हरेला

हरेला

आज सोलह जुलाई है। इस दिन हमारे उत्तराखंड का राजकीय पर्व हरेला मनाया जाता है। पर्व की परंपरा यह रही है कि परिवार के मुखिया एक टोकरी में मिट्टी डालकर उसमें गेहूं, जौ, मक्का, उड़द, गहत, सरसों, चना बो देते हैं। नवें दिन डिकर पूजा यानी गुड़ाई होती है। दसवें दिन हरेला काटा जाता है। देवी-देवताओं को अर्पित करने के बाद आशीर्वादस्वरूप उसे परिवार के सभी सदस्यों के सिर पर रखा जाता है। कान के पीछे झूमती हरी-हरी लंबी पतली हरेला की पत्तियां दिन भर पर्व का सूचक बनी झूमती रहती हैं। कहा जाता है कि ‘जी रिया जागि रया। यो दिन-मास भेंटने रया’।
मतलब कि जीते-जागते रहें। यह दिन-महीने आपसे यूं ही भेंटने आते रहें।

जब तक आबादी कम,जमीन ज्यादा, सुविधाएं क्षीण थीं तब तक यह पर्व स्वाभाविक हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता था। जरूरी भी था। गर्मियों में घड़े का सा ठंडा और सर्दियों में गुनगुनी तासीर वाला पानी प्राकृतिक रूप से तो आखिर बांज के घाट पर ही मिल पाना संभव था ना ? पहाड़ में बिजली ही नहीं तो फिर एसी, पंखा, कूलर की बात कौन कहे ? ये पेड़ भी ना हों तो कौन फर्क कर पाएगा रेगिस्तान की गर्मी और पहाड़ की बर्फ जैसी सर्दी में। कहां कोई अस्पताल, कोई डॉक्टर, कोई दवा बनी पिछले जमाने में पहाड़ों के लिए ? इसीलिए तो क्षय रोग था हर घर में किसी न किसी को निगलने को आतुर। छह महीने के निर्वासन में वन में गए रोगी को चीड़ और देवदार के पेड़ों की हवा ही संभालती थी। आखिरी सांस गिनते मरीज के भी मौत के मुंह से लौट आने का कमाल ही था कि भवाली में एशिया के सबसे बड़े टी.बी सेनिटोरियम की स्थापना हो गई।

गढ़वाल में ग्वीराल, कुमाऊं में क्वीराल और मैदानी इलाके में कचनार कहे जाने वाले वृक्ष की फलियों, छाल, फूल का सेवन भी अमृत से कम नहीं। शरीर में कहीं भी कैंसर जैसी गांठ हो जाए तो उसे गलाने और रक्त विकारों से निजात पाने के लिए कचनार है ना ! इसके नियमित उपयोग से बदन खुद कचनार ना हो जाए तो कहिए। तभी तो अपने बैंगनी, गुलाबी फूलों के साथ यह जगह-जगह खड़ा मिल जाता था तब। इसी तरह सेमल भी है। सब्जी बनाइये इसके फलों की तो स्वाद ऐसा कि मुर्गा, मछली में स्वाद तलाशने वालों को भी विमुक्त कर दे मांसाहार से। शरीर को निरोगी रखने वाले कई गुणों की खान भी है यह लाल फूल वाले पेड़ का फल ‘सेमल डोडा’। पेड़ तो पेड़, झाड़ियां भी उपयोगी हैं, यह जानकर घर के आस-पास बसिंग की झाड़ियों को काटा नहीं जाता था। सफेद मीठे फूल और कड़वी पत्ती वाले बसिंग की सब्जी मधुमेह के लिए रामबाण मानी जाती है। बस इसे कुशलतापूर्वक पकाने की कला आनी चाहिए। बसिंग की तरह ही हैं जगह-जगह खड़ी कढीपत्ते की झाड़ियां। खुशबू के कारण पहाड़ में भले ही उसे गंधेलू जैसा मामूली-सा नाम दिया गया हो, मगर है यह बड़े काम का। इसकी नौ पत्तियों का प्रतिदिन सेवन मोटापा से लेकर मधुमेह तक को भी मात देता है। ‌झोई या कढ़ी, पोहा, फ्राइड राइस, बैंगन की सब्जी किसी भी व्यंजन में इसकी पत्तियों का तड़का स्वाद में चार चांद लगा देता है।

हकीकत यह है कि पहाड़ के रहवासियों के लिए वन ही वैद्य और वनस्पतियां ही दवाई साबित होती आ रही हैं आजतक। इतना होने के बाद भी विडंबना ही है कि सन सत्तर के बाद गौरा देवी, सुंदरलाल बहुगुणा, चंडी प्रसाद भट्ट या अनिल जोशी जैसे नाम इस हरित प्रदेश में पर्यावरणविद के तौर पर जोर-शोर से उभरे।
बढ़ती जनसंख्या के कारण घर बसाने के लिए कहीं न कहीं जमीन तो चाहिए, लेकिन जीवनदायी हरियाली अक्षुण्ण बनी रहे इसके लिए अब शहर-शहर, गांव-गांव में हरेला पर्व अनिवार्य रूप से मनाया जाता है। आंतरिक उत्साह में जरूर कमी है, मगर एक घंटे में कई हजार पौधे रोपने का रिकॉर्ड कायम करने की चाह या ऋषिपर्णा जैसी सूखी और मलिन नदी को फिर से जीवित करने वाली अखबारों की हेडलाइन में अपना नाम और तस्वीरें अंकित करा लेने के उद्देश्य से सत्रह जुलाई को राजधानी देहरादून में कुछ दिन के लिए हरियाली का मेला जुट ही जाता है। संक्रमण के कारण सामूहिकता से बचने और इसे अधिक उपयोगी बनाने के लिए उत्तराखंड की राज्यपाल महोदया ने महिलाओं को इस पर्व को रसोई से जोड़ने का सुझाव दिया है। मतलब कि मसाले या औषधीय पौधों को किचन गार्डन और गमले में रोपित कर हम इस हरित पर्व में अपनी हिस्सेदारी सुनिश्चित करें।

हमने भी दो तुलसी, एक कढ़ी पत्ता और गिलोय का पौधा रोपा है। गिलोय चमत्कारी पौधा होता है। इसमें देह में प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के साथ वात, पित्त और कफ तीनों प्रकार के रोगों को दूर करने की क्षमता होती है। माना जाता है कि गिलोय जिस पेड़ के साथ आगे बढ़ता है उसके गुण स्वयं में समाहित कर लेता है। इसीलिए नीम चढ़ी गिलोय को अधिक उपयोगी माना जाता है। मैंने इसे आड़ू के पौधे वाले गमले में लगा दिया था। इधर गिलोय की हरी-भरी दिल वाली पत्तियां आसपास फैल जाने का रास्ता ढूंढ रही है तो उधर छोटे से पौधे में आड़ू का एक बड़ा-सा फल लाल होता दिख रहा है। कौन किसका हुआ जा रहा है यह तो मालूम नहीं, मगर हमारा हरेला सफल हुआ, यह हमने मान लिया।

प्रतिभा नैथानी

देहरादून

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