पीली कोठी

पीली कोठी

आज सुबह से पीली कोठी के पिछले भाग में खूब सारी हलचल मची थी। पीली कोठी का पिछला हिस्सा अब पीला भी कहाँ रहा। हल्के गुलाबी और हरे रंगों में सराबोर वह अब इस पीली कोठी का हिस्सा ही नहीं लगता। शायद कोई ब्याह शादी होगी। प्रतिभा का मन हुआ कि उधर जाए और पूछे कि क्या हो रहा है लेकिन वहाँ प्रतिभा के लिए समय किसके पास था। बुझे मन से मन के झरोखे को ही टटोलने लगी।

यह पीली कोठी दरअसल अब्दुल दादा की थी। प्रतिभा ने यह कहानी ना जाने किनती बार सुनी थी। अब्दुल दादा और उसके बख्शी दादा जी बड़े पक्के दोस्त थे। स्कूल-कॉलेज सब साथ गए। तब इतना गैर पना नही था। ईद और दीवाली साथ ही मनायी जाती थी। अब्दुल दादा पेशे से वकील थे और हमारे दादा जी पुलिस में। दोनों ही अच्छा कमाते थे। दादा की शादी की तस्वरी देखी है मैंने। उस धुंधली फोटो में दादा जी के घोड़ी की लगाम थामे अब्दुल दादा थे। लम्बे, ऊँचे, सुंदर। सुनते हैं कोर्ट कचहरी में भी उनका खूब दबदबा था। अच्छा बोलते थे और खूब चर्चा होती थी उनके वाद विवाद और तर्क का। थोड़ी बहुत राजनीति भी कर लेते थे। वकील ऐसे भी स्वतंत्रता संग्राम में खूब आगे थे।
गुलाम देश में भी शायद धीरे-धीरे शहर बदलने लगे थे और वक्त भी। शहर में अब्दुल दादा ने पीली कोठी बनवाई और उसमें रहने भी लगे। हमारे दादा जी जो सरकारी मकान में रहते थे। अचानक देश में एक नई लहर आई और गाँधी के नाम की धूम मच गई। अंग्रेजों को उन्होंने ललकार दिया। उनकी एक-एक बात जैसे सीने में उतरती रहती थी। दादा जी पुलिस में थे तो बिना कुछ किए ही बूरे बन जाते थे क्योंकि लोग जो चाहते थे वो शायद नहीं कर पाते थे। और लोगों को उनसे अपेक्षाएँ भी बहुत थी। पूरा देश जैसे आजादी के रंग में रंग गया था। समय के साथ बदलते हालात को अब्दुल दादा ने समझ लिया था। पहली बार जब उन्होंने देश और आजादी की बात की तो लगा था कि यह कुछ अलग बात कह रहे हैं। दादा जी उनकी बातें सुनते रहते और उनका पुलसिया दिमाग नए-नए मायने लगाता रहता। उनको डर था कि अब्दुल दादा जी पकड़े न जाएँ। हर जगह खुफिया छापे हो रहे थे। दादा जी को अपना भी डर था कि कहीं बड़े साहब को उनके खुरफाती दोस्त का पता न चल जाए। और उनकी नौकरी पर आँच न आए। दोनों के घरों में बच्चे बड़े हो रहे थे। अब्दुल दादा के पाँच बच्चे और बख्शी दादा के तीन बच्चे साथ खेलकर बड़े हुए थे। समय के साथ हालात बदल रहे थे। “अब्दुल बदल गया था। उसको यह मुल्क शायद पराया लगने लगा था। लेकिन वह अपने दिल की बात को दिल में ही रखता था। लगता है, सबसे नाराज था। दुनियाँ से, गाँधी से, और शायद मुझसे भी।” फिर अपना पराया भी होने लगा। अब्दुल दादा और बख्शी दादा का मेल जोल थोड़ा कम होने लगा। शायद ये हिसाब भी रखा जाने लगा कि तुमने मेरे लिए क्या किया है फिर एक दिन अचानक अब्दुल दादा घर आए और कहने लगे यहाँ अब कुछ नही रखा। पाकिस्तान चला जाऊँगा। पाकिस्तान का नाम सुनते ही बख्शी दादाजी के पैरों तले जमीन निकल गई। फिर उन्हें समझाया। उम्मीद थी कि वो समझ जाएँगे। लेकिन उनको तो जैसे धुन सवार हो गई थी कि जिंदगी तो वही लाहौर में गुजारनी है। और एक दिन यहाँ का नाम, जीमन, मिट्टी, हवा सब कुछ छोड़कर वो चले गए। दादा जी के लिए एक लम्बा इंतजार छोड़कर। फिर सात-आठ सालों के बाद एक रजिस्टर्ड चिठ्ठी आई। पीली कोठी दादा जी के नाम कर गए। दादा जी कहा करते थे कि उनका एक रिश्ता बन गया था और जिंदगी उसी रिश्तों के खुशबू के साथ चलती रही। जिंदगी के फिर किसी मोड़ पर वो उनसे नहीं मिले। हाँ, कभी कभार एक चिठ्ठी आ जाती थी। सेंसर हुए चिठ्ठियों से दादा जी मलतब निकालते रहते थे। ‘वो खुश है वहाँ’-यही बार बार बोलकर अपने मन को समझा लेते थे। जिंदगी भर उसके पुराने अपनेपन को तरसत रहते थे। फिर प्रतिभा के जन्म के समय अब्दुल दादा का एक बेटा दुबई के रास्ते भारत आया था। मालिकाना हक जो था पीली कोठी पर। यहीं बसना चाहता हूँ।

बहुत मिट्टी देश देख ली अब बस यही रहूँगा। दादा जी को कोई आपत्ति नहीं थी लेकिन मँझले चाचा उससे उलझ गए। अब्दुल दादा ने अपनी इच्छा से पीली कोठी उनके नाम की थी। अब सच को क्या साबित करना। हाँ पीछे के हिस्से को लेकर बात खत्म करें। लेकिन अकरम ने बात नहीं मानी। मुकदमा ठोक दिया। दादा सदमें में आ गए और बिस्तर पकड़ लिया। मामला बातचीत से सुलझ जाए, बार बार यही रट लगाते रहे। अकरम को नजर अंदाज करने से भी क्या होता। पिछले इतने सालों में कोठी दादा जी का घर बन गया था। अकरम का उस कोठी पर उसका हक था। अब्दुल दादा पर कोई दवाब भी नहीं था जब उन्होंने कोठी को ‘सौगात’ कहकर दे दिया था। आठ दस साल की कहासुनी, कोर्ट-कचहरी के बाद पीली कोठी के पिछले भाग में अकरम चाचा आ गए। और दो भागों में बँट गया ये पीली कोठी।
ऊँची दीवार खींच दी। हमारा-तुम्हारा, भारत और पाकिस्तान ही जैसा। यह शायद दूसरा बँटवारा था। दादा जी बर्दाश्त नहीं कर पाए और चल बसे। बातचीत तक बंद हो गई थी। इस कालीरात की सुबह अब नजर नहीं आ रही थी। लगता ही नहीं था कि इस रात के दामन से कोई सुबह निकलेगी। बस यूँ ही दीवारें मजबूत होती रहीं। अकरम चाचा को इधर आए बरसों बीत गए। अपने पिता के जाने के बाद प्रतिभा ही इस हिस्से की मालिकिन है। सब लोग बस गए हैं और इतनी पुरानी कोठी के लिए इधर उधर किसी को अब कोई हसरत भी नहीं। प्रतिभा कोठी के एक हिस्से में संगीत स्कूल चलाती है। यहाँ का मोह छोड़ नहीं पाई। पीली कोठी की कहानी सबसे ज्यादा शायद उसी ने सुनी थी। इस मोहल्ले में तुम ‘सेफ’ नहीं हो, भाई चाचा ने भी आगाह किया था लेकिन प्रतिभा वही अटकी रही।

फाटक को खोलने की आवाज आई तो प्रतिभा अपनी तंद्रा से जागी। अकरम चाची अपनी पोती सायरा के साथ खड़ी थी। वर्षों से हमने ईद, दीवाली, मौके, त्यौहार भुला ही दिए थे। बस उसी दीवार को देखते रहते थे। ‘चाची, आप?’ ‘तुमने मुझे भुला दिया तो क्या हम ना याद रखें तुम्हें’। ‘आज सायरा की सगाई है। सोचा इस हिस्से को भी मिठाई खिला आएँ।’ प्रतिभा को कुछ नहीं सुझा तो उसने चाची को जोर से गले लगा लिया। ईंट से ईंट जोडकर बनाई हुए अब्दुल दादा की पीली कोठी अचानक फिर से घर लगने लगी।

डॉ. अमिता प्रसाद
बैंगलोर, भारत

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