शजर

शजर

इक पिता सा छाँव करता था शजर
कमनिगाही भी वो सहता था शजर ।

(शजर:वृक्ष
कमनिगाही : उपेक्षा)

ख़ुद की तो उसने कभी परवाह न की,
दूसरों के सुख से सजता था शजर ।

उसकी बाहों में तसल्ली पाते थे,
आसरा पंछी का बनता था शजर ।

नाच उठता था हवा की ताल पे,
लय भी क़ुदरत की समझता था शजर ।

थी ज़रूरत, या कि लालच इंसा का,जो
आँखों में उसकी खटकता था शजर ।

चल गयी आरी, हुआ मैदां सफ़ा,
मातमी है जां हँसता था शजर ।

है कुशादा अब दश्त कंक्रीट का,
जां कभी पुरबार रहता था शजर ।

(कुशादा : फैला हुआ,
दश्त : जंगल,
पुरबार : फल से लदा)

दुश्मनी क़ुदरत से कर बैठा बशर,
आपदा को जबकि हरता था शजर ।

वो हवा औ’ छाँव हासिल कुछ नहीं,
अहमियत ईश्वर सी रखता था शजर ।

रचना सरन
साहित्यकार

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