ममता कालिया से सन्दीप तोमर की साहित्यिक चर्चा

ममता कालिया से सन्दीप तोमर की साहित्यिक चर्चा

ममता कालिया हिंदी साहित्य की प्रमुख भारतीय लेखिका हैं। वे कहानी, नाटक, उपन्यास, निबंध, कविता जैसी अनेक साहित्यिक विधाओं में बराबर दखल रखती हैं। हिन्दी कहानी के परिदृश्य पर उनकी उपस्थिति सातवें दशक से निरन्तर बनी हुई है। लगभग आधी सदी के काल खण्ड में उन्होंने 200 से अधिक कहानियां लिखी हैं।
२ नवंबर १९४० को वृंदावन में जन्मी ममता की शिक्षा दिल्ली, मुंबई, पुणे, नागपुर और इन्दौर शहरों में हुई। उनके पिता स्व श्री विद्याभूषण अग्रवाल पहले अध्यापन में और बाद में आकाशवाणी में कार्यरत रहें। वे हिंदी और अंग्रेजी साहित्य के विद्वान थे और अपनी बेबाकबयानी के लिए जाने जाते थे। ममता पर पिता के व्यक्त्वि की छाप साफ दिखाई देती है। ममता कालिया लगभग पैंतीस वर्षो तक अध्यापन से जुड़ी रही हैं, उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यलय में अध्यापन कार्य किया, वे महिला सेवा सदन डिग्री कॉलेज इलाहाबाद में प्राचार्या भी रही। वे प्रख्यात रचनाकार श्री रवीन्द्र कालिया की पत्नी हैं। वर्तमान में वे महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय की त्रैमासिक पत्रिका “हिन्दी” की संपादिका हैं। ममता कालिया जी वर्तमान में गाजियाबाद उत्तर प्रदेश में रहती हैं।
ममता जी का साहित्यिक अवदान-
कविता संग्रह : खाँटी घरेलू औरत, कितने प्रश्न करूँ, Tribute to Papa and other poems, Poems 78
उपन्यास : बेघर, नरक दर नरक, प्रेम कहानी, लड़कियाँ, एक पत्नी के नोट्स, दौड़, अँधेरे का ताला, दुक्खम्‌ – सुक्खम्‌
कहानी संग्रह : छुटकारा, एक अदद औरत, सीट नं. छ:, उसका यौवन, जाँच अभी जारी है, प्रतिदिन, मुखौटा, निर्मोही, थिएटर रोड के कौए, पच्चीस साल की लड़की, ममता कालिया की कहानियाँ (दो खंडों में अब तक की संपूर्ण कहानियाँ)
नाटक संग्रह : यहाँ रहना मना है, आप न बदलेंगे
संस्मरण : कितने शहरों में कितनी बार
अनुवाद : मानवता के बंधन (उपन्यास – सॉमरसेट मॉम)
संपादन : हिंदी (महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय की त्रैमासिक अंग्रेजी पत्रिका)
(साहित्यकार सन्दीप तोमर ने उसके साथ साहित्य पर खास बातचीत की है, आइये ममता कालिया जी की नजर से उनकी साहित्यिक यात्रा का आनन्द लेते हैं )
सन्दीप तोमर : बातचीत आदरणीय रवीन्द्रजी से शुरु करते हैं, ये बताइए- आज की स्थापित लेखिका ‘ममता कालिया’ की पहली मुलाकात स्थापित लेखक-संपादक ‘रवीन्द्र कालिया’ से कब और कैसे हुई ?
ममता कालिया: रवीन्द्र कालिया पहली बार मुझे चंडीगढ़ में मिले। यों तो पूरा चंडीगढ़ खूबसूरत था, यूनिवर्सिटी परिसर तो एकदम नगीना था। करीने से लगी गुलाब की कतारें, हर रंग का गुलाब। बहुत दिनों के बाद चंडीगढ़ में नारंगी, कत्थई, दुरंगा और काला गुलाब देखने को मिला। गुलाब जितनी ही खूबसूरत अनीता राकेश वहाँ मिलीं और अनामिका विमल। बहुत से शीर्ष रचनाकारों, आलोचकों से मंच सजा था। नई कहानी के दो दिग्गज अपने महाबली आलोचक सहित विराजमान थे। मोहन राकेश, कमलेश्वर, आचार्य द्विवेदी, इन्द्रनाथ मदान, नामवर सिंह के साथ रवीन्द्र कालिया, गंगा प्रसाद विमल, अनीता राकेश और मैं मंच पर बैठे थे। नामवरजी ने मंच से मेरे आलेख की सराहना की थी। मेरे लिए वह ऐतिहासिक दिन था। ऐतिहासिक तो वह दिन और भी कई कारणों से रहा।
मैंने कहा- “आज ही दिल्ली वापस जाना होगा। मैं छुट्टी लेकर नहीं आई और कल कॉलेज है।“
मदान साहब ने कहा- “एक दिन रुक जाइए, आपको सुखना झील दिखाएंगे।“
पर मैं उठ खड़ी हुई।
ताज्जुब !
मेरे साथ रवीन्द्र कालिया भी उठ खड़े हुए।
राकेश और कमलेश्वर ने रवि को अलग ले जाकर समझाया- ‘‘इन्हें जाने दो, बस में बैठाकर आ जाना। शाम को रंग जमेगा।’’
रवि कुछ नहीं बोले। विल्ज़ फिल्टर के धुएँ ने जो कहा हो सो कहा हो। चंडीगढ़ के सभी मित्र छोड़ने आए। कमलेश्वर अन्त तक कोशिश करते रहे कि रवि न जाएँ। वे अवश्यम्भावी की आहट पहचान रहे थे।
रवि मेरे साथ दिल्ली चल दिए।
मुझे लग रहा था, इस लड़के की हिमाकत तो देखो। हाल न पूछा, बात नहीं की, पर चल रहे हैं छोड़ने जैसे मुझे बस में सफर करना नहीं आता।
बहुत देर तक दोनों के बीच दही जमा रहा। आखिर में रवि ने मेरी प्रिय पुस्तकों के बारे में पूछा। मैंने जैनेन्द्र, अज्ञेय और निर्मल वर्मा गिना दिए। यह भी बताया कैसे मैं अपने समस्त दोस्तों को निर्मल वर्मा पढ़ा चुकी हूँ।
अब रवि से बर्दाश्त नहीं हुआ।
उन्होंने एक-एक कर जैनेन्द्र, अज्ञेय और निर्मल की सीमाओं, संकुचित सरोकारों और अवास्तविक कथानकों पर प्रहार करना आरम्भ किया। अर्थात मेरा अब तक का संचित साहित्य कोष वे नकार रहे थे, धिक्कार रहे थे। वे मुझसे मेरे सारे नायक छीन रहे थे। वे मेरे नायक मिट्टी में मिला रहे थे। किस मिट्टी का बना है यह आदमी। अपने पूर्ववर्ती रचनाकारों से इसे जरा भी मोह नहीं।
रवि का मोह केवल एक के प्रति था। वह मैंने महसूस किया। मोहन राकेश के प्रति। वे पूजा की हद तक मानते थे उन्हें। उनका कहा ब्रह्मवाक्य। उनका सिखाया दीक्षान्त कथन। उनका लिखा सर्वोपरि।
लेकिन उनकी मर्जी के खिलाफ वे बस में सवार हुए और मेरे साथ चल दिए।


यकायक करनाल पर बस खराब हो गई। ड्राइवर, कंडक्टर ने बारी-बारी से बस के नीचे प्राणायाम की मुद्रा में लेटकर निरीक्षण किया। उनमें थोड़ा मतभेद हुआ कि खराबी पहिए में है या इंजन में। फिर इस बात पर समझौता हो गया कि खराबी इंजन में है। ठंड बला की। मेरा स्वेटर और रवि का कोट, दोनों करनाल की ठंड से मार खा रहे थे। चाय मँगाई। चाय के बहाने फिर सिगरेट। अब तक मेरे जेहन में रवीन्द्र कालिया और सिगरेट एकाकार हो चुके थे। धुआँ अच्छा लग रहा था। नागवार बातें भी गवारा करने की तबीयत हो रही थी। यह शख्स मेरे सारे नायकों को परास्त करके मुझे एक नया नायक देने में बहुत दूर नहीं था।
सबसे बड़ी बात अभी तक उसने अपने घर-परिवार, नौकरी और आर्थिक संघर्षों का कोई पुलिन्दा नहीं खोला था। लड़कियों को भावुक और विगलित करने के लिए जिस बाजीगरी का सहारा लोग लेते है, वह यहाँ सिरे से गायब थी।
रवि ने दो-एक स्कूटरवालों से बात की। उनके इलाके सन्तनगर, करोलबाग, सब जाने को तैयार थे।
रवि ने तकल्लुफ निभाया- ‘‘एक बार नामवर सिंह हमारे कमरे पर रुक गए थे। हम लोगों ने एडजस्ट कर लिया था। उन्हें कोई तकलीफ नहीं हुई थी। आप वहाँ भी चल सकती हैं। या हम लोग वापस चंडीगढ़ की बस में बैठ जाएँ?’’
“प्यार शब्द घिसते-घिसते चपटा हो गया है
अब हमारी समझ में
सहवास आता है।“
ऐसी धाकड़ अकविता लिखने के बावजूद व्यावहारिक स्तर पर मैं बड़ी डरपोक किस्म की खरगोश लड़की थी। रात के बारह बजे एक लगभग अपरिचित लड़के के घर जाकर नामावरी हासिल करने का मेरे अन्दर कतई हौसला नहीं था। उससे बेहतर था कि हम बन्द ‘खैबर’ की सीढ़ियों पर बैठ निर्मल की ‘परिन्दें’ की समीक्षा करते।
कई युक्तियाँ सोची गई।
धर्मशाला ?
होटल ?
रेलवे स्टेशन का वेटिंग रुम?
पर कहीं भी जाने को कोई भी वाहन उपलब्ध नहीं था।
हम एक खाली ऑटोरिक्शे में बैठ गए जो बस अड्डे पर खड़ा था। उसका मालिक ठंड से घबराकर कहीं दुबका हुआ होगा।
हम बहुत थक चुके थे।
ऑटोवाला घंटे-भर बाद आया। ठंडे पड़े ऑटो को उसने किक मार कर जगाया और खड़-खड़-खड़ चल पड़ा।
अंधेरे में रास्ता क्या, शहर भी अपरिचित लग रहा था।
मैंने अपने को ऐसी बस्ती में पाया जहाँ सड़क के दोनों ओर मकानों की कतारें थीं लेकिन कहीं रोशनी या जीवन का कोई चिन्ह नहीं था।
ऑटो ड्राईवर पैसे लेकर चला गया
रवि ने मेरी अटैची थाम रखी थी। एक दरवाज़े पर काफी देर खटखटाने पर किसी ने खोला जो हमारे आगे-आगे सीढ़ी चढ़ गया।
यह हमदम था, रवि का चित्रकार दोस्त और रूम पार्टनर।
हमदम ने अपनी रजाई समेटी और बगल के कमरे में चला गया।
रवि ने तुरन्त बिस्तर की चादर ठीक से बिछाई, रजाई पैताने रखी और बताया- ‘‘बाथरुम बाहर बालकनी में है।’’
बाथरुम में न रोशनी थी न पानी। अतः जैसी गई वैसी ही लौट आई।
तब तक रवि जमीन पर खेस बिछाकर लेट गए थे।
थकान और नींद ने समस्त चेतना सुन्न कर रखी थी।
मैं बिस्तर पर लेटते ही सो गई, गहरी स्वप्नविहीन नींद।
बहुत रात गए ऐसा महसूस हुआ कोई मेरे बालों को छू रहा है।
मेरे होंठ कह रहे हैं- ‘‘तुम्हें ठंड लग रही होगी।’’
पता चला हम दोनों काँप रहे हैं।
सिर्फ ठंड से नहीं।
रात के उन थोड़े से घंटों में हम एक-दूसरे के कोलम्बस हुए। उस वक्त हमने नए देश-देशान्तर नहीं ढूँढे किन्तु तटबन्ध पहचान लिए।

सन्दीप तोमर: कब लगा कि रवीन्द्र एक जीवन साथी के रुप में उपयुक्त है ? आपने अपने फैसले से खुद को कितना संतुष्ट पाया ?
ममता कालिया: साहित्य और साहित्यकारों की चर्चा करते-करते हमने पाया कि हम एक ही दुनिया के बाशिंदे हैं। दोस्ती और प्रेम ने जीवन को नायक और नवरंग दिया, लेकिन विवाह ने नागवार चौखटे दिए। अब तक की हमारी दोस्ती में बराबरी थी और बेफिक्री। मैं कभी भविष्य की चिन्ता करती, तो रवि एक चुंबन से उसे उड़ा देते। हिन्दुस्तानी प्रेम कथाओं का जो हश्र होता है, वह हमारा भी हुआ। प्रेम में हम अकेले थे, लेकिन शादी की अगली सुबह से परिवार हमारे ऊपर पाषाण की तरह गिरा। हमारा संबंध केवल दो कलाकारों का संबंध नहीं था वरन दो संस्कृतियों का भी सक्रांति बिन्दु था।
संबंधों से संतुष्टि ऐसे नहीं होती जैसे भोजन की थाली से होती है।उसमें नोक-झोंक, वाद-विवाद और मतभेदों की उपस्थिति अनिवार्य होती है।साहित्य के अलावा व्यावहारिक जीवन में मैं और रवि दो ध्रुव थे। लेकिन हमारे बीच की सब से बड़ी कड़ी वोगहरा आकर्षण और आहलाद था, जो हमें एक दूसरे से मिलता था।

सन्दीप तोमर: विवाह पूर्व और विवाह पश्चात एक लेखक के साथ जीवन जीने में क्या अंतर आता है ? आप इस अंतर को किस रुप में देखती हैं?
ममता कालिया: प्रेमी का पति बन जाना जहाँ जीवन में नये रंग लाता है, वहाँ संकट भी कम नहीं लाता। दोस्ती के दिनों में मैंने कभी जानने की कोशिश नहीं की कि रवि को कैसा भोजन पसंद है अथवा नाश्ता। वे लॉण्ड्री से धुलें कड़क कपड़े पहनकर मुझसे मिलने कनॉट प्लेस आया करते थे और मैं भी अपनी कलात्मक साड़ियां पहनकर मिलने जाती थी। मुझे घर के कामों का कोई प्रशिक्षण नहीं मिला था। शादी के बाद घरेलू अनिवार्यताओं ने मुझे बहुत जकड़ा। रवि को मेरे हाथ का बनाया हुआ भोजन अखाद्य लगता था और मुझे उनका लगातार सिगरेट पीना, लेकिन प्रेम अपनी जगह था, इसलिए मैंने बहुत जल्द पंजाबी खाना बनाना सीख लिया। सिगरेट का धुआँ मुझे अच्छा लगने लगा।

सन्दीप तोमर: आप लेखन की ओर कब मुड़ीं? या फिर छात्र जीवन से ही लेखन में रुचि थी ?
ममता कालिया: लेखन ऐसी प्रक्रिया है, जो दिनांक और क्रमांक के साथ शुरु नहीं होती। लड़कपन में बच्चों की कहानियां, कविताएं लिखीं। इंदौर में मैंने कविताएं लिखनी शुरु कीं। बी.ए. प्रथम वर्ष तक आते-आते मेरी कविताएँ ‘नयी दुनिया’और ‘जागरण’में हर रविवार छपती थी। अजमेर से निकलने वाली पत्रिका ‘लहर’ के संपादक प्रकाश जैन और ज्ञानोदय के संपादक शरद देवड़ा ने आग्रह करके मुझसे गद्य लिखवाया और मैं कहानियाँ लिखने लगी।

सन्दीप तोमर: साहित्य में आपका सामना किन लोगों से पड़ा? रवीन्द्र जी के अलावा आप किन रचनाकारों के साहित्य से प्रभावित हैं?
ममता कालिया: इत्तेफाक से मुझे साहित्य में सज्जन ही मिले। रवि को जानने से पहले मेरी पारिवारिक पृष्ठभूमि ऐसी थी कि बड़े-से-बड़े रचनाकार को मैं देख और पढ़ सकी। जैनेन्द्र कुमार, अज्ञेयजी, मुक्तिबोध, चन्द्र किरण सौनरेक्सा, महादेवी वर्मा, मार्कण्डेय, अमरकांत, ये सब मेरे पथ को प्रशस्त करते गये। रवीन्द्र कालिया के लेखन से लगाव तो मेरा बहुत है, लेकिन उनके साथ अन्य अनेक रचनाकार मैं ढूंढ-ढूंढकर पढ़ती हूँ। नामों की फेहरिस्त बहुत लंबी हो जाएगी। संक्षेप में ये कह सकती हूँ कि मैं इन्हें पसंद करती हूँ लेकिन इनसे प्रभावित नहीं हूँ। जैसे मैं रेणु, निराला और दिनकर से प्रभावित हूँ, लेकिन वैसा लिख नहीं सकती। सीधे समकालीन समय पर आयें तो मैं कहूँगी कि मुझे मन्नू भंडारी, गीताजंलि श्री, ज्ञानरंजन, विनोद कुमार शुक्ल, जितेन्द्र भाटिया, विजय कुमार, अरुण कमल, कृष्ण कल्वित, ज्ञानेन्द्रपति, नीलेश रघुवंशी, वंदना राग, नीलाक्षी सिंह, अखिलेश, मनोज पाण्डे, मनोज रुपड़ा, पल्लव, अरुण होता, राजाराम भादू, पंकज चतुर्वेदी, पंकज मित्र, गीताश्री, आकांक्षा पारे इत्यादि और सन्दीप तोमर भी पसंद हैं।

सन्दीप तोमर : अमूमन ऐसा होता है कि युवावस्था में अधिकांश रचनाकार कविता लेखन करते हैं, अगर मैं गलत नहीं हूँ तो आपने भी अपनी लेखन यात्रा को कविता से ही शुरु किया, फिर कहानी और उपन्यास इत्यादि की ओर कैसे झुकाव हुआ?

ममता कालिया: जैसे रेल पटरियाँ बदलती है वैसे ही लेखक का दिमाग कई पटरियों पर चलता है।हम लाख गद्य की ओर मुड़ें, कविता की लय हमारी भाषा में अन्तरचिन्हित होती है। कहानी-उपन्यास लिखने के बावजूद मुझे कभी नहीं लगा कि मैं कविता से दूर हूँ।अच्छे कवियों की रचनाओं में कथा-तत्व प्रबल होता है। जैसे नागार्जुन, धूमिल और विनोद कुमार शुक्ल।

सन्दीप तोमर: जब आपने लिखना शुरु किया, तब के माहौल और आज के माहौल में तकनीकी रुप से बहुत अंतर आया, इस बदलाव के बीच बतौर लेखिका आपको कुछ कठिनाइयों का सामना करना पड़ा ?

ममता कालिया: एक कठिनाई बस यह रही कि अब सब टाइप की हुई रचनाएं चाहते हैं। जब कि मैं हाथ से लिखती हूँ और आज भी हस्तलिखित आलेख को बहुत महत्व देती हूँ।

सन्दीप तोमर : आपने 200 के आसपास कहानियाँ लिखी, संतुष्ट हैं या अभी लगता है कि जो लिखा जाना था वह अभी कलम से दूर है?

ममता कालिया: जब तक जीवन है, तब तक कहानी संभव है। आप बार-बार संतोष की बात क्या करते हैं। एक लेखक कभी संतुष्ट नहीं होता। संतोष एक मरणोपरांत शब्द है।

सन्दीप तोमर:‘बोलने वाली औरत’की वह औरत कौन है और उसका असल स्वरुप क्या वही है जो कहानी में वर्णित है? अमूमन ऐसा होता है- जब रचनाकार पोपुलर होने के चलते असल पात्र के स्वरुप को मांझता है।

ममता कालिया: बोलने वाली औरत आज के समय की बदलती हुई औरत है, जो अपनी असहमति दर्ज करती चलती है। इसमें पापुलर होने का क्या सवाल है? हम तो पॉपुलेरिटी खोने का खतरा उठा रहे हैं।

सन्दीप तोमर: अंग्रेजी की शिक्षिका और हिन्दी साहित्य में लेखन दोनों बहुत भिन्न हैं ? ये अनायास ही है या किसी विशेष योजना के तहत ऐसा हुआ?

ममता कालिया: भाषाओं में कोई विरोध नहीं होता। हर हिन्दुस्तानी ये दोनों भाषाएं जानता है। मैं अक्सर कहती हूँ कि अंग्रेजी मेरी नौकरी की भाषा है और हिन्दी हृदय की।

सन्दीप तोमर: पाखी में रवीन्द्र पर आपने सीरिज में संस्मरण लिखें, जहाँ आपने आत्महत्या के प्रयास का जिक्र किया, क्या इस तरह का लेखन उनकी लेखकीय छवि पर प्रभाव नहीं डालेगा? फिर इस तरह के लेखन से क्या लेखक पतियों के नाकामयाब पति होने की छवि नहीं बनती?

ममता कालिया: जब हम लिखने बैठते हैं, तो अपनी या दूसरों की छवि की चिन्ता नहीं करते। रविकथा लिखना कोई लीपापोती कार्यक्रम नहीं था।रवि भी एक मनुष्य थे, देवता नहीं। लेखक पति समझदार होता है, दुनियादार नहीं।

सन्दीप तोमर: एक वेबिनार में रवीन्द्रजी पर बहुत आरोप किसी व्यक्ति ने लगाये, आपने सोशल मीडिया पर रविन्द्र के बचाव में काफी कुछ लिखा, ये बचाव बतौर पत्नी था बतौर लेखिका ? ये भी बताइए कि इस तरह का बचाव क्या लेखक पत्नी को करना चाहिए?

ममता कालिया: इस प्रसंग में मुझे कुछ भी याद नहीं।

सन्दीप तोमर- : रवीन्द्र ने एक जगह लिखा है कि ममता ने बोल्ड किस्म की कविताएँ लिखकर तमाम लेखकों का ध्यान आकर्षित कर लिया था, यह वाक्य कई सवाल छोड़ताहै, एक- रविन्द्र इसलिए पसन्द करते हैं कि कविताएं बोल्ड लिखी, दो-कवयित्री लेखकों के ध्यानकर्षण के लिए बोल्ड कविताएँ लिखती थी, तीन बोल्ड किस्म ? आप क्या कहना चाहेंगी ?

ममता कालिया: सातवें दशक में बोल्ड कविताएं लिखना बहुत सामान्य बात थी। मुझसे भी ज्यादा बोल्ड कविताएं राजकमल चौधरी, सौमित्र मोहन और जगदीश चतुर्वेदी लिख रहे थे। रवि के कमेंट में मेरे प्रति विस्मय और आकर्षण निहित है। आप कोई अन्य भाव देख रहे हैं, तो यह आपकी समस्या है।

सन्दीप तोमर: सपनो की होम डिलीवरी में कैसी डिलीवरी है ? कुरियर, या डोर टू डोर सर्विस टाइप कुछ ? शायद इसमें लिव-इन रिलेशन पर भी लिखा गया है?

ममता कालिया: यह सपनों की डिलीवरी न कुरियर है न डोर-टू-डोर। एक परिवार बड़े संघर्षों से सुख के मुकाम तक पहुंचता है। राह में बहुत-सी टूट-फूट होती है। वर्तमान समय में लिव-इन रिलेशनशिप कोई असंभव घटना नहीं है।

सन्दीप तोमर: लिवइन रिलेशन की बात हुई तो इस विषय पर आपके क्या विचार हैं, आपने लेखन को एक लम्बा काल-क्रम दिया है, कितने ही बदलाव इस बीच आये, लेखन के ट्रेंड बदले, विषय-वस्तु बदली, क्या कहेगी आप?

ममता कालिया: लिव-इन-रिलेशनशिप शब्द को आप षडयंत्र की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं।जबकि यह निरुपायता से पैदा हुआ एक विकल्प है। अविवाहित लड़के-लड़कियों को मकान नहीं मिलता। अगर वो अपने निवास की समस्या का समाधान ढूंढते हैं, तो उसे लिव-इन-रिलेशन नहीं कहा जायेगा। कालातर में साथ रहते-रहते ये नजदीक आ जाएं, तो यह एक सहज मानवीय प्रक्रिया है।देश काल के अनुसार साहित्य में विचार और विषय बदलते रहते हैं। लेखक उनसे निरपेक्ष कैसे रह सकता है ?आज मुझे कोई आँसू छाप रचना लिखने को कहे तो मैं नहीं लिख सकूँगी।

सन्दीप तोमर: लिव-इन-रिलेशनशिप शब्द को मैं बिलकुल भी षडयंत्र की तरह इस्तेमाल नहीं कर रहा हूँ, जिक्र आया तो सवाल उठा, खैर; नए जमाने में नयी लेखिकाएं नारीवाद को नए तरीके से परिभाषित कर रही है, नीलिमा चौहान ‘पतनशील पत्नियों के नोटस’लिखती हैं तो अन्य भी नए शिल्प के साथ नए विषय उठाती हैं, आपकी समकालीन चित्रा मुदगल इस तरह के लेखन पर आपत्ति करती हैं, आप इस विषय पर क्या विचार रखती हैं ?

ममता कालिया: सातवें, आठवें दशक की क्रान्तिकारिता के आगे यह तो पिद्दी संस्करण लगते है। उग्रता, आक्रामकता और आत्म-सरोकार के साथ साथ उसमें तार्किक विचार, गंभीर विवेक और संभव जीवन का स्वप्न भी होना चाहिए।
नीलिमा चौहान की पुस्तक ‘पतनशील पत्नियों के नोटस’ मुझे पसंद आई। उसमें व्यंग्य का तेज़ तड़का डाला गया है। वे लाख अपनी सीनियर लेखिकाओं से मुक्ति का दावा करें, उनकी पुस्तक का शीर्षक तक मुझ से प्रभावित है। लोग अभी मेरे उपन्यास ‘एक पत्नी के नोटस’ को भूले नहीं है। चित्रा मुदगल ने जाने किस रौ में यह हुंकार भरा दावा कर डाला कि ‘नीलिमा चौहान क्या खाकर लिखेंगी जो मैंने लिख डाला।’ इसे उनका एक गब्बर मोमेंट ही माना जा सकता है।
मैं नई लेखिकाओं के प्रति बहुत आशान्वित हूँ और मानती हूँ वे समाज को बेहतर सोच के लिए तैयार करेंगी और ऐसा कुछ लिखेंगी जिससे समाज में स्त्री का शोषण, उत्पीड़न और अन्याय कम हो।

सन्दीप तोमर: आपके समय में प्रेम विवाह भी बहुत मुश्किल और जोखिम वाला मुद्दा था, अभी की लड़कियां लिव इन रिलेशन को स्वीकारती भी हैं और उसके ऊपर लेखन भी करती हैं, इस बदलाव के पीछे कौन सी शक्ति काम करती है ?

ममता कालिया: इतना पुरातन नहीं था हमारा समय। हम दोनों बहनों ने प्रेम विवाह किए। हमसे पहले शरद जोशी और इरफाना सिद्दीकी हंगामा छाप प्रेम विवाह कर चुके थे। जैसे-जैसे लड़कियों के रोज़गार के अवसर बढ़े, उनके सामने घर से दूर रहने की समस्या सामने आई। ठीक यही सवाल उन लड़कों के सामने उठा जो घर से दूर नौकरी करने लगे। एक खालिस रिहायशी इंतजाम कभी कभी लिव इन रिलेशनशिप में तब्दील हुआ। हमेशा नहीं। नौकरी और रोज़गार हर मनुष्य को साहस और निर्भीकता देता है। इस संबंध में प्रेम विवाह से ज्यादा जोखिम है परंतु जोखिम कहां नहीं है। अकेले रहने में भी जोखिम कम नहीं।लड़कियाँ सहजीवन को अगर लेखन में उठा रही हैं तो यह यथार्थ का ही एक पहलू है।

सन्दीप तोमर: इन बदलावों में पुरुष कहाँ है ?
ममता कालिया: पुरुष साथ है किन्तु थोड़ा पीछे। शिक्षा, रोजगार और आत्मनिर्भरता के इस परिवर्तनकामी दौर में स्त्रियों ने पुरुषों से ज्यादा प्रगति की है। इस दौरान उनके हिस्से हिंसा भी ज़्यादा आई है।

सन्दीप तोमर: गीताश्री सरीखी लेखिकाओं को बोल्ड लेखन में सीमित करने का प्रयास आलोचक करते हैं, आपकी नजर में बोल्ड लेखन क्या है और इसके जोखिम क्या हैं ? आलोचक आज के समय में क्या अपना दायित्व पूरा कर पा रहा है ?

ममता कालिया: अकेली गीताश्री नहीं, अनेक लेखिकाएँ मौजूदा दौर में बेबाक ढंग से लेखन कर रही हैं। सीमाओं के सड़े गले चौखटे उन्होंने खारिज कर दिए हैं। सेक्स उनके लिए कोई जघन्य विषय नहीं है। गीताश्री लेखन में आने से पहले 25 साल पत्रकारिता के इलाके में काम कर चुकी है। वह जनता की नब्ज़ पहचानती है। वह नए नए विषय चुनती है। और इस समय अपनी रचनात्मकता के शिखर पर है। उसकी भाषा कई बार अटपटी हो जाती है किन्तु विषयगत चयन और अध्ययन पूरा होता है। इस दौर की अन्य प्रखर रचनाकार नीलाक्षी सिंह, वंदना राग, प्रत्यक्षा, आकांक्षा पारे, रोहिणी सब बहुत अच्छा लिख रही हैं। बोल्ड शब्द भी धीरे धीरे कोल्ड होता जा रहा है। कल तक जिसे आप बोल्ड मानते थे आज पालतू विषय हो गया है। स्त्री-पुरुष संबंधों की हर कोण से पहचान, उनकी जटिलता की शिनाख्त और समाज के रंग बदलते चेहरे का अनुसंधान ही आज के बोल्ड विषय हैं जो उठाए जाने चाहिए। आधुनिक समय में सबसे ज्यादा निराश आलोचक ने किया है। वह धीरे धीरे प्रस्तोता और प्रशस्तिवाचक बनता जा रहा है। कुछ एक ही आलोचक हैं जो खरी खरी बोलने से नहीं डरते जैसे रोहिणी अग्रवाल, पल्लव, राजाराम भादू हेतु भारद्वाज इत्यादि।

सन्दीप तोमर: अभी एक मुद्दा बड़ा सुर्खियों में रहा- ‘गैंगवार’ आपको लगता है ये माफियाओं का ईजाद किया टर्म साहित्य के अनुकूल है ? क्या आपको लगता है कि आपके समकालीन या अभी के रचनाकारों में गैंगवार जैसा कुछ है ?
ममता कालिया: गैगवार साहित्य के लिए अनुपयुक्त शब्द है। सवाल वर्चस्व से ताल्लुक रखता है। साहित्य में ऐसी स्थिति नहीं आयेगी क्योंकि यहां जो रचेगा वह बचेगा। बाकी तो लायब्रेरी की आलमारियों में धूल चाटेंगे।

सन्दीप तोमर: रवि कथा के बारे में कुछ बताएं, इस तरह के लेखन की जरुरत क्या है? अगर कोई अन्य रवि कथा लिखे, और एक पत्नी लिखें, दोनों में क्या ज्यादा प्रभावी और औचित्यपूर्ण लगेगा ?

ममता कालिया: आपके सवाल में एक सामंतवादी स्वर है जिसको मैं नकारती हूँ। किसी भी किताब को लिखने की क्या जरुरत होती है। ऐसे तो संसार बिना किताबों के भी सुख से जी सकता है। खाओ, पिओ और पशु-नींद में लुढ़क जाओ। किताब लिखने की इच्छा व जरुरत आतंरिक होती है। मैंने लिखी रविकथा। कोई और लिखे तो मैं उसे हथकड़ी तो नहीं लगा दूंगी। लिखता रहे। लेखन के लिहाज से रवि और मैं पति-पत्नी बाद, में पहले साथी और दोस्त थे जो एक दूसरे की तमाम ज़रुरतें समझते थे। शुरुआत में ‘तद्भव’ त्रैमासिक पत्रिका के सम्पादक और मित्र अखिलेश के कहने पर रविकथा के दो अध्याय लिखे।
यह अखिलेश का पुराना फॉर्मूला है। वह जब मुझे परेशान हाल देखता है। मेरा ध्यान कुछ लिखने में लगा देता है। एक एक कर कितनी किताबें अखिलेश के इसरार पर मैंने लिख डाली।‘कितने शहरों में कितनी बार’,‘दौड़, रविकथा’ और अब ‘छोड़ आए जो गलियाँ’। अखिलेश जैसा सम्पादक भी हिन्दी जगत में अकेला है जो खान-पठान की तरह रचना वसूलता है। जब 2016 की गर्मियों में अखिलेश ने कहा ‘ममताजी आप कालियाजी पर लिखिए।’ मैं तन मन से अस्वस्थ थी। मैंने कहा, ‘नहीं अखिलेश मुझसे नहीं लिखा जायेगा।’
‘आप शुरु कीजिए। कोशिश कीजिए।’अखिलेश ने कहा।
दरअसल यह अखिलेश की मुझे वापस मेरे अपने संसार में लौटाने की कोशिश थी। तद्भव में सिर्फ दो अध्याय लिखे। वह मुझे समझता है। सफर शुरु करवा दिया कि अब मैं चलती जाऊँगी।

सन्दीप तोमर: लोग नामवर सिंह को सदी के सबसे बड़े आलोचक मानते हैं, आपकी क्या राय है ? लेकिन अभी देखने को मिलता है कि हर लेखक खुदको ही आलोचक की भूमिका में समझता है, क्या इस तरह की प्रवृत्ति को आप साहित्य में उचित मानती हैं ?

ममता कालिया: निश्चित रुप से नामवरसिंह हमारे समय के सबसे अधिक शिक्षित, जागरुक और सावधान आलोचक थे। उन्होंने साहित्य में प्रगतिशील परम्परा को जीवित रखने के लिए अथक परिश्रम किया। दो-चार बार वे विचलन के शिकार हुए अन्यथा उनकी दृष्टि सम्यक और साम्यवादी ही रही।
इक्कीसवीं सदी में अभी तक साहित्य की आलोचना का वैभव सिर उठाकर सामने नहीं आया है। लेखक भी इतने आत्मविश्वासी हो गए हैं कि उन्हें आलोचकों की परवाह नहीं रही है। डिजिटल माध्यमों ने गंभीर आलोचना का जहाज डुबो दिया है। कमेंटस के रुप में आलोचना आने लगे उसे आप क्या कहेंगे।

सन्दीप तोमर: क्या ये माना जाए कि अब साहित्य में आलोचक हाशिए पर खड़ा है, उसकी भूमिका को रचनाकार मात्र प्रचारक के रुप में देखते हैं ?

ममता कालिया: इतनी जल्द हम निर्णय नहीं ले सकते। दरअसल आलोचक को स्वयं गंभीर होकर साहित्य का अध्ययन करना होगा, गुटबंदी से परे हट कर उसका समय-सजगता के साथ आकलन करना होगा और नेतृत्व का दायित्व संभालना होगा। आलोचक प्रचारक तो कतई न बने अन्यथा वह तबलची बन कर रह जायेगा।

सन्दीप तोमर: आगामी लेखन की योजनाओं के बारे में कुछ बताइए, क्या प्लान है आगे ?

ममता कालिया: इरादे मेरे हमेशा बहुत बुलन्द रहते हैं। समय मेरे पास कितना बचा है यह मैं भी नहीं जानती। अभी तक कई बीमारियों, हादसों और महामारी की चपेट से बची हुई हूं। अपने दो कमरों के एकान्त में पढ़ने लिखने के अतिरिक्त अन्य कोई काम नहीं है। कोरोना ने हमें इतना जी-भर एकान्त दे दिया है कि जो मर्ज़ी करो, कोई प्रतिबन्ध नहीं। जब मर्ज़ी सो जाओ, जब मर्जी जाग जाओ। जब चाहो फेसबुक पर अपना ज्ञान बघारो, जब मर्जी वॉटसएप की गॉसिप पढ़ो, गढ़ो।
यकायक याद आते हैं वे वादे जो दोस्तियों में दोस्तों से कर रखे हैं और मैं आधी रात में उठ कर कागज कलम ढूंढने लगती हूँ। एक कहानी, एक उपन्यास अधूरा क्या चौथाया हुआ है। शेषकथा लिखने का इरादा भी है। बहुत सी नई किताबें आई हुई हैं। सब पढ़नी हैं।

सन्दीप तोमर : चलते-चलते, प्रकाशकों की बदलती भूमिका और मंशा पर कुछ टिप्पणी ?

ममता कालिया: सन्दीप तोमर यह चलते चलते पूछने वाला सवाल नहीं है। दूसरी बात आपने केवल प्रकाशकों पर फोकस किया सम्पादक क्यों छोड़ दिए।
प्रकाशकों की भूमिका, महत्व और मंशा पर तो पूरा पोथा लिखा जा सकता है। इलाहाबाद में अपने प्रकाशक श्री दिनेशचंद्र ग्रोवर को मैं जब तब चिढ़ाती थी कि एक दिन मैं एक संस्मरण-पुस्तक लिखूँगी ‘मेरे सम्पादक, मेरे प्रकाशक’।
वे हँसते थे ठहाका मारकर। वे कहते मैं सोचता हूँ मैं भी लिख लूँ,
‘मेरे लेखक, मेरी लेखिकाएँ।’
सन 1980 की बात है शायद। इलाहाबाद से जब भी मैं दिल्ली आती, नंदन जी के यहां जरुर जाती। वे भी हमारे पूरे परिवार से स्नेह करते थे। गर्मी हो या सर्दी, समय और दूरी कितनी भी हो, मेरा उनके यहाँ जाना लाज़िमी था। बच्चे भी उनके पास पहुँचकर खुश होते। एक बार मैं उनके यहाँ गई तो वहाँ पहले से मणि मधुकर और उनकी नवेली पत्नी रचना मणि बैठी हुई थीं। नंदनजी नहाकर आए बड़े स्मार्ट और तर-ओ-ताजा लग रहे थे। जब वे गुसलखाने से निकलकर कमरे की तरफ गए मणि मधुकर ने मस्ती से कहा, नंदनजी आज तो हमने आपको दिगम्बर देख लिया।’
नंदनजी हंसने लगे। उन्होंने बड़ा सा टर्किश टॉवेल कमर से लपेटा हुआ था। शांति भाभी ऐसे लतीफों से थोड़ी अस्थिर हो जाती थीं। नंदनजी भी पत्नी के लिहाज में ऐसी बातों को बढ़ावा नहीं देते थे।
मेरी तब तक कई किताबें कई प्रकाशकों से छप कर आ चुकी थीं। नंदनजी ने खाने की मेज़ पर मुझसे कहा, ‘अगले महीने से तुम्हारा कॉलम चाहिए। हर हफ्ते। पक्का वायदा करो। कालिया की सीरीज़ इस महीने पूरी हो जायेगी।’ मैंने हाँ कर दी बिना सोचे समझे कि साहित्यिक कॉलम लिखने में कितनी मशक्कत पड़ेगी। मैं पहले ही तीन पत्रिकाओं में कॉलम लिख रही थी। अचानक मणि मुधकर ने मुझसे कहा, ‘ममता इसकी क्या वजह है कि आप हर बार अपना संपादक और प्रकाशक बदल लेती हैं?’
मैंने रचना की तरफ देखा। फिर मणि मधुकर की तरफ और कहा, ‘सम्पादक और प्रकाशक ही बदलती हूँ पति और प्रेमी, नहीं’।

साक्षात्कारकर्ता
सन्दीप तोमर
नई दिल्ली ,भारत

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