राष्ट्रभाषा हिन्दी का संघर्ष

राष्ट्रभाषा हिन्दी का संघर्ष

आज हिंदी बहुत इतरा रही थी।सुबह से ही शुभकामनाओं का मानो तातां ही लगा हुआ था।व्हाट्सएप, फेसबुक, न्यूज चैनल आदि सभी जगह बस हिंदी की ही प्रशंसा।प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, बड़े-बड़े सेलिब्रिटी सभी आज हिंदी के महिमा मंडन में ही लगे थे।हिंदी ने तो आज कोरोना, रिया यहाँ तक कि कंगना को भी रेस में पराजित कर दिया।वैसे बताती चलूँ कि हिंदी की ये खुशियां एक दिन का बुलबुला मात्र से अधिक कुछ भी नहीं।हिंदी भाषा और हिंदी दिवस कटु यथार्थ से ज़रा रू-ब-रू हो लिया जाय।

हिंदी-दिवस के ऐतिहासिक पहलू पर यदि ग़ौर करें तो पायेंगे कि स्वतंत्रता के दो वर्ष पश्चात अर्थात 14 सितंबर 1949 को संविधान सभा में हिंदी को राजभाषा का गौरव प्राप्त हुआ था।तभी से प्रतिवर्ष14 सितंबर को हिंदी-दिवस के रूप में मनाया जाने लगा।दरअसल इसी दिन हिंदी के पुरोधा व्योहार राजेंद्र सिन्हा जी का 50 वां जन्मदिन था, जिन्होंने हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिये बहुत लंबा संघर्ष किया।इनके साथ ही काका कालेलकर, मैथिलीशरण गुप्त, हजारी प्रसाद द्विवेदी, सेठ गोविंद दास आदि ने भी हिंदी के सम्मान हेतु अपना तन-मन-धन सबकुछ समर्पित कर दिया।

हमारे संविधान में अनुच्छेद 343(1)के तहत हिंदी को संघ की राजभाषा का गौरव तो प्राप्त हो गया परंतु साथ ही देश के उच्च पदों पर विराजमान तत्कालीन अंग्रेजी प्रेमी आकाओं ने अनुच्छेद 343(२) के अंतर्गत यह भी व्यवस्था कर दी कि संविधान लागू होने के 15 वर्षों की अवधि अर्थात1965 तक संघ के सभी कार्यों के लिए पहले की ही भांति अंग्रेजी भाषा का प्रयोग होता रहेगा।तर्क यह दिया गया कि इन15 वर्षों में हिंदी नहीं जानने वाले हिंदी सीख जायेंगे और हिंदी भाषा को प्रशासनिक कार्यों के लिये सभी प्रकार से सक्षम बनाया जा सकेगा।ये कुछ ऐसा ही था कि सौतन के हांथो निश्चित समय के लिए घर की बागडोर सौंप देना।और जो दुष्परिणाम ब्याहता को भुगतना पड़ता है वही आज तक हमारी हिंदी भी भुगत रही है।सौतन अंग्रेजी ने पूरे देश पर ऐसा कब्ज़ा जमाया कि हमारी मानसिक गुलामी के वो15 वर्ष कब 70 वर्षों से भी अधिक समय में तब्दील हो गए, पता तक ना चला।

उन्नीसवीं शताब्दी के आरंभ में ही दूरदर्शी महान साहित्यकार भारतेंदु हरिश्चंद्र ने हमें चेताया था….
“निज भाषा उन्नति अहे, सब उन्नति को मूल….”
फिर भी हम तब से लेकर आज तक यह बात नही समझ पाए।आज स्वतंत्रता के सात दशक से भी अधिक समय बीत जाने के पश्चात भी यदि हमारा देश अब तक विकासशील ही रह गया है तो इसमें कहीं न कही हमारी अपनी भाषा की उपेक्षा भी मूल कारणों में से एक है।
ना जाने ये कैसी विडंबना है कि हमारी अपनी ही भाषा, हमारे अपने ही देश में एक विदेशी भाषा के समक्ष अपने अस्तित्व के लिए दशकों से संघर्ष करती आ रही है और ना जाने और कब तक संघर्ष करती रहेगी।

आखिर कब तक हम विदेशी भाषा की वैशाखी के सहारे चलते रहेंगे?आखिर कब तक हमारी अपनी भाषा को हमारे अपने ही लोग हीन दृष्टि से देखते रहेंगे??आखिर हमारी निज भाषा की इस दुर्दशा के जिम्मेदार कौन हैं??और कौन इसका उद्धार करेगा???ये कुछ प्रश्न हैं जो हमारी हिंदी भाषा अपने देशवासियों से आज के दिन पूछ रही है???

डॉ सुधा सहज

0
0 0 votes
Article Rating
219 Comments
Inline Feedbacks
View all comments