“ मैं भी एक महिला हूं”: सोजॉर्नर ट्रुथ 

“ मैं भी एक महिला हूं”: सोजॉर्नर ट्रुथ 

आज जिस महान महिला शख्सियत की हम बात करने जा रहे हैं, उनके व्यक्तित्व के बारे में जब मैंने पहली बार(कोई सात-आठ साल पहले) पढ़ा था। तो उस समय न ही सिर्फ़ मेरे रोंगटे खड़े हो गए, बल्कि साथ ही साथ मन एक अन्जाने गर्व से भर गया। मुझे इस महिला ने इतना प्रभावित किया कि मुझे इनके व्यक्तित्व से प्रेम हो गया! उनका जन्म 18 वीं शताब्दी के अंत 1797 में, ईज़ाबेला बॉम्फ्री के नाम से अमेरिका के न्यूयॉर्क क्षेत्र में स्थित उल्स्टर काउंटी में हुआ था। अमेरिका में उस दौरान दासप्रथा एवं नस्लवाद का वर्चस्व था। हालांकि दास प्रथा उन्मूलन कानून 1799 को पारित हो चुका था परंतु लागू नहीं हो पा रहा था। अफ़्रीका से लाए गए वहां के मूल निवासियों को यहां तंबाकू, गन्ने और कपास के खेतों में कमरतोड़ मेहनत करवाई जाती थी और साथ में कोड़ों की मार भी पड़ती थी। खुलेआम अफ़्रीकी दास औरतों का यौन शोषण होता था और किसी को कुछ भी बोलने का हक नहीं था। जो आवाज़ उठाता था वह मालिक की बंदूक की गोली का निशाना हो जाता था या कोड़ों की मार से अधमरा कर दिया जाता था। इनकी ख़रीद-फ़रोख्त जानवरों के समान ही की जाती थी, खुले बाज़ारों में नीलामी भी होती थी। क्योंकि ये अफ़्रीकी पढ़े-लिखे नहीं होते थे तो इनकी कहानियां भी कम ही पाई जाती हैं।

1850 में ईज़ाबेला ने अपने संस्मरण को छपवाया, जिसके अनुसार ईज़ाबेला को भी अपने माता-पिता भाई-बहनों से भरे-पूरे परिवार से अलग कर के मालिक ने भेड़ों के झुंड के साथ मात्र 100 डॉलर में बेच दिया था। उस समय उनकी उम्र मात्र 11 वर्ष थी। अपने इस संस्मरण में वे कई बार अपने ऊपर हुए अत्याचारों, यौन शोषण, मारपीट और कोड़ों की मार का ज़िक्र करती हैं, ये प्रताड़नाएं उन दिनों आम बात थी, जिन्हें सभी दासों के मालिक साधारणतः किया करते थे। मालिकों के लिए वास्तव में यह एक बहुत ही सामान्य सी बात थी। दासों को मारना- पीटना उनके साथ बुरा व्यवहार करना उनका यौन शोषण करना, यह सब उनके अधिकार क्षेत्र में था, और दासों का अधिकार क्षेत्र था चुपचाप अपने मालिक के सभी अत्याचारों को सहना और चूं तक ना करना। अपनी गुलामी के वर्षों में ईज़ाबेला को लगातार बेचा-खरीदा गया। और खरीदे-बेचे जाने के उपक्रम में हर बार वे अपने अंतरंग मित्रों और संबंधियों से बिछड़ती रहीं। मालिक उन्हें अन्य दासों से प्रेम संबंध बनाने या विवाह करने से भी रोकते। अंततः उन्होंने थॉमस नामक अश्वेत दास से विवाह कर लिया जिनके साथ उनके तीन बच्चे हुए। बॉम्फ्री के मालिक जॉन ब्लू माउंट ने उनसे वादा किया था कि 1826 तक वह उन्हें आज़ाद कर देगा। पर जब ऐसा नहीं हुआ तो बॉम्फ्री अपनी जान बचाकर वहां से भाग निकलीं। इस दौरान वह सिर्फ़ अपनी सबसे छोटी बेटी सोफ़िया को ही अपने साथ भगा पाईं और बाकी दो बच्चे वहीं दासता की बेड़ियों में जकड़े हुए उसके मालिक के पास ही छूट गए।

1899 में न्यूयॉर्क स्टेट में दासता उन्मूलन का कानून पारित हो चुका था किंतु दासों के मुक्त होने का वास्तविक कार्य धरातल पर बहुत ही धीमा था, क्योंकि अमेरिकी मालिक अपने हाथ से इस सत्ता को छोड़ने को तैयार नहीं थे,खासकर दक्षिणी प्रदेशों, मिसिसिपी, केंटकी, लुईज़ियाना जैसे राज्यों में।

दासता- विरोधी कानून के बावजूद जिन नए दासों की खरीद-फरोख्त हाल ही में हुई थी उन्हें गिरमिटिया मज़दूर के रूप में कम से कम तब तक काम करना पड़ा जब तक कि वे अपनी 20 साल की उम्र के पार नहीं हुए, और कुछ निरीहों को तो उससे ज़्यादा समय झेलना पड़ा। मालिकों का तर्क था कि इन दासों को खरीदने के लिए उन्होंने अपनी पैसे खर्च किए थे, अतः बिना उनसे काम लिए वे उन्हें नहीं छोड़ेंगे।

अपने मालिक के घर से भागने के बाद, 1828 की शुरुआत में ईज़ाबेला ने किंग्सटन न्यूयॉर्क के ग्रैंड जूरी के सामने अपनी गुहार लगाई कि उनके छोटे से 5 वर्षीय बच्चे पीटर को उन्हें लौटा दिया जाए जिसे उनका पूर्व मालिक अलाबामा के किसी अन्य दास-मालिक को बेच चुका था। केस कई महीनों चला। किसी तरह मुश्किलों से जूझते हुए धन संग्रह करती रहीं और बड़ी जीवटता से वकीलों के साथ मिलकर तब तक वे संघर्षरत रहीं जब तक उन्हें अपना बेटा वापस नहीं मिल गया। अमेरिकी इतिहास में यह पहला मौका था जिसमें एक अश्वेत की जीत एक श्वेत व्यक्ति के खिलाफ हुई। किंतु उनकी कहानी का अंत यह नहीं है, बल्कि वास्तविकता में उनके जीवन का सही मायने में अब आरंभ हुआ। उन्होंने अपने जीवन को असहायों को न्याय दिलाने और आध्यात्मिकता की ओर मोड़ दिया।दासता के उत्पीड़न को सहने में ईश्वर की शरण ही इन अश्वेत दासों का सहारा होती थी। ईज़ाबेला अश्वेतों की बस्तियों में ईश्वर का संदेश और आध्यात्मिकता का प्रचार प्रसार करने लगीं। लोग उनकी सभाओं में बड़ी संख्या में एकत्रित होने लगे और उनके व्यक्तित्व से प्रभावित होते। इसी बीच अमेरिकन गृह युद्ध छिड़ गया जिसमें सेंट्रल नॉर्दर्न स्टेट्स एक तरफ और सदर्न स्टेट्स एक तरफ शामिल थे। एक ओर जहां दक्षिण के स्टेट्स दासता को कायम रखने पर प्रतिबद्ध थे वहीं दूसरी ओर नॉर्दर्न स्टेट्स दास प्रथा के खिलाफ थे।

1843 में ईज़ाबेला ने अपना नाम बदल कर सोजर्नर ट्रुथ रख लिया। वे निर्भीक होकर आजीवन अश्वेतों एवं महिलाओं के हक के लिए लड़ती रहीं।1851 में ओहायो विमेन राइट्स कन्वेंशन ऐक्रो, ओहायो, में उन्होंने एक व्यक्तत्व दिया, जो “एन्ट आई अ वुमन” के नाम से आज भी प्रसिद्ध है ( नेट पर उपलब्ध है)। इस अधिवेशन में उन्होंने सभी महिलाओं को संबोधित करते हुए उन्हें अपने वोट के अधिकार के लिए लड़ने को प्रबोधित किया। उनकी भाषा में भरपूर साहस और हिम्मत का समावेश था बिना किसी लाग लपेट के उन्होंने श्वेत आधिपत्य पर प्रश्न खड़ा किया और श्वेत और अश्वेत के समान अधिकार की बात की। इसके पश्चात श्वेत और अश्वेत महिलाओं की समानता के बारे में भी बात की और वहां मौजूद सभा में यह प्रश्न उठाया कि हर जगह समाज मैं पुरुष यह कहते सुने जाते हैं की ऊंची घोड़ा गाड़ियों में चढ़ने में या गहरे गड्ढों को पार करने में औरतों को मदद की जरूरत होती है, पर आज तक उन्हें स्वयं पुरुषों से ऐसी कोई मदद नहीं मिली थी; तो क्या वह स्वयं एक महिला नहीं है; जब काम की बारी आती है तो क्या वह किसी मर्द की तरह काम नहीं करती और जब कभी भरपूर भोजन मिलने का सौभाग्य मिलता है तो वह एक मर्द की खुराक़ खाने की क्षमता भी रखती हैं। रंगभेद और नस्ल भेद का तार्किक विश्लेषण करते हुए वे कहती हैं कि कानून पारित होने के बावजूद श्वेत लोग अपने आर्थिक सामाजिक वर्चस्व को कायम करने के लिए उस कानून से खिलवाड़ मात्र कर रहे थे, उसे वास्तव में लागू करने की इच्छा शक्ति उनमें विद्यमान नहीं थी।

अमेरिकन सिविल वार या गृहयुद्ध (अप्रैल 12/1861- मई 26/1865) में ट्रूथ ने अश्वेतों की सेना तैयार की और यूनियन आर्मी की मदद की।

ट्रुथ के जीवनीकार नेल अर्विन पेन्टर ने लिखा है कि “ ऐसे समय जबकि ज्यादातर अमेरिकन लोग ‘दास’ शब्द के माध्यम से मात्र अश्वेत पुरुषों को ही समझते थे और ‘औरत/महिला’ शब्द के माध्यम से सिर्फ श्वेत महिलाओं को ही समझते थे तब उन्होंने इस बात को समझाया कि ‘अश्वेतों’ में अश्वेत औरतों का भी समावेश है और ‘औरतों’ में अश्वेत औरतों को भी गिना जाना चाहिए”। और इस तरह उन्होंने अमेरिकी समाज में व्याप्त अफ़्रीकी मूल की महिलाओं को अनदेखा करने की जो मानसिकता थी उसे चुनौती दी और अफ़्रीकी अश्वेत महिलाओं के प्रति जागृति पैदा की। सही मायने में ट्रूथ ने अमेरिकी नैतिकता को आईना दिखलाया और उसमें अश्वेतों के प्रति व्याप्त घिनौनी नकारात्मकता पर प्रश्नचिन्ह खड़ा किया। वह एक निर्भीक सच्ची नायिका थीं।

1870 के दशक के मध्य में ट्रुथ की आत्मकथा को संशोधित कर पुनः प्रकाशित किया गया। जब तक वह सक्षम थीं, उन्होंने यात्रा करना और संयम जैसे सामाजिक सुधार के मुद्दों पर बोलना जारी रखा और 26 नवंबर 1883 को उनकी मृत्यु तक बैटल क्रीक में उन्हें सैकड़ों आगंतुक मिले। कहा जाता है कि उनका अंतिम संस्कार बैटल में अब तक का सबसे बड़ा आयोजन था।

डॉ. ऋतु शुक्ल

लेखक परिचय

अंग्रेज़ी की शिक्षिका हैं जो जमशेदपुर झारखंड में निवास करती हैं।प्रवासी भारतीय लेखिकाओं किरन देसाई व झुंपा लहिरी के लेखन में उपयुक्त थीम्स व नैरेटिव टेक्नीक का तुलनात्मक अध्ययन में पी.एच. डी की हैं।सभी तरह की रचनाओं को पढ़ना पसंद है विशेषकर सांस्कृतिक लेख।

 

 

 

 

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