भैरों खाली है। संचिता की तो नौकरी है नहीं।”
“पागल हो क्या। मैं क्यों कहूँगा?”
“ज्यों मैं जानती नहीं तुम्हें। पूरी प्रेगनेंसी ऑफिस के बाद दुकानों की साइट पर जाते थे। मिलने दो पैसे नहीं किसी से, न कोई सहारा मिलता। बस गुलाम बने उनकी ही सेवा करते रहो। एक साफ़ सुथरा घर तक… ”

“अच्छा नाश्ता दे दो। देर हो रही है।”

वह जैसे नींद से जागी,”उर्मिला नहीं आई। क्या समय हुआ?”
“देखो नौ बजने वाले हैं मुझे पाँच मिनिट में निकलना है।”
मुन्ना ने स्थिति की नाज़ुकता समझते हुए तुरन्त पॉटी की और हाथ पैर चलाने लगा। उसे परेशानी में देखना संचिता का आनंद हुआ इन दिनों। वह हँस-हँस कर दोहरी हो रही।
“तुम चाय चढ़ाओ मैं इस शैतान को साफ़ करके आ रही। ”
मरता क्या न करता। जाकर चाय चढ़ाई। टोस्टर बीते साल ही ख़राब हुआ। कितनी दफ़ा सुच्ची कह चुकी नया लाने के लिए। तवा रखा गैस पर। ब्रेड डाली। चाय की पत्ती खोज रहा था तो तवा धुआँ-धुआँ होने लगा। गैस बंद कर तवे से बिना फेविकोल ही चिपक गई ब्रेड पलटते पहली अंगुली जलीं फिर पलटा ढूँढते चाय निकल गई। वह गैस बंद कर बाहर आ गया।
सामने ही संचिता खड़ी थी मुन्ने को लिये। उतरा चेहरा देख बोली, ” क्या हुआ?”
उसके स्वर की चिंता भा रही थी। चाय निकल गई

“ओहो…” संचिता के माथे पर बल पड़ गए।

“…और ब्रेड भी जल गई।”

अब वह हँस रही थी।

“अच्छा लो मुन्ने को देखो। मैं बनाती हूँ।”

“नहीं रहने दो। उर्मिला आ जाये तो भैरों से भेज देना।”
“भैरों आएगा क्या आज?”
“कॉलेज से किसी को भेज मॅंगा लूँगा।” वह तौलिया उठाता बोला।
“दो मिनिट लगेंगे बस।” वह मुन्ना को पकड़ाते हुए बोली। मुन्ना उसके चश्मे और बालों से खेलने लगा। औरतों को भगवान ने जाने कौन सी जादू की छड़ी दी है। संचिता सच ही 2 मिनट में चाय और ब्रेड ले आई। देखना मुन्ना चाय में हाथ न डाल दे लौटते हुए बोली। सचिन की अजीब स्थिति थी मुन्ना को छोड़ता तो वह पलंग से नीचे की ओर भागता। पकड़ता तो चाय नहीं पी पाता। वह चिल्लाया, “अरे मुन्ना को पकड़ो तभी तो मैं खा पाऊँगा।” संचिता ने कहा, “मैं तो इसे गोदी में लिए ही खाती हूँ।” “तुम्हारी तो बात ही अलग है।” स्वर में तंज था लेकिन शुक्र है संचिता ने बहस न करके मुन्ना को संभाल लिया। वह नाश्ता करके जल्दी-जल्दी तैयार हो निकलने लगा जब याद आया कि संचिता ने भी नाश्ता नहीं किया है। एक छोटे से बच्चे ने उनके जीवन में उथल-पुथल मचा दी थी। संचिता मुन्ना को गोद में लिए अपने लिए ब्रेड सेंक रही थी जब सचिन का फ़ोन आया, “तुम्हारी उर्मिला तो रास्ते में पेड़ के नीचे बैठी है।”
“क्यों? क्या हो गया?” वह चिंता से बोली।
” कह रही थी कि जी मिचला रहा है।”
“उसे घर तो छोड़ जाते। मैं कोई दवाई दे देती।”
” तुम ही तो गुस्सा होती हो कि कामवाली को स्कूटर पर बैठाकर घुमाओगे क्या!”
“अरे यह थोड़े ही कहा था कि बीमार हो तब भी नहीं लाना किसी से छुड़वा दो उसे घर, पहले ही तो जान नहीं है उसमें।”
ऑफिस का चपरासी सचिन के स्कूटर से उर्मिला को घर छोड़ गया था। पता चला कि नया मेहमान आने वाला है। संचिता के चेहरे का रंग उड़ गया। ऐसी क्या जल्दी थी मुन्ना को बड़ा ही हो जाने देती। मन में सोचा ईश्वर भी नित नए षड्यंत्र रच रहा है उसके खिलाफ।
“कुछ खाकर निकली थी कि खाली पेट है?” दवाई देते हुए उर्मिला से पूछा।
“दीदी मन मिचलाता है, खाने को नहीं होता। अम्मा ने मखाने भूंज दिए थे वही ले लिए थे।”
“चाय ब्रेड लोगी?” संचिता ने स्नेह से पूछा।
अपने लिए सेंकी दो ब्रेड में से एक ब्रेड और आधा कप चाय उर्मिला को दे दी। मुन्ना जल्द बड़ा हो जाए तो कुछ राहत मिले। आज माँ को फिर याद दिलाऊँगी की विंटर वैकेशन में जरूर आ जाएँ। माँ के पास होने से तसल्ली रहेगी। ब्रेड कुतरती सोचती रही। उर्मिला दवाई खा कर काम में लग गई थी।
“पोंछा वाइपर से लगा दे। कपड़े मशीन में डाल दे रही हूँ।”
कभी उर्मिला ने मुन्ने को पकड़ा, संचिता ने काम किया। कभी संचिता ने उसे संभाला और उर्मिला ने काम किया। “मेरे पास मल्टीविटामिन आयरन सब रखा है। तू ले जाना और नियम से खा भी लेना।”
“हम कौन खा पाते दीदी। गर्मी करती है।”
“खा तो मैं भी नहीं पाती पर खानी चाहिए। शरीर ख़राब हो जाता है मायूसी से बोली।”
दिन बढ़ने के साथ उर्मिला की अनियमितताएँ बढ़ती गईं लेकिन संचिता को तनिक क्रोध न आता। सचिन हँसता कि तुम्हारा बस चले तो तुम उसे सोफे पर लिटा कर खुद ही सब काम कर लो।
“इस समय में होना तो यही चाहिए। कैसी तबियत रहती है तुम क्या जानो। जाने कैसे लोग पहले इतने बच्चे करते थे। मुझे तो हर गर्भवती महिला पर तरस आने लगा है।”

सचिन डर रहा था कि अब मम्मी निशाने पर आने वाली हैं।
“तुम्हें पता है। अम्मा रोज रात उर्मिला के हाथ-पैर दबाती है।” कहते हुए गला भर गया था उसका, “खाना भी इससे पूछकर बनाती है सब। उर्मिला बता रही थी कि घर पर कोई काम नहीं करने देती उसे। हीरो को भी फ़ोन कर कर के बुला लिया है सेवा करने।” आखिरी पंक्ति तक वह खिलखिलाने लगी थी। पल में रोती है पल में हँसती है। पागल लड़की है संचिता। सचिन फिर से अख़बार पढ़ने लगा।
“सुनो!”

“हम्म!”

“यह जो तुम दिन-रात अख़बार पढ़ते हो, न्यूज़ देखते हो। कौन बनेगा करोड़पति ही चले जाओ। कुछ पैसा हाथ आए तो घर ही बना लें।”

“हम्म।”

“अब मैं तैयारी कराऊँगी तुम्हारी। बिना किसी लाइफ़लाइन कैंडिडेट से पहले जवाब देना होगा तुम्हें।”

इसी समय मुन्ना ने रोकर सचिन को बचा लिया नहीं तो संचिता का भरोसा नहीं । वह सच ही जनरल नॉलेज की किताब खोज लाती।

मुन्ना को गोदी में लेकर कमरे में घूमते, वह फिर बोली, ‘सुनो तुम घुमा लो न इसे मैं तुम्हे अख़बार पढ़कर सुना दूँगी।”

“मुझे साइट के लिए निकलना है अभी।”

“रहने दो।” उसने मुँह बनाया।

“बयाना लेकर आएगी पार्टी। जाना होगा।”

“तुमको मिलेगा कुछ?”

‘कैसी बातें करती हो। पैसे के काम मे अकेले खतरा रहता है। भाई के साथ जाना जरूरी है।”

प्रेगनेंसी में तो कोई खतरा नहीं रहता। भरा पूरा परिवार होते उसे अकेले मरने के लिए छोड़ा जा सकता है। संचिता ने कहना चाहा पर रोक लिया खुद को। जिसे खुली आँखों से कुछ न दिखता हो उसे कैसे कुछ दिखाया जा सकता है। भाई का प्रॉपर्टी का काम है उसकी जानकारी में हर प्रॉपर्टी डीलर मुनाफे में काम करता है बस सचिन का भाई है जो सदा कर्ज में डूबा रहता है। उस ‘नालायक’ के नाम मनिया देवी ने पूरी प्रॉपर्टी कर रखी है। सचिन तो लायक है। पढ़ा लिखा है। वो खुद कमा लेगा। अपनी आधी तनख्वाह भी भाई को दे देगा। नालायक बेटा नित नई महँगी कार में चलता है। सचिन पुरानी आल्टो से निभा रहा है। निभाव प्रवृत्ति है। जो निभाता है वह सबसे निभा लेता है शायद। संचिता का निभाव अनुराग से संचालित होता है। अनुराग दया से।

“दीदी, किसी दिन पनीर बनाओ तो मेरे लिए रखना। तीखा वाला।” उर्मिला ने कपड़ों को तह लगाते कहा।

संचिता मुस्करा उठी। पहली बार उर्मिला ने मुँह से कुछ मॉंगा था। कृष्णा की तो फरमाइशें ही नहीं ख़त्म होती थी। शनिवार की शाम को ही सचिन के पीछे पड़कर उसे बाजार भेजा। सब सामान मँगवाया। रविवार की सुबह उर्मिला के आने से पहले ही सब्ज़ी तैयार कर ली थी। वह यूँ आनन्दित थी ज्यों प्रभु भोग लगाने आ रहे हों। नाश्ते में सचिन ने सब्ज़ी और माँगी तो बेबसी से बोली, ” रहने दो न। उर्मिला ने इतने मन से कहा है उसे घर के लिए भी दे दूँगी।”

उर्मिला और दिनों से कुछ देरी से ही पहुँची। संचिता ने चहक कर कहा, “पहले चाय पी ले और परांठा सब्ज़ी खा ले।”

“अम्मा ने ज़बरदस्ती सुबह-सुबह खिला दिया दीदी।”

संचिता का मन बुझ गया, “अच्छा तेरे लिए पनीर बनाया है। दोपहर को खा लेना।”

भैरों की गोदी में मुन्ना होता तो जाने क्यों संचिता को डर बना रहता। सब कहते हैं आजकल लड़के भी सुरक्षित नहीं। बाल शोषण की खबरें उसे विचलित करतीं। रविवार को सचिन घर रहता तो कुछ देर मुन्ना को बाहर घुमा लेता। वह निश्चिन्त होकर उर्मिला के साथ मिलकर जल्दी-जल्दी काम निबटा लेती।

मुन्ना बड़ी मुश्किल से सोया था। सचिन के साथ चिपका कर लिटा कर वह दबे पाँव बाहर आई थी, “उर्मिला, आजा पहले खाना खा ले।” हौले से पुकारा। सब्ज़ी को फिर गर्म किया। जरा सा पनीर कस कर ऊपर से बुरक होटल की तरह थाली लगाकर उसे दी। उर्मिला ने पहला कौर मुँह में डाला। संचिता परिणाम की उत्सुकता लिए उसे देख रही थी।

“कल यहाँ से गई तो अम्मा ने कढ़ी बनाकर रखी हुई थी। साथ राई मिर्ची का आचार। ऐसी बढ़िया खाटी-खाटी कढ़ी। साची कह रही दीदी।” कल की कढ़ी का स्वाद आज उर्मिला के चेहरे पर तिर गया। रिश्तों में न हो तो खटास का भी स्वाद लज़ीज़ होता है। संचिता ने सोचा और फीकी मुस्कान से कहा, भागोंवाली हो उर्मिला। तुमको ससुराल अच्छा मिला है।”
“हाँ दीदी अम्मा बहुत ध्यान रखती। आपके अलावा किसी और घर काम पर भी नहीं जाने देती। यह भी जब भी बम्बई से आते, हमारे लिए बक्सा भर साड़ी जरूर लाते हैं। कल इनसे बोलीं कि कितनी भी बड़ी फ़िल्म छूट जाहे पर बच्चा होने तक बहू को अकेला नहीं छोड़ना है।”
सजल नयनों से संचिता ने उर्मिला के खिले चेहरे को देखा। फूलों से लदी कोई मोहक जंगली बेल! नेह के मृदुल झोकों संग इठलाती हुई!हाथ धोने के बहाने संचिता बाथरूम में घुस गई। नल चलाकर फूट-फूट कर रोने लगी। अचानक उसे अहसास हुआ कि उर्मिला ने आकर उसके दुखों को और बढ़ा दिया है।


डॉ. निधि अग्रवाल

डॉ निधि अग्रवाल, पेशे से चिकित्सक, झाँसी में निजी रूप से कार्यरत हैं। साहित्यिक पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित होती रहती हैं। आकाशवाणी के भोपाल और छतरपुर (मध्य प्रदेश) केंद्र तथा स्थानीय ऍफ़ एम गोल्ड के कार्यक्रमों में रचनाओं का पाठ।

‘अपेक्षाओं के बियाबान’ प्रथम कहानी – संग्रह हैं।काव्य संग्रह ‘अनुरणन एवं
‘अप्रवीणा’ उपन्यास प्रकाशनाधीन है।

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