जीवनादर्शों के मसीहा: लाल बहादुर शास्त्री

जीवनादर्शों के मसीहा: लाल बहादुर शास्त्री

“जय जवान, जय किसान” का उद्घोष,
चहुँ दिशाओं में गुंजित करने वाला।
अपने छोटे -सधे डग में भी,
अदम्य साहस संचित करने वाला।।
जिसकी सादगी और सरलता ही,
उसकी राजनीति का सिद्धांत बनी।
कैसे कह दें हम कि शासन -प्रशासन,
और षड्यंत्रों की हमेशा गहरी छनी।।

विकट परिस्थितियों के सिपाही के रूप में नियंता ने भारत माता की गोद में उसके जिस सपूत को डाल दिया था, औसत से भी साधारण कद -काठी परंतु असाधारण व्यक्तित्व के स्वामी, नेहरू युग के बाद चुनौतियों का सामना करते हुए देश के दूसरे प्रधानमंत्री के रूप में अपनी यादगार भूमिका का निर्वाह करने वाले ‘नन्हें’ ; जिन्होंने भारत की सामरिक ताकत से दुनिया को परिचित करवाया और भारतीय जनमानस के आत्मसम्मान को उसके उच्चतम स्तर पर ले जाकर देशवासियों के हृदय में अपना शाश्वत स्थान बना लिया-निश्चय ही “लाल बहादुर शास्त्री”।

‘लाल’ बहुत हैं, किंतु एक है ‘लाल बहादुर’।

लाल बहादुर का जीवन चुनौतियों का ही पर्याय था, परंतु इसके विपरीत जीवन -शैली ‘सादा जीवन ,उच्च विचार’का प्रतिमान बनी रही। यूँ प्रतीत होता है जैसे इस आदर्श वाक्य को गढ़ा ही गया हो, शास्त्री जी के लिए।

लड़खड़ाते कदम अभी संभलकर चलना सीखे भी नहीं थे कि पिता श्री शारदा प्रसाद श्रीवास्तव का देहांत हो गया। 2 अक्टूबर , सन् 1904 ईस्वी को उत्तर प्रदेश के वाराणसी जिले में मुगलसराय नामक स्थान पर श्रीमती रामदुलारी देवी के गर्भ से जन्में लाल बहादुर उस समय केवल डेढ़ वर्ष के थे। परिस्थितियाँ मानो ठोक – पीटकर सशक्त बना देने की पूरी योजना तैयार किए बैठी थी ताकि भविष्य में अत्यंत दुश्वारियों के बीच उनके कंधे राष्ट्र के नेतृत्व का बोझ उठा सकें। बालक लाल बहादुर पर उनकी माता के उच्च चरित्र, दृढ़ निश्चय और कर्तव्य परायणता का गहरा प्रभाव पड़ा था,जिसे उन्होंने पूर्ण रूप से आत्मसात कर लिया। उनका चारित्रिक बल इसी का परिणाम था,जिसका मूल्य भारत और विश्व के लोगों ने बाद में जाना और सराहा। 8 साल की उम्र में साथियों के साथ फूल चोरी करते हुए पकड़े जाने और दंडित होने के उपरांत लाल बहादुर ने माली की इस बात को गांठ बाँध कर रख लिया,”बेटा, तुम्हारे पिता नहीं है, तब तो तुम्हारी जिम्मेदारी और भी बढ़ जाती है। तुम्हें स्वयं अच्छी आदतें सीखनी चाहिए ।”प्रण कर लिया कि जीवन भर न तो किसी से बिना पूछे उसका सामान लेंगे और न ही कभी ऐसा व्यवहार करेंगे जिससे किसी को हानि हो। निर्धनता तो थी ही, परंतु आदर्शों की यह पोटली भी साथ बंधी थी, जिसने बालक लाल बहादुर को पैसे न होने पर तैर कर गंगा पार विद्यालय पहुँचने का जोश भर दिया।बचपन ननिहाल (मिर्जापुर) और नाना की मृत्यु के उपरांत मौसा के घर(वाराणसी) में बीता। मिर्जापुर में जहाँ पितृहीन बालक को नाना का भरपूर प्यार और स्नेह मिला , वही वाराणसी में उसके विद्यालय ‘हरीशचंद्र विद्यालय’ के गणित के अध्यापक पंडित निश कामेश्वर मिश्र जैसा अध्यापक, जो घंटों गंगा के किनारे बैठकर प्राचीन भारत की गौरव गाथा अपने शिष्यों को सुनाया करते थे। किशोर लाल बहादुर के लिए मिश्रजी पिता, पथ प्रदर्शक एवं दार्शनिक सभी कुछ थे, जिन्होंने लाल बहादुर के कच्चे किशोर मन में भविष्य की महानता के बीज बोए।

युवा होते लाल बहादुर पर अगर गणित शिक्षक के बाद किसी का गहरा प्रभाव पड़ा तो वह थे-राष्ट्रीय आंदोलन के नेतृत्वकर्त्ता महात्मा गाँधी का। 1915 ईस्वी में उन्होंने महात्मा गाँधी को पहली बार सुना और अभिभूत हो उठे।1921 ईस्वी में वाराणसी की सभा में महात्मा गाँधी ने कहा- “भारत माँ दासता की बेड़ियों में जकड़ी है। जरूरत है नौजवानों की जो इन बेड़ियों को काट देने के लिए अपना सब कुछ बलिदान कर देने को तैयार हों।”इस आह्वान ने लाल बहादुर शास्त्री को उनके गुरु पंडित निशकामेश्वर मिश्र की इच्छा के विरुद्ध ‘सविनय अवज्ञा आंदोलन’ से जोड़ दिया। जुलूस में पकड़े गए लाल बहादुर को छोटा बालक समझकर मजिस्ट्रेट ने पेश होने पर छोड़ दिया।बाद में काशी विद्यापीठ में अध्ययनरत शास्त्री जी,जहाँ जाने के लिए शास्त्री जी प्रतिदिन 16 किलोमीटर पैदल चला करते थे, अन्य विशिष्ट देशभक्तों जैसे आचार्य नरेंद्र देव, डॉक्टर भगवान दास, आचार्य कृपलानी, डॉक्टर संपूर्णानंद तथा श्री प्रकाश के निकट संपर्क में आए। राष्ट्रीय संग्राम के समय लाल बहादुर शास्त्री ने अपने जीवन के लगभग 9 वर्ष अंग्रेजी कारावास में काटे और उस पूरे समय का उपयोग उन्होंने अध्ययन के लिए किया।उन्होंने नोबेल पुरस्कार विजेता मैडम क्यूरी की जीवनी का हिंदी अनुवाद और भारत छोड़ो आंदोलन का इतिहास भी लिखा।लाल बहादुर शास्त्री डॉक्टर भगवान दास के समन्वयवाद के सिद्धांत से बहुत प्रभावित हुए। ‘समन्यवाद’का सिद्धांत एक ऐसा सिद्धांत है जो कि प्रतिकूल विचारधाराओं के बीच एक ऐसे मध्यम मार्ग की खोज करता है जो दोनों ही विचारधाराओं को मान्य हो।इस सिद्धांत से प्रभावित होकर शास्त्री जी ने सदैव ही प्रतिकूल विचारधाराओं के बीच एक समझौता कराने का प्रयत्न किया। इस प्रकार शास्त्री जी कांग्रेस पार्टी के सफलतम समन्वय वादी बन गए और हमेशा प्रतिद्वंदी विचारधाराओं में समझौता कराते रहे।”क्या आप साथ चलना पसंद करेंगे?”-विरोधी परिस्थितियों में मध्यस्थता करने वाले शास्त्री जी के उक्ति बहुत प्रसिद्ध थी। नेहरू जी के समय जब -जब संकट का झंझावात उठता रहा, तब- तब शास्त्री जी कुशल नाविक की तरह उनकी डगमग नैय्या को किनारे लगाते रहे। चाहे असम का भाषा विवाद हो, भारत- नेपाल संबंध या कश्मीर के हजरत बल दरगाह से पवित्र बाल की चोरी का अवसर हो, सभी स्थितियों में उनकी राजनीतिक सोच एवं प्रत्युतपन्नमति का परिचय देश को मिलता रहा।यही कारण है कि कामराज योजना के तहत 1963 ईस्वी में उन्होंने जब स्वराष्ट्र मंत्री से त्यागपत्र दे दिया तो पंडित नेहरू के पाँव उनकी लकुटिया के बिना डगमगाने लगे और उन्होंने 26 जनवरी ,1964 को निर्विभागीय मंत्री बनाकर अपने मंत्रिमंडल में शामिल कर लिया। अर्थात् विभाग कोई भी नहीं परंतु दायित्व नेहरू जी के हर काम में सहायता करना। तभी तो कामराज योजना से प्रभावित एक साथी ने मजाक में कहा था-“अरे वाह, वह तो कैरम का स्ट्राइकर निकला। बोर्ड से गिरा था हम लोगों के साथ, मगर अकेला बोर्ड पर फिर वापस आ गया।”के कामराज, कांग्रेस के तात्कालिक अध्यक्ष और तमिलनाडु के मुख्यमंत्री, जिनका आह्वान था-‘जितने भी महत्वपूर्ण पद हैं, वे इस्तीफा दे दें और जनता के लिए काम करें।’ यह उस समय की राजनीतिक मूल्यों की सर्वोत्कृष्टता ही थी कि इसके पालन हेतु न केवल कामराज स्वयं बल्कि लाल बहादुर शास्त्री और अनेक लोग भी, जिसमें 6 केंद्रीय मंत्री और कई मुख्यमंत्री शामिल थे, महत्वपूर्ण पद सहर्ष छोड़ बैठे। क्या आज की राजनीति से ऐसी अपेक्षा संभव है? शायद नहीं क्योंकि राजनीति अब बहुधा देशभक्ति और जन सेवा का मार्ग नहीं रही।

सक्रिय राजनीति में प्रवेश करने के बाद लाल बहादुर शास्त्री ने संगठन और प्रशासन-दोनों ही स्तर पर अनेक महत्वपूर्ण पदों का कार्य भार उठाया, परंतु पद के मोह और आत्म विज्ञापन की आकांक्षा से मुक्त होकर।1926 ईस्वी में शास्त्री जी जब लाला लाजपत राय की ‘सर्वेन्टस ऑफ पीपल्स सोसाइटी ‘ के सदस्य बने तो उस संस्था से उन्हें ₹50 मिलते थे।शास्त्री जी ने ललिता शास्त्री, अपनी पत्नी से पूछा कि क्या इतने पैसे से तुम लोगों का गुजारा हो जाता है। ललिता शास्त्री के यह कहने पर कि मैं तो उसमें से ₹10 बचा लेती हूँ , उन्होंने संस्था से ₹10 कम लेना प्रारंभ कर दिया। ऐसी ईमानदारी और सादगी कहाँ देखने को मिलेगी।पंडित जवाहरलाल नेहरू को भी इस हीरे की परख थी और इसलिए उन्होंने एक बार कहा था,”अत्यंत ईमानदार, दृढ़ संकल्प, शुद्ध आचरण, ऊँचे आदर्शों में पूरी आस्था रखने वाले , निरंतर सजग व्यक्तित्व का ही नाम है लाल बहादुर शास्त्री।”लाला लाजपत राय और पुरुषोत्तम दास टंडन के बाद शास्त्री जी इस संस्था के तीसरे अध्यक्ष बने और जीवन पर्यंत इसके अध्यक्ष रहे।पुरुषोत्तम दास टंडन शास्त्री जी के पहले राजनीतिक गुरु थे जिनकी प्रेरणा से शास्त्री जी कांग्रेस पार्टी में आए।लाल बहादुर शास्त्री के अभूतपूर्व व्यक्तित्व के संदर्भ में उनके प्रथम राजनीतिक गुरु टंडन जी ने कहा कि श्री लाल बहादुर शास्त्री कठिन से कठिन परिस्थिति का मुकाबला करने व समस्याओं को सुलझाने की क्षमता रखते हैं। शासन के प्रमुख पदों पर आसीन लाल बहादुर शास्त्री ने कालांतर में इस बात को साबित कर दिया कि उनमें शासक की प्रति- हिंसा नहीं थी परंतु अपने बुद्धि कौशल से कठिन से कठिन परिस्थिति को संभालने की अद्भुत क्षमता थी।

डॉ राजेंद्र प्रसाद के देहावसान के बाद पंडित नेहरू के पटना न पहुँचने पर जनता के मौन अवसाद और विक्षोभ को उन्होंने नेपाल की सद्भावना यात्रा के लिए जाते समय पटना में रुककर आत्मीयतापूर्ण वातावरण में दिए अपने भाषण और श्रद्धांजलि समर्पण से जनता की आँखों से अश्रुधारा के रूप में प्रवाहित करवा दिया।

आजादी के बाद उत्तर प्रदेश में गोविंद बल्लभ पंत के मुख्यमंत्रीत्व काल में पुलिस एवं परिवहन मंत्री का पद संभालते हुए उन्होंने महिला कंडक्टरों को नियुक्त कर जहाँ महिलाओं को राष्ट्र की मुख्यधारा से जोड़ने पर बल दिया, वहीं दूसरी ओर लाठीचार्ज की जगह पानी की बौछार (वाटर कैनन) का प्रयोग करने सलाह दी। केंद्रीय रेल मंत्री के तौर पर उन्होंने ‘जनता गाड़ी’चलाने और तृतीय श्रेणी के डिब्बों की सुविधा बढ़ाने के साथ-साथ रेल सेवा में सुधार की ओर काफी ध्यान दिया, वहीं दूसरी ओरअरियालूर रेल- दुर्घटना के कारण,जिसमें एक सिग्नल मैन की गलती के कारण 144 लोगों की जानें गई थी,शास्त्री जी ने पंडित नेहरू की अनिच्छा के बावजूद नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए अपने पद से त्यागपत्र देकर भारतीय राजनीति में एक नई आदर्श परंपरा की शुरुआत की, जिसका उदाहरण आज की राजनीति में मिलना मुश्किल है।

जब 27 मई, 1964 को पंडित नेहरू की मृत्यु के बाद ‘नेहरू के बाद कौन’ का विकट प्रश्न वातावरण में गूँज रहा था, तब कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष के. कामराज और अनेक पार्टी नेताओं के समर्थन के बावजूद मोरारजी देसाई की प्रबल दावेदारी को देखते हुए उन्होंने तब तक हामी नहीं भरी, जब तक उन्हें एक-एक का समर्थन प्राप्त न हो गया। के. कामराज के अथक प्रयासों से ही 9 जून, 1964 ईस्वी को भारत को एक सरल ,ईमानदार और गरिमा मय प्रधानमंत्री प्राप्त हुआ, जो कांग्रेस के दोनों गुटों-वामपंथी एवं दक्षिणपंथी को मान्य था।

प्रधानमंत्री पद के साथ- साथ अनेक समस्याएँ विरासत में मिलीं-देश में खाद्यान्न की कमी,बेरोजगारी और देश की सीमाओं पर पाकिस्तान और चीन का बढ़ता हुआ खतरा। खाद्यान्न समस्या के हल के लिए कृषिगत व्यवस्था में अनेक सुधार किए। जहाँ उन्होंने अमेरिका में जॉनसन लिनसन की सरकार द्वारा गेहूँ की आपूर्ति बंद किए जाने के बाद कनाडा से गेहूँ मँगवाया,देश के लोगों को अपनी छोटी- से -छोटी जमीन पर खाद्यान्न की उपज करने के लिए स्वयं प्रधानमंत्री आवास में हल चलाया,अनाज संकट का सामना करने के लिए उन्होंने अपने पूरे परिवार के साथ प्रत्येक सोमवार की शाम को उपवास रखकर पूरे देशवासियों से एक शाम उपवास रखने का अनुरोध किया। चमत्कारिक आश्चर्य यह कि लोगों ने उनके इस अनुरोध को एक आंदोलन के रूप में स्वीकार किया।गुजरात और आंध्र प्रदेश के किसानों ने तो तंबाकू का पौधा उखाड़कर गेहूँ का पौधा लगाया।लाल किले की प्राचीर से शास्त्री जी ने देश को आवाज लगाई-“आज कीमतें बढ़ रही हैं।—— मैं मंत्रियों की बड़ी-बड़ी दावतें और पार्टियों को भी बंद करने की अपील करता हूँ।”उन्होंने भूखमरी के समय स्वयं अपना वेतन लेना बंद कर दिया था और घर में आने वाली बाई को भी मना कर दिया था।

उनकी कद -काठी को लेकर उनका उड़ाया जाने वाला माखौल और उनकी विनम्रता और सादगी के परिप्रेक्ष्य में प्रधानमंत्री पद के उत्तरदायित्व निर्वहन पर लगाया जाने वाला प्रश्नचिन्ह -इन सारी परिस्थितियों की अवहेलना करते हुए वे अपने कर्तव्यपालन के पथ पर आगे बढ़ते रहे।अपने मंत्रिमंडल के वित्त मंत्री टी. टी. कृष्णाचारी और इंदिरा गाँधी के रवैये से परेशान लाल बहादुर शास्त्री, कृष्णाचारी के इस्तीफे के बाद अंदरूनी राजनीति में पैर जमा ही रहे थे कि पाकिस्तान ने 1सितंबर,1965 की सुबह जम्मू -कश्मीर के छम्ब क्षेत्र में तोपों से हमला कर दिया।छम्ब क्षेत्र पर कब्जे का मतलब -भारत से जम्मू- कश्मीर का अलग हो जाना। पाकिस्तानी फौज की बढ़ती स्थिति को देखकर आधी रात के समय आर्मी चीफ चौधरी और शास्त्री जी ने बैठक कर पंजाब और राजस्थान की तरफ से लड़ाई का नया मोर्चा खोलने का फैसला लिया।वायु सेना को युद्ध में शामिल किया गया और अंतरराष्ट्रीय सीमा पार की गई। शास्त्रीजी के दृढ़ फैसले ने लड़ाई की दिशा को बदल दिया, इतिहास को मोड़ दिया।कश्मीर के हाजीपीर और टीथवाल इलाके पर भारत का कब्जा हो गया और सेना लाहौर औरसियालकोट के काफी करीब पहुँच गई। शास्त्री जी के नेतृत्व में सेना ने 710 स्क्वायर किलोमीटर की जमीन को अपने कब्जे में ले लिया जो लगभग आधी दिल्ली के बराबर था। पाकिस्तान की नियत को पहले से ही भाँपते हुए15 अगस्त ,1965 को लाल बहादुर शास्त्री ने लाल किले के प्राचीर से कह दिया था,”अगर तलवार की नोक पर या एटम बम के डर से कोई हमारे देश को झुकाना चाहे, दबाना चाहे, ये देश हमारा दबने वाला नहीं है। एक सरकार की नाते हमारा क्या जवाब हो सकता है, सिवाय इसके कि हम हथियारों का जवाब हथियारों से दे।”देश जो अभी 3 साल पहले चीन से मिली पराजय को भूल न पाया था,अपने इस छोटे से कद वाले ,सीधी -सादे प्रधानमंत्री के मजबूत इरादे और बुलंद हौसलों को देख कर उनको अपने सर -आँखों पर बिठा लिया। यह जीत भारत के आत्मसम्मान की थी।

युद्ध और अकाल के मोर्चे पर शास्त्री जी ने एक साथ लड़ते हुए लाल किले के प्राचीर से बहादुरी से कहा,”जो नारा मैं समझता हूँ कि आज हमारे देश के लिए जरूरी है।——वह आपके सामने कहता हूँ और प्रार्थना करता हूँ कि आप मेरे साथ दोहराएँगे—जयजवान, जय किसान।”

22 दिनों के विनाशकारी भारत-पाक युद्ध की अंतिम परिणति रूस के उज्बेकिस्तान के ताशकंद में एक समझौते के रूप में हुई।समझौते की मेज पर पाकिस्तानी राष्ट्रपति श्री अयूब खान, भारतीय प्रधानमंत्री श्री लाल बहादुर शास्त्री और सोवियत संघ के प्रधानमंत्री श्री अलेक्सी कोसीगन उपस्थित थे।10 जनवरी ,सन 1966 को ताशकंद समझौते पर दोनों नेताओं ने हस्ताक्षर किए, जिसके अनुसार दोनों देशों की सेनाओं को 25 फरवरी, सन 1966 से पहले अपनी उन पुरानी जगह पर वापस चले जाना था जहाँ वे लड़ाई शुरू होने से पहले थीं।


समझौता तो हो चुका था परंतु शास्त्री जी इस पर देशवासियों की प्रतिक्रिया जानने के लिए बहुत बेचैन थे।उन्होंने अपने निजी सचिव वेंकटरमन से बात कर ताशकंद समझौते को लेकर दिल्ली में प्रतिक्रिया पूछी। भारतीय जनता पार्टी के अटल बिहारी बाजपेई और प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के सुरेंद्र नाथ द्विवेदी ने हाजीपीर और टीथवाल से भारतीय सेना के पीछे हटने की आलोचना की।आलोचना शास्त्री जी को अपने घर के अंदर भी झेलनी पड़ी, जहाँ रात को ताशकंद से फोन करने करने पर बड़ी बेटी कुसुम ने बताया कि अम्मा बहुत नाराज है।और काफी मनुहार के बाद भी वह शास्त्री जी से टेलीफोन पर वार्ता करने के लिए नहीं आईं। शास्त्री जी कमरे में बेचैनी से टहलते रहे और उन्होंने अपनी निजी सचिव को सभी भारतीय अखबारों को काबुल भेजने का आदेश दिया ,जहाँ अगली सुबह उन्हें जाना था।11 जनवरी, 1966 की रात उनके लिए काल की रात साबित हुई और देश का प्रधानमंत्री सरहद से काफी दूर अनंत आकाश की राह पर चला गया।शास्त्री जी की मृत्यु का कारण हृदयाघात बताया गया, जिसे अब तक पूरी तरह से स्वीकार नहीं किया गया है। मौत रहस्यमय हालात में हुई,पोस्टमार्टम न ताशकंद में हुआ और न भारत में, मृत शरीर पर मिले नीले धब्बे और अनेक कटने के निशान प्रश्न चिन्ह रहें। और भी अनेक संदेहास्पद तथ्य थे, जिसके आधार पर न तो शास्त्री जी के परिवार वाले और न ही भारतीय जनता खुद को संतुष्ट कर पाई है। भारतीय अखबारों में खूब चर्चा हुई और संदेह, जो लगातार उठ रहे थे ,वे आरोप तब बन गए, जब ललिता शास्त्री ने खुलेआम अपने पति की मौत पर 2 अक्टूबर ,1970 को जाँच की माँग कर दी।1978 में प्रकाशित पुस्तक ‘ललिता के आँसू’ में भी ललिता शास्त्री ने स्वीकार किया है कि मेरे पति को मरवाया गया है।शास्त्री जी की मृत्यु से संबंधित फाइलों को सार्वजनिक भी नहीं किया गया, जिसकी माँग स्वयं उनके सुपुत्र सुनील शास्त्री ने की थी।शास्त्री जी के निजी चिकित्सक डॉक्टर चुग की सपरिवार दुर्घटना में मृत्यु और शास्त्री जी की मौत के बाद परमाणु कार्यक्रम के जनक डॉ होमी जहांगीर भाभा की विमान दुर्घटना में मृत्यु महज संयोग थे या किसी दुष्चक्र का हिस्सा-अनुत्तरित हैं।केजीबी, सी आइ ए,भारत की अंदरूनी राजनीति या प्रधानमंत्री का खराब स्वास्थ्य-जवाब इनमें से क्या है, वक्त के हाथों अब तक उत्तर नहीं मिला ।

मात्र 18 महीनों का प्रधानमंत्री का छोटा -सा कार्यकाल और इतने उतार-चढ़ाव,सीमा से खलिहान तक पूरे देश को एक कर देने की क्षमता,आत्मिक- चारित्रिक शक्ति के साथ तीक्ष्ण राजनैतिक अंतर्दृष्टि, ईमानदारी और सादगी का ऐसा पर्याय कि जिसे एक फिएट कार अपने प्रधानमंत्री पद पर रहते हुए खरीदने के लिए ₹12000 का कर्ज लेना पड़ा और जिसकी अदायगी उनके मृत्योपरांत उनकी पत्नी ने पेंशन के पैसों से की—नमन है पवित्रता से ओतप्रोत ऐसी दिव्य आत्मा को, गर्व है तुम्हारे निजदेशवासी होने का।

मरणोपरांत देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ से सम्मानित शास्त्री जी के पूरे जीवन दर्शन को उनके कमरे में पढ़ने की मेज पर लकड़ी के तख्ते पर लिखी हुई गुरु नानक के इस आदर्श वाक्य से समझा जा सकता है-
“नानक नन्हें ही रहो, जैसी नन्हीं दूब,
और रुख सूख जाएगा, दूब खूब की खूब।”

रीता रानी,
जमशेदपुर, झारखंड।

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