वाफर का तॉरेपकिऊ

वाफर का तॉरेपकिऊ

वाफर के दूरवर्ती गाँव का “गाँव बुड़ा’ (प्रमुख), 75 वर्षीय तॉरेपकिऊ, अपने पर्यावरण हितैषी घर के अहाते में मनोभावन धूप सेक रहा था। यह गाँव नागालैंड के टूयेनसांग जिले के समतोर ब्लॉक में अवस्थित था। 2 अगस्त, 2010 अन्य दिनों की अपेक्षा कुछ ज्यादा ही गर्म था। पिछली रात की लगातार वर्षा ने अनियमित बिजली और पानी की आपूर्ति को और प्रभावित किया था। एक लम्बे अंतराल के पश्चात्‌ एक वरिष्ठ नागरिक सेवक उसके उपेक्षित गाँव का दौरा करने आ रहे थे। उसने दौरे की तैयारी हेतु गाँव विकास परिषद के मुखिया को अपना सजग सहयोगी हाथ बढ़ाया। इसमें एक सेवानिवृत्त फौजी एवं दौरे की तैयारी कर रहे गाँव के ईसाई पुरोहित भी थे। इस दौरे को मद्देनजर रखते हुए बी ए डी पी (केन्द्रीय योजना) के अंतर्गत निर्माणित बैठक हॉल तक जाती कीचड़ से भरी पगडंडी को साफ किया गया, गडढों को भरा गया, गाँव के गेट के खम्भों पर रंग-रोगन किया गया तथा एक नियत राशि को चाय एवं खाने के लिए उदृष्ट कर दिया गया।

हालाँकि स्वयं सेवक समूहों (एस एच जी) के सदस्यों की उपस्थिति को सुनिश्चित करने के लिए अग्रिम रूप से एक सूचना परिचालित कर दी गई थी, लेकिन उनमें से आधे से ज्यादा बैठक का उद्देश्य ही नहीं समझ पाए थे। यह अवश्य तय था कि एक या दो योजनाओं के संदर्भ में कुछ जरूरी घोषणा हो सकती थी।

तॉरेपकिऊ, जो कि छः: मिथुनों (गाय से थोड़े बड़े जानवर) के साथ-साथ कई अन्य पशुधन का मालिक अपने नम्न एवं शांत दूसरी पत्नी के निरुत्साह सहारे के साथ सुखमय जीवन व्यत्तीत कर रहा था। वो उससे मात्र 22 वर्ष छोटी थी। पहली पत्नी से उसके पाँच बच्चे अपने जीवन में व्यवस्थित थे जबकि उसके नई पत्नी से तीन बच्चे नजदीक के एक जर्जर एवं प्रोत्साहन न देने वाले सरकारी जूनियर हाई स्कूल में जाते थे। पढ़ाई में उनकी एकाग्रता बनाने के लिए बेझिझक पैसे देते समय तॉरेपकिऊ पड़ोस के अन्य छोटे बालकों को भी यह सुविधा देने में हिचकिचाता नहीं था। आखिर ‘दिल है कि मानता नहीं’ | इनमें से कुछ को स्कूल का यूनीफार्म तथा मासिक फीस देने में भी वित्तीय सहायता मिल जाती थी। स्कूल तक जाने वाली पगडंडी जब वर्षा से प्रभावित हो जाती या उसमें फिसलन आ जाती तो अपने आप ही स्कूल में छुट्टी हो जाती। बिना किसी कारणवश बच्चे छुट्टी के लिए तब भी हकदार” होते जब सामुदायिक उत्सव मनाया जाता या टूयेनसांग या मोकोकचुंग से आने वाले मनमौजी शिक्षक मौज-मस्ती करने का मन बनाते। सरकारी रोजगार जिंदाबाद! जिंदाबाद!
भारत संघ के एक वरिष्ठ अधिकारी दल का नेतृत्व करते हुए जब सब लोग गाँव के द्वार पर पहुँचे तो तॉरेपकिऊ की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। हालाँकि परिषद अध्यक्ष तथा गाँव पुरोहित उनके स्वागत के लिए मुख्य द्वार पर मौजूद थे लेकिन तॉरेपकिऊ पीछे नहीं रहना चाहता था। उसकी बाँयी पिंडली की मांसपेशी का दर्द उसके उत्साह को कम न कर सका, बल्कि नारंगी रंग की आधे बाजू की बनियान तथा बिना इस्तरी की हुई काले रंग की हाफ पैंट पहने एक छड़ी की सहायता से, बिना जूता पहने वह तेज चलने का प्रयास करता रहा।

हँसी मजाक के साथ काफिला धीरे-धीरे समतल एवं सुन्दर घासदार भूमि से आगे बढ़ा। चमकीले रंग के पारंपरिक वस्त्र पहने हुए कुछ महिलाएं व बच्चे पूरे प्रकरण को उत्साह से देख रहे थे। करीब एक सप्ताह बाद दिन चमकदार और साफ हुआ था। जिससे गृहस्थी के रोजमर्रा के सामानों पर धूप और हवा लगने के साथ-साथ भीगे व बदबूदार गर्म कपड़ों का सूखना सुनिश्चित हो पाया। इसकी तुलना शायद किसी प्राचीन गुम्पा के ‘सनिंग और एअरिंग’ समारोह से की जाए तो यह अतिश्योक्ति न होगी।गाँव के एक भ्रमण के पश्चात्‌, नई शयनशाला सहित सीधे-सादे लकड़ी के बने बैठक कक्ष में एक औपचारिक बैठक बुलाई गई। अतिथि और सहयोगियों का वाफर के प्रभावी जनजाति के मोहर वाली एक पारंपरिक ऊनी शाल से स्वागत किया गया। वक्‍ताओं में परिषद अध्यक्ष, पुरोहित तथा शुहवेन सम्मिलत थे। अंत में लिए गए नाम को उसके हिन्दी में अच्छी जानकारी की वजह से दुभाषिया बनाया गया।
सामान्य प्रक्रिया में, तोरेपकिऊ की बारी नहीं आनी चाहिए थी। जब अतिथि उसके ज्ञान एवं अनुभव में तीव्र रुचि दिखलाए, उन्हें न केवल बोलने का मौका, बल्कि उन्होंने प्रतिबंधों, विकास के लक्षणों तथा दूरवर्ती गाँवों के आवश्यक जीविका के अनुकूल विकल्पों पर भी पर्याप्त प्रकाश डाला। एक पक्के नेता के भांति, वह अपने वक्तव्य के मध्य दिल्‍लगी भी करता। अपने भाषण में उन्होंने गरीबी निबटान योजनाओं, प्रस्ताव का अनुसरण किए बिना, कठोर परिश्रम करने वाले पहाड़ी जनसमूह के लिए एक आशा की किरण दिखलाई।

परस्पर संवाद की प्रक्रिया के दौरान एस एच जी के प्रकार्यात्मक एवं पुराने, दोनों विषयों में उपयोगी दृष्टव्यों का आदान-प्रदान तथा अनुभवों को आपस में बांटा गया। फुसलाने के अवस्था में भी, किसी खास व्यवसाय अथवा क्रियाकलाप की पदोन्‍नति संभावना पर निर्भर होकर नए एस एच जी की छत्रछाया के तहत आने की उत्साही आकांक्षा भी प्रकट की गई।इस विचार-विमर्श में पाया गया कि आमतौर पर गाँव वाले आधुनिक बाजारों से मीलों दूर हैं, अत: अत्तिरेक वस्तुओं और कैश फसलों की स्थानान्तरण वैल्यू एडीशन अथवा कीमत की बढ़ोतरी का प्रश्न ही नहीं उठता। समाज में मितव्ययिता की आदत को चुना गया और इसके लिए कुछ महिलाओं द्वारा अनुरोध किया गया, अन्यथा यहाँ सदा लम्बे, भारी-भरकम एवं जिद्दी पुरुषों का ही बाहुल्य और प्रभुत्त होता । गाँव से 35 मिलोमीटर दूर स्थित होने तथा कम से कम छः: घंटों की क्षुब्ध करने वाली यात्रा के कारण, बैंकों से साख सम्पर्क को खारिज ही माना गया।

विद्यमान परम्परा के अनुसार, प्रायः महिलाओं को बैठक से दूर रखा जाता था। उनकी भूमिका नाश्ता एवं चाय परोसने तक ही सीमित थी। फिर भी, जब केन्द्र सरकार के अधिकारी ने उनसे मिलने की इच्छा जाहिर की, उन्हें, उनसे दरवाजे के पास संपर्क करवाया गया। उनके विचार में, महिलाएँ इस योजना की मुख्य हितभागी होने जा रही थीं। वे वहाँ यह सफाई देने तथा मूलभूत सिद्धांतों को स्पष्ट करने के लिए आए थे। यह परस्पर संवाद तॉरेपकिऊ एवं गाँव के पुरोहित की सहायता से संभव हो पाया। वे समुदाय की समग्र क्षमता की आवश्यक अंतदृष्टि को प्रकाश में ला सके। तत्पश्चात्‌ एक घंटे के अंतराल पर बिना कोई समय गंवाए, वर्तमान गाँव वाले अपने को पाँच – छः नए स्वसेवक समूहों में पुनः: वर्गीकृत कर सके।उन्हें प्रेरित करने के पश्चात्‌ वे अब ज्यादा दिलचस्प दिखाई दिए। आशा की धूमिल लगने वाली किरण शायद थोड़ी उजागर होने वाली थी।

अध्यक्ष के पारम्परिक बंगले में आग के स्थान के नजदीक आयोजित विलंबित मध्याह्न भोजन जल्द खुशनुमा माहौल में बदल गया। अध्यक्ष की चार फुर्तीली बेटियों द्वारा सावधानी एवं प्रसन्‍नता के साथ विविध प्रकार के जातिगत मांसाहार व्यंजनों को परोसा गया। सौभाग्य से उनमें से तीन अध्ययनरत थीं एवं एक की उच्च शिक्षा के लिए 270 कि.मी. दूर कोहिमा जाने की योजना थी। तॉरेपकिऊ ने अनुनय – विनय के उपरांत भी खाने से इंकार कर दिया क्‍योंकि उनके अनुसार भोजन केवल दो बार — सुबह 9:30 बजे तथा शाम को 5:30 बजे लेना चाहिए।
शाम को ठीक 5 बजे अंधेरा होने लगा। यह गुवाहाटी से आए अतिथियों के जाने का समय था। नहीं तो रास्ते बंद मिल सकते थे, भूस्खलन के कारण। राज्य सरकार के अधिकारियों के साथ वरिष्ठ नागरिक सेवक ने उत्सुक गाँव वालों के पास परियोजना के सारांश को पुनः रखा। उम्मीद एवं भरोसा दिलाया। अपने फर की जैकेट को पहनते हुए सभी को आशा के कुछ प्रतिरूप दिखलाने के अलावा उन्होंने हर एक को धन्यवाद देना नहीं भूला। उन्होंने तॉरेपकिऊ के अलावा सभी से हाथ भी मिलाया।
जब चार जीपों का काफिला पहाड़ी, पर समतल गाँव के उच्च एवं प्रभावोत्पादक द्वार से होकर गुजरा, वर्दी पहने गाँव के दरबान ने एक जोरदार सलामी दी। कुछ बच्चों ने भी धन्यवाद देने के लिए दौड़ लगाई। गेट से दूर एक अनुपयोगी बस अड्डे के नजदीक, एक मोटे कम्बल से ढके आदमी को भी हाथ हिलाते हुए देखा गया। वह स्वयं में बुदबुदाया, “वे गाँव के लिए कुछ करें या न करें, मैंने अपनी योग्यता और क्षमता के अनुसार अपना काम कर लिया”, कोई अनुमान, वह कौन था?
अंधेरे में म्यांमार बॉर्डर के नजदीक उभरते हुए साफ इन्द्रधनुष ने आशा की नई किरण के साथ कहानी बयान करने की कोशिश की। इस दुर्लभ दृश्य की ओर ध्यान दिए बिना, सरकारी जीप गति पकड़ते हुए दीमापुर के लिए रवाना हुई जो 255 किलोमीटर दूर था।
कुछ माह के उपरान्त, कथित नागरिक अधिकारी का स्थानांतरण हो गया। गाँव की जर्जर सामाजिक–आर्थिक संरचना पर कोई निशान नहीं लग सका। फलस्वरूप समर्पित प्रयासों का बेकार होना शायद नियत एवं निश्चित था।

आलोक श्रीवास्तव
भा.प्र.से. (सेवानिवृत्त)

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