बढ़ते कदम : 1947 से आज तक

बढ़ते कदम : 1947 से आज तक

स्वतंत्रता संग्राम, आजादी की लड़ाई, गुलामी से मुक्ति, स्वराज्य – ये मात्र शब्द नहीं हैं। इनसे हमारे भावनात्मक संबंध हैं जो आज से 73 साल पहले 15 अगस्त, 1947 को पूरे हुए। एक कड़े संघर्ष के बाद देश अपने लिए खड़ा था, अपने पैरों पर। अपना राज्य, अपनी व्यवस्था, अपनी सोच और ढेर सारी उमंग । इन 73 सालों मे हमने बहुत कुछ पाया, लम्बी छलांगे लगाई, अन्य देशों के साथ प्रगति की दौड़ में शामिल हुए। लोगों की गरीबी दूर हुई, साक्षरता बढ़ी, औरतों के स्वास्थ्य अच्छे हुए और जो भी तरक्की के मापदंड हैं सबमें कहीं न कहीं अच्छा हुआ है। लेकिन देश की सोच बदलने में सात से ज्यादा दशक निकल गए।

स्वतंत्रता की लड़ाई में क्रांतिकारी के साथ-साथ अलग-अलग आर्थिक विचार धाराएँ भी थीं। महात्मा गाँधी जहाँ गाँवों की आत्मनिर्भरता के कायल थे, नेहरू जी राज्य द्वारा पोषित कल कारखानों के। बड़े बाँध बनें, बड़े संस्थान बनें, दुनियाँ की दौड़ में हमें आगे निकलना होगा-यह सोच थी पहले प्रधानमंत्री की। कमला देवी चट्टोपाध्याय ने हथकरघा, बुनकारों को प्राथमिकता दी। मशीन निर्मित कपड़ों से रोजगार मिलेगा और खादी से सम्मान। स्वतंत्रता सेनानियों ने यह लड़ाई स्वदेशी के नारे पर ही तो लड़ी थी। बहुत बड़ी चुनौती थी हमारे सामने। नई उमंगें तो थी लेकिन साधनों की बहुत कमी थी। कौन-सा रास्ता अपनाएँ? भारत ने फिर रूसी तर्ज पर पाँच वर्षीय योजनाओं को चुना। लेकिन उस समय और इस समय में बदलाव आया है, हालात बदले हैं, लोगों ने दिशाएँ भी बदली हैं। हमारे देश की अपनी पहचान बनी है। गिरते सँम्हलते हमने बहुत कुछ सीखा है।

संवाद एक : कृषि क्षेत्र

भारत शुरु से ही कृषि प्रधान देश रहा है। लेकिन प्रेमचंद के ‘होरी’ से लेकर ‘पिपली लाइव’ फिल्‍म के हीरो तक किसान कर्ज में डूबा हुआ है। मानसून की मार, छोटे खेत, आधुनिक संसाधनों की कमी – ये तो शायद भारतीय किसानों को विरासत में मिलती हैं। भारत की करीब 42 प्रतिशत जनता आज भी कृषि आश्रित है जो आज से 70 साल पहले 80 प्रतिशत थी। 1960 में हरित क्रांति आने से पूरा दृश्य ही बदल गया। आधुनिक तकनीक से खाद्यान्न का उत्पादन जो कि 48 लाख टन था, आज 241 लाख टन हो गया है। चावल गेहूँ, चाय,
दाल, कपास, गन्ना — इन के उत्पादन में हम अब अग्रणी हैं। दूध उत्पादन में तो पहले नम्बर पर हैं। लेकिन लड़ाई अभी लम्बी है और बहुत काम बाकी है। रासायनिक खाद का उत्पादन अभी भी देश में कम है। परम्परागत तरीके से खेती अभी भी होती है। छोटे किसान अभी भी शहरों को पलायन कर रहे हैं तो क्‍या हमारी नीतियाँ सही हैं? हाँ भी और ना भी। किसानों के लिए नीतियाँ बनती हैं, कर्ज भी मुहैया कराया जाता है, तकनीकों की जानकारियाँ दी जाती है। शायद एक-दो पीढ़ी का समय और लगेगा पूरे हालात बदलने में।

संवाद दो : उद्योग क्षेत्र

1947 में बहुत उद्योग ब्रिटिश नागरिकों के हाथ में थे। कुछ उद्योग जैसे टाटा स्टील, मफतलाल, साराभाई इत्यादि लोहे और कपडे के व्यापार में स्वदेशी कम्पनियाँ थीं, लेकिन उद्योग-कारखाने कम थे। देश की पहली औद्योगिक नीति 1956 में बनी। सुदूर पिछड़े इलाकों में सरकारी सहायता से उद्योग लगाए गए। सरकार साबुन, स्कूटर, ब्रेड से लेकर कपडे, जहाज, सुई, कैमरे सब बनाने लगी। 1991 की औद्योगिक नीति ने निजी क्षेत्र को बढ़ावा देने की बात कही। आज देश में हम सब कुछ खुद बनाने की क्षमता रखते हैं। दवाईयाँ बनाने में भारत अग्रणी है। आईटी सेक्टर में तो भारतीयों का मुकाबला ही नहीं है। सारे आंकड़े बताते हैं किहम आज विश्व की पाँचवी बडी आर्थव्यवस्था हैं। हमारे स्वतंत्रता सेनानियों ने भी तो यही सपना देखा था कि “सबसे आगे होगा हिन्दुस्तानी” |

संवाद तीन : इंफ्रास्ट्रक्चर

रेल, रोड, बंदरगाह — इन सभी क्षेत्रों में बड़ी तरक्की हुई है। 1947 में रोड की लम्बाई 4 लाख किलोमीटर से बढ़कर आज 2017-2020 में 60 लाख किलोमीटर हो गई है। रेल के क्षेत्र में दुर्गम इलाके कश्मीर, अगरतल्ला, दीमापुर, ईटानगर सभी रेलमार्ग से जुड़ चुके हैं। अंकों के गणित में नहीं पडकर बस इतना कह सकते हैं कि देश में इस क्षेत्र में बहुत काम हुआ है। सड़कों ने, रेल ने लोगों को हर तरफ से बाँधा है।
इंडिया @75 एक नया लक्ष्य घोषित हुआ है। इसका अर्थ है कि देश के स्वतंत्रता दिवस की 75वीं वर्षगांठ पर हमें बहुत कुछ प्राप्त करना है। लेकिन ये सब इतना आसान नहीं है। आत्मनिर्भर भारत बनने के लिए शायद फिर से संर्घघ करना होगा। इस वर्ष कोविड के कारण अर्थव्यवस्था में बड़ी बाधाएँ आई हैं। उसको पटरी पर लाने के लिए कोशिश जारी है। बेरोजगारी की समस्‍या भी मुँह बाए खड़ी है। लेकिन ‘उनन्‍नति’ पोर्टल के माध्यम से रोजगार मुहैया कराए जा रहे हैं। वक्‍त हमारे साथ है और क्षमता भी। राज्य और केंद्र सरकार सहभागिता में काम कर रही हैं। आजादी के समय हमारे नेताओं की, लोगों की बड़ी आकांक्षाएँ थी कि एक सशक्त भारत बने, जहाँ हर बच्चा पढ़ सके, हर बीमार दवा पा सके, हर इंसान पेटभर खा सके। गाँधी जी ने ऐसे भारत की कल्पना की थी जो केवल अमीर और शक्तिशाली ना हो बल्कि समदर्शी हो और सभी लोगों को बराबर का अधिकार प्राप्त हो। हम तरक्की की दौड़ में तो आगे निकल गए लेकिन गरीबी और अमीरी का अंतर कम न कर पाए।
भारत एक बहुत प्रबुद्ध राष्ट्र है, असीमित आकांक्षाओं और शक्ति के साथ। इसमें अपनी गलतियों से लड़ने की क्षमता है। हमारा सच तो यह है कि इन बहत्तर सालों में भारत चाँद तक पहुँचा, लेकिन हर आँसू अभी भी नहीं पोंछ पाया। अब “हर घर में खुशी” यही नारा होना चाहिए हमारा और शायद स्वतंत्र भारत के सपने देखने वाले भी इस पीढ़ी से यही उम्मीद रखते हैं।

डॉ. अमिता प्रसाद

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