कड़ियाँ

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सात वर्षों के बाद इस जगह से मेरी विदाई हो रही थी। हिन्‍दी टीचर के रूप में यह मेरी पहली पोस्टिंग थी। जिन बच्‍चों को मैंने नौ-दस साल में देखा था, अब वो बड़ी हो गई थीं। आभा और करूणा ने विदाई पर कुछ कहा नहीं, एक लिफाफा पकड़ा दिया, पहले की यादें ताजा हो आईं।
मेरे हाथ में लिफाफा थमाते हुए माँ बहुत उत्‍सुक थी। कितनी प्रार्थनाओं के बाद यह पीला लिफाफा आया था जिसमें शायद मेरी किस्‍मत को पलटने वाला कोई मंत्र था। नियुक्ति पत्र ही था – मेरी नियुक्ति हो गई थी हिन्‍दी टीचर के रूप में उड़ीसा राज्‍य के एक केंद्रीय विद्यालय में। तब गूगल का जमाना नहीं था।
छत्तीस घंटे की ट्रेन और एक घंटे टांगा की यात्रा करके सर्वोदय विद्यालय पहुँच गई। शहर से थोड़ा दूर था। हरा भरा, विल्डिंग अभी पूरी नहीं बनी थी। विद्यालय के ही स्‍टाफ र्क्‍वाटर में रहने की व्‍यवस्‍था थी। चौकीदार ने जोरदार सलाम कहा लेकिन समझ में नहीं आया। भाषा अलग थी शायद।
तीन महीनों में यह समझ मे आ गया था कि बच्‍चे दो भाषाएँ बोलते हैं – उड़िया और तेलगु। मुझे उन्‍हें बताना था हिन्‍दी। और फिर अंग्रेजी पढ़ने की ललक तो सबमें थी। जवाब से ज्‍यादा सवाल थे उनके मन में।
पहले हफ्ते क्‍लास में मुझे कुछ समझ में नहीं आया कि उन्‍हें कैसे समझाऊँ। तेलगु भाषा भाषी बच्‍चे एक झुंड में, उड़िया वाले अलग। नौ-दस वर्ष के बच्‍चों को आम, अंगूर, नारंगी चित्रों के माध्‍यम से बताया। कुछ बच्‍चों ने अंगूर देखा ही नहीं था। उस क्‍लास में मुझे मिली करूणा और आभा। दो बहनें जो कि बिल्‍कुल अलग बैठी थी। उनकी भाषा थी तमिल। बड़ी मुश्किल से समझ में आया कि माँ के मरने के बाद उनकी मौसी अपने पास ले आई है जो कि हमारे स्‍कूल में स्‍टाफ थी। पिता दूर सुदूर पंजाब में ट्रक ऐजेंसी में काम करते थे। माँ का जाना पिता का अलग थलग रहना, बच्चियों को बिल्‍कुल गुमसुम कर गया था।
इस क्‍लास को कैसे पढ़ाऊँ – यह मेरे लिए एक पहेली थी। फिर मैंने एक उपाय सोचा। ण्‍क तेलगु और एक उड़िया भाषी बच्‍चों को जोड़ी बनाने को कहा। दोनों एक दूसरे की बात समझने लगे। बिल्‍ली, कुत्ते, रेग, खाने पीने की चीजें उनकी बातचीत का माध्‍यम बना। यह एक सतरंगी दुनियां थी। भिन्‍न भिन्‍न भाषी, मोती की माला की तरह हम पिरोये जाने लगे। बच्‍चों को मजा आने लगा। दूरियां मिटने लगीं। उनका ग्रुप अब द्वीपों में ना बँटकर एक होता नजर आया। अब मुझे हिन्‍दी की चिंता सताने लगी। छमाही की परीक्षा शुरू होने में मात्र दो महीने थे। प्रार्चाय जी जब प्रगति मांगेंगे तो क्‍या जवाब दूँगी।
उस दोपहर को मेरी क्‍लास को मैं बाहर मैदान में ले गई। वहां घास, पेड़, फूल, आकाश अपनी अपनी जगह पर थे। बच्‍चों को मैंने एक कहानी सुनाई। धरती और आकाश के मेल जोल की। फिर उन्‍हीं की भाषा में पूछा कि धरती, पेड़, पौधों को अगर हम हिन्‍दी में कहे तो क्‍या होगा। सोलह अठारह बच्‍चों ने इस खेल में भाग लिया। कुछ बच्‍चे इधर उधर देखते रहे। लेकिन मैंने मान लिया था कि धीरे-धीरे उन्‍हें हिन्‍दी पढ़ाना शुरू करूँगी। बस यह खेल चलता रहा। कभी तालाब, कभी खेल के मैदान, कभी झूले के पास हम बैठते – मैं उन्‍हें हिन्‍दी बताती और वो दो तीन बार दोहराते। फिर छोटे छोटे शब्‍द लिखते- विना मात्रा वाले शब्‍द – कमल, जल इत्‍यादि।
छमाही परीक्षा में बच्‍चों ने मुझे निराश नहीं किया। कमोबेश सबों ने अक्षर ज्ञान प्राप्‍त कर लिया था। उनके सीखने की इच्‍छा ने मुझे प्रभावित किया। छोटे अक्षरों से शब्‍दों और शब्‍दों से वाक्‍यों की यात्रा पूरी होने लगी। तस्‍वीरों को दिखाकर अगले क्‍लास में कहानी लिखने लगे वो बच्‍चे। दूसरी से छठी कक्षा तक का हिन्‍दी का सफर इन बच्‍चों ने इतने प्‍यार से किया। मुझे यह अनुभव हुआ कि शिक्षा किताबों की मोहताज नहीं होती है। इन बच्‍चों ने मुझे हर पहलू को देखने पर मजबूर किया। मेरे इस नए प्रयोग को सबों ने सराहा।
करूणा और आभा की चिठ्ठी को तीन बार पढ़ लिया है। हिन्‍दी में लिखी हुई उनकी चिठ्ठी अब मेरी सबसे बड़ी धरोहर है। पर्स में उसे रखते हुए मेरी आंखे नम हो गई हैं जिसे मैने चुपके से पोछ लिया है। मैंने आज अपनी डायरी में लिखा है कि जो धैर्य रख सकता है, वो कुछ भी कर सकता है।

डॉ. अमिता प्रसाद
कर्नाटक ,भारत

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