हमारी गुल्लकें

हमारी गुल्लकें

ज़िन्दगी क्या है, चंद गुल्लकें जिन्हें हम लमहों, मुलाक़ातों, यादों और अहसासों के सिक्कों से भरते रहते हैं। ये भरती जाती हैं बचपन से लेकर हमारे आखिरी दिनों तक। इन गुल्लकों के कुछ सिक्के तो इतने भारी और असह्य होते हैं कि उनसे छुटकारा पाने को मन करता है और कुछ ऐसे होते हैं कि जिनकी छनक और स्पर्श की तरफ हरदम मन खिंचता रहता है। पर गर ज़िन्दगी है तो गुल्लकें दोनों ही तरहों के सिक्कों से भरेंगीं।
हमारी ज़िंदगियों में एक और बात बहुत मायने रखती है और वह है क़िस्से-कहानियों का तानाबाना। होश संभालते ही इनके प्रति हमें एक ऐसा आकर्षण होता है कि बच्चे जब शब्दों और उनके अर्थों को जानते तक भी नहीं, उनको बहलाने के लिए हम अपने कहानियों के भण्डार को ही टटोलते हैं। वैसे हमारी ज़िन्दगी की एक गुल्लक इन कहानियों की भी होती है। ये कहानियां हमें कितने ही जाने-अनजाने, देखे-ना देखे, सुने-ना सुने, पढ़े-ना पढ़े अनुभव दे जाती हैं और तैयार करती जाती हैं ज़िन्दगी के सभी रंगों को समेटने तथा चुनौतियों से जूझने के लिए – ये कहानियां हमें रुलाती हैं, हंसाती हैं, गिरकर उठना सिखाती हैं, कैसे न गिरें यह सिखलाती हैं।
जैसा की मैंने कहा कि चंद मुलाक़ातें और एहसास ताज़िन्दगी हमें गुदगुदाते रहते हैं और जीने का सबक़ और सबब देते रहते हैं। घटनाएँ तो बहुत हैं जो मुझे बचपन से अबतक एकदम साफ़ याद हैं और जो मुझे हौसला देती रहती हैं, पर एक है ईदगाह की जिसका कोई तोड़ नहीं।

मैं लखनऊ से हूँ, जो हमारी गंगा-यमुना तहज़ीब का उम्दा नमूना है। होली और दिवाली की जितनी रौनक मन में हुआ करती थी, ईद और शब्-ए-बरात के आने पर उत्साह उससे कम नहीं होता है। ईदगाह और होली-मिलन पर नई पोशाकों में सजे-संवरे लोग जब दोस्ती और भाईचारे की चमक चेहरे पर पहने पहुँचते थे तो मानो वे जगहें जन्नत स्वरुप हो जाती थीं।

आइये लौटें उस ईदगाह की तरफ जिसका नायक हामिद और उसकी बूढी दादी हैं। कैसे सुबह से लेकर दोपहर तक ईदगाह के इर्द-गिर्द लोगों के मनों में भावों के बवंडर चढ़ते-उतरते हैं, कैसे हर कोई परेशान होने के साथ-साथ खुश भी है, कैसे हर किसी की ख़ुशी का पैमाना और मतलब बिलकुल अलग है, कैसे गाँव का हर बाशिंदा अपनी ईद को अव्वल दर्जे की करना चाहता है, यह सब और बहुत कुछ। इस ईदगाह में मैंने जैसे सैकड़ों चक्कर लगाए हैं, किसी को कुर्ते में बटन टांकने के लिए धागा दिया है तो शायद किसी से घर पर खीर पकाने के लिए दूध लिया है। हर साल ईद आती है। यहां ज़िक्र रमज़ान के महीने के बाद आने वाली ईद से है। मुझे न नए कपड़ों की चमक-दमक याद रहती है, न क़बाबों का ज़ायका, न खीर की मिठास और न ही ईद-मिलन समारोहों से उठने वाली खुशबु। याद आता है बस यह जुमला- रमज़ान के पूरे तीस दिनों बाद आज ईद आयी है और हामिद तथा उसकी दादी का प्यार और त्याग।

मुझे पूरा यक़ीन है कि यह मेरे अकेले के जज़्बात नहीं हैं। जिस किसी ने भी मुंशी प्रेमचंद को पढ़ा है, उन सभी की ज़िन्दगी के कुछ पल तो उनकी लेखनी के कर्ज़दार हो ही गए होंगे।
उनका लेखन इतना विस्तृत और प्रभावकारी है कि चंद शब्दों में उसे बयान कर पाना मुमकिन नहीं है। बस हर बार, जब कभी भी मन करता है मानवता के पास जाने का, उसे नज़दीक से जानने का, तो मुंशी प्रेमचंद हमेशा वहां खड़े मिल जाते हैं उसे बारीकी से समझाने और बुझाने के लिए। एक सदी पहले वे एक ऐसा साहित्य लिख गए जो तब तो प्रासंगिक था ही, लेकिन वर्तमान के मुद्दों से भी अछूता नहीं है।

वैसे तो साहित्य और कला की अनेक विभूतियाँ देश-विदेश ने हमें दी हैं जो हमारे जीवन को बहुमुखी आयाम देने के साथ-साथ उसे हर्ष, उत्साह, संवेदना, त्याग, प्रगति और अनेक रंगों से परिपूर्ण करती हैं। यही वे रंग हैं जो अदृश्य रूप से हमारी हौसलाफ़ज़ाई और मार्गदर्शन करते रहते हैं, कभी भी मन में शुबाह पैदा होने पर, कोई खटका उठने पर पहले का कुछ पढ़ा कुछ सुना जैसे कि मन में उभर आता है और हमारे उन सवालों को हल सा कर जाता है। यह विभिन्नता हमारे जीवन को समृद्धशाली और सारगर्भित बनाती है, हमारी गुल्लकों के वांछनीय सिक्कों को बढ़ाती है और सृजनता को जीवित रखकर हमें सतत नए क़िस्से-कहानियां देती है।
आइये सृजनता को अपने सामर्थ्य अनुसार जीवित रखकर हम भी कोशिश करें कि लोगों की गुल्लकों में सकारात्मकता से भरे सिक्कों का ही आधिक्य रहे। प्रेमचंद की जन्मतिथि पर बस यही एक चाह है और सृजनशील जगत को मेरा छोटा सा आभार।

प्रगति टिपनिस
मास्को, रूस
स्नातकोत्तर – आभियांत्रिकी और प्रबंधन,रचनाएं विभिन्न ब्लॉगों आदि पर ही प्रकाशित हुई हैं ,लेख, कविताएँ, निबंध (हिंदी और अंग्रेज़ी में)।

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