काली मुन्नी

काली मुन्नी

”बड़ी भूख लगी है बुआ।आज मम्मी कहाँ हैं ? ”
”मम्मी अस्पताल में हैं।आपके एक और बहिनिया हुई है। ”
बुआ के स्वर में व्यंग्य था, आँखों में उपहास।चाची की शह पाकर वह हंसी उड़ाने लगीं।ठीक वैसे ही जैसे लूडो के खेल में उसे हराने के बाद वह हँसती थीं।
”और अम्माजी ? ”
” वह भी गयी हैं तुम्हारी मम्मी के संग।अब चुपचाप से खाना खा लो और सो जाओ।हमें काम बहुत है।”
एक ही थाली में तीनो बहने खाने बैठीं।
”यह कैसी पराँठी बनाई है? पराँठी तो गोल होती है। ये तो चौरस है और चीड़ी। ”
” ऐ खाना है तो खाओ वरना जाकर सो रहो।” चाची ने झाड़ पिलाई।
आज चाची खाना बना रही थीं। यही सबसे अजीब बात थी।बुआ चन्दन को गोद में लिए लिए थालियां परोस रही थीं।एक फटे पुराने कम्बल पर उसकी सबसे छोटी बहन शांता ,जो केवल तीन साल की थी सो रही थी। वहीँ चाची का छह महीने का अनिल पड़ा था।चन्दन ,उसका डेढ़ बरस का भाई बुआ की गोदी से उतरता ही नहीं था। उसकी नाक बह रही थी।जनवरी का महीना।हवा में सांझ से ही पाले की खुनक उतर आई थी। ठण्ड लग रही थी। अगर माँ ने रसोई बनाई होती तो अब तक वह पाँचों बच्चों को खिला पिला कर सुला चुकी होतीं।
ठन्डे रसीले आलू और पनीला सा रायता टेढ़ी -मेढ़ी परौंठियों के साथ चुपचाप पेट में उतारने के बाद अर्चना अपनी बहनों के साथ रजाई में दुबक गयी।नौ साल की इस छोटी सी उम्र में ,बिना कुछ समझे ही उसे यह पता चल गया था कि उसकी मम्मी ने एक और बहन को जन्म देकर बहुत बड़ा अपराध किया है।वह स्वयं बेहद अभागी पैदा हुई ,कारण की वह अपनी पीठ पर भाई ले आती तो उसके पापा को इतने बच्चों का बोझ न उठाना पड़ता। बुआ और चाची ,जो उसकी मम्मी का मज़ाक बना रही थीं। वह उससे सहन नहीं हो रहा था। चाची ने कहा था पेट है कि मटर की फली — एक जैसे दाने।क्या मम्मी के पेट में मटर का पेड़ है ? छिः छिः ,कितनी गन्दी बात ! मम्मी तो कह रही थीं एक दिन कि साबुत मटर मत खाना ,पेट दुखेगा।
शादी के दसवें वर्ष में अर्चना की माँ को छठी संतान पैदा हुई है।एक और पुत्री ,पांचवीं लड़की। अर्चना जानती थी कि चार बेटियों के बाद एक पुत्र चन्दन को पाकर उसकी मम्मी रूपा कितनी खुश हुई थीं।उनकी सारी ममता उमड़कर बेटे पर बरसने लगी थी।अर्चना को याद आया जब पहली बार वह पापा के साथ अपने नवजात भाई को देखने गयी थी ,तब मम्मी ने पापा से हाथ जोड़कर विनती की थी।
” देखो मैंने तुम्हें बेटा दे दिया,अब मुझे भी कुछ चाहिए। ”
” हाँ हाँ क्यों नहीं।जो चाहे मांग लो। ”
” तो फिर मेरा ऑपरेशन करवा दो प्लीज ! अब बस। ”
” अरे ऐसे कैसे ऑपरेशन ? अम्मा से , बाबूजी से पूछे बिना इतना बड़ा कदम ? ”
” तुम समझा दो उन्हें। मेरी क्यों मानने लगे। ”
” तुम बात ही ऐसी कर रही हो। अभी तो लड़कों की बेल शुरू हुई है। ”
” यूँ क्यों नहीं कहते कि तुम्हारा ही मन नहीं है। ”
” नहीं ही समझो। सोंचो ज़रा। उधर छोटे भाई के घर में भी अभी कोई बच्चा नहीं है।पता नहीं होगा भी या नहीं।बेचारा डॉक्टर होते हुए भी अपनी बीबी का इलाज न करवा सका ,सात साल हो चले। इस तरह तो हमारा चन्दन ही पूरे घर में एकलौता लड़का रहा।लड़कियों का क्या।ब्याह के अपने घर चली जाती हैं।औलाद ,कुलदीपक तो बस यही बचा। कम से कम दो तीन तो हों।”
उधर अम्मा जी ने सुना तो झट रूपा को डाँट दिया।
” हाय -हाय ! इकलौते बेटे पर से उपरेशन कराने चली है।आग लगे पढ़ाई लिखाई को।कुल -कुटुंब तो बढ़ना ही चाहिए।बैलों की जोड़ी के बिना हल नहीं चलता।वैसे ही पुत्रों की जोड़ी के बिना वंश नहीं चलता।अरे सोंचो ज़रा सबकी जोड़ी है।राम लक्ष्मण की लेलो ,कृष्ण बलदाऊ ले लो या गणेश कार्तिक लेलो। मुए रावण के भी चार भाई बताये हैं शास्त्रों में।ख़बरदार जो फिर कभी नाम लिया उपरेशन का।राम न करे चन्दन को कुछ हो गया तो ?अरे राजा के बाजार वाली ने पेट बंद करवाया था तो चालीस बरस की हो गयी थी।तेरी अभी उम्र तीस भी नहीं हुई। ”
रूपा की एक न चली। बार बार अम्मा जी के कटु वचन विद्युत् प्रहार करते , ”’ चन्दन को कुछ हो गया तो ?” सही तो है अब जरा सितारा बदला है। हो सकता है उसके आगे ” पुत्तरों की जोड़ी ” हो जाए ! परिवार के उपालम्भों से सना उसका वात्सल्य मैला हो चला था। चन्दन के लिए उसने उसे धो -पोंछ कर निखार लिया था।उसका ह्रदय दो भागों में बट गया।एक में पुत्रियों के लिए कर्तव्य बोध और दूसरे में उसकी तरोताजा ममता।अर्चना देखती कि अम्माजी जब आशीर्वाद देतीं तब कहतीं ” तेरा बेटा जिए। ” या फिर ” भाई आवे ”. अक्सर रूपा,उसकी माँ कहतीं , ” मेरा तो एक ही बच्चा है ” बेटियों की परवरिश में कहीं कोई कमी नहीं थी मगर वह ”पराया धन ‘ थीं। — एक जिम्मेदारी जो उसका घर खाली करके चली जाएँगी।उसके पूर्वजन्म के पापों का फल।
परन्तु मम्मी अभी पूरी तरह से चन्दन के लाड -चाव भी न कर पाईं थीं कि उसकी एक और बहन आ गयी।रात को उसके पापा ,आनन्द बाबू ने घर में पाँव रखा तो सबके मुंह लटके हुए थे।अम्मा जी रो -धोकर बैठी हुई थीं।
” क्या हुआ अम्मा जी ? फिर कोई कलेश हो गया क्या ? ”
” नहीं ! कलेश क्या होना है। लक्ष्मी देवी फिर से पधारी हैं। दूध ,फल ,खाना ,सब लेकर गयी थी। रूपा तो बिफर गयी।रो-रोकर आँखें सुजा ली हैं।चिल्ला चिल्लाकर मुझे डांटने लगी कि ले जाओ ये दूध हरीरे ,नहीं पीना है मुझे।बेकार के चोंचले।जच्चा -बच्चा कहते करते उम्र बीत गयी तुम्हारी।अब बख्शो मुझे।मैं तो बेटा उल्टी डांट खाके बैठी हूँ। ”
पापा को खाना परोसते समय अर्चना की चाची ने आग में घी डाला। इसमें उन्हें महारत हासिल है। उनके तो पहले ही दांव में अनिल पैदा हो गया था।तभी से अपने को बड़ा तीस मार खां समझती हैं। ” भैय्या आप पर कितना तरस आता है। पूरी शाम आप टूरिंग अलाउंस के चक्कर में गाँव गाँव भटकते हैं। अब और भी खपना पड़ेगा। डेढ़ सेर दूध बढ़ाना पड़ेगा पहली तारीख से। लड़की हो या लड़का दूध तो पियेगा ही। खर्चा ही बढ़ा समझिये। धियों का क्या ! पालो पोसो। बेटों की तरह खिलाओ पिलाओ और दूसरे लेकर चलते बनें। जनम भर का घाटा। फ़ालतू की भर्ती। ” फ़ालतू मुन्नी ” नाम रख लो अब। .
नई बच्ची के जन्म का समाचार टेढ़े से सुनकर आनंद बाबू पत्नी को देखने गए। रात के दस बज चुके थे। रूपा ने उदास होकर मुंह फेर लिया। आनंद बाबू ने फिर भी पूछ ही लिया। ” ठीक तो हो न। बच्ची कहाँ है ? ”
” पडी है पालने में देखना जरूरी समझो तो। ”
” फिर आऊंगा सुबेरे। अभी वह सो रही है तो तुम भी जरा सो लो। ”
” जाने से पहले इस फॉर्म पर साइन करते जाओ। ”
रूपा ने ऑपरेशन की अनुमति वाला फॉर्म पति के आगे कर दिया। आनंद बाबू ने उसे देखा अनदेखा कर दिया और डपटकर बोले ,” तुम यह ऑपरेशन का भूत अपने दिमाग से उतार दो। ”
अगले दिन रूपा के देवर डॉ. अशोक उससे मिलने आये तो देखा खाना एक तरफ अनछुआ पड़ा है। ” यह क्या भाभी ,आपने खाना नहीं खाया रात को ?”
रूपा ने दृढ़ता से उत्तर दिया ,” जब तक आप लोग मेरा ऑपरेशन नहीं करवाते नहीं खाऊँगी। ” कहते कहते रूपा फूट फूट कर रोने लगी। ड्यूटी की नर्स झटपट डॉ. देवी को बुला लाई। वह उम्र में डॉ. अशोक से कुछ बड़ी थीं। अतः उनहोंने कस कर झाड़ पिलाई। डाँट सुनकर वह बेहद शर्मिंदा हो गए। सच तो कहती हैं कि पढ़ लिखकर भी वह दोनों भाई आधुनिकता की ज़द में नहीं आते थे। घिसी पिटी रूढ़ मान्यताओं के वश में एक साथ छह स्त्रियों का जीवन बिगाड़ रहे थे जिन्होंने अभी जीना भी नहीं सीखा था। डॉ.देवी की दलीलों को सुनकर वह आखिरकार मान गए और अपनी जिम्मेदारी पर अपनी भाभी के ऑपरेशन के फॉर्म पर हस्ताक्षर कर दिए।
अर्चना ने सुना कि उसकी मम्मी का ऑपरेशन हुआ है जिससे उनको अब बच्चे नहीं होंगे। दस दिन बाद जब टाँके खुले तो मम्मी नई बच्ची को लेकर घर आ गईं। आनंद बाबू अभी भी नाराज़ थे और अम्मा जी ने मौन साध लिया था। बुआ और चाची के इशारे चलते रहते। उनके परिहास और कटूक्तियां मम्मी चुपचाप सह लेतीं । अर्चना उन्हें बताती तो वह कहतीं , ” बकने दे ,जीत मेरी ही होगी। ” खानेवाले मुंह ज्यादा रूपा के ही थे अतः वह तेरह दिन का नहान नहा कर सीधे रसोई में जा पहुंची। चाची और बुआ ने चैन की सांस ली। अर्चना मम्मी की यूं तो सहायता करती ही थी ,अब और भी जिम्मेदारी से बहनो की देखभाल में हाथ बंटाने लगी। घर में घुसते ही मम्मी ने चन्दन को कलेजे से चिपटा लिया। नई बच्ची एक ओर पडी रहती। केवल दूध पिलाने के लिए वह उसको गोद में उठाती थीं।
जनवरी ख़त्म होकर फरवरी शुरू हो गया। बच्ची देखते देखते सवा महीने की हो गयी। रिवाज़ के मुताबिक घर के पुराने पुरोहित जी नई बच्ची को आशीर्वाद देने के लिए आये। उन्होंने पूछा ,” नाम सुधवाया बहूजी ?”
रूपा ने उपेक्षा से कहा ,” नहीं। ”
” कहो तो पत्रा निकालूँ ?”
” नहीं। ”
” अरे मना क्यों कर रही है। लगे हाथ नामाक्षर निकलवा ले। बाद में नाम सोंच लीजियो। ” अम्माजी ने आदेश दिया।
पंडितजी ने पत्रा निकालकर नामाक्षर निकाला। ” ‘ म ‘ अक्षर शुभ है बहूजी”।
रूपा ने चुपचाप सवा रुपया अंदर से लाकर दक्षिणा दे दी। पंडितजी निराश स्वर में बोले ,” चलो बहूजी ,यही बहुत है। पांचवीं है तो क्या हुआ ,लक्ष्मी है। बिटिया लोग क्या भाग लाईं क्या पता। ”
रूपा चुपचाप सोंचती खड़ी रही। ठीक तो कहते हैं ,भाग्य का क्या पता। वह स्वयं सुन्दर ,सुघड़ व पढ़ी लिखी। पर भाग्य में यह धियों का धाड़ा ! दूसरी ओर उसकी देवरानी। न सुन्दर, न सुघड़ , न पढ़ी लिखी ! और ऊपर से माँदी — दमें की मरीज़। मगर किस्मत देखो ! सबसे अधिक कमाऊ डॉक्टर पति और पहले ही वार में चाँद सा बेटा।
पंडितजी के जाने के बाद अम्मा जी ने सबसे कहा ‘ म ‘ अक्षर से नाम सोचो। कोई और कुछ बोले कि अर्चना की चाची चहकीं , ” मेरी मानो तो मुक्ति नाम रख लो। तुम्हारी पूजा में अब और क्या बाकी है ? अर्चना ,आरती , माला शांति और चन्दन। बस अब ‘ मुक्ति ‘ मिल गयी।
रूपा चुप। बुआ ने फैसला दिया ,” मुन्नी ” ही ठीक है। यही तो बुलाते हैं सब। म से मुन्नी। ”
चाची फिर से चमकी , ” आय हाय ! फिर तो काली मुन्नी बुलाना पड़ेगा। रंग तो देखो कैसा पक्का है। जैसे नौकरों के बच्चों का होता है। ”
अर्चना ,जो अब तक चुपचाप सब सुन रही थी ,चिल्लाकर रो पडी। ” हमारी मुन्नी काली नहीं है। ” अम्माजी सांत्वना के स्वर में बोलीं , ” सारा सारा दिन धूप में पडी रहेगी तो काली तो हो ही जायेगी। ”
फिर भी बच्ची का नाम काली मुन्नी पड़ गया। अर्चना देखती कि दूध पिलाते समय या तेल लगाते समय मम्मी उसे बड़े प्यार से निहारतीं और धीमे धीमे स्वर में दुलार करतीं ,” काली मुन्नी ,टेढ़ी पूंछ , अता पता अपनी माँ से पूछ। ” या फिर कहतीं ,” तू फ़ालतू मुन्नी नहीं है। तुझे तो मैं डॉ. देवी के जैसा बनाऊंगी। ” मुन्नी खिल खिल हंसती।

आनंद बाबू ने एक नौकर ख़ास बच्चों के काम के लिए अलग से रख दिया। नौकर क्या था —- सीधा देहात से कोई पंद्रह सोलह वर्ष का गंवई चला आया था। चौकीदार के गाँव का था। गारंटी थी सो रख लिया और उसको नौकरों का शाश्वत नाम ‘ रामू ‘ दे दिया गया। बड़ी बैठक एक बड़ा सा कमरा था ,जिसमे काश्मीरी काला ‘ गब्बा ‘ बिछा रहता था। सारा दिन सबका यहीं उठना बैठना रहता। रात को यह काला दरी नुमा गलीचा तहा कर एक ओर रख दिया जाता था अन्य कमरों के भी छोटे बड़े दरी खेस आदि इसपर सरिया दिए जाते थे। फिर निवार के पलंग बिछा दिए जाते थे सबके सोने के लिए। सुबह पलंग वापिस बाहर बरामदे में चले जाते और फर्श पर झाड़ू बुहारू करके पुनः दरियाँ गद्दे बिछा दिए जाते।
होली के कुछ पहले के दिन। दिन में गर्मी पर रात को ठण्ड। मुन्नी दो महीने की हो चली थी। शाम को दूध आदि पिलाकर रूपा रसोई में चली गयी। अम्माजी वहीँ सो रही थीं। दूध पीकर मुन्नी भी सो गयी। रूपा ने उसे अम्माजी के पास ही लिटा दिया ।पास ही अर्चना अपनी छोटी बहनो के संग खेल रही थी। सब कुछ सामान्य था। रात को आठ बजे बच्चों को खाना आदि खिलाने के बाद रूपा मुन्नी को दूध पिलाने बड़े कमरे में आई। रामू चारपाइयाँ लगा चुका था। मुन्नी कहीं नहीं दिखी। रूपा बारी बारी से सब कमरों में देख आई। पलंगों के नीचे झांका , गोल कमरे में सोफे के आगे पीछे ,संदूकों वाली कोठरी में। दूध से भरी उसकी छातियाँ रिसने लगीं। तीन घंटे से अधिक समय हो गया था बच्ची भूखी थी। कहीं से रोने की आवाज़ भी तो आती। घबराहट होने लगी। जने -जने से पूछा। देवरानी ने सुना तो व्यंग्य से बोली ,” आय -हाय ! मरी जा रही हैं भाभी !! एक गिनती में कम हो गयी !!! — पिछला दरवाज़ा पलंगों के लिए खुला था। माली बतला रहा था की लकड़बग्घा आता है आजकल। ”
रूपा दम साधे ढूंढती रही। बड़े कमरे में देखा तो सचमुच बाहरी स्प्रिंगदार दरवाज़ा चौपट्ट खुला पड़ा था। रामू से पूछा। मगर वह मूढ़मति कुछ न बता पाया। शोर मच गया। रूपा रुआंसी हो गयी मगर देवरानी के ताने फिर बरसे।
” पेट पोंछनी ठहरी। सबसे छोटी औलाद में तो माँ के प्राण बसते हैं। घर की लक्ष्मी कम पड़ जाएगी लकड़बग्घा खा गया तो। ”
अभी आधे लोगों का खाना बाकी था। रूपा वापिस रसोई में अंगीठी के सामने जा बैठी और चुपचाप आंसू बहाने लगी। सब लोग अपनी अपनी अटकलें लड़ा रहे थे। अर्चना ने माँ को रोते हुए देखा तो पूछा ,” मम्मी क्या हुआ ? ”
सिसकते हुए आवाज़ को संयत करके रूपा ने कहा , ” हमारी मुन्नी को कोई उठा ले गया। शाम को अंदर बड़े कमरे में सो रही थी। रामू ने दरवाज़ा खुला छोड़ दिया। लगता है कि लकड़बग्घा उठा ले गया। खा गया होगा। ” और वह फूट फूट कर रोने लगी।
” पर वह तो काले गब्बे पर सो रही थी। अम्मा जी उठीं तो अपनी सफ़ेद शॉल से ढक दिया उसे। वहीँ तो थी। ”
” कहाँ ? चल दिखा मुझे। ”
अर्चना माँ को बड़े कमरे में ले गयी। पर वहां तो चारपाइयाँ लग चुकी थीं। रामू को फिर से बुलाया गया। पूछा ,” रामू ,यहां अम्मा जी का बड़ा सफ़ेद शाल पड़ा था। तुमने उठाया क्या ? ”
” ऊ तो पड़ा ही रहां। हम सब साथे ही लपेट कर धर दीनी।
” खोलो। गलीचे हटाओ . गब्बा खोलो। ” अर्चना चिल्लाई। सारा परिवार इकठ्ठा हो गया। बिस्तरों वाले तखत पर सब छोटे बड़े दरी बिछवानो के बीच काला गब्बा लिपटा रखा था। खोलने पर सफ़ेद दुशाले में लिपटी मुन्नी मिल गयी। डॉ.अशोक ने नब्ज़ देखी धड़कन टटोली। सब सही था। मुन्नी बच गयी थी। रूपा ने कसकर बच्ची को छाती से भींच लिया और फूट फूट कर जोर जोर से रो पडी। उसके धैर्य का बाँध टूट गया था। रोते- रोते चिल्ला – चिल्ला कर कहने लगी।
” मैंने मांगी नहीं थी एक और फालतू मुन्नी। जब मुझे इसके आने का पता चला तो मैंने डॉ. देवी से कहा कि इसे निकाल दो। मगर तुम सबको दूसरा लड़का चाहिए था। उसी हाँ न में देर हो गयी। फिर भी मैंने दाई से देसी दवा मंगवाई।
उसने कुनैन की गोलियां खिलाईं मुझे। डॉ. देवी को पता चला तो उन्होंने मुझको बहुत डांटा। उससे मुझे कुछ हो जाता तो मेरे सब बच्चे लुटक जाते। फिर भी इस बच्ची पर उनका कोई असर नहीं हुआ। इसे आना ही था और इसने साबित कर दिया है सबके सामने कि यह जियेगी। यह किसी पर भार नहीं है। ” सब कुछ बक जाने के बाद भी रूपा रोती रही। आनंद बाबू को उसके पास छोड़कर सब खिसियाकर चले गए।

पुनश्चः
इस घटना के तुरंत बाद आनंद बाबू नौकरी में तरक्की पा गए और उनका तबादला एक बड़े शहर में हो गया। रूपा एक नए घर में जा बसी। संयुक्त परिवार की तमाम उलझनों व विषाक्त वातावरण से दूर। उसकी ‘ पेट पोंछनी ‘ उसके लिए वरदान बन कर आई। मुन्नी बड़ी होने लगी और ज्यों ज्यों बढ़ती वह और निखरती। जल्दी चलने लगी ,जल्दी बोलने लगी। उसकी प्यारी सूरत और बोली हरेक को मोहने लगी। जब स्कूल जाने की बारी आई तो रूपा ने उसका नाम मोहिनी रख दिया। आईने के सामने खड़ी होकर वह खुद को बुलाती मोहिनी और माँ की नक़ल में पूछती तू डॉक्टर बनेगी न बड़ी होकर। बहनों की दुलारी बड़ी होकर एक सुन्दर सलोनी युवती बनी और यही नहीं रूपसी रूपा की काली मुन्नी अपने मेडिकल कॉलेज में ब्यूटी क़्वीन चुनी गयी और हीरों का ताज पहना। डॉक्टर बनी तो स्वर्ण पदक लेकर विश्वविद्यालय में प्रथम आई। गीत संगीत और नृत्य में अपनी सब बहनों से अव्वल रही। आज भी साठ वर्ष की उम्र में स्टेज पर फ़िल्मी गीतों पर उनका एक कार्यक्रम नृत्य का जरूर रखा जाता है उनकी छात्राओं के आग्रह पर।
जन्म से ही उनका बायां हाथ अधिक सक्रिय था इसलिए सिलाई कढ़ाई कटाई यहां तक शल्य चिकित्सा भी वह उलटे हाथ से करती हैं। सम्प्रति वह एक ख्यातिप्राप्त स्त्री रोग विशेषज्ञ एवं शल्य चिकित्सक हैं। न केवल अपने प्रदेश में वरन पूरे भारत में परीक्षक व विशेषज्ञ के रूप में बुलाई जाती हैं। भारत से बाहर भी श्री लंका , सिंगापुर ,थाईलैंड आदि देशों में परामर्श और परीक्षक के लिए बुलाई जाती हैं। देश विदेश से अनेक ख्यातिपत्र और सम्मान उनको मिले।
उनकी दोनों बेटियां भी उनकी तरह लंदन और क़तर में उच्चतम पदों पर डॉक्टर हैं।

कादम्बरी मेहरा

लंदन, ब्रिटेन

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