हृदय परिवर्तन

हृदय परिवर्तन

श्याम दिल्ली की एक गारमेंट्स फैक्ट्री में काम करता था। वह सात साल पहले अपनी बीवी लक्ष्मी, बेटी संगीता और गोदी में खेलते बेटे संजय के साथ यहाँ रायबरेली के एक गाँव से आया था। वह रात-दिन एक करके मेहनत करता था और मन में बच्चों के उज्जवल भविष्य के सपने रखता था। बच्चे एक सरकारी स्कूल में सातवीं और तीसरी कक्षा में पढ़ रहे थे। दोनों पढ़ाई में अच्छे थे। पत्नी लक्ष्मी भी कुछ घरों में काम करके घर चलाने में उसका हाथ बँटाती थी। उसकी ज़िन्दगी उसके चाहे ढर्रे पर चल रही थी।

फिर एक दिन एक घोषणा हुई और पूरे देश में लॉक-डाउन लग गया। वह समय की मांग हो सकता था, लेकिन अनेकों ज़िन्दगियों में उस से उथल-पुथल मच गयी।

श्याम जैसे अनेक परिवारों ने शुरूआती दिन लॉक-डाउन में ढील होने की आस में काट दिए, लेकिन ऐसा कुछ न हुआ।
कुछ घटनाएँ ऐसी होती हैं जो पलक झपकते ही किसी की दुनिया बदल देती हैं और कुछ ऐसी होती हैं जो दुनिया को ही बदल देती हैं। हम सब एक ऐसी ही घटना के चश्मदीद गवाह हैं- जी हाँ दुनिया के कोविड-19 की गिरफ़्त में आने वाली घटना।

श्याम और उसके सभी साथियों को धीरे-धीरे खाने के लाले पड़ने लगे। भूख और अनजान बीमारी की दहशत की हालत में छोटे क़स्बों और इलाक़ों से आये लोगों को अपने वतन की मिटटी बहुत याद आने लगी और उन्हें लगने लगा कि उस जन्नत की गोद में लौटकर सब ठीक हो जाएगा। इन मीठे सपनों ने उनमें एक अनोखी शक्ति, एक जूनून भर दिया। वे अपनी सभी जमा-पूँजी और परिवार लेकर पैदल घरों की तरफ कूच करने लगे। सफर उनका सैकड़ों किलोमीटर का था, साथ में बच्चे थे, और सामान के नाम पर कुछ थैले। मज़दूरों को सफर में आ सकने वाली कठिनाइयाँ बड़े शहरों की सड़कों पर पड़े रहने की कठिनाई से आसान जान पड़ीं। वजह बिलकुल साफ़ थी – सफर के बाद उन्हें कुछ सुखद पलों की उम्मीद थी, लेकिन बिना काम शहर में पड़े रहना एक असह्य लम्बी रात की तरह था।

मज़दूरों के ऐसे क़ाफ़िले सभी शहरों के आस-पास से गुज़रे। ऐसे ही एक झुण्ड के साथ श्याम भी अपने परिवार के साथ दिल्ली से निकला था। उनका सफर ५०० किलोमीटर से थोड़ा ज़्यादा था। सब चलते जाते थे, पुलिसकर्मियों की मार भी खानी पड़ती थी, लेकिन उन पर तो घर पहुँचने का जुनून सवार था। रास्ता कठिन, अप्रैल महीने की लू वाली गर्मी, खाने को बस इतना मिल पाता था जो ज़िंदा रहने के लिए काफ़ी हो।

जब उनका जत्था लखनऊ पहुँचा तो श्याम के परिवार को लगने लगा कि जैसे घर आ गया हो, सबके चेहरों पर एक हलकी ख़ुशी झलक गयी। लेकिन यह क्या, उसी रात श्याम को तेज़ बुखार आ गया, और जब तक लक्ष्मी अस्पताल, डॉक्टर वगैरह के बारे में पूछताछ करती उसने दम तोड़ दिया। अजीब विडम्बना है नियति, एक पल होंठों पर हलकी मुस्कान देती है और अगले पल सारी खुशियाँ छीन लेती है। लक्ष्मी, संगीता और संजय के पांव तले जैसे कि ज़मीन खिसक गयी। उन्हें अब लखनऊ से रायबरेली तक का रास्ता बहुत लंबा और मुश्किल लगने लगा। लक्ष्मी ने जैसे कि सुध-बुध ही खो दी थी। वह बस बेटे का हाथ पकड़े बेसुध पाँव बढ़ाती जाती थी। अब सारी ज़िम्मेदारी संगीता के छोटे और कमज़ोर कन्धों पर आ पड़ी, वही बचे-खुचे पैसों का हिसाब रखती, खाने-पीने के लिए चीज़ें जुटाती और लोगों से पूछ कर रास्ता दिखाती।
श्याम के दाह संस्कार का बंदोबस्त नगर पालिका वालों ने कर दिया, उसके अगले दिन पौ फटते ही जब लक्ष्मी और संजय अभी सो ही रहे थे, संगीता बिस्कुट और चाय का इंतज़ाम करने के लिए निकली। वह एक गली से दूसरी चली जाती थी पर चाय के सभी स्टाल बंद मिल रहे थे, काफी गलियों को छानने के बाद उसने वापस अपनी माँ और भाई के पास लौटना चाहा पर वह गलियों की भूलभुलैया में खो गयी थी। उसने गलियों के एक छोर से दूसरे तक के न जाने कितने नाकाम चक्कर लगाए।

हिम्मत हार कर वह एक घर के फाटक के बाहर बैठ कर रोने लगी, साढ़े सात बजे जब दूधवाला आया तो घर का दरवाज़ा खुला और भगवत जी दूध लेने बाहर आये, छोटी बच्ची को वहां रोता देख उन्होंने उससे पूछताछ की। खुद उसके साथ थोड़ी दूर तक उसकी माँ और भाई को ढूंढने गए, लेकिन उनकी कोशिश बेकार गयी। संगीता कुछ ठीक से बता पाने के हाल में भी नहीं थी।

उन्होंने संगीता को प्यार से घर में बुला कर चाय पिलाई और फिर समझाते हुए कहा कि कुछ समय हमारे घर पर रह कर काम कर लो। हम दो तीन दिन के बाद रायबरेली चलकर तुम्हारे घर वालों को एक बार और ढूंढेंगे। संगीता को उनकी बात ठीक लगी और वह मान गयी। भगवत बाबू की पत्नी राधिका अच्छी महिला थीं, घर पर उन दोनों की १९ वर्षीय बेटी कीर्ति और उसकी दादी माँ रहती थीं। परिवार के सब लोग संगीता के साथ अच्छा व्यवहार करते थे लेकिन दादी माँ को रास्ते से उठाकर किसी लड़की को यूँ घर लाना बिलकुल न भाया। वे छुआछूत मानती थीं। वे उस असहाय बच्ची को हमेशा हेय दृष्टि से देखतीं और जितना बन पाता उसे तक़लीफ़ें देने की कोशिश करतीं। लेकिन संगीता को उनकी बातें बिलकुल भी बुरी नहीं लगती थीं। उस के लिए उनका बुरा व्यवहार रास्ते में और उसके पहले दिल्ली में झेली कठिनाइयों के सामने नहीं के बराबर था। वह दादी माँ के प्रति बहुत आदर-भाव रखती थी। दादी माँ के पैर कमज़ोर थे और वे छड़ी लेकर चलती थीं, जैसे ही उनके क़दम लड़खड़ाते थे, संगीता मदद के लिए दौड़ती थी।
दादी उसे झिड़क कर कहतीं- दूर रह मलेच्छ।
संगीता तो उस शब्द का अर्थ तक न जानती थी, जानती भी होती तो शायद बुरा न मानती। उस घर में उसे छत और जीवन के सुखद पल मिल रहे थे।

एक दिन दादी माँ बाथरूम से बाहर आ रहीं थीं, वहां थोड़ा पानी था, छड़ी फिसल गयी और वे गिर गईं। सबसे पहले संगीता ही मदद को पहुंची और उसने आवाज़ देकर बाक़ी लोगों को बुलाया। पहले तो दादी ने उसे अपना हाथ देने में बहुत आनाकानी की, लेकिन फिर मान गयीं। दादी उसके बाद पलंग से बंध गयीं, उनके सारे काम पलंग पर ही होने लगे। संगीता घर के काम तो करती ही और यह भी देखती कि दादी को ज़रूरत हो तो वह हमेशा उनके पास हो। उसने दादी की सेवा में दिन रात एक करने शुरू कर दिए। दादी माँ की एक कराह से उनके पाँव के पास ऊंघ रही संगीता उठ बैठती और उनकी सेवा के लिए दौड़ती। पराये शहर में ज़्यादातर समय पराये लोगों के बीच रहने की आदी बच्ची को जैसे ही अपनत्व की छत मिली, ममत्व और सेवा भावों का झरना उस में से फूट पड़ा। दादी की शक़्क़ी और छुआछूत की भावनाओं ने भी उसकी नेकदिली के आगे घुटने टेकने शुरू कर दिए थे। जल्दी ही उनका मन संगीता के प्रति माँ हो गया और थोड़े दिनों में संगीता उन्हें सेवा और सच्चाई की मूर्ति लगने लगी। अच्छी सेवा और मन की शान्ति ने अपना कमाल दिखाया और दादी माँ के स्वास्थ में तेज़ी से सुधार होने लगा।

दादी की बीमारी के चलते समय कुछ अधिक तेज़ी से निकल गया। संगीता को अपने परिवार से बिछड़े एक महीने से ज़्यादा हो गया था। घर पर स्थिति जब थोड़ी सामान्य हुई तो भगवत जी ने एक-दो बार संगीता से कहा भी कि चलो तुम्हारे घर वालों को ढूंढने रायबरेली चलें। संगीता लेकिन ज़िद पर अड़ गयी थी कि दादी माँ की तबियत ठीक हो जाने पर ही चलूंगी। भगवत जी के परिवार वालों को भी संगीता और उससे मिलने वाली मदद की आदत पड़ गयी थी।

दो महीने बाद जिस सुबह संगीता अपने घरवालों को ढूंढने के लिए भगवत बाबू के साथ निकल रही थी, दादी माँ को लग रहा था कि उनका कोई परम प्रिय उनसे दूर जा रहा है।वह पहले तो पूजा में आँखें बंद किए बैठी रहीं लेकिन फिर उनकी बंद आँखों से मोती की लड़ियाँ बहने लगीं। एक बच्ची जिसकी परछाई से भी उन्हें परहेज़ था आज उसे वह अपनी बाँहों में जकड़ लेना चाहती थीं।
ये आँसू गवाह थे कि शंका और शुबह के बादल प्रेम और सच्चाई की रौशनी में छँट जाते हैं।

प्रगति टिपनिस
मास्को, रूस
स्नातकोत्तर – आभियांत्रिकी और प्रबंधन,रचनाएं विभिन्न ब्लॉगों आदि पर ही प्रकाशित हुई हैं ,लेख, कविताएँ, निबंध (हिंदी और अंग्रेज़ी में)।

0