टिंगू

‘‘टिंगू’’

‘‘मृदु….. देखो भई कौन है’’ इन्होंने मुझे नीचे के बरामदे से आवाज लगाई. सुबह का अखबार पढ़ते समय तनिक व्यवधान हो तो इनकी आवाज ऐसी ही रूखी हो जाती है. मैं सीढ़ियाँ फाँदती नीचे आई तो देखा कि एक बारह तेरह साल का लड़का साफ धुली हुई हाफ पैंट व टी-शर्ट पहने अपनी माँ के साथ मेरे बँगले के दरवाजे पर खड़ा था. उसकी माँ पुराने डिजाइन का ढीला-ढाला सा सलवार-कुर्ता पहने हुये, अपने बालों को सलीके से अपनी चुन्नी से ढँके हुये बार-बार उसका हाथ पकड़ने की कोशिश करती थी, जिसे वह बेरहमी से झिटक रहा था, जैसे कह रहा हो छोड़ो मेरा हाथ… मैं अब बच्चा नहीं हूँ.
मुझे एक छोटे से लड़के की तलाश थी जो घर के छोटे बड़े कामों में मेरा हाथ बँटा सके. लेकिन मेरी पसन्द का लड़का अभी तक नहीं मिला था. आज यह छठा प्रत्याशी था, और मुझे इसका इंटरव्यू लेना था. मैंने ऊपर से नीचे तक उसे अच्छी तरह देखा, और प्रश्नों की झड़ी लगा दी. पीछे से इनकी व्यंगोक्ति सुनाई पड़ी,
’’आप नौकर रख रही हैं भाई……….कोई दामाद नहीं ढूँढ रहीं हैं……..जो इंटरव्यू खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा है.‘‘
इन्हें ज्यादा बात करने से हमेशा से चिढ़ रही है, पर यह रात-दिन घर में रहने वाले नौकर का मामला था और मैं पूरी तरह आश्वस्त हो जाना चाहती थी. यह लड़का जिसका नाम उसकी माँ ने टिंगू बताया, एकदम निर्विकार भाव से गुमसुम खड़ा था. मुझे चिंता हुई कहीं उसकी माँ जबरदस्ती तो इसे काम पर नहीं रखवा रही है. मैंने टिंगू का मन परखने के लिये उससे सवाल किया,
‘‘टिंगू काम करने अपने मन से आये हो या माँ की जोर जबर्दस्ती से?’’
टिंगू ने पहले अपनी माँ को देखा फिर मुझसे बोला, ‘‘आपको कभी शिकायत का मौका नहीं दूंगा मैं,’’
टिंगू मेरी कसौटी पर पूरा खरा उतरा. कहीं जरा सी भी खोट न थी. जैसे वह निश्चय कर के आया था कि कोई भी काम, और कितना भी पैसा हो वह नौकरी पकड़ लेगा.
टिंगू घर के छोटे-बड़े सभी काम व खासकर मेरा काम पूरी तन्मयता व फुर्ती से करता था. बारह तेरह साल का छोटा सा बच्चा कैसे इतना काम कर लेता है, मुझे ताज्जुब होता. अभावों में पलने के बावजूद टिंगू का बदन गठीला था. काले रंग पर दृढ़ निश्चय की लुनाई थी. आलस तो उसे छू भी न गया था. रात में सबके सो जाने के बाद भी मेरी आज्ञा लिए बिना वह कभी अपने बिछौने पर नहीं जाता था. और कभी गल्ती से कोई काम मुझे याद आ गया और मैंने आवाज लगा दी तो ‘‘जी, माँजी’’ कहता, दौड़ता हुआ आ कर मेरे सामने खड़ा हो जाता.
टिंगू ने जल्दी ही हमारे दिलों में अपनी जगह बना ली थी. कभी-कभी मुझे लगता कि कहीं हमसे बाल-शोषण तो नहीं हो रहा…….फिर मैं यह सोचकर आश्वस्त हो जाती कि हम एक बेसहारा बच्चे की पूरी परवरिश कर रहें हैं, खाना-कपड़ा के अलावा उसे अक्षर ज्ञान भी दे रहें हैं, और तमीज कायदा भी सिखा रहे हैं. अर्थात एक सम्पूर्ण नागरिक बन रह रहा है टिंगू. और हमारा अपराध बोध अहंकार में बदल जाता.

टिंगू में परिवर्तन आ रहा था, अब वह पहले जैसा अक्खड़, बेरूखा, व अपने आप से नाराज नहीं दिखता था. उसे घर के सभी सदस्यों की जरूरतों की पूरी जानकारी हो गई थी, और वह मशीनी ढंग से सबके काम यथासमय कर दिया करता था. वह बिल्कुल नहीं बोलता था. कभी-कभी आश्चर्य होता कि इतना छोटा बच्चा इतना चुप कैसे रह सकता है. उसका बचपन उससे रूठ गया सा लगता था. उसकी नजरें हमेशा नीची रहती थीं, और उसकी कोशिश रहती थी कि उससे छोटी सी भी गल्ती न होने पाए, जिससे उसकी नौकरी चली जाए. उसने अपने मन के किसी कोने में अपनी माँ की दी हुई हिदायतें गाँठ बाँध कर सहेज ली थी.

घर के पुरूष सदस्यों से वह बिना वजह आतंकित रहता था. उसकी माँ ने मुझे बताया था कि वह अपने बाप से हद दर्जे की नफरत करता है, क्योंकि उसका बाप उसे अपने जैसा बनाना चाहता है, शराबी, जुआड़ी और कोढ़ियल………..शायद सारे पुरूष समाज में उसे अपने बाप की तस्वीर नजर आती थी. वह पैसे कमा कर, अपनी माँ को सुखी करके मानों अपने बाप से बदला लेना चाहता था.

जब से टिंगू की माँ उसे मेरे पास छोड़ कर गई थी, उससे मिलने भी नहीं आई थी. कई महीने बीत गए. टिंगू का मन लग गया था. वह खुश रहने लगा था. कभी-कभी मुस्कुरा भी देता था. उसने न कभी माँ-बाप को याद किया और ना ही कभी घर जाने की बात कही. इस परिस्थिति से खुश होने के साथ-साथ मैं अक्सर सशंकित भी हो जाती थी. आजकल के नौकर कहाँ इतना मन लगाकर काम करते हैं, इसे तो अपने खाने पीने की भी सुध नहीं रहती, बस काम में ही जुटा रहता है. कहीं इसके मन के किसी कोने में कोई योजना तो नहीं पल रही? जब कभी भी अविश्वास भय को जन्म देता तो टिंगू का सहज, निर्मल व्यवहार मेरी सोच की धज्जियाँ उड़ा देता.
टिंगू का बाप टाटा की कोलियरी का एक अदना सा कारिन्दा था. मोना सरदार, नाम हरविन्दर सिंह……
कई सौ फीट नीचे कोयले की खदान में से कड़ी मेहनत करके कोयला निकालना उसका काम था. काम जितना मेहनती था उतना ही खतरनाक भी. हर सुबह काम पर जाने से पहले वह गुरु गोविन्द सिंह की तस्वीर के सामने माथा टेकता और जीवन की एक नयी सुबह दिखाने के लिये धन्यवाद देता. शायद इसीलिये हर शाम दारू की बोतल लिये घर लौटता और खुशियाँ मनाता……….यह सब मुझे हरविन्दर कौर यानि टिंगू की माँ ने बताया था, जब तीन महीने के बाद एक दिन घरवाले की नजर बचाकर वह टिंगू की पगार लेने आई थी…………वह डरी हुई और घबराई हुई थी और जल्दी से जल्दी चली जाना चाहती थी क्योंकि उसने अपने पति को यह कह कर धोखे में रखा हुआ था कि टिंगू अपने नाना के घर गया हुआ है, जहाँ हरविन्दर सिन्ह के जाने की न तो हिम्मत थी ना ही वहाँ से बेटे को बुला सकने की ताकत, और इसी बात पर वह रोज पिट रही थी, सताई जा रही थी.
टिंगू के बाद हरविन्दर सिंह की तीन और संताने थीं, लेकिन तीनों लड़कियाँ, जिन्हें वह अपना नहीं मानता था. हरविन्दर कौर ने बताया कि उसका पति कहता है कि उसके जैसा गबरू जवान सिर्फ बेटा पैदा कर सकता है, और ये जो तीन बेटियाँ हैं वे किसी और की होंगी. इस बात पर भी रोज मार-पीट होती, माँ बेटियों को भूखा रखा जाता, और ताने-उलाहनों से खाल उधेड़ी जाती. टिंगू से यह सब सहन नही होता था. वह अपनी माँ व बहनों को खूब प्यार करता था. हरविन्दर सिन्ह कहता था कि वह केवल टिंगू की परवरिश करेगा, उसे अपने जैसा बनायेगा, और उसे लेकर कहीं दूर चला जायेगा. अपनी बेटियों को भर पेट खाना खिलाने के लिये जब सिलाई कढ़ाई में कुशल हरविन्दर कौर ने काम लेना चाहा तब भी उस पर गालियों की बौछार पड़ी,
‘‘कलमुँही… क्या जताना चाहती है समाज को, कि टाटा कम्पनी में काम कर के भी मैं तुझे और तेरी करमजलियों, नासपीटियों को खाना नहीं देता….. चल नहीं देता… यदि बदनामी कराई तो हाथ-पैर तोड़ दूँगा.’’
हरविन्दर कौर अपनी कहानी भी सुनाना चाहती थी, और जल्दी से जल्दी वापस भी लौट जाना चाहती थी. मैंने भी टिंगू की पगार दे उसे विदा करना ही उचित समझा.
इसके बाद जब कभी भी आई, उसने एक नई दुःख भरी कहानी सुनाई. कभी वह पीछे से कुरता उठा अपनी पीठ दिखाती जिस पर मारने से लगे चोट के निशान होते, तो कभी आते ही भूख से व्याकुल कुछ खाने को माँगती. हर बार टिंगू को अपने पास रख लेने के लिये वह मुझे धन्यवाद देती, और अपने वाहे गुरु को याद कर मेरे परिवार को ठेरों आशीर्वाद देती. एक बार मेरे पूछने पर कि तेरा राक्षस पति तेरे पिता से इतना डरता कैसे है कि अपने बेटे को लेने जाने या बुलाने की भी हिम्मत नहीं रखता, तब हरविन्दर कौर ने मुझे बताया……..
कि जिस दिन टिंगू का बाप उसे भगा कर लाया था उसी दिन से सरदार जी (हरविन्दर कौर के पिता) उसकी जान के प्यासे हो गए थे, फिर भी टिंगू का बाप उसके प्यार में पागल था और उसकी छोटी-छोटी जरूरतों का ध्यान रखता था. लेकिन एक के बाद एक तीन बेटियों के जन्म ने उसकी यह हालत बना दी है…………….
माँ-बाप के नित्य-प्रतिदिन के झगड़ों ने टिंगू को गुमसुम बना दिया था. उसके मन में बच्चों जैसी कोई ख्वाहिशें न थी. अक्सर बेबसी लाचारी व दयादृष्टि से वह अपनी माँ को घूरा करता था. मन ही मन उसने एक निर्णय लिया……… चाकरी करने का…….फिर अन्न जल त्याग कर माँ को विवश का दिया, कि वह बाप को चाहे जैसे मनाये, बताये या न बताये पर उसे कहीं भी नौकरी पर लगा दे, वह किसी को भी शिकायत का मौका नहीं देगा… दोनों कान पकड़ कर उसने अपनी माँ से वादा किया था. अपने जिगर के टुकड़े को किसी और की झोली में डालने का निर्णय लेने में उसे कई हफ्ते लग गये.
मैं समझ चुकी थी कि यह लड़का अब मेरे घर से कहीं नहीं जाने वाला है, उसकी जिन्दगी से मुझे क्या लेना देना, सो मैं निश्चिंत हो उस पर पहले से ज्यादा हुकुम चलाने लगी. टिंगू ने सचमुच मुझे कभी भी शिकायत का कोई मौका नहीं दिया. चोरी छिपे हरविन्दर कौर आती, बेटे से मिलकर खुश होती, अपने दुखड़े सुनाती, कुछ पैसे लेती और चली जाती. टिंगू के होठों पर घर का नाम कभी न आया. अब इसे ही वह अपना घर समझने लगा था. सब कुछ ठीक चल रहा था उस दिन तक जिस दिन शीला दीदी का परिवार मय बच्चों के दशहरे की छुट्टियों में कुछ दिन हमारे साथ रहने आया.
शीला दीदी इनकी सबसे छोटी और लाड़ली बहन हैं. साल में एक बार सपरिवार मायके जरूर आती हैं. हमारे पारिवारिक मामलों में भी उनकी सहर्ष दखल अन्दाजी रहती है. वे मेहमान कम परिवार का सदस्य जैसी हैं. पंकज भाईसाहब बेहद बातूनी, हँसी मजाक करने वाले, व खाने पीने के शौकीन हैं. उनके आने से घर में खूब रौनक होती, इसलिये उनका आना सबको अच्छा लगता. फिर इस बार तो वे युरोप अमरीका घूम कर लौटे थे, बातों का सिलसिला थमने का नाम ही न लेता था. दीदी सबके लिये ठेरों उपहार लाई थीं, जेवर कपड़े से उनकी एटैची भरी पड़ी थी, जिसके रख रखाव में वे दिन का ठेर सारा समय बिताया करती थीं. टिंगू ने दीदी की खातिरदारी में भी कोई कसर न छोड़ी. यहाँ तक कि वे ऐसा नौकर मिलने पर कभी मेरी तकदीर से रश्क करती तो कभी उसे अपने साथ भगा ले जाने की बात करती.
…….. वह दिन………… दीदी के अपने घर शिमला वापस लौट जाने का दिन था. सारा घर अपने-अपने तरीके से उनकी तैयारियों में जुटा था, कि अचानक वातावरण कुछ गम्भीर सा लगा. हँसी-ठट्ठे फुसफुसाहट में बदल गये. पंकज भाईसाहब व दीदी के दोनों बच्चे भी इधर-उधर सामान उलट-पलट करते नजर आये. दीदी अपने स्वभाव के विपरीत बीच-बीच में कुछ बड़बड़ाने लगतीं, लेकिन मुझे न आवाज दे रही थीं, ना ही मेरी राय चाहिये थी उन्हें आज……मैंने ही जाकर उनसे पूछा,
‘‘दीदी कुछ परेशान लग रही हैं, मैं कुछ मदद करूँ’’
अन्यमनस्क सी दीदी कुछ देर चुप रही, फिर बोली, ‘‘मृदु, तुम कुछ ज्यादा ही नौकरों पर विश्वास करने लगती हो………सारा घर खुला छोड़ रखा है….कल का छोकरा………..बड़ी लम्बी दाढ़ी होती है इनके पेट में……..पहले विश्वास जीतेगें फिर ऐसा चूना लगायेंगे कि हाथ मलती रह जाओगी.’’
‘‘क्या हुआ दीदी, क्या किया टिंगू ने?’’
‘‘क्या किया………मेरी हीरे वाली अँगूठी पार कर दी…..कितना भोला दिखता है………32 हजार की थी………..इतना बड़ा सिंगिल डायमण्ड………’’
‘‘पर दीदी मैंने तो आपको उसे पहने देखा ही नहीं’’
मुझे विश्वास था कि दीदी ने अँगूठी यहाँ पहनी होती तो मेरी नजर अवश्य पड़ती लेकिन दीदी मानने को तैयार न थी. दीदी की खातिर मैंने भी टिंगू को डाँटा और पूछताछ भी की. लेकिन हमेशा की तरह टिंगू ने न जिरह की, न ऊँची आवाज निकाली, बस रोने लगा, और
‘‘हम नाहीं देखें हैं……..हम नाहीं देखें हैं’’ कहता रहा.
मैंने पहली बार किसी बात पर टिंगू को रोते हुये देखा था. वह तो एकदम पाषाण चेहरा लिये घूमता था. मेरा दिल भी रोने को हुआ, पर स्थिति की नाजुकता देखते हुये दिल पर पत्थर रख मैंने एक बार फिर उसे डाँटा.
दीदी चाहती थीं कि मैं उसकी खूब पिटाई करूँ और सब उगलवा लूँ. ऐसा न करने पर दीदी पहली बार भारी मन लिये हमारे घर से विदा हुई.

अगली बार जब हरविन्दर कौर टिंगू से मिलने आई, तो पता नहीं क्यों मैं उससे आँख मिलाने से घबरा रही थी. टिंगू से बात करने के बाद वह बिफर पड़ी,
‘‘दीदी आप भी…………क्या आप भी हमारे टिंगू को दोषी मानती हैं……. मेहमानों का मैं बुरा नहीं मानती……वो कुछ भी कह सकते हैं…..लेकिन आपने कैसे विश्वास कर लिया……….माँ मानता है आपको……….दीदी आप चुप क्यों हैं कुछ तो बोलिये…..हम इसको यहाँ से ले गई तो सचमुच चोर, डाकू बन जाएगा, शायद हत्यारा भी……….बाप से बहुत नफरत करता है……….
हमारा टिंगू सोना है………दीदी खरा सोना…….नहीं करेगा, उसने चोरी नहीं की है…….दीदी……….दीदी……..’’
टिंगू को सीने से चिपकाये वह रो रही थी……… मैं चुपचाप उठी और अन्दर के कमरे में चली गई. बिस्तर पर लेटते ही बीता हुआ साल चलचित्र की तरह आँखों के सामने घूमने लगा. कितना सुख, अपनापन और प्यार दिया था उस नन्हें से बच्चे ने पूरे परिवार को. सोचते-सोचते आँखों से एक बूँद लुढ़क गई. उठकर बाहर आई तो हरविन्दर कौर के साथ टिंगू जा चुका था……….
समय बीतने लगा………..किसी बुरे हादसे की तरह मैंने सब कुछ भुला देना चाहा कि एक दिन शिमले से दीदी का फोन आया. ठेर सारी औपचारिक अनऔपचारिक बातों के बाद बड़े ही भोलेपन और लापरवाही के अन्दाज में उन्होंने कहा,
‘‘मृदु मेरी हीरे वाली अँगूठी मिल गई.’’
मुझे ऐसा लगा जैसे किसी ने मुझे चार मंजिली इमारत से नीचे ढकेल दिया हो. मैंने पूछा,
‘‘कहाँ!! कब!!’’
दीदी जोर से हँसी, और पहले से भी ज्यादा लापरवाही से बोली, ‘‘अरे, मेरे ही पर्स के किसी कोने में फँसी रह गई थी, कितनी बार तो वहाँ देखा था, दिखी ही नहीं.. यहाँ आकर जब पर्स उल्टा कर झाड़ने लगी तो झन..न…न……से गिरी.’’
अर्थात मेरे घर से जाने के दो दिन बाद ही दीदी को अँगूठी मिल गई थी और दीदी मुझे आज दो महीने बाद बता रही हैं…………….झल्लाहट, खिसिआहट, और क्रोध में मैंने फोन काट दिया.
अपराध-बोध अश्रुवेग में बह जाना चाहता था……लेकिन नहीं…….. ऐसा नहीं हुआ……मेरा अपराध अक्षम्य था……मेरी वजह से एक बच्चा शायद शराबी, जुआरी, या फिर चोर बन गया होगा, जैसा कि उसकी माँ को डर था. क्या मैं अपने दिल से इस काँटे को कभी भी निकाल पाऊँगी…………शायद कभी नहीं………
मेरा दिल माफी माँगने का हो रहा था……..कहीं से मुझे टिंगू मिल जाए तो मैं दुलार कर, पुचकार कर या फिर माफी माँगकर जरूर मना लूँगी…………लेकिन टिंगू कहाँ चला गया था मुझे नहीं पता लगा, कभी भी नहीं…………..

सुधा गोयल ‘नवीन’
वरिष्ठ साहित्यकार
जमशेदपुर, झारखंड

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