एक और स्वप्न

एक और स्वप्न

बाहर तेज गर्जना के साथ बारिश हो रही थी, रात गहराने लगी थी। मैं भी रसोई और अन्य सारे कार्यों से निपट कर बस बिस्तर पर पड़ ही जाना चाह रही थी कि अचानक फोन की घंटी बज उठी। उधर नयना दीदी थी, भर्राई हुई आवाज में उन्होंने कहा-“प्रोफ़ेसर साहब नहीं रहें।”मैं स्तब्ध, क्या कहूं ,समझ में नहीं आ रहा था। शब्दों पर मानो बर्फ जम गया हो।नयना ,मेरी अग्रजा और प्रोफेसर साहब उसके जेठ थे। सगे नहीं, दूर के रिश्ते से। नैना दीदी और प्रोफ़ेसर साहब के परिवार के बीच रिश्तों की बुनावट में जितनी दूरी रही हो, परंतु यह दूरी भावनाओं की गर्माहट में नहीं थी। यह रिश्ता आत्मीयता और परस्पर सम्मान की गरम शॉल में लिपटा हुआ था। कुछ तो एक ही शहर में दोनों परिवारों के बस जाने और कुछ मानसिक तारतम्यता के तार जुड़े होने के कारण दोनों परिवारों को एक- दूसरे का साथ हमेशा सुखद लगता था।

दस दिन पहले ही मेरी जब नयना दीदी से बात हो रही थी, तो उन्होंने बताया था कि प्रोफेसर साहब के चाचा जी, कोरोना पॉजिटिव हो गए हैं। चाचा जी नि:संतान थे, एक बड़ी सरकारी औद्योगिक इकाई के ऊंचे ओहदे से सेवानिवृत्त होकर सुख-चैन का जीवन बिता रहे थे। पैसे की कमी तो थी नहीं, चाचीजी और एक घरेलू सहायिका के साथ बाकी के दिन आराम से कट रहे थे।

अपनी युवावस्था में कुछ तो अपने सुदर्शन होने के कारण और कुछ उच्च डिग्रीधारी, उच्चपदस्थ पदाधिकारी होने का गुमान-इन सबने चाचाजी को इतने अहंकार से भर दिया था कि उन्होंने सीधी-सादी ग्रामीण पृष्ठभूमि वाली पत्नी को अपने जीवन में कभी महत्व ही नहीं दिया। परिणाम था परिवार का वंशबेल अंकुरित ही न हो पाया। प्रोफेसर साहब और उनके छोटे भाई दोनों एक दोमंजिला मकान में साथ -साथ रहा करते थे। नीचे तल्ले पर प्रोफेसर साहब और ऊपर तल्ले पर उनके अनुज ,जो बैंक अधिकारी हैं। समय पड़ने पर गाहे-बगाहे इन दोनों भाइयों का ही सहारा चाचाजी के काम आ जाता था ।

एक शाम चाचाजी की नौकरानी ने उधर से फोन पर बहुत घबराकर कहा-‘जल्दी आइए, मालिक जमीन पर गिर गए हैं, मुझसे उठाए नहीं उठ रहें।’ ऐसी बात नहीं थी कि चाचाजी को अस्पताल में दाखिल करवाने की कोशिश नहीं की गई थी, परंतु उनके उच्च अभिजात्य सोच ने घर की सुख- सुविधाओं का त्याग करना नहीं चाहा था। बिस्तर से वह नीचे कैसे गिर पड़े, यह पता नहीं चल पाया और भारी-भरकम शरीर को उन दो महिलाओं के द्वारा उठाकर फिर से बिस्तर पर डालना संभव न हो पाया होगा। बड़े -बड़े बंगलों की चहारदीवारी के बाहर पड़ोसी भी तो जरूरत पर तत्काल कहां मौजूद हो पाते हैं।

प्रोफेसर साहब ने गाड़ी निकाली, अनुज को साथ लिया और गाड़ी तेजी से चाचाजी की ओर जाने वाली सड़क को नापने लगी। वहां पहुंचकर दोनों भाइयों ने किसी तरह चाचा जी को उठा कर बिस्तर पर डाला, थोड़ी देर बैठे, व्यवस्थाओं की देखरेख की और चाचीजी को ढांढस बंधा कर वापस अपने घर लौट आए। पर कहां पता था कि गए तो दोनों भाई ही थें, परंतु आते वक्त कोरोनावायरस भी सहयात्री हो आया। घर लौट कर दोनों भाइयों ने स्नानादि कर कपड़े बदले और भोजन कर सो गएं। दूसरे दिन उन्होंने टेलीफोन से ही चाचाजी की खैर खबर पूछी। चाचाजी की हालत संतोषप्रद थी।

शाम होते- होते प्रोफ़ेसर साहब सरदर्द की शिकायत करने लगे, शरीर भी हल्का गर्म लगने लगा। वे बालकनी से उठकर अंदर आएं और बिस्तर पर लेट गएं। निलंजना दी, प्रोफेसर साहब की पत्नी, तुलसी की चाय बना कर ले आईं और बिस्तर के बगल की ही कुर्सी पर बैठकर प्याला प्रोफेसर साहब की ओर बढ़ाया। दोनों ने चाय पी, परंतु रात्रि का भोजन प्रोफेसर साहब ने बहुत अनमने ढंग से किया। सुबह उठने पर उनका शरीर ज्वर से तप रहा था, रह -रहकर हल्की खांसी भी होने लगी। निलंजना दी, अनहोनी की आशंका से कांप उठीं, क्योंकि प्रोफेसर साहब की तबीयत में जो भी परिवर्तन दिख रहे थे, वह चाचाजी के घर से लौटने के बाद ही उभरे थें। उन्होंने तुरंत डॉ घोष को फोन मिलाया और विस्तार से सारी बातें बता दीं। डॉक्टर साहब ने फौरन ही सबसे पहली हिदायत प्रोफेसर साहब को आइसोलेट कर देने की दी। वीडियो कॉलिंग पर उन्होंने प्रोफेसर साहब से बात की, कोरोना टेस्ट करवा लेने के लिए कहा और दवाइयां व्हाट्सएप पर लिखकर भेज दी। प्रोफेसर साहब का दवाइयों का सेवन शुरू हो गया परंतु सबका ध्यान टेस्ट की रिपोर्ट पर ही अटका रहा।कोरोना का टेस्ट रिपोर्ट निलंजना दी की आशंका को ही सच साबित कर रहा था।’हे प्रभु ,रक्षा करना’- निलंजना दी के मुख से यह अस्फुट प्रार्थना निकली और वह चुपचाप कुर्सी पर बैठ गईं । प्रोफेसर साहब को धीरे-धीरे सांस लेने में दिक्कत महसूस होने लगी। निलंजना दी ने एक पल भी बिना गवाये उन्हें अस्पताल में भर्ती करवा दिया। अस्पताल से लौटते वक्त उनके पांव इस कदर भारी हो गए थे मानो किसी ने पांवों में ईंटें बांध दी हों।

घर लौटकर उन्होंने खुद को स्नानादि कर संक्रमण के चक्रव्यूह से दूर करने की कोशिश की और बत्ती बंद कर निढाल होकर बिस्तर पर गिर पड़ी। आज कमरे का अंधेरा उन्हें कुछ ज्यादा ही गहरा लग रहा था। दिनभर की भागमभाग के कारण शोक संतप्त मन ने कब शरीर को सुला दिया, पता ही नहीं चला। सुबह सोकर उठीं तो शरीर टूटा- सा जा रहा था। उन्हें लगा कि कल की भागमभाग का असर है। लेकिन शाम होते -होते उन्हें लगने लगा कि संक्रमण से वह खुद को बचा नहीं पाई हैं। एक तो प्रोफेसर साहब अस्पताल में पड़े थे और दूसरी ओर क्या वह खुद भी-सोचकर ही वह सिहर उठीं।’ हे प्रभु अब’-पर प्रभु की ओर से कोई उत्तर कहां आने वाला था, अपना ही स्वविवेक कह रहा था कि डॉक्टर घोष से बात कर लो। फिर वही वीडियो कॉलिंग, हिदायतें और दवाइयां। फोन करके उन्होंने अपनी देवरानी को अपनी स्थिति बता दी और किसी को भी निचले तल्ले में आने से मना किया। अपने बिस्तर पर चुपचाप लेटी सोचती रही, इतना एकाकीपन तो किसी को यूं ही बीमार कर देने के लिए काफी है।

उधर अस्पताल में प्रोफेसर साहब की हालत अस्थिर थी। कभी लगता सुधार है, लेकिन ज्यादा देर तक यह स्थिति बनी नहीं रहती। निलंजना दी फोन से अस्पताल के संपर्क में थीं। प्रोफ़ेसर साहब बात करने के हालात में नहीं थें।ऑक्सीजन मास्क उनके चेहरे को आधा ढका हुआ था, बड़े क्षीणकाय और लाचार से दिख रहे थे-घर बैठे -बैठे निलंजना दी ने बड़े मान- मनौव्वल के बाद अस्पताल प्रबंधन की दया -कृपा से उन्हें देखा। आंखें भर आईं उनकी, फिर प्रार्थना में वही अस्फुट से शब्द-‘हे प्रभु, रक्षा करना।’अगर प्रभु ने हर प्रार्थना भरे शब्दों को सुना होता, तो क्या मौत के आंकड़ें समाचारों की सुर्खियां बन पाए होते।

आज पांचवा दिन था, प्रोफ़ेसर साहब को अस्पताल में भर्ती हुए।निलंजना दी, बहुत कमजोरी महसूस कर रही थीं, जैसे किसी ने शरीर की सारी शक्ति निचोड़ ली हो परंतु इच्छा होती थी कि भागकर अस्पताल चली जाएं और किसी तरह प्रोफेसर साहब के पास बैठकर दो- चार बातें कर लें। क्या पता कहीं वह भी उनका इंतजार कर रहे हों, क्या उनका मन नहीं ढूंढता होगा उन्हें। इस तरह तो दोनों कभी अलग-अलग रहे ही नहीं। इन्हीं सोचो में डूबी हुई वह कुर्सी पर आंखें बंद किए हुए अर्द्धलेटी अवस्था में पड़ी हुई थीं, कि गोद में पड़ा उनका मोबाइल बजने लगा। फोन अस्पताल से था-‘मिस्टर रत्नेश सिंह इज नो मोर’। आगे उधर से क्या बोला जा रहा था, उन्हें कुछ भी अब सुनाई देना बंद हो गया था। ऐसा लगा जैसे तेज बवंडर उनके सीने में उठ रहा है।’अब क्या?’-यह सवाल उनके माथे में हथौड़े की तरह वार कर रहा था।
जोर- जोर से चिल्ला कर रोना चाहती थीं वह, परंतु अशक्त शरीर जैसे इस कार्य में भी साथ नहीं दे रहा था। ऐसे उसे अकेले छोड़कर चले जाएंगे वह, इस खबर पर तो उन्हें विश्वास ही नहीं हो रहा था।

जिस अस्पताल से पति की मौत की खबर आई थी, उसी अस्पताल के एक बेड पर अब वह लेटी हुई हैं। वही ज्वर, उखड़ती सांसें, खांसी का प्रकोप। महामारी को इतने से भी चैन न था, उसने आंखों की ज्योति को भी ग्रस लेना चाहा। ‘जीवन के सारे सहारे तो गए ही, और दृष्टि भी।’ ‘ईश्वर आप मुझे भी ले जाओ, किसके लिए जिऊं और अगर जिऊं भी तो किस तरह’-दिल ही दिल में यह कारुणिक प्रार्थना के बोल फूट पड़े। इस बार भी ईश्वर ने उनकी प्रार्थना नहीं सुनी, वह उन्हें अपने पास कहां ले गएं।स्वस्थ होकर लौट रही हैं वह अस्पताल से घर। नेत्रों की ज्योति धीरे-धीरे लौट रही है, परंतु जब तक सांसें चलेगीं, तब तक नियमित रूप से तो दो दवाइयां आंखों में डालनी पड़ेगी।कैसा न्याय है ईश्वर का-यह प्रश्न उन्हें बिंध रहा है। उनके घर लौटने की खबर मिली तो उनसे फोन पर मैंने बात किया-‘तुम्हारे भैया को बहुत जल्दी थी बेटी के पास जाने की। चल दिए वह बस।’बस इतना ही तो बोलीं वह,सुनकर जी भर आया।

निलंजना दी और प्रोफ़ेसर साहब दोनों की एक बिटिया थी। जितनी प्यारी सूरत ,उतनी ही संस्कारी। माता- पिता की परवरिश ने बच्ची के व्यक्तित्व को खूब निखारा था।प्रोफ़ेसर साहब अंग्रेजी भाषा के विशेषज्ञ थे, जेवियर ग्रुप ऑफ लिटरेचर के अध्यक्ष, पाठ्यक्रम तैयार करने वाली कमेटी के सदस्य हुआ करते थे। पढ़ना- लिखना ही उनकी दुनिया थी, कई किताबें लिखी थीं उन्होंने। बिटिया पिता पर ही गई थी, अंग्रेजी भाषा से प्यार करने वाली। अपने करियर का पहला कदम उसने बीआईटी मेसरा में अंग्रेजी के अध्यापन के साथ ही शुरू किया। बाद में एनटीपीसी में अधिकारी संवर्ग में अपनी सेवा देने लगी।

हर माता-पिता की तरह प्रोफ़ेसर साहब ने भी उचित समय पर पुत्री का विवाह किया था। शुरू में उनका दामाद किसी विदेशी धरती पर काम कर रहा था, बाद में वह लौट आया और दोनों कोलकाता में एक साथ रहने लगे। ऐसे ज्यादा दिन नहीं हुए थे दोनों को साथ रहते ,परंतु एक दिन दबी जबान से प्रोफ़ेसर साहब की बिटिया, स्वर्णा ने, मां को कहा-‘ऐसे तो सब ठीक है, लेकिन किसी बात के लिए मना करो तो बहुत बुरी तरह से रियेक्ट करता है।’ बात आई- गई हो गई। दोनों को साथ रहते तीन महीने ही गुजरे थे कि एक दिन अचानक फोन पर निलंजना दी को उनके दामाद ने खबर दी कि स्वर्णा नहीं रही। सुनकर तो दोनों को समझ में ही नहीं आया कि हुआ क्या। रात में ही तो उससे बात हुई थी। रात में स्वर्णा और नरेश दोनों ही बाहर खाना खाने गए थे। लौटकर स्वर्णा ने अपने सास-ससुर से फोन पर बात की और उसके बाद अपने माता-पिता से भी। फिर अचानक से कुछ ही घंटों में यह क्या हो गया? सवाल एक के बाद एक — ममता को ठिकाना चाहिए था अपनी आशंकाओं का-आखिर ऐसा क्या हो गया?

किसी तरह निलंजना दी ने नरेश से कहा, ‘तुम वहीं रुको ,हम लोग अभी आते हैं।’ बस गाड़ी की और भागे- भागे कोलकाता पहुंच गए। रांची से कोलकाता की दूरी ही कितनी है। डॉक्टर ने मौत का कारण दम घुटना बताया। मां का मन कांप उठा। उनकी कानों में वही बात गूंज उठी-‘——–बहुत बुरी तरह से रियेक्ट करता है।’उन्होंने पूरे कपड़े हटाकर बेटी के शरीर को ध्यान से देखा, चोट का कहीं कोई निशान नहीं। कहीं तकिए से मुंह दबाकर तो नहीं-नाग की तरह यह प्रश्न फुफकारा । अस्पताल में भी किसी ने दबी जबान से इसकी आशंका जताई थी।अगर उसका दम घुट रहा था तो नरेश उसे तत्काल अस्पताल में क्यों नहीं ले गया, जबकि वह ज्यादा दूर भी नहीं था। नरेश , से पूछे जाने पर वह बोल पड़ा-‘ अकेले वह इतने भारी शरीर को उठाकर नहीं ले जा पाता।’ उसने औरों की मदद क्यों नहीं ली, गार्ड को क्यों नहीं बुलाया, पड़ोसियों का ही दरवाजा क्यों नहीं खटखटा दिया, उनके आने के पहले वह जल्द से जल्द स्वर्णा की लाश को क्यों निपटा देना चाह रहा था-ऐसे कई अनुत्तरित प्रश्न थे, जिनका जवाब वह चिरनिद्रा में सोई बेटी के मुखमंडल पर पढ़ लेना चाहती थीं। उनका जी चाहता था कि वह स्वर्णा को इस तरह जोर -जोर से हिलाए कि वह उठ बैठे और अपने पर गुजरी सारी बातों को बता डालें ।

उन्होंने प्रोफेसर साहब से घर लौट कर इस बारे में चर्चा की और पुलिस तहकीकात की मांग की। प्रोफेसर साहब बस इतना बोल कर चुप हो गए-‘ मेरा अंश तो अब रहा ही नहीं। कहां आ पाएगा वह।’ पति की चुप्पी में ही निलांजना दी का मौन भी शामिल हो गया। जबकि उनकी देवरानी के पिता उस समय शहर के डीआईजी के पद पर पदस्थापित थे और खुद प्रोफेसर साहब के सामाजिक संबंध इतने व्यापक थे कि न्याय के लिए वह बहुत सारे दरवाजों पर जा सकते थें। पहले से ही गंभीर प्रोफेसर साहब के व्यक्तित्व पर गांभीर्य का और मोटा आवरण छा गया और निलांजना दी ने पति की दुनिया में ही परछाई की तरह खुद को खपा दिया।

नियति कैसा खेल खेलती है, किसी -किसी का जीवन सिर्फ झंझावातों का सामना करना ही क्यों हो जाता है-निलंजना दी के बारे में सोचते हुए मैं भावविह्वल हो रही थी। आज जब उन्हें फोन लगाया, समझ नहीं पा रही थी कैसे शुरुआत करूं। उन्होंने ही हालचाल पूछते हुए बात की शुरुआत की। बातों- बातों में कह उठीं-‘समझ में नहीं आता क्या करूं? रात एक-दो बजे के बाद नींद आती है और तीन- चार बजते- बजते नींद खुल भी जाती है।’ ‘सुबह ही कुछ पका लेती हूं और पूरे दिन वही चलता है।’ इतने बड़े हादसे के बाद भी उन्होंने अपनी तकलीफ जताने के लिए बस ये दो -चार पंक्तियां ही मुझसे बांटी थीं। पर कई बार आप जिनसे आत्मिक रूप से जुड़े होते हैं, वहां आप उन शब्दों को भी सुनते हैं, महसूस करते हैं जो सामने वाला कभी कह नहीं पाता। कई दिन उनसे बात करने के बाद मैं चुपचाप बैठ रो पड़ती थी। उनकी आवाज में छुपी उदासी जैसे मेरे चारों ओर पसर कर फैल जाती थी।

एक- दो दिनों के अंतराल पर मैं हमेशा उन्हें फोन कर लिया करती थी। एक दिन बातों -बातों में ही कहा,’दी,आप फिर से पुस्तकों की दुनिया में खो जाइए।’ वे बोलीं-‘तुम्हारे भैया के जाने के बाद मैं उस कमरे में गई ही नहीं ।’आवाज रूंधी सी लगी। सचमुच इतना आसान कहां है बहुत सरलता से सहज हो जाना।

प्रोफ़ेसर साहब ने अपने घर में ही एक लाइब्रेरी बना रखी थी, पढ़ने- लिखने के शौकीन अपने पति को निलंजना दी यथासंभव पूर्ण सहयोग दिया करती थीं। निलंजना दी ने कभी भी अपनी व्यथा को खुलकर नहीं कहा, पति की तरह ही धीर -गंभीर व्यक्तित्व की स्वामिनी हैं वह। लेकिन बातों- बातों में कुछ पंक्तियां ऐसी उभर कर आ जाती थीं जो छुपी हुई वेदना को प्रकट कर देती थी, जैसे कि तेज अंधड़ में कहीं जमाकर रखे गए पत्ते फड़फड़ा कर उड़ने लगते हैं।

हम दोनों नियमित रूप से फोन द्वारा संपर्क से जुड़े रहें। लाख व्यस्तताएं होने पर भी मैं कुछ देर के लिए ही सही, बात कर लिया करती थी, इस उद्देश्य से कि उनका अकेलापन कुछ तो बांट सकूं। हमारी बातें इधर- उधर की, आपसी हाल- समाचार की और धीरे-धीरे उनके पढ़ने -लिखने की ओर भी बढ़ने लगीं।

आज इतवार का दिन है। छुट्टी का दिन होने के कारण मैंने सुबह-सुबह निलंजना दी को फोन लगाया। घंटी पूरी बजती रही , उधर से कोई जवाब न मिला। उनका जवाब न मिलना मुझे बेचैन करने के लिए काफी था। दो घंटे गुजर चुके थे। परेशान हो मैंने एक बार फिर से उनका नंबर मिलाया, इस बार उनकी आवाज उधर से आई-‘ओह सुप्रिया, माफ करना, तुम्हारा फोन उठा नहीं पाई थी, अभी-अभी मिस्ड कॉल देखा है।’ ‘अरे दी ,बस यूं ही। सोचा,आज सुबह-सुबह ही आपसे बात कर लूं। ऐसे कहां थीं आप?’-मैं बोल पड़ी।

‘आज सुबह-सुबह लाइब्रेरी में गई थी’-आवाज जैसे यादों में भींगी हुई थी। मैंने चहककर कहा-‘बहुत अच्छा दी, थोड़ी साफ- सफाई हो गई होगी लाइब्रेरी की।’ ‘पुस्तक भी आपको मिस कर रहे होंगे’-मैंने विनोद पूर्ण लहजे में कहते हुए हल्की हंसी उनकी ओर भेजी। बहुत अच्छा लगा जब जवाब में उधर से भी हल्की सी हंसी आई। धीरे से बोली वह-‘कॉलेज में इनके मित्रों से बात की हूं। इनकी लाइब्रेरी को कॉलेज के बच्चों के लिए समर्पित कर देना चाह रही हूं।’मैं बोल उठी-‘हां ,ठीक भी है। किताबें और रिसर्च पेपर्स यूं पड़े- पड़े क्या किया करेंगे? किसी के काम आ जाएं भला।’उधर से निलंजना दी की आवाज आ रही थी-‘कॉलेज के नोटिस बोर्ड में सूचना लगा दी गई है कि सुबह के 8:00 बजे से शाम के 4:00 बजे के बीच छात्र यहां आकर किताबें पढ़ सकते हैं।’वह आगे बोलीं-‘सोचती हूं दूसरे कमरे को भी लाइब्रेरी में परिणत कर दूं। जिस दिन अजयजी(देवर) को फुर्सत होगी, बाजार जाकर और किताबें ले आऊंगी। बच्चे जब आने लगेंगे, तब उनसे बातें कर उनकी जरूरत को समझकर ऑनलाइन भी किताबें मंगा लिया करूंगी। मेरे लिए एक कमरा और हॉल ही काफी है। मुझ अकेली जान को और कितनी जगह चाहिए।’

मैं अभी उनके इस विचार को नि:शब्द सुन ही रही थी कि उन्होंने आगे कहना शुरू किया-‘इन बच्चों में मुझे स्वर्णा का चेहरा दिखता रहेगा और जब इनकी उंगलियां किताबों के पन्नों और तुम्हारे भैया के रिसर्च पेपर को पलटेंगीं तो किताबों की सुगंध के रूप में तुम्हारे भैया की देहगंध पूरे घर में बिखर जाएगी।’

फोन रखकर मैं पर्दा हटाकर चुपचाप खिड़की से बाहर देखने लगी। मेघों को पछाड़ता सूरज धीरे- धीरे रश्मियों को विकिर्ण करने के लिए आतुर हो रहा था।

रीता रानी,
जमशेदपुर, झारखंड।

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