दिव्या माथुर की रचनाओं पर प्रतिष्ठित लेखकों की चुनिंदा प्रतिक्रियाएं

दिव्या माथुर की रचनाओं पर प्रतिष्ठित लेखकों की चुनिंदा प्रतिक्रियाएं

दिव्या की कहानियों में एक तरफ़ औरत की परजीविता और यथस्थिति का यथार्थ है तो दूसरी तरफ़ संस्कार जनित संवेदनाएं। उनके लेखन में कहीं भी कथ्य या भाषा का आडम्बर नहीं है। अपने देश से दूर रहते हुए भी उनके पास भारतीय यथार्थ और संस्कार की पूंजी सुरक्षित है।

-कमलेश्वर

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दिव्या जी जब पुरुषों की गतिविधियों पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से टिप्पणी करती हैं तो उनके मन में समझदारी और सहिष्णुता है, बदला लेने की आकांक्षा नहीं। किप्लिंग साहब को ग़लत सिद्ध करने वाला पूर्व और पश्चिम का सहज मिलन इनकी कहानियों में हो जाता है।

-रूपर्ट स्नैल

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दिव्या का वैविध्य भरा रचना संसार अपने बहु-कोणीय और बहुआयामी पाठ के चलते, पाठकीय जिज्ञासाओं को नितांत नए आस्वाद से ही नहीं पूरता बल्कि सर्जना की सघन संवेदना और उसकी दृष्टि संपन्न अभिव्यक्ति के माध्यम से कथा वितान को स्वयं उसके अर्जित अनुभवों से सहज ही तब्दील कर देने की क्षमता रखता है। ऐसा तभी सम्भव होता है जब उसके पाठ का निर्वाह, गत कौशल, कथ्य के ताने बाने को पूरी तार्किकता के साथ अपने में गहरे समोये हुए चले।

-चित्रा मुदगल

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प्रवासी रचनाकारों में दिव्या माथुर अलग खड़ी दिखाई देती हैं। उनकी कहानियां केवल घटनाओं, पात्रों और परिवेश की कहानियां नहीं हैं। न उनकी कहानियों में पश्चिमी जीवन का मोह है और न केवल जड़ों से उखड़ने का दर्द है। उनकी कहानी अपने भीतर विचार की शक्ति को संजोती चलती हैं। वे समाज और मनुष्य के सम्बन्धों की गहनता और जटिलता की व्याख्या करने का काम करतीं हैं। विचार उनकी कहानियों के केन्द्र में रहता है।
-असगर वजाहत

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दिव्या माथुर में मौलिकता के साथ जीवन को नई दृष्टि से चित्रित करने का कौशल है। उनमें एक बोल्डनैस है, इसी कारण वह ‘नीली डायरी’ जैसी कहानियाँ लिख सकी हैं। उनमें फैन्टेसी का सौन्दर्य भी है और साथ ही जीवन-यथार्थ की मार्मिकता भी। उनमें अनछुए प्रसंगों तथा अलिखित जीवन-छवियों के चित्रण की और उन्हें प्रेषणीय भाषा में अभिव्यक्त करने की क्षमता है।
-डॉ कमल किशोर गोयनका

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दिव्या के लेखन में भारतीय दृष्टि है।
-डा गंगा प्रसाद विमल

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दिव्या एक बेहतरीन कहानीकार और कवि हैं जिनका दुर्भाग्यवश अब तक सही मूल्यांकन नहीं हो पाया है; विदेशों में बसे कई अच्छे कहानीकारों की तरह ही, उन्हें भी ‘प्रवासी कहानीकार’ के चौखटे में फिट कर छोड़ गया है। अपने प्रचार प्रसार से विलग, वह देश विदेश में बसे लेखकों और कलाकारों के प्रोत्साहन में संलग्न रहती हैं; यह उनके विशाल हृदय का प्रमाण है, जो उनके लेखन में प्रचुर मात्रा में देखने को मिलता है।
– प्रो. इन्द्रनाथ चौधुरी, टैगोर फ़ेलो, एडिनबरा नेपियर विश्वविद्यालय

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दिव्या माथुर रचनाएं प्रवासी जीवन का प्रामाणिक दस्तावेज हैं, इतिहास हैं। प्रवासी साहित्य की सभी विशेषताएं जैसे मूल्यगत द्वंद्व, रेफरेंस प्वाईंट के रूप में भारत का सतत प्रयोग, भारत को लेकर नोस्टेल्जिया, पश्चिम सोच की फ्रेंकनैस, सभी कुछ तो है इसमें; ये कभी नदी की तरह सीधी, टेढ़ी और कभी धीरे चलती हैं तो कभी वेगवान हो चट्टानों से टकराती, शोखी में इतराती सी; तो कभी हवा के मानिंद अपनी सुगंध से परिवेश को सुगंधमय कर देती हैं। ये विषयों को चुन कर सायास नहीं लिखी गई हैं; ना ही ये पश्चिमी साहित्य का बैकयार्ड है। यह ब्रिटेन में भारतीयों के तेजी से दौड़ते जीवन का वस्तुनिष्ठ अंकन है।
अनिल शर्मा ‘जोशी’

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दिव्या की कहानियों के विषय और पात्र आज की सिकुड़ती और उलझती हुई दुनिया की उपज हैं जिसमें अतीतजीवी या भावुक होने की गुंजाइश न के बराबर है. इसलिए उनमें विसंगतियों को एक दबी मुस्कान के साथ देखने और स्वीकार करने की क्षमता है. यही ख़ूबी उनकी कहानियों की भाषा में एक निस्संग भाव और ‘विट’ लाती है।
डा अचला शर्मा

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दिव्या जी यथार्थ के ‘केऔस’ या कहें कि उसके बवाल का ठोस चित्रण करती हैं और ‘बात बोलेगी हम नहीं’ के तो टूक ढंग से अपने कथानक पर केन्द्रित रहती हैं; व्यक्ति की नियति के लिए समाज, व्यवस्था, रूढ़ियाँ, सवर्णवाद, पूंजीवाद, ईश्वरवाद को कोसे जाने की कथा परम्परा से इतर खोद उसके भीतर की बनावट को टटोलती हैं। प्रवासी जीवन का शायद ही कोई सन्दर्भ हो जो इनमें छुटा हो। ‘2050’ कहानी में दिव्या माथुर यांत्रिकता की फंतासी को एक अद्भुत ऊंचाई पर ले गयी हैं।
-संगम पाण्डेय

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इंग्लैंड के इंडियन-डायस्पोरा के अंतर्द्वन्द्वोँ और अंतर्विरोधोँ से लदे-ठुके अनुभव-जगत को वाणी देने वाली कथाकार दिव्या माथुर ने एक बार फिर से यह सिद्ध कर दिया है कि वह मानवीय संवेदना व नियति के छुए-अनछुए पक्षोँ को सामने लाने मेँ सिद्धहस्त हैँ।
-हरजेन्द्र चौधरी

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दिव्या माथुर की कहानियाँ आधुनिक कहानी की एक अच्छी मिसाल हैं।
-प्रो अमीन मुग़ल

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हिंदी कहानी विधा के वर्तमान में एक बेहतरीन लेखिका हैं; जिनका नाम है दिव्या माथुर; उनकी कहानियों की विशेषता यह है कि वे इनमें भागीदार भी हैं और दृष्टा भी।
-डॉ पवन वर्मा

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दिव्या जी की कहानियों में हम जीवन की भयावह वीथियों से गुज़रते हुए ठोस चीज़ों की प्रच्छायाओं को निस्संदेह अपने भीतर सहेज तो लेते हैं किन्तु जीवन के यथार्थ से साक्षात्कार करने के पश्चात् हम भयमुक्त हो जाते हैं। वह कथोपकथन और संवाद के जरिए समूचे कथ्य का विस्तार करती हैं। इस प्रक्रिया में जीवन की बेहतरी के लिए उनका चिंतन प्रखर रूप में हमारे सामने आता है। उनकी दृष्टि समकाल की विद्रूप परिस्थितियों पर होती है पर उन्हें इस बात का पूरा भान होता है कि उनकी कहानियां सर्वकालिक होंगी। उनका उद्देश्य जीवन में समायोजन और सामंजस्य स्थापित करना होता है तथा इस उद्देश्य में उनकी परिपक्व भाषा-शैली उनके विचारों और भावों की सफल वाहिका बनती है।
– डॉ. मनोज मोक्षेंद्र

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दिव्या जो टेक्नीक अपनाती हैं उसमें कहानी सुनाने से हट कर वे कहानी दिखाती हैं।
-तेजेन्द्र शर्मा

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दिव्या जी की रचनाओं में मैंने शुद्ध पाश्चात्य का निरादर कहीं नहीं देखा। वहां ‘खल’ वह है जो अपनी स्मृति और संस्कार से अपभ्रष्ट हो गया है। उनकी ‘उत्तरजीविता’ नामक कहानी एक मरी हुई चुहिया पर है जिसे पढ़कर मुझे अज्ञेय की ‘धैर्य-धन गदहे’ पर लिखी कविता याद हो आई। भारत लेखक को एक ऐसी सामर्थ्य देता लगता है जिससे ‘बियान्ड रिकॉल’ माने जा रहे समय के सामने प्रवासी संवेदना एक आत्मविश्वास के साथ खड़ी हो सकती है।
-मनोज श्रीवास्तवा

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बचपन में छिपकर डायरी लिखकर अपनी वर्जित यादों की भड़ास निकालने की आदत से लेखन की शुरूआत और नृत्य, संगीत तथा भूतों की कहानियों के माहौल में पली-बढ़ी दिव्या माथुर के लिए कहानी लिखना एक बाध्यता है। उनकी कहानियाँ भारतीय संस्कारों से जुड़ी होकर भी नौस्टैल्जिया की न होकर जीवन के उन सरोकारों की कहानियाँ हैं जिनसे किसी भी देश या वर्ग के लिए अछूता रहना संभव नहीं। उनकी समस्या अपने परिवेश में स्थापित करने की है न कि पीछे मुड़कर देखने की।
-डॉ अरुणा अजितसरिया एम.बी.ई.

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संवेदना और शिल्प के संतुलित प्रयोग से लिखी गई यथार्थवादी कहानी का एक उत्कृष्ट उदाहरण ‘बचाव’ है। भारतीय और पाश्चात्य संस्कृतियों की मानसिकता को दिव्या जी ने निंदिया के चरित्र में बखूबी से चित्रित किया है, ‘‘उबलते पानी की धार उनकी टांगों के बीच में छोड़’’ कर उनकी ज़ोर जबर्दस्ती का प्रतिवाद करने वाली निंदिया एक स्वावलम्बी और स्वाभिमानी स्त्री है, ‘‘बहुत सह लिया बस अब निंदिया और नहीं सहेगी’’ में नारी विमर्श की ओजस्वी आवाज़ सुनाई देती है।
-डॉ आशीष कंधवे

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दिव्या जी की कहानी, बचाव, के अंत तक पहुंचते-पहुंचते ऐसा लगा कि यदि निन्दिया अपना बचाव न करती तो पाठक की रगें फट जातीं और उनसे रक्त निकल कर हवा में दौड़ने लगता। इस कहानी ने मुझे जिस तरह हिला के रख दिया; जो सिद्धार्थ के रोगी, वृध और मृतक को देखने के बाद इस अर्थहीन देह और संसार से उनके वैराग्य की ओर अभिमुख हो जाने और बुद्ध हो जाने से ज़्यादा नहीं तो उस से कुछ कम भी नहीं है।
-दीपक मशाल, नई क़लम परिवार

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लमही पत्रिका में दिव्या माथुर की कहानी ‘गूगल’ पढ़ने बैठी; लगा कि यह एक आवारा लड़की की कहानी है, कुछ ही अंतराल के बाद लगा कि यह कहानी ‘स्ट्रीट डॉगस’ पर आधारित है। कहानी के मध्य तक पहुंची तो मन हिलोरें लेने लगा; अरे, ये कहानी तो एक चुहिया की है, लेखिका की परकाया प्रवेश की संकल्पना अद्भुत है। दो जीवों की गृहस्थी के साथ जो बाज़ारवाद की भयावयता, कामगारों का निठल्लापन और मनुष्यता को बचाने के लिए दी गई बलियों का ब्यौरों ने भावुक कर दिया।
-कल्पना मनोरमा

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मुझे दिव्या माथुर की ‘पंगा’ कहानी का अंग्रेज़ी में अनुवाद करने में बहुत आनंद आया, मुझे पन्ना की ‘धारा-चेतना’ पसंद आई जो वास्तव में दिमाग़ में चल रहे ट्रैफ़िक पर प्रतिक्रिया देने जैसा है; पन्ना के अपने पूर्वाग्रह और उसके आसपास के लोगों के बीच तनाव भी बहुत दिलचस्प लगे; कहानी की परतें अगिनत हैं, जो एक के बाद एक खुलती चली जाती हैं और पाठक को बांधे रखती हैं।

युट्टा ऑस्टिन, जर्मन और हिंदी की वरिष्ठ अध्यापिका

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कहानी कहने की कला वह खूब जानती हैं . उनकी कहानियों की सबसे बड़ी विशेषता है – पठनीयता और अनूठी भाषा-शैली; शिल्प की जो बानगी उनकी कहानी के प्रारम्भ में होती है वह अंत तक बरक़रार रहती है।
-प्राण शर्मा

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