गाँधी का शिक्षा दर्शन : कितना प्रासंगिक

गाँधी का शिक्षा दर्शन : कितना प्रासंगिक

महात्मा गाँधी के विराट् व्यक्तित्व का प्रभाव भारतीय मानस पर मर्यादा पुरुषोत्तम राम के आदर्श जीवन से कम नहीं है. अल्बर्ट आइंस्टीन ने सही कहा था कि आने वाली सदियां विश्वास नहीं करेंगी कि गांधी जैसा हाड़ मांस का कोई पुतला इस धरती पर चला होगा।राष्ट्र पिता मोहन दास करम चंद गाँधी शिक्षा के पुजारी थे। उनके चरित्र निर्माण में पुस्तकों में पढ़े महापुरुषों की जीवनी का प्रभाव था. उन्होंने अपनी आत्मकथा में भी लिखा है कि बचपन में उनके दार्शनिक विचारों के निर्माण में रामायण,भगवद्गीता,वैष्णव संतों, जैन संतों,का बहुत प्रभाव पड़ा। उनके व्यक्तित्व पर मैक्सम्युलर,वाशिंगटन,इरविन, रस्किन,ऐनी बसंत, महावीर, ईसा, मुहम्मद, कृष्ण का बहुत प्रभाव पड़ा था। गाँधी को परम्परागत दार्शनिक नहीं कहा जा सकता लेकिन उन्होंने अपने दार्शनिक विचारों को व्यावहारिक जगत में प्रयोग करने की कोशिश की। उनके शिक्षा दर्शन का उनके जीवन काल में ही बहुत प्रचार हुआ। गाँधी जी ने किसी नए दर्शन की स्थापना भी नहीं की सिर्फ भारतीय दर्शन की मुख्य बातों को व्यावहारिक रूप दे दिया. इसी व्यवहारिक रूप को गांधी दर्शन,या गांधीवाद या सर्वोदय दर्शन कहा जाता है।

राष्ट्रपिता गाँधी बहुत बड़े समाज सुधारक और शैक्षिक विचारक भी थे वे शिक्षा को व्यक्ति का जन्म सिद्ध अधिकार मानते थे। उनका कहना था कि बच्चे के लिए माँ का दूध जितना आवश्यक है उतना ही भौतिक और आध्यात्मिक विकास के लिए शिक्षा आवश्यक है. यही कारण है कि उन्होंने चौदह वर्ष तक के बच्चों के लिए शिक्षा को अनिवार्य बनाने पर जोर दिया था उन्होंने साक्षरता और शिक्षा में अंतर स्पष्ट करते हुए कहा था कि “साक्षरता ना तो शिक्षा का अंत है ना प्रारम्भ,यह केवल एक साधन है जिसके द्वारा पुरुष और स्त्री शिक्षित हो सकते हैं. “ गाँधी ने स्पष्ट कहा कि ” शिक्षा से मेरा अभिप्राय बालक के शरीर मन और आत्मा के उच्चतम विकास से है। ‘’

१९३७ अक्टूबर में जब वर्धा में पहली बार अखिल भारतीय शैक्षिक सम्मेलन का आयोजन हुआ था तब उसके उद्घाटन में गाँधीजी ने अपनी शिक्षा नीति के महत्वपूर्ण पक्षों पर चर्चा करते हुए तीन प्रस्ताव रखा था । पहला कि बच्चों को सात वर्ष की उम्र से निः शुल्क और अनिवार्य शिक्षा मिलनी चाहिए। दूसरा प्रस्ताव था कि यह शिक्षा उन्हें उनकी मातृभाषा में ही मिलनी चाहिए । अनिवार्य और नि:शुल्क शिक्षा उन्होंने मातृभाषा में दिए जाने का प्रस्ताव रखते हुए कहा कि इस शिक्षा में हस्तशिल्प को भी शामिल करना चाहिए। इस चर्चा में प्रसिद्ध गांधीवादी शिक्षा शास्त्री विनोब भावे , काका कालेलकर तथा ज़ाकिर हुसैन जैसे विद्वान भी शामिल थे। इन प्रस्तावों पर एक राष्ट्रीय शिक्षा नीति तैयार की गई जो देश भर में नई तालीम, बुनियादी शिक्षा तथा वर्धा योजना के नाम से लोकप्रिय हुई । गाँधी जी बुनियादी शिक्षा को सामाजिक परिवर्तन का एक साधन मानते थे । उनके विचार से जब तक व्यक्ति का शारीरिक मानसिक और आध्यात्मिक विकास नहीं होता तब तक समाज का उत्थान नहीं हो सकता। ये तमाम बातें हम बी एड के पाठ्यक्रम में विशेष रूप से पढ़ाते आये हैं किन्तु गाँधी के सिद्धांतों को बी एड की डिग्री प्राप्त करने के बाद व्यावहारिक शिक्षण में शिक्षक अपना नहीं पाते। । इन सिद्धांतों को पाठ्य पुस्तकों के अलावा कहीं कोई स्थान नहीं मिल पाया। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद कोठारी कमीशन,यशपाल कमिटीतथा अन्य शिक्षा नीतियों में गाँधी की शिक्षा पद्धति को अपनाने के सुझाव दिए गए पर किसी सरकार ने इन नीतियों को गंभीरता से नहीं लिया। आज भी मैकॉले की शिक्षा पद्धति ही अधिकाँश राज्यों के निजी स्कूलों में चल रही है।

गाँधी जी के शिक्षा दर्शन का मूल उद्देश्य एक नवीन समाज की संरचना करना था किंतु इस से यह नहीं समझना चाहिए कि उन्होंने व्यक्ति के विकास से अधिक समाज को महत्व दिया। वो ऐसे लोगों का संगठन बनाना चाहते थे जो सेवा का व्रत अपनाये और किसी के आगे झुके नहीं।

बुनियादी शिक्षा जिसे अंग्रेजो ने बेसिक शिक्षा के रूप में बेहतर समझा गाँधी के शिक्षा दर्शन का मूर्त रूप थी। गाँधी जी आदर्शवादी विचार धारा के थे।वे शिक्षा को वास्तविक जीवन से जोड़ना चाहते थे। शिक्षा के साहित्यिक पहलू से अधिक सांस्कृतिक पहलू को महत्वपूर्ण मानते थे । महात्मा गांधी के अनुसार “ जो शिक्षा चित्त की शुद्धि ना करे , निर्वाह का साधन ना बनाए तथा स्वतंत्र रखने का हौसला ना उपजाए , उस शिक्षा मे चाहे जितनी जानकारी का ख़ज़ाना हो, तार्किक कुशलता और भाषा पांडित्य हो, वह सच्ची शिक्षा नहीं हो सकती।” यह कहा जा सकता है कि गाँधी जी के जीवन दर्शन ने भारतीय जीवन में एक क्रांति को जन्म दिया। आज की शिक्षा हमें ज्ञान बहुत दे रही है परंतु क्या सचमुच शिक्षित कर रही है? सूचनाओं का भंडार है आज की शिक्षा लेकिन गूगल बाबा और गाँधी बाबा के बीच एक गहरी खायी है । चित की शुद्धि का कोई स्थान नहीं है आज की शिक्षा में। यदि आज गाँधी होते तो अपने सपनों के भारत का खंडित रूप पहचान नहीं पाते ।

गाँधी जी ने अपने समाचार पत्र “हरिजन” में शिक्षा सम्बंधित अपने विचार रखते हुए स्पष्ट लिखा है कि “राष्ट्र के रूप में हम शिक्षा में इतने पिछड़े हुए हैं कि यदि हमने शिक्षा का यह कार्यक्रम धन पर आधारित किया , तो हम राष्ट्र के प्रति अपने उत्तरदायित्वो को इस पीढ़ी में थोड़े समय में निर्वाह करने की आशा नहीं कर सकते ।अतः मैंने अपनी रचनात्मक योग्यता की ख्याति को संकट में डाल कर यह प्रस्ताव करने का साहस किया है कि शिक्षा आत्म निर्भर होना चाहिए।” इन दिनों आत्म निर्भर भारत की चर्चा सरकार में खूब हो रही है।जिस भारत ने पिछले सत्तर वर्ष मकौले की शिक्षा पद्धति को अपना कर केवल क्लर्क तैयार किये उस शिक्षा से हम आज अचानक आत्म निर्भर भारत बनाने की उम्मीद कैसे कर सकते हैं? गाँधी की जिस बुनियादी शिक्षा को हमने छोड़ दिया उस शिक्षा पर वापस जाने के लिए मेन्टल ब्लॉक, माइंड सेट , जैसी विघ्न बाधाएं आएँगी ही। तकनीकी शिक्षा आज के युग की मांग है और इस के बिना आत्म निर्भर बनने की कल्पना भी नहीं की जा सकती। गाँधी जी ने हस्त शिल्प पर अधिक बल दिया था.उन्होंने स्पष्ट लिखा था कि बालकों को हस्त कार्य के द्वारा उपयुक्त शिक्षा देने पर ध्यान देना चाहिए जो एकांगी क्रिया नहीं बल्कि बौद्धिक प्रशिक्षण का मुख्य साधन है। आज हस्त शिल्प को हाशिये पर रख कर तकनीकी शिक्षा और डिजिटल भारत के साथ आत्म निर्भर होने की कोशिश की जा रही है।

गाँधी जी मैकाले की शिक्षा के विरोधी थे क्योंकि उनका लक्ष्य ऐसे पढ़े लिखे लोगों की जमात तैयार करना था जो रक्त एवं वर्ण से भारतीय हो परन्तु पसंद,आचार, विचार , आवरण एवं विद्वत्ता से अँगरेज़ हो। गाँधी आदर्शवादी थे। उन्होंने शिक्षा को कक्षा की चारदीवारी से बाहर निकाल कर व्यक्ति के जीवन से जोड़ना चाहा था। भारतीय संस्कृति के आधार पर सर्व धर्म समभाव रखते हुए ,सर्वांगीण विकास के लिए एक उपयुक्त शिक्षा योजना बनायीं थी जिसे उनके सपनों के भारत ने आज़ादी के बाद खारिज कर दिया। जिस आल राउंड डेवलपमेंट की बात आज अंग्रेजी माध्यम के स्कूल करते हैं वह गाँधी के विचारों से मेल नहीं खाता। उस सर्वांगीण विकास में आध्यात्मिक विकास कहीं नहीं आता. उस सर्वांगीण विकास में शारीरिक श्रम को अहमियत नहीं दी गयी। गाँधी जी ने शारीरिक श्रम को मानसिक श्रम से कम नहीं माना था लेकिन आज की भौतिक संस्कृति की पीढ़ी शारीरिक श्रम करने वालों को हिकारत और हीनता की दृष्टि से देखती है। भौतिकता और शहरी ताम झाम के पीछे दौड़ाती , पाश्चात्य संस्कृति को अपनाने को प्रेरित करती, मैकॉले की शिक्षा ही भारतीय शिक्षा पद्धति बन गयी। हमने गांधी को भुला दिया पर मैकॉले को नहीं भूल पाए।

गाँधी जी ने अपनी शिक्षा योजना को अफ्रीका में ही फीनिक्स आवास पर तीस बच्चों के बीच प्रयोग किया और उन्हें शिक्षा देने का कार्य स्वयं संभाला। ये बच्चे दो घंटे पढ़ते और फिर दो घंटे कृषि सम्बन्धी कार्य करते और फिर छापाखाने में कार्य करते। इस तरह वे अपना पूरा दिन अध्ययन और शारीरिक श्रम करके व्यतीत करते। गाँधी जी ने टॉलस्टॉय फार्म पर भी यह प्रयोग कर देखा था, यहाँ उन्होंने नैतिक शिक्षा पर अधिक बल दिया। टॉलस्टॉय फार्म में गाँधीने लड़के लड़कियों को शारीरिक श्रमदेने के लिए फार्म पर ही काम करवाया। आज कितने स्कूलों में इस तरह के शारीरिक श्रम शिक्षकों के निर्देशन में करवाए जाते हैं? घर और घर के बाहर भी कितने बच्चे ख़ुशी से अपने हाथों से काम करना चाहते हैं ? इस प्रयोग के आधार पर ही साबरमती के तट पर उन्होंने जब अपना आश्रम १९१५ मई में स्थापित किया तब साथ ही एक विद्यालय भी खोला गया. नेरवाडा जेल में कारावास में रह कर उन्होंने अपने इन प्रयोगों और विचारों को लिपिबद्ध किया। उनके शिक्षा संबंधित विचार प्रगतिशील विचार के थे लेकिन उनके शिक्षा दर्शन में आदर्शवाद,प्रकृतिवाद,और प्रयोजनवाद भी था। गाँधी दर्शन का आधार आदर्शवाद है लेकिन प्रकृतिवाद और प्रयोजनवाद उसके सहायक हैं.उनके शिक्षा दर्शन को आदर्शवाद इसलिए कहा जाता है क्यों कि वह मानव जीवन के अंतिम लक्ष्य को प्राप्त करने की प्रेरणा देता है. प्रकृतिवाद इसलिए कहा जाता है क्योंकि वह बालक को उसकी प्रकृति के अनुसार देखता है. प्रयोजनवादी इसलिए कहा जाता है क्योंकि बालक उसकी रूचि के सीखने पर बल देता है ताकि पाठ्यक्रम के सभी विषयों में समन्वय एवं एकीकरण स्थापित हो सके। ये तीनो शिक्षा दर्शन अलगऔर स्वतंत्र नहीं बल्कि बच्चों के सर्वागीण विकास के लिए बहुत आवश्यक है । . यदि नई शिक्षा नीति उसे लागू कर सके गांधी की बुनियादी शिक्षा को आज भी प्रासंगिक बनाया जा सकता है. रोजगार परक शिक्षा को शारीरिक श्रम और हस्तशिल्प से जोड़ कर देखना होगा .बालक की स्वाभाविक प्रवृत्ति के अनुकूल उसके सामाजिक सांस्कृतिक परिवेश को भी ध्यान में रखना होगा .बालक में ऐसे नागरिक सुलभ गुणों का विकास स्कूल से ही करना चाहिए ताकि वह एक जनतंत्रीय समाज का सदस्य बन सके । पाठ्यक्रम व्यावसायिक प्रशिक्षण के आस-पास हो. बाल केंद्रित शिक्षा हो, पुस्तक केंद्रित नहीं, तभी हम गांधी जी के सपनों के भारत को साकार कर पाएंगे।

डॉ जूही समर्पिता
प्राचार्या ,डी बी एम एस कॉलेज ऑफ एजुकेशन जमशेदपुर

0
0 0 votes
Article Rating
1K Comments
Inline Feedbacks
View all comments