शार्दुला की कलम से

सच कहूँ तेरे बिना!

सच कहूँ तेरे बिना ठंडे तवे सी ज़िंदगानी
और मन भूखा सा बच्चा एक रोटी ढूँढता है
चाँद आधा, आधे नंबर पा के रोती एक बच्ची
और सूरज अनमने टीचर सा खुल के ऊंघता है !

आस जैसे सीढ़ियों पे बैठ जाए थक पुजारिन
और मंदिर में रहे ज्यों देव का श्रृंगार बासी
बिजलियाँ बन कर गिरें दुस्वप्न उस ही शाख पे बस
घोंसला जिस पे बना बैठी हो मेरी पीर प्यासी !

सच कहूँ तेरे बिना !

पूछती संभावना की बुढ़िया आपत योजनायें
कह गया था तीन दिन की, तीन युग अब बीतते हैं
नाम और तेरा पता जिस पर लिखा खोया वो पुर्जा
कोष मन के और तन के हाय छिन-छिन रीतते हैं !

सच कहूँ तेरे बिना मेरी नहीं कोई कहानी
गीत मेरे जैसे ऊंचे जा लगे हों आम कोई
तोड़ते हैं जिनको बच्चे पत्थरों की चोट दे कर
और फिर देना ना चाहे उनका सच्चा दाम कोई !

सच कहूँ तेरे बिना !

प्रश्न वो कच्ची गणित का

दोस्त मैं कन्धा तुम्हारा जिस पे सर रख रो सको तुम
वेदना के, हार के क्षण, भूल जिस पे सो सको तुम
बाहें मैं जिनको पकड़ तुम बाँटते खुशियाँ अनोखी
कान वो करते परीक्षा जो कि नित नव-नव सुरों की ।

मैं ही हर संगीत का आगाज़ हूँ और अंत भी हूँ
मैं तुम्हारी मोहिनी हूँ, मैं ही ज्ञानी संत भी हूँ
शिंजनी उस स्पर्श की जिसको नहीं हमने संवारा
चेतना उस स्वप्न की जो ना कभी होगा हमारा ।

हूँ दुआयें मैं वही जो नित तुम्हारे द्वार धोयें
और वो आँसू जो तुमने आज तक खुल के ना रोये
मैं तपिश उन सीढियों की जो दुपहरी लाँघती हैं
और असमंजस पथों की जो पता अब माँगती हैं ।

प्रश्न वो कच्ची गणित का जो नहीं सुलझा सके तुम
शाख जामुन की लचीली जिस पे चढ़ ना आ सके तुम
मैं तुम्हारे प्रणय की पहली कथा, पहली व्यथा हूँ
मैं तुम्हारा सत्य शाश्वत, मैं तुम्हारी परी-कथा हूँ ।

शार्दुला नोगजा
सिंगापुर

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