भारत के महानायक:गाथावली स्वतंत्रता से समुन्नति की- धोंडो केशव कर्वे

महर्षि धोंडो केशव कर्वे

आजादी की आकांक्षा लिए संपूर्ण हिंदुस्तान अपने जीवन और स्वप्नों की आहुति देने के लिए कृत संकल्प था। हालांकि भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन की अगुवाई करने वाले राष्ट्र नायक यह भली-भांति जानते थे कि यह लक्ष्य न सिर्फ़ वृहद हैं अपितु तब तक अधूरा है जब तक जन-जन तक जागरूकता की लहर न पहुंचे, जब तक समाज में नवचेतना का बिहान न हो, जब तक समाज में,देश में लैंगिक बराबरी न हो।

स्वाधीनता के वृहद स्वप्न को साकार करना, महिलाओं को शिक्षित करना, समाज के विकास में महिलाओं की भूमिका को गंभीरतापूर्वक सहर्ष स्वीकार करना, उनके अस्तित्व को गरिमामय पद प्रदान करना, विधवाओं के लिए जीवन के नए आयाम खोलना ये कुछ ऐसे लक्ष्य थे जो सुरसा की तरह मुंह विस्फारित किए बैठे थे और जिसके लिए हिंदुस्तान के जागरूक शुभचिंतकों को अथक प्रयास करने की आवश्यकता थी।

ऐसे तमाम ज्वलंत मुद्दों को अपने जीवन का ध्येय बनाने वाले, बेहद गरीब परिवार में जन्म लेकर भी अपने लक्ष्य को सर्वोपरि रखने वाले महर्षि डॉ धोंडो केशव कर्वे का नाम हमारे देश में बहुत ही सम्मान और आदर के साथ लिया जाता है ।

महर्षी कर्वे का जन्म महाराष्ट्र के रत्नागिरी में 18 अप्रैल 1858 को हुआ था। आपके पिता श्री केशव पंत और मां श्रीमती लक्ष्मी बाई बहुत ही स्वाभिमानी और उच्च विचारों वाले दंपति थे। किंतु आर्थिक विपन्नता से इस परिवार को सदैव जूझते रहना पड़ा था।

महर्षी कर्वे की प्रारंभिक शिक्षा गांव के ही प्राइमरी स्कूल में हुई। कुछ वर्षों तक आपने घर पर ही स्वाध्याय अपनी पढ़ाई जारी रखी। 1881 में मुंबई के रॉबर्ट मनी स्कूल से हाई स्कूल की परीक्षा पास की। 1884 में गणित विषय में विशेष योग्यता के साथ स्नातक की परीक्षा उत्तीर्ण की। परिवार की आर्थिक स्थिति से जूझते हुए मात्र 15 वर्ष की आयु में वैवाहिक जीवन से बंधकर एक नई जिम्मेदारी का भार उनपर आ पड़ा किंतु समाज को नई दिशा दिखाने की लालसा ज़रा भी कम ना हुई।

समाज का बेहतर नेतृत्व करने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं राव साहब मांडलिक तथा सोमेन गुरुजी जैसे कर्मठ योद्धाओं के संपर्क में आकर आपके अंदर समाज सुधार का भाव बृहद आकार लेता रहा। महर्षी कर्वे ने जब गोपाल कृष्ण गोखले, दादा भाई नौरोजी जैसे समाजसेवियों के पदचिन्हों पर चलने की शुरुआत की तभी काल ने उनपर कठोर आघात किया और उन्हें अपनी जीवनसंगिनी से हाथ धोना पड़ा। किंतु समाज सुधार की यात्रा पर उन्होंने विराम चिन्ह नहीं लगाया।

पहली पत्नी राधा बाई की मृत्यु के पश्चात 1893 में अपने मित्र की विधवा बहन गोड़ बाई से विवाह किया।
1896 में पुणे के हिंगले नामक स्थान पर दान से प्राप्त भूमि पर विधवा आश्रम और अनाथ बालिका आश्रम की स्थापना की।

महर्षी कर्वे के जीवन का सबसे दिलचस्प पहलू यह है कि आप भारत के पहले जीवित व्यक्ति थे जिन पर भारतीय डाक विभाग ने टिकट जारी किया था। लोग उन्हें आत्मीयतावश अन्ना कर्वे भी कहकर पुकारते थे। अपनी मेहनत और प्रतिभा के बल पर महर्षी कर्वे दक्कन शिक्षा समिति के आजीवन सदस्य बने रहे। कई विधवाओं का पुनर्विवाह भी आपने करवाया।

सन 1916 में महिला विश्वविद्यालय की नींव रखी। श्री कर्वे की लगन और मेहनत की वजह से कुछ ही वर्षों में यह विश्वविद्यालय विधवाओं को समाज में आत्मनिर्भर बनाने का एक अनूठा, नायाब संस्थान बन गया। महिला सशक्तिकरण के के ऐतिहासिक प्रयास एवं महिला स्वावलंबन के लिए कर्वे सदैव याद किए जाते रहेंगे।

सन 1931- 32 में महिला विश्वविद्यालय के संस्थापक और कुलपति के रूप में आपने इंग्लैंड,जापान,अमेरिका,अफ्रीका सहित लगभग 35- 40 देशों की यात्राएं की। विदेशी महिला विश्वविद्यालय की कार्यप्रणाली और वहां की व्यवस्था का बारीकी से अध्ययन किया। वहां के विद्वानों से मिले और अपने स्वप्न को साकार करने के लिए दान स्वरूप पर्याप्त मात्रा में धनराशि भी प्राप्त किया।

महिलाओं और विधवाओं के लिए ही नहीं अपितु उन्होंने इंडियन सोशल कांफ्रेंस के अध्यक्ष के रूप में भी समाज में व्याप्त बुराइयों,कुरीतियों का जमकर विरोध किया। 11 मार्च 1893 में अपने मित्र की बहन गोड़ बाई से जब उन्होंने विवाह किया जो कि एक विधवा स्त्री थी तो विवाह के पश्चात इन्हें परिवार का, समाज का बहुत ही विरोध सहना पड़ा था। आपको समाज से बहिष्कृत किया गया परिवार पर प्रतिबंध लगाए गए किंतु तब भी आपने अपने हौसलों की उड़ान जारी रखी और विधवा विवाह संघ की स्थापना की ।

1896 में अनाथ बालिका आश्रम एसोसिएशन बनाया। उन्नीस सौ में पुणे के पास एक छोटे से मकान में बालिका आश्रम की स्थापना की । महात्मा गांधी ने भी महिला विश्वविद्यालय की स्थापना और मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा देने के उनके विचार का स्वागत किया।

सन् 1936 ई. में गांवों में शिक्षा के प्रचार के लिए महर्षि कर्वे ने “महाराष्ट्र ग्राम प्राथमिक शिक्षा समिति” की स्थापना की, जिसने धीरे-धीरे विभिन्न गाँवों में 40 प्राथमिक विद्यालय खोले। स्वतंत्रताप्राप्ति के बाद यह कार्य राज्य सरकार ने सँभाल लिया।
सन् 1915 ई. में महर्षि कर्वे द्वारा मराठी भाषा में रचित “आत्मचरित” नामक पुस्तक प्रकाशित हो चुकी थी।

महर्षी कर्वे के सामाजिक क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रयासों के कारण उन्हें कई पुरस्कारों और सम्मानों से भी नवाजा गया है। 1942 में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय द्वारा डॉक्टरेट की मानद उपाधि से सम्मानित किया गया ।1951 में पुणे विश्वविद्यालय द्वारा डी लिट की उपाधि से नवाजा गया। वर्ष 1955 में भारत सरकार ने डॉ कर्वे को ‘पद्मभूषण’ से और वर्ष 1958 में देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया गया था।

साल 1962 में 9 नवंबर को 104 वर्ष की लंबी आयु को आदर्श रूप से ,मिसाल के रूप में जीते हुए केशव कर्वे जी ने इस संसार को अलविदा कह दिया।

डाॅ रत्ना मानिक
भारत

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