ज़हरमोहरा: उर्दू में अनुवादित दिव्या माथुर का कहानी संग्रह

ज़हरमोहरा: उर्दू में अनुवादित दिव्या माथुर का कहानी संग्रह

दिव्या माथुर से तआरुफ़ गुज़िश्ता मई, 2015 में डॉ ज़ियाउद्दीन शकेब के माध्यम से हुआ। किसी हिन्दी कहानीकार को पढ़ने का यह पहला मौक़ा था; मुझे ये फ़ैसला करने में वक़्त नहीं लगा कि ये कहानियाँ उर्दू दुनिया तक भी पहुँचनी चाहिएँ। मुझे दिव्या जी की चंद कहानियों से ही ये अंदाज़ा हो गया कि वो ऐसी दुनिया की सैर कराती हैं जिसके माहौल,तर्ज़-ए-ज़िदंगी, तर्ज़-ए-फ़िक्र और नफ़सियात से हमारी शनासाई मामूली सी है।यानी उनकी ये कहानियाँ यूरोप में रहने वाले हिंदुस्तानियों की कसीर-पहलू ज़िंदगी के गहरे अवलोकन पर आधारित हैं। उनमें समाजी हक़ीक़त पसंदी की वही रिवायत मिलती है जिसकी बुनियाद प्रेमचंद ने रखी है। बेशतर कहानियों में औरत और उसके सामाजिक,आर्थिक और जज़बाती मसले इनके मर्कज़ में हैं। इसके बावजूद ये नहीं कहा जा सकता कि उन पर फेमिनिस्ट नुक़्ता-ए-नज़र हावी है या वो किसी आईडीयालोजी का नारा हैं,बल्कि हर किरदार की रचना वो ऐसी मुंसिफ़-मिज़ाजी,रवादारी और हमदर्दी के साथ करती हैं जिससे अंदाज़ा होता है कि वह इन्सानी रिश्तों की गहरी समझ रखती हैं। उनकी कहानियाँ विदेशों में बसे हिंदुस्तानियों के रहन-सहन,रिश्तों, समस्याओं और पेचीदगीयों की ऐसी कहानियाँ हैं जो ज़िंदगी ही की तरह भरपूर और रंगा-रंग हैं;उनमें मशरिक़ी परंपरा,आदर्श,आचार और संस्कार भी हैं और उनमें आने वाली तबदीलीयों की झलक भी। उनमें पूर्वी और पश्चिमी समाजी मूल्यों का संगम भी है और उनके टकराव से जन्मे हालात की माहिराना अक्कासी भी। उनमें ख़ुद कफ़ील व ख़ुद-मुख़तार औरतों की कामयाबियों की गाथा भी है और दूसरों पर आश्रित औरतों की बेबसी और हक़ीक़ी हालात की दास्तानें भी। मुख़्तसर ये कि इन्सानी रिश्तों की ये ऐसी कहानियाँ हैं जिनमें किरदारों की नफ़सियाती, जज़बाती और समाजी ज़िंदगी के किसी पहलू को नज़रअंदाज नहीं किया गया है,और मेरे ख़्याल में इसकी बुनियादी वजह दिव्याजी का गहरा समाजी शऊर और तेज़ क़ुव्वत-ए-मुशाहिदा है। ज़बान में तख़लीक़ी तजुर्बे करने से उनको ख़ासा लगाव है। कई भाषाओं के अलफ़ाज़ और जुमले वह पात्रों की भाषा-गत शनाख़्त और पस-मंज़र को नुमायां करने और उनको हक़ीक़त का रंग देने के लिए बख़ूबी करती हैं। दिव्या माथुर सलीस, रवां-दवां और नर्म ज़बान में कहानी सुनाने का आर्ट जानती हैं, जैसे ये इन्होंने अपनी नानी-दादी से विरासत में पाया हो।

डॉ अर्जुमंद आरा,
उर्दू विभाग,
दिल्ली यूनीवर्सिटी

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