मकर संक्रांति

मकर संक्रांति मकर राशि में कर प्रवेश रवि, ऊर्जा नवल धरे | जीवन के पावन आँगन रवि, मंगल ज्योति भरे | उत्तरायण जाए दिवाकर, ऋतु नव बदल रही | शिशिर गिराता पीत वसन है, मधु ऋतु मचल रही | मन में मंगल भाव लिए जन, पुण्य प्रताप वरें | जीवन के पावन आँगन रवि, मंगल…

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जाड़े में जनतंत्र

जाड़े में जनतंत्र   गठरी बांधे धूप की, जाड़े में जनतंत्र । शीतलहर में फूँकता,कुहरा जन में मंत्र।।   रैन निहारे बस्तियाँ, बंद घरों में योग। हाड़ कँपाती ठंड में, धूप कुतरते लोग।।   धुआँ रात रचता रहा,स्याही-स्याही रूप। शीत लहर में बैठकर,कुहरा बांचे धूप।।   शैल शिखर को चूम कर,लेकर हिम रैवार। मधुर मदिर…

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राष्ट्र पिता महात्मा गाँधी

राष्ट्र पिता महात्मा गाँधी शर्मसार हैं हम बापू , अंधे ,बहरे और गूँगे बन कर ही रह गए , क्याें न पड़ा हमारे कानों में किसान, मज़दूर और दलित का क्रंदन, क्याें न हम देख पाए निम्न वर्ग का शोषण, क्याें न हमने आवाज़ उठाई अत्याचार के ख़िलाफ़, क्याें हम सुषुप्ति में डूबे रहे बेख़बर,…

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“गृहस्वामिनी को वार्षिकोत्सव की शुभकामना”

“गृहस्वामिनी को वार्षिकोत्सव की शुभकामना”   वार्षिकोत्सव के संग आज़ हर घर पहुंची गृहस्वामिनी, साहित्य कर्म मानवता धर्म को समर्पित हमारी यह दैनंदिनी। महिलाओं की यह पत्रिका महिलाओं की यह सहगामिनी, महिलाओं द्वारा हीं है संचालित साहित्य समृद्धशालिनी।   सफर संघर्ष भरा शुरू हुआ था छ: बरस कहीं पहले, एक-एक कलम के सिपाही जोड़ काम…

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ममता कालिया

ममता कालिया ‘ममता से मिलने चलोगी? मुझसे पूछ रहे थे आदरणीय रवींद्र कालिया जी डायरेक्टर ज्ञानपीठ ‘9 साल छोटी पत्नी’ ‘गालिब छुटी शराब’ फ़ेम के लेखक जिन्हें हमने बचपन से पढ़ा था पत्रिकाओं में मुझसे मुखातिब थे! क्या खुशनुमा दिन होगा! और पूछ रहे थे ममता जी यानी ममता कालिया के बारे में, जिनकी प्रसिद्धि…

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पुनरावृति

पुनरावृति। चारों ओर लुढ़कते पासे हैं, दाँव पर लगी द्रोपदियाँ हैं, लहराते खुले केश हैं, दर्प भरा अट्टहास है, विवशता भरा आर्तनाद है, हरे कृष्ण की पुकार है… चारों ओर पत्थर की शिलाएँ हैं, मायावी छल है, लंपटता है, ना जाने कितनी ही अहिल्याओं की पाषाण देह है, नैनों में आत्म ग्लानि का नीर भरे,…

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अपनी शक्ति पहचानो

अपनी शक्ति पहचानो निर्भया ! अब जागो डरो नहीं, तुम उठो अपनी शक्ति पहचानो कब तलक दामिनी सी अपना मुँह छुपाओगी कोई राम हनुमान नहीं आएँगे बचाने वानर सेना भी तुम बना नहीं पाओगी कृष्ण भी चीर ना बढ़ाएगा राम के रहते भी हरी गई थी सीता दुःशासनी दुनिया में अंधे तो थे ही अब…

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हम अब भी आज़ाद नहीं….

हम अब भी आज़ाद नहीं…. आज़ाद हो गया है भारत, हम अब भी आज़ाद नहीं, फल-फूल रहे मुट्ठीभर लोग, सारे हुए आबाद नहीं। है कहां सुरक्षित अब भी, मेरे भारत की हर बाला, वासनांध दुष्‍टों ने जिसका, जीना दूभर कर डाला, अंधेरा रात सा हिस्‍से में आया, हो सका प्रभात नहीं आज़ाद हो गया है…

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सिवाय आकाश के

सिवाय आकाश के तुम मेरे पर कुतर देना चाहते हो चाहते हो मुझे मेरा आकाश न मिले तुम चाहते हो कि मैं तेरे पिंजरे में बंद होकर रहूँ तेरे सिखाए बोली-बात न भूलूँ मत बिगड़े तुम्हारी कोई व्यवस्था बहलता रहे तुम्हारा मन भी होती रहे तुम्हारी सेवा बराबर मगर अब मुझे भी नहीं दिखाई दे…

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अब न सहूँगी

अब न सहूँगी मारपीट अब बहुत हो गई ओछी हरकत अब न सहूँगी खौफ़ दिया क्रूर कर्मों से भँडास निकाली जी भर कर रोई मैं चुपचाप अकेले करवट बदली रात-रात भर पर न बहाऊंगी सावन अब बिजली बन कर कड़कूँगी मैं वार किया तो चुप न रहूँगी मारपीट अब बहुत हो गई ओछी हरकत अब…

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